हिंदी माध्यम नोट्स
मोहम्मद अली जिन्ना कौन थे | Muhammad Ali Jinnah in hindi | मौत कैसे हुई , द्वि राष्ट्र सिद्धांत क्या है
(Muhammad Ali Jinnah in hindi) मोहम्मद अली जिन्ना कौन थे मौत कैसे हुई , द्वि राष्ट्र सिद्धांत क्या है और द्विराष्ट्र सिद्धांत किसने दिया सर्वप्रथम किसने की थी सिद्धांत के प्रतिपादक कौन थे ?
एम.ए. जिन्ना
जिन्ना की क्रियात्मक राजनीति ने उनके राजनैतिक विचारों को सुनिश्चित किया था। इसके विपरीत अबुल कलाम आजाद की राजनीति सिद्धान्त पर आधारित थी।
उदारवाद और जिन्ना
जिन्ना प्रारंभ में ब्रिटेन के उदारवाद से प्रभावित थे। वे अनेक भारतीय उदारवादियों से संबंधित थे जैसे दादा भाई नौरोजी, जी.के. गोखले, एस.एन. बनर्जी और आर.सी. दास। उनका प्रारंभिक उदारवाद उनकी अंग्रेजी शिक्षा से उत्पन्न था साथ ही उस पर भारतीय उदारवादियों का भी प्रभाव था। उनका राष्ट्रवाद, प्रजातंत्र, धर्मनिरपेक्षता तथा देश की अखंडता में अंतिम विश्वास था। उन्होंने डा. असरफ को कहा था ‘‘मेरी कई महत्वपूर्ण ब्रिटेन के उदारवादियों से भेंट हुई….. मैंने उस उदारवाद को ग्रहण कर लिया जो मेरे जीवन का भाग बन गया तथा जिसने मुझे बहुत चमत्कृत किया।’’ उनके उदारवाद का मूलाधार नागरिक आर्थिक, व्यक्तिगत, सामाजिक, धन संबंधी, राजनैतिक और अन्तः राष्ट्रीय स्वतन्त्रता, नैतिक मूल्य और हर व्यक्ति की आध्यात्मिक एकरूपता, मानव व्यक्तित्व की महानता, पक्षपातहीन न्याय व्यवस्था, सस्ती न्याय प्रणाली, पहुँचने योग्य न्यायालय, जातिगत विशेषाधिकारों का अन्त, तथा धन की शक्ति को दूर करना आदि था। संक्षेप उनका उदारवाद स्वतंत्रता, संवैधानिकता, किसी भी तरह के धर्मान्धता का अभाव जो सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन से संबंधित हो ब्रिटिश सरकार से सहयोग, सही कार्यकालय मानक आन्दोलन, कानुन का शासन तथा देश का स्वतंत्रता का पक्षधर था। वे किसी आन्दोलन के गैर संवैधानिक तरीकों के हिमायती नहीं थे। उनका मानना था कि असहयोग आन्दोलन एक गैर उदारतावादी आन्दोलन था।
वे ब्रिटिश शासन की धनात्मक देन को स्वीकार करते थे। उनका विश्वास था देश भक्ति की भावना जैसे धनात्मक विकास तथा राष्ट्रीयता की भावना के विकास का कारण ब्रिटिश सरकार के दृष्टिकोण एवं नीतियों का फल था। स्थानीय स्वायत्त शासन की प्रजातंत्रीय संस्थाओं में उनका विश्वास था। उनकी मान्यता के अनुसार, सरकार जनता की आलोचना के ऊपर नहीं हो सकती। सभ्य सरकार का पता इसी बात से लगता है कि वह जनमत को कितना आदर प्रदान करती है। अगर सरकार गैर प्रजातंत्रीय ढंग से काम करती है तो इसका प्रतिफल क्रांति होती है। पर वे लोगों को विद्रोह का अधिकार नहीं देना चाहते थे। वे प्रजातंत्र के संस्थापन के पक्षधर थे। पर वे मानते थे कि यह उन्हें भेंट की तरह नहीं किन्तु एक अधिकार के रूप में मिले। जिन्ना ने उदारवाद से एक महावर्ग के वक्ता के रूप में नाता जोड़ा था। उनके अनुसार मध्यम वर्ग जनता के आन्दोलन में उचित स्थान नहीं रख सकता। जिन्ना ने इस बात का अनुभव किया कि गांधी और मोहम्मद अली के उभरने के बाद जन वर्ग ने राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। उन्होंने अनुभव किया कि जनवर्ग को शामिल करने से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदार चरित्र प्रभावित हुआ है। इसलिये उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को छोड़ दिया तथा पूर्व में उन्होंने जो कुछ कहा था उसी का विरोध करने लगे। सन् 1920 जिन्ना की राजनैतिक सूझबूझ का विभाजक वर्ष था।
उदारवादी अवधि में उनका राजनैतिक दृष्टिकोण धर्म-निरपेक्ष था। वे इस बात पर जोर देते थे कि लोगों को धार्मिक भेदभावों को भुला देना चाहिये। धर्म को राजनीति मे अलग कर दिया जाना चाहिये। उनका कथन था कि सभी समुदायों का सहयोग मातृभूमि के लिये आवश्यक है। अगर भारत के लोग धार्मिक भेदभावों को भला दें तभी वास्तविक राजनैतिक मताधिकार, स्वतंत्रता और स्वायत्त शासन के वे योग्य हो सकते हैं। वे अलीगढ़ आन्दोलन (सर सैयद अहमद खान) से सहमत नहीं थे कि अगर ब्रिटेन के लोग देश को छोड़कर चले जायेंगे तो हिन्दू राज स्थापित हो जायेगा। वे गांधी से धर्म को राजनीति में मिलाने के प्रश्न पर असहमत थे। उन्होंने खिलाफत आन्दोलन को भी सहायता नहीं दी थी क्योंकि वह धर्म को राजनीति में मिलाता था।
राष्ट्रवाद
जिन्ना के अनुसार भारत में राष्ट्रवाद औपनिवेशिक नीतियों का प्रतिफल है जैसे भारत को एक राजनैतिक और सामाजिक इकाई मानना एवं अंग्रेजी शिक्षा का विस्तार। वे हिन्दू और मुसलमानों के मध्य एकता पर जोर देते थे। भारत की एक ही राष्ट्रीयता है। यह राष्ट्रवाद एक उदार और धर्म-निरपेक्ष राष्ट्रवाद है। वे देशभक्ति को धर्म में समाहित नहीं करते थे। वे सर्व-इस्लामावाद को भारतीय मुसलमानों के लिए एक गंभीर सिद्धान्त नहीं मानते थे। अपने जीवन के प्रारंभिक काल में जिन्ना ने हिन्दू-मुसलमानों की एकता के लिए प्रयत्न किया। उनके अनुसार ‘‘काल्पनिक प्रतिद्वन्द्विता जो कि हिन्दू और मुसलमानों के मध्य थी वह समस्याओं से उनका ध्यान बंटाने मात्र को भी तथा सुधारों को विचलित करने के लिये थी। जिन्ना जब 1904 में बंबई गोपालकृष्ण गोखले से मिले तो उनसे प्रभावित हुए। वे गोखले से इतने प्रभावित थे कि उनका कथन था कि वे इस बात की महत्वाकांक्षा रखते हैं कि वे ‘‘मुस्लिम गोखले’’ बनें।
सरोजनी नायडू के अनुसार, जिन्ना इस बैठक में ‘‘हिन्दू-मुस्लिम एकता के राजदूत‘‘ के रूप में उभरे। 1907 के मारले-मिन्टों सुधारों के अंतर्गत प्रस्तावित अलग निर्वाचक मण्डल के सिद्धान्त का उन्होंने विरोध किया। पर यह एक विरोधाभास है कि वे कलकत्ता कौन्सिल के मस्लिम सदस्य बम्बई से बनें। यद्यपि वे मुस्लिम लीग के औपचारिक सदस्य नहीं थे, जिन्ना ने मुस्लिम लीग के प्रस्ताव का समर्थन किया। इस प्रस्ताव द्वारा भारत के लिए एक उचित स्वायत्त शासन प्रणाली की वकालत की गयी थी। यह संवैधानिक साधनों से प्राप्त की जानी थी। इसके साथ वर्तमान शासन में स्थायी सुधार लाये जायेंगे जिसके लिये राष्ट्रीय एकता एवं जनभावना को भारत के लोगों में पुष्ट किया जायेगा तथा इसके लिये दूसरे समुदायों से सहयोग लिया जायेगा।’’
पर जब जिन्ना मुस्लिम लीग के स्थायी सदस्य हो गये हिन्दू-मस्लिम एकता पर उनके विचार महत्वपूर्ण रूप से बदल गये। उन्होंने मुस्लिम लीग के उस प्रस्ताव का समर्थन किया जिसमें ‘‘पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता’’ और ‘‘अलग मताधिकार’’ की प्राप्ति के लिये स्वराज्य के लिये काम करने का संकल्प लिया था।
साइमन कमीशन के आगमन के समय जिन्ना ने नेहरू प्रतिवेदन को अस्वीकार कर दिया जो अलग मताधिकार के विरुद्ध था। उन्होंने नेहरू प्रतिवेदन को सिर्फ हिन्दू दृष्टिकोण माना। उन्होंने इस बात का 1932 के पहले अहसास किया था कि हिन्दू महासभा कांग्रेस पर प्रभाव डाल रही है। मार्च 27, 1927 को जिन्ना ने एक कान्फरेन्स में जिसके वे सभापति थे, नेहरू रिपोर्ट पर तीन संशोधन पेश किये जो निम्नलिखित रूप से थे-(1) अलग मताधिकार बना रहे, (2) केन्द्रीय विधानसभा में मुसलमानों के लिए एक तिहाई सीटें सुरक्षित रहें, तथा (3) अवशिष्ट शक्तियाँ प्रान्तों में निहित रहें। इस प्रस्ताव को कांग्रेस ने 1928 में अस्वीकार कर दिया। आगाखां जो मुस्लिम लीग के संस्थापक अध्यक्ष थे सन् 1929 की सर्वदलीय मुस्लिम सम्मेलन की अध्यक्षता की तथा जिन्ना के बारे में लिखा ‘‘उनके लिये (जिन्ना) कांग्रेस में कोई भविष्य नहीं है या किसी दूसरे शिविर में भी नहीं है-सारे भारतीय आधार पर जो वस्तुतः हिन्दुओं के वर्चस्व में है। अन्त में हमने उन्हें अपने दृष्टिकोण के पक्ष में कर लिया है।’’ इस सम्मेलन में जिन्ना ने घोषणा की कि साइमन कमीशन रिपोर्ट ‘‘मर चुकी’’ थी उन्होंने विस्तार से बताया कि पाकिस्तान के प्रश्न का आगे बढ़ाने में उनकी रणनीति क्या होगी।
द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त
साइमन कमीशन रिपोर्ट एवं नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकृत करने के बाद जिन्ना के मन में हिन्दू-मुस्लिम एकता के भावों के बदले द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त की बात समा गई। उनके अन्सार हिन्दु एवं मुसलमान एकता का निर्माण नहीं करते। पर वस्तुतः वे अलग राष्ट्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि मुसलमान एक अलग पार्टी है और वे ‘‘दलालों की भाप‘‘ का इस्तेमाल करने लगे। संघीय उप समिति के अध्यक्ष के रूप में उनका कथन था कि कोई भी संविधान सफल नहीं हो सकता जब तक वह मुसलमानों एवं दूसरे अल्पमत वाले लोगों को सुरक्षा प्रदान नहीं करता।’’ वे इस बात पर जोर देने लगे कि मुसलमान अलग राष्ट्र है। उन्हें अपनी संस्कृति और अलग व्यक्तित्व की रक्षा करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि हिन्दू अतिवाद मुसलमानों के अस्तित्व के लिये खतरा है। उन्होंने कांग्रेस को एक हिन्दू दल बताया जो हिन्दू राज संस्थापित करना चाहती थी। उन्होंने कहा कि प्रजातंत्र की स्थापना का अर्थ मुसलमानों का सर्वनाश होगा।
प्रायः इसी समय कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के मुसलमान विद्यार्थी एक अलग राज्य के रूप में पाकिस्तान के संस्थापन के लिये आन्दोलन की शुरुआत कर रहे थे। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक विद्यार्थी रहमत अली पाकिस्तान के राष्ट्रीय आन्दोलन की नींव डाली। शायर इकबाल से वह प्रभावित हुआ। उसने एक पुस्तिका लिखी ‘‘अभी, अथवा कभी नहीं‘‘ क्या हम जीयें या मिट जायें। उसने पाकिस्तान के निर्माण के लिये प्रयत्न किया जिसमें संभवतया निम्नलिखित प्रदेश होते-पंजाब, सीमाप्रान्त (अफगानिस्तान) काश्मीर, सिन्ध और बिलोचीस्तान। 4 मार्च, 1934 को मुस्लिम लीग की दिल्ली में बैठक हुई जिसका उद्देश्य दल में एकता का संस्थापन करना था। ब्रिटिश तत्वों को इसने भयभीत कर दिया। यद्यपि वे सांप्रदायिक पंचाट (कम्यूनलअवार्ड) का समर्थन करते थे जिसका कांग्रेस विरोध करती थी तो भी जब मतदान हुआ तो वे तटस्थ रहे। रहमत अली की पाकिस्तान की मांग की वे लगातार उपेक्षा करते रहे साथ ही उनके क्रोधपूर्ण आक्रमणों की 1937 में भी उन्होंने अनदेखी की, पर 1937 के चुनाव अभियान के समय उन्होंने अपनी स्थिति में परिवर्तन कर लिया।
उन्होंने आगे चलकर इस बात पर जोर दिया कि हिन्दू और मुसलमानों में ‘‘ऐतिहासिक‘‘ एवं सांस्कृतिक फर्क है। उनकी मान्यता थी कि हिन्दू धर्म एवं मुस्लिम धर्म दो पूर्णरूपेण अलग-अलग सभ्यतायें हैं। वे विभिन्न धर्मों से संबंधित हैं, दर्शन भी भिन्न हैं। इसके साथ-साथ रीति-रिवाज अलग हैं तथा उनका साहित्य भी स्पष्ट रूप से भिन्न प्रकृति का है। एक दूसरे ने विवाह संबंध नहीं करते तथा एक दूसरे का खाना नहीं खाते। वे दो विभिन्न समाजों से संबंधित हैं। 1937 के चुनाव अभियान में जवाहरलाल नेहरू ने मुस्लिम लीग के अस्तित्व को नहीं माना। जिन्ना ने नेहरू के इस दृष्टिकोण पर प्रतिक्रिया व्यक्त की तथा कहा ‘‘यहां एक तीसरा दल (कांग्रेस और सरकार के अलावा) इस देश में है वह है मुसलमान’’। उन्होंने कांग्रेस को मुसलमानों को अलग छोड़ने की बात कही’’। अक्टूबर, 1937 के अखिल भारतीय मुस्लिम सम्मेलन में जिन्ना ने शिकायत की कि हिन्दु वर्चस्व वाले इलाकों में कांग्रेस मुस्लिम लीग से भेदभाव बरतती है। उन्होंने मुसलमानों की एक जनपार्टी बनाने का काम प्रारंभ किया। ये 1938 एवं 1939 में उनकी प्राथमिकतायें थीं। मुस्लिम लीग की सदस्य संख्या कई गुनी बढ़ चली। यहां कार्य लखनऊ सम्मेलन 1939 और लाहौर सम्मेलन 1940 के बीच हुआ। उन्होंने अब भी ऐसे भारत के लिये प्रयत्न किया जो स्वतंत्रता से भरा होने पर जहां मुसलमानों के हित सुरक्षित हों। उन्होंने कांग्रेस की निन्दा ‘‘वन्दे मातरम्’’ (माता को प्रणाम) लादने के लिये की। उन्होंने भारत के मुसलमानों की तुलना ‘‘अफ्रीका के निग्रो’’ और ‘‘दासों’’ से की। यह बात जनवरी, 1938 की है। अप्रैल, 1938 में उन्होंने कांग्रेस को एक ‘‘हिन्दू दल’ बताया। 20 मार्च 1940 को जिन्ना ने भारत का विभाजन ‘‘स्वतंत्र एवं स्वशासी राष्ट्रीय राज्यों’’ में करने की मांग की। उन्होंने पाकिस्तान शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। जब जिन्ना ने लाहौर में अपना भाषण समाप्त किया तो ऐतिहासिक पाकिस्तान प्रस्ताव का निर्माण किया गया। जिन्ना का कहना था कि हिन्दू महासभा के हिन्दू नेता मुसलमानों को ‘‘जर्मनी के यहूदियों’’ की तरह समझते हैं। जिन्ना ने ‘‘भारत छोड़ो’’ मांग को एक ऐसा प्रयत्न माना कि वह मुसलमानों को बलपूर्वक आत्मसमर्पण पर मजबूर कर और कांग्रेस की शर्ते मानने पर बाध्य हों।
जिन्ना की मान्यता थी कि मुसलमान राजनीति से धर्म को अलग नहीं कर सकते..
इसलिये हिन्दू-मुस्लिम एकता या राष्ट्रवाद जो हिन्दू-मुसलमानों की गैर-धार्मिक मामलों में एकरूपता पर आधारित हों कल्पना के बतक की बात है।’’ इसलिए मुसलमानों के लिये एक अलग गृहभमि की मांग की गयी। जिन्ना ने मुसलमानों को उपदेश दिया कि वे पाकिस्तान पाने के लिये युद्ध के लिये तैयार हो जायें। यह बात बिलोचीस्तान में जलाई, 1948 में उन्होंने कही। सन् 1940 में उन्होंने मुसलमानों को याद दिलाया कि पिछले दशकों में उन्हें जिस प्रकार के भेदभाव का शिकार होना पड़ा है। जिन्ना ने मार्च 23, 1944 को पाकिस्तान दिवस पर अपने संदेश में कहा-
‘‘पाकिस्तान हमारी पहुंच में हैं……
इन्शाअल्लाह हम विजयी होंगे’’
अक्टबर, 1945 में अहमदाबाद में एक सभा में जिन्ना ने कहा-
‘‘पाकिस्तान हमारे लिये जीवन मरण का प्रश्न है’’। 1945 के चुनाव में अभियान के समय उन्होंने पाकिस्तान की मांग की।
जून 20, 1947 बंगाल विधानसभा के सदस्यों ने बहुमत से बंगाल के विभाजन के लिये मतदान किया बाद में यही बात सिन्ध में हुई। विभाजन समिति का निर्माण किया गया। अलग मूस्लिम राष्ट्रवाद का जन्म उस समय से पूर्व में ही हो चुका था जब जिन्ना ने इसकी वकालत शूरू की। पर जब तक जिन्ना ने इसका समर्थन नहीं किया तब तक अलग मूस्लिम राष्ट्रवाद का चरित्र और तत्व मूलतः सांस्कृतिक ही थे। जिन्ना ने इसे राजनैतिक हथियार बनाया ताकि पाकिस्तान रूपी नये राज्य का निर्माण किया जा सके। उन्होंने द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त को सैद्धान्तिक एवं धार्मिक जामा पहिनाया।
जिन्ना ने द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त में अपनी उदार प्रजातंत्र की पूर्व की धारणा को विकृत कर दिया। जनंतत्र की उनकी नई अवधारणा मुसलमानों के लिये अलग राज्य संस्थापन तक सीमित थी। उन्होंने इस्लाम में आध्यात्मिक प्रजातंत्र के स्वरूप को अस्वीकार नहीं किया। उन्होंने पश्चिमी तरह के प्रजातंत्र को भारत में लागू करने का विरोध किया। उनके अनुसार भारत प्रजातंत्र के योग्य नहीं था। उनका कथन था कि लोगों में अधिकांश पूर्णरूप से अज्ञानी, अशिक्षित, अदीक्षित हैं तथा वे सबसे खराब किस्म के पुराने अन्धविश्वासों में जिन्दगी बिताते हैं, वे पूर्णरूप से एक दूसरे के विरोधी हैं, सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से….. इसलिये भारत में संसदीय सरकार चलाना असंभव है।’’ भारत में बहुमत का राज्य प्रताड़नात्मक होगा। मुसलमानों का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन कष्टमय बन जायेगा। उन्होंने कहा कि संयुक्त मताधिकार से अल्पमत वाले समुदाय दास बन जायेंगे एवं उनका सर्वविनाश हो जायेगा। अलीगढ़ आन्दोलन के इस स्वरूप ने जिसे जिन्ना ने पूर्व में अस्वीकृत कर दिया था उनके बाद के विचारों और राजनीति को प्रभावित किया।
बोध प्रश्न 3
टिप्पणीः 1) हर प्रश्न के नीचे के स्थान को अपने उत्तर के लिये काम में लो।
2) इस इकाई के अन्त में दिये गये उत्तर से अपने उत्तर को जाँचें।
1) राष्ट्रवाद की अवधारणा पर जिन्ना के दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
2) द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त पर जिन्ना के दृष्टिकोण को स्पष्ट करें।
Recent Posts
मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi
malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…
कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए
राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…
हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained
hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…
तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second
Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…
चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi
chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…
भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi
first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…