हिंदी माध्यम नोट्स
राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना किसने की थी | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कब हुई थी national congress established by in hindi
national congress established by in hindi राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना किसने की थी | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कब हुई थी ?
भारत में स्वाधीनता और स्वाधीनता उत्तर राजनैतिक आंदोलन
उन्नीसवीं शताब्दी के आखिर में भारत में स्वाधीनता के लिये राजनैतिक आंदोलन का आरंभ हुआ। 1885 में आक्टेवियस हयूम ने विचार-विमर्श और बहस के लिए राष्ट्रीय कांग्रेस के रूप में एक राजनैतिक मंच की स्थापना की।
स्वाधीनता आंदोलन की सामाजिक पृष्ठभूमि
कांग्रेस के अधिकांश सदस्य शहरी शिक्षित वर्ग के थे। 1885-1917 तक इसका स्वरूप मध्यमवर्गीय बना रहा। गांधीजी के आगमन से कांग्रेस एक जनसाधारण की राजनैतिक पार्टी बन गई जिसके अधिकांश प्राथमिक सदस्य शहरी व्यावसायिक, किसान, दस्तकार और औद्योगिक मजदूर थे। देखा जाए तो भारत के बुद्धिजीवियों को अलग से राजनैतिक मत बनाने या स्वाधीनता के लिए संघर्ष के लिए इतने अत्याचार नहीं झेलने पड़े जितने कि अन्य देशों में लोगों को झेलने पड़े थे। फिर भी स्वदेशी आंदोलन, असहयोग आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन आदि के दौरान अनेक कांग्रेसी नेता और उनके अनुयायी राजद्रोह के अभियोग में जेल गए। बहुत से लोगों को आतंकवादी गतिविधियों में भाग लेने के अभियोग में फांसी भी दे दी गई। फिर भी भारतीय स्वाधीनता संग्राम की विशिष्टता उसका अहिंसात्मक मार्ग था।
सोचिए और करिए 1
रवीन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद, मुल्कराज आनंद, राजाराव, वेंकटरमणी या किसी अन्य प्रसिद्ध लेखक का एक उपन्यास पढ़िए। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि भारत का स्वाधीनता संग्राम होना चाहिए।
उपन्यास पढ़ने के बाद दो पृष्ठों का लेख लिखिए जिसमें निम्नलिखित के बारे में विवेचन हो।
1. उपन्यास में पायी जाने वाली सामाजिक संस्थाएं जैसे परिवार, कानून, राजनैतिक संगठन आदि।
2. उपन्यास के विभिन्न पात्रों की गतिविधियों द्वारा अभिव्यक्त समाज के मूल्यों और मान्यताओं आदि।
यदि संभव हो तो अपने लेख की तुलना अपने अध्ययन केंद्र के अन्य विद्यार्थियों के लेखों के साथ कीजिये।
धार्मिक और राजनैतिक आंदोलनों का संपूरक स्वरूप
राष्ट्रीय कांग्रेस और अन्य राजनैतिक पार्टियाँ सीधे राजनैतिक गतिविधियों में लगी थीं जबकि शिक्षा और सुधार द्वारा धार्मिक आंदोलन अप्रत्यक्ष रूप से इसमें अपना योगदान दे रहे थे। पहले आंदोलन ने राजनैतिक जागृति पैदा की जब कि दूसरे ने आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न की। इस प्रकार दोनों आंदोलनों को एक दूसरे के संपूरक के रूप में देखा जाना चाहिए। अब तक हमने उस सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का विवेचन किया है, जिसमें भारतीय समाजशास्त्र का विकास हुआ। इससे पहले कि हम समाजशास्त्र और उसके मुख्य प्रवर्तकों के विषय में विचार करें, पहले हम उस वैचारिक वातावरण का विवेचन करें जिसमें भारतीय समाजशास्त्र का उदय हुआ।
महिलाओं, कृषकों, अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों से जुड़े राजनीतिक आंदोलन
सामाजिक संस्थाओं और राजनीतिक प्रक्रियाओं के बीच की अंतरूक्रिया से बहुधा ऐसे सामूहिक कार्यों को बढ़ावा मिलता है जो संगठित रूप से संचालित होते हैं। हमने पाया है कि भारत में सामाजिक परिवर्तन लाने की इच्छा से शुरू किए गए अभियानों ने धीरे-धीरे स्पष्ट उद्देश्यों के साथ कार्य-योजना व संगठन वाले राजनीतिक आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया है। आपने देखा होगा कि मौजूदा राजनीतिक ढांचे से असंतुष्ट जनता की बढ़ती अपेक्षाओं के संदर्भ में भारत में कई आंदोलन उठ खड़े हुए हैं (एसे आंदोलनों पर हुए अध्ययनों के लिए देखें कोठारी 1960, बेली 1962 और देसाई 1965)। इस प्रकार के आंदोलनों का मुखर्जी (1977), ऊमन (1977) और राव (1978) जैसे समाजशास्त्रियों ने सैद्धांतिक तथा विवरणात्मक दृष्टि से अध्ययन किया है।
राजनीतिक आंदोलनों के उदाहरणस्वरूप, 1946 से 1951 के बीच हुए तेलंगाना कृषक संघर्ष को आप देखें। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने इस संघर्ष का नेतृत्व किया था (देखें धनागरे 2002)। इसी प्रकार कम्युनिस्ट पार्टी के विभिन्न दलों ने 1960 के दशक में उपजे नक्सबाड़ी आंदोलन को आज तक अपना समर्थन जारी रखा है दिखें बनर्जी 2002 और 2002)। दोनों तेलंगाना तथा नक्सलबाड़ी आंदोलनों का मुख्य ध्येय रहा कि कृषि से जुड़े मौजूदा सामाजिक-संबंधों में बदलाव हो।
भारतीय समाज के सर्वउपेक्षित एवं प्रताड़ित वर्ग अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के तरह-तरह के संघर्षों, विरोध-अभियानों एवं आंदोलनों की कहानी लंबी है। ओमवेट (2001) ने अम्बेदकर के बाद दलित आंदोलन का विशद अध्ययन किया है। दूसरी ओर सिन्हा (2002) और सिंह (2002) ने जनजातीय आंदोलनों पर काम किया है।
भारत में महिला आंदोलन और राजनीति के बीच अंतरूक्रिया कम नहीं है। इस प्रकार के अध्ययनों के लिये देखें लिंगम (2002), जैन (1984 और 1986) और देसाई (1988)। भविष्य में होने वाले क्षेत्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति में उनकी भूमिका के संदर्भ में छात्र आंदोलनों में भाग लेने वाले युवाओं के महत्व को समझा जा सकता है। इस दृष्टि से शाह (2002) तथा गुहा (2002) के अध्ययनों का महत्व बढ़ जाता है। इन तमाम अध्ययनों की चर्चा करने का आशय इनकी ओर केवल आपका ध्यान आकर्षित करना मात्र है। राजनीतिक आंदोलनों को समाजशास्त्र पर स्नातकोत्तर स्तर के पाठ्यक्रमों में विशद् अध्ययन का विषय बनाया जायेगा।
भारत में समाजशास्त्रीय चिंतन की वैचारिक पृष्ठभूमि
भारत में विशिष्ट (elite) वर्ग पर अंग्रेजों के प्रभाव की चर्चा करना यहां उचित है। भारत में सदियों पुरानी एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पंरपरा थी। संस्कृत का ज्ञान विशिष्ट वर्ग की पहचान थी। किंतु भक्ति काल (लगभग उन्नीसवीं शताब्दी से) के दौरान क्षेत्रीय भाषाओं में उच्च स्तरीय साहित्य का विकास हुआ। क्षेत्रीय भाषाओं में साहित्यिक रचना करने की प्रेरणा जिन भक्त कवियों ने दी, या तो वे स्वयं रचनाकार थे या फिर उनके उपदेशों ने साहित्यिक रचनाओं को प्रभावित किया। इस संदर्भ में तुलसीदास (अवधी), सूरदास (ब्रज), कबीर (हिंदी के मिश्रित रूप) शंकरदेव (असमी), चैतन्य महाप्रभु (बंगाली), नामदेव और तुकाराम (मराठी), नरसी मेहता (गुजराती), पुरंदरदास (कन्नड़), नायनार और आलवार (तमिल) आदि कई अन्य नाम गिनाए जा सकते हैं।
भारत के अधिकांश भागों में भक्तजन मुख्य रूप से जनसाधारण के लिए सम्माननीय थे जबकि विशिष्ट वर्ग अब भी संस्कृत से जुड़ा हुआ था और उसे आदर्श साहित्यिक रूप मानता रहा। संस्कृत की रचनाओं के साथ साहित्यिक प्रतिष्ठा जुड़ी हुई थी। यहां तक कि रवींद्रनाथ टैगोर को भी उस पारंपरिक बंगाली विशिष्ट वर्ग का सामना करना पड़ा था जिनकी मान्यता थी की संस्कृत भाषा बांग्ला भाषा से श्रेष्ठ है। लेकिन जब भारत में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बन गई तो ये सारी धारणाएं बदल गई। भारतीय विशिष्ट वर्ग ने तेजी से किंतु आंशिक रूप में अंग्रेजी को अपना लिया। एडवर्ड शिल्स (1961) के अनुसार भारतीय विशिष्ट वर्ग द्वारा अंग्रेजी को अपना लेने के बावजूद भी संस्कृत पर आधारित ब्राह्ममणवादी परंपरा के प्रति उनका मोह बना रहा। दूसरे शब्दों में अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण किए हुए आधुनिक विशिष्ट वर्ग की विज्ञान और तकनीकी की अपेक्षा साहित्यिक और मानववादी परंपराओं में अधिक रूचि थी। विशिष्ट वर्ग पर यह दृढ़ता संस्कृत की पकड़ के कारण ही थी।
परंपरा और आधुनिकता के बीच द्विविधा
कुल मिलाकर, भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग में परंपरा और आधुनिकता के बीच द्विविधा (dilemma) की स्थिति आ गयी थी (देखिये चित्र 4.1ः भारतीय बुद्धिजीवी)। परंपरा का अर्थ है पुराने रीति-रिवाजों, नैतिक मूल्यों तथा आदर्शो आदि का महत्व और आधुनिकता का संबंध तर्क संगति, स्वाधीनता और समानता जैसे पाश्चात्य आदर्शों के प्रभाव से है। परंपरा और आधुनिकता एकदम से विपरीतार्थ तो नहीं हैं किंतु कुछ विद्वानों (जैसे शिल्स 1961) ने इनका प्रयोग पुराने और नये मूल्यों के बीच अंतर दिखलाने के लिये किया गया है। अमेरिका में भारतीय कला के संग्रहालयाध्यक्ष और सामाजिक विचारक आनंद कुमारस्वामी ने आधुनिकता और परंपरा के इन पारंपरिक अर्थों को अस्वीकृत किया है। परंपरा से उनका अर्थ भक्तिवादी प्रथाओं से बिल्कुल नहीं है। परंपरा से उनका मतलब उन आधारभूत मूल्यों से है जो पूर्व और पश्चिम दोनों के लिए सामान्य हैं। इन विचारों के बारे में आपको आगे विस्तार से जानकारी दी जाएगी। प्रतिष्ठित समाजशास्त्री बिनय कुमार सरकार का मत इसके बिल्कुल विपरीत था। उनके अनुसार भारत में परंपरा की जड़ धर्म और आध्यात्मिकता में है। उन्होंने भारत की धर्मनिरपेक्ष शक्ति को दर्शाने का प्रयास किया है। फिर भी सरकार ने पूर्ण रूप से परंपरा को अस्वीकार नहीं किया है। मानव प्रगति के लिए वे भारतीय संस्कृति के धर्मनिरपेक्ष पहलुओं का उपयोग करना चाहते थे।
चित्र 4.1ः भारतीय बुद्धिजीवी
कुछ अन्य बुद्धिवादी
जाने-माने समाजशास्त्री, जैसे लखनऊ विश्वविद्यालय के राधाकमल मुकर्जी और मुबंई विश्वविद्यालय के जी.एस. घुर्ये, स्पष्ट रूप से संस्कृत परंपरा से प्रभावित थे। उनकी दृष्टि में आधुनिकता वह साधन थी जो परंपरा को वर्तमान की जरूरतों के अनुरूप बदल सकती है। इनके विपरीत लखनऊ विश्वविद्यालय के ही जाने-माने समाजशास्त्री, डी.पी.मुकर्जी, आरंभ में मार्क्सवादी थे और कालांतर में उनके विचारों में अंतर आया। उनकी दृष्टि में परंपरा और आधुनिकता के बीच संघर्ष भी था और वे एक दूसरे के पूरक भी थे लेकिन वे मार्क्सवादी आदर्श-समाज (utopian state) की कल्पना से सहमत नहीं थे। कहने का तात्पर्य यह है कि वे आधुनिक भारत के निर्माण में परंपरा के महत्व को भी मानते थे। इन तीनों आरंभिक भारतीय समाजशास्त्रियों के योगदान के बारे में आपको आगे विस्तृत जानकारी दी जाएगी। लेकिन उससे पहले हमें अंग्रेजी राज में भारतीय शिक्षा प्रणाली के बारे में जानना होगा। इसका भारतीय समाजशास्त्र के स्वरूप और विकास पर गहरा असर पड़ा। यह प्रभाव मुख्य रूप से ब्रिटेन में विकसित हुए समाजशास्त्र का था। इसके अतिरिक्त भारत के समाजशास्त्र पर अमेरिका तथा यूरोप के समाजशास्त्र का भी प्रभाव पड़ा इसलिए उस समय में भारत की शिक्षा प्रणाली की रूपरेखा के बारे में जानना भी श्रेयस्कर है।
भारत में आधुनिक शिक्षा की रूपरेखा
भारत में समाजशास्त्र की शिक्षा की रूपरेखा के बारे में संक्षेप में विवेचना करना उचित होगा। उन्नीसवीं शताब्दी में कलकत्ता, मुम्बई, और मद्रास की प्रेसिडेंसियों में विश्वविद्यालय स्थापित किए गए। बड़ौदा, मैसूर, हैदराबाद आदि रियासतों (चतपदबमसल ेजंजमे) में आधुनिक शिक्षा संस्थाएं स्थापित की गई। उच्च शिक्षा में अंग्रेजी और प्राथमिक शिक्षा में क्षेत्रीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया गया। इस शिक्षा का उद्देश्य एक ऐसा शिक्षित वर्ग बनाना था जो अंग्रेजी हुकूमत को चलाने में सहायक सिद्ध हो। प्रशासन और न्यायतंत्र में केवल निम्न पदों पर ही सुशिक्षित भारतीयों की भर्ती होती थी।
कला और विज्ञान के क्षेत्रों में गिने-चुने विषय पढ़ाये जाते थे, जैसे अंग्रेजी, इतिहास, दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र, भौतिक-विज्ञान, रसायन-विज्ञान, वनस्पति-विज्ञान और प्राणि-विज्ञान । बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के बाद ही एक मुख्य विषय के रूप में समाजशास्त्र पढ़ाया जाने लगा।
समाजशास्त्र का विकास इस कारण हुआ कि अंग्रेजी प्रशासकों को भारत के रीति-रिवाज, बोल-चाल के तरीके और सामाजिक संस्थाओं को समझना जरूरी था क्योंकि इससे प्रशासन चलाने में सुविधा होती। इसी कारण अंग्रेजी प्रशासकों ने आरंभ में ही भारतीय जनसमुदाय, प्रजातियों और विभिन्न संस्कृतियों के विषय में व्यापक अध्ययन किये। इसमें से हर्बर्ट रिजले, हटन, विल्सन, लायल, बेंस इत्यादि के नाम लिये जा सकते हैं।
समाजशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन 1914 में मुंबई विश्वविद्यालय में आरंभ हुआ। उस समय के । भारतीय शासन ने समाजशास्त्र पढ़ाने के के लिये अनुदान दिया। उसी वर्ष स्नातकोत्तर स्तर पर समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के पाठ्यक्रम पढ़ाए जाने लगे। 1919 में प्रतिष्ठित जीवविज्ञानी और नगर-नियोजन विशेषज्ञ पैट्रिक गेडिस के नेतृत्व में समाजशास्त्र और नागरिक शास्त्र का विभाग स्थापित किया गया।
1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के पोस्ट-ग्रेजुएट काँउसिल ऑफ आर्टस एण्ड साइंसिज (PostGraduate Council of Arts and Sciences) में सर ब्रजेन्द्रनाथ सील ने समाजशास्त्र का विभाग स्थापित किया। उस समय सील मैसूर विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त किए गए थे। इससे पहले वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक थे। भारत के विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र विषय को स्थापित करने में बी.एन. सील और मैसूर विश्वविद्यालय के ए.आर. वाडिया दोनों की सक्रिय भूमिका थी। कलकत्ता में राधाकमल मुकर्जी और बिनय कुमार सरकार समाजशास्त्र पढ़ाते थे। 1921 में राधाकमल मुकर्जी लखनऊ चले गए। लखनऊ भी कलकत्ता और मुबंई के बाद समाजशास्त्र के अध्ययन का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना। डी. पी. मुकर्जी (मार्क्सवादी समाजशास्त्री) और डी.एन. मजुमदार (नृशास्त्री) की सहायता से उन्होंने लखनऊ को समाजशास्त्र और नृशास्त्र के क्षेत्र में शोध और अध्ययन का प्रभावशाली केंद्र बनाया।
आइए अब पहले बोध प्रश्न 2 के उत्तर लिखें और फिर भाग 4.6 पढ़ें, जिसमें हमने भारत में समाजशास्त्र और नृशास्त्र के उदय के बारे में चर्चा की है।
बोध प्रश्न 2
प) निम्नलिखित वाक्यों में खाली स्थान भरिए।
अ) 1885 में राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना …………………….. ने की थी।
ब) राष्ट्रीय कांग्रेस विचार-विमर्श करने का ………………… मंच माना जाता था।
स) महात्मा गांधी के आगमन से कांग्रेस …………………… की राजनैतिक पार्टी बन गई।
द) धार्मिक-सामाजिक आंदोलनों ने भारतीय जनसमूह में …………….. जगाया जबकि राजनैतिक आंदोलनों ने लोगों में ………….. जागरूकता पैदा की।
पप) बिनय कुमार सरकार के कुछ मुख्य विचारों की पाँच पंक्तियों में व्याख्या कीजिए।
Recent Posts
मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi
malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…
कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए
राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…
हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained
hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…
तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second
Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…
चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi
chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…
भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi
first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…