आकार जनक प्रदेश किसे कहते हैं , आकार जनक प्रदेशों की व्याख्या कीजिए morphogenetic regions in hindi

morphogenetic regions in hindi आकार जनक प्रदेश किसे कहते हैं , आकार जनक प्रदेशों की व्याख्या कीजिए ?

आकार जनक प्रदेश (Morphogenetic Regions)
सायर (1925) ने स्थलरूपों का सम्बन्ध किसी प्रक्रम से न जोड़कर बल्कि जलवायु प्रदेश से जोड़ने का प्रयास किया है। इनका विचार था कि – यदि जलवायु प्रदेश के साथ स्थल प्रक्रम अपने आप प्रत्यक्ष होने लगेगा। इसी आधार पर उन्होंने स्पष्ट किया है कि- विशेष प्रकार की जलवायु में विशेष प्रकार के स्थलरूप निर्मित होते है। सेपर (1935) तथा फ्रीस (1935) ने रासायनिक अपक्षय का गहन अध्ययन किया। इनका विचार है कि -उष्णार्द्र जलवायु में रासायनिक अपक्षय आर्द्र जलवायु की अपेक्षा अधिक होता है। इसी आधार पर आकार जनक प्रदेश की संकल्पना की विवेचना की है। इसके बाद बुदेल, पेल्टियर महोदयों ने आकारजनक प्रदेश की संकल्पना व्यक्त की। वास्तव में, आकार जनक प्रदेश या आकार जलवायु प्रदेश की संकल्पना जलवायु भू-आकारिकी की इसी संकल्पना पर आधारित है-“प्रत्येक म्वाकृतिक प्रक्रम अपना अलग-अलग स्थलरूप निर्मित करता है. और प्रत्येक प्रक्रम विशेष जलवायु का प्रतिफल है।‘‘ इसी आधार पर फ्रामफ्रीजन, ट्रिकार्ट तथा केल्यू महोदयों ने जलवायु प्रदेश या आकार जनक प्रदेशों में बाँटने का प्रयास किया है।
1. पेंक का आकार जनक प्रदेश
पेंक महोदय ने स्थलरूपों को जलवायु के आधार पर अलग करने का प्रयास किया है। इनका विचार था कि – भित्र स्थलम्बप मित्र-भित्र जलवायु में पाये जाते हैं। इसी आधार पर पांच जलवायु प्रदेशों में बाँटने का प्रयास किया है।
(i) आर्द्र जलवायु प्रदेश के स्थलरूप,
(ii) अर्ड आर्द्र जलवायु प्रदेश के स्थलरूप,
(iii) शुष्क जलवायु प्रदेश के स्थलरूप,
(iv) अर्द्ध शुष्क जलवायु प्रदेश के स्थलरूप, तथा
(अ) हिमानी जलवायु प्रदेश के स्थलरूप ।
2. पेल्टियर का आकार जनक प्रदेश
इन्होंने आकार जनक प्रदेशों का निर्धारण प्रक्रम के आधार पर किया है। इनका विचार है-एक विशेष प्रकार के प्रक्रम एक विशेष प्रकार की ही जलवायु में पाये जाते हैं। इन्होंने अपने आकारजनक प्रदेश का मुख्य आधार औसत वार्षिक तापमान तथा औसत वार्षिक वर्षा रखा है। इसी आधार पर इन्होंने 9 आकार जनक प्रदेशों की संकलपना व्यक्त की है-
(i) हिमानी आकार-जलवायु प्रदेश-इस जलवायु प्रदेश का निर्धारण 0°-30° फॉरेनहाइट औसत वार्षिक तापमान तथा 0-45 इन्च औसत वार्षिक वर्षा के आधार पर किया है। इन्होंने बताया कि – इसमें हिमानी अपरदन अधिक सक्रिय रहता है। कहीं-कहीं पर चक्र के अन्त में पवन के कार्य भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
(ii) परिहिमानी आकार-जलवायु प्रदेश-इस प्रदेश में तीव्र सामूहिक संचलन का कार्य तीव्र गति से होता है। वायु का कार्य इस प्रदेश में कभी तीव्र तथा कभी मन्द होता है। इस प्रदेश जल-कार्य न्यून होता है। मृदासर्पण की क्रिया उल्लेखनीय है। इसका विभाजन 59-30° फॉरेनहाइट तापमान तथा 5-55 इंच औसत वार्षिक वर्षा के आधार पर किया है।
(iii) बोरियल आकार-जलवायु प्रदेश-इस प्रदेश का निर्धारण 15°-30° फॉरेनहाइट और तापमान तथा 5-55 इन्च औसत वार्षिक वर्षा के आधार पर किया है। सामान्य तुषार क्रिया सामान्य से न्यून वायुकार्य तथा प्रवाही जल का सामान्य कार्य इसकी प्रमुख विशेषता है।
(iv) सागरीय आकार-जलवायु प्रदेश-इसका निर्धारण 350-70° फॉरेनहाइट औसत वार्षिक तापमान तथा 50‘‘-75‘‘ औसत वार्षिक वर्षा के आधार पर किया है। तीव्र सामूहिक संचलन होता है तथा जल का कार्य सामान्य से तीव्र होता है।
(v) सेल्वा आकार-जलवायु प्रदेश – इस प्रदेश की प्रमुख विशेषता है कि तीव्र सामूहिक संचलन होता है तथा वायु का कार्य न्यून होता है। इस प्रदेश की सीमा रेखा 60°-85° फॉरेनहाइट औसत वार्षिक तापमान तथा 55‘‘-90‘‘ औसत वार्षिक वर्षा के आधार निर्धारित किया है।
(vi) माडरेट आकार-जलवायु प्रदेश-इस प्रदेश का सीमांकन 38°-85° फॉरेनहाइट औसत वार्षिक तापमान तथा 35‘‘-60‘‘ औसत वार्षिक वर्षा के आधार पर किया है। इस प्रदेश में प्रवाही जल का कार्य तीव्र होता है। इस प्रदेश के शीत भागों में तुषार अपक्षय की क्रिया देखने को मिलती है। तटवर्ती भागों को छोड़कर वायु का कार्य न्यून होता है।
(vii) सवाना आकार-जलवायु प्रदेश-10°-85° फॉरेनहाइट औसत वार्षिक तापमान तथा 25‘‘-50‘‘ औसत वार्षिक वर्षा के आधार पर इस प्रदेश का विभाजन किया है। इसमें वायु का कार्य सामान्य तथा प्रवाही जल का कार्य कभी तीव्र तथा कभी न्यून होता है।
(viii) अर्ध शुष्क आकार-जलवायु प्रदेश-380-85° फॉरेनहाइट औसत वार्षिक तापमान तथा 10‘‘-25‘‘ औसत वार्षिक वर्षा के आधार पर इस प्रदेश का सीमांकन किया है। तीव्र पवन कार्य और सामान्य से तीव्र जल का कार्य होता है।
(ix) शुष्क आकार-जलवायु प्रदेश-इस प्रदेश में तीव्र पवन कार्य तथा जल का कार्य न्यून होता है। औसत वार्षिक तापमान 58°-85° फॉरेनहाइट तथा औसत वार्षिक वर्षा 0‘‘-15‘‘ होती है।
3. ट्रिकार्ट तथा कैल्यू के आकार-जलवायु प्रदेश
इनका विचार है कि जलवायु का प्रभाव धरातलीय उच्चावचन पर पड़ता है, इसलिये आकार जलवायु प्रदेश की सीमांकन मात्र जलवायु के तापमान तथा वर्षा के आँकड़ों के आधार पर नहीं करना चाहिये। अतः इन्होंने अपने जलवायु प्रदेश के विभाजन का आधार जलवाय, प्राणि, भौगोलिक एंव पुरा जलवायु को बनाया है। इस आधार पर इन्होंने 4 आकार-जलवायु प्रदेशों में बाँटने का प्रयास किया है-
1. शीत आकार-जलवायु प्रदेश-इन्होंने इस प्रदेश का सीमांकन तुषार के आधार पर किया है। इनका विचार है कि शीत प्रदेशों में तुषार प्रक्रम महत्वपूर्ण होता है। यह अन्य प्रक्रमों जैसे- तंरग,पवन तथा नदियों को भी प्रभावित करता है। तुषार की प्रमुखता तथा प्रभुत्व के आधार पर इसको निम्न उपविभागों में विभक्त किया है-
(क) हिमानी मण्डल-इस मण्डल में हिमनद प्रमुख अपरदनात्मक तथा परिवहनात्मक का इस प्रदेश में वर्ष भर तापमान की न्यूवता के कारण हिमद्रवण नहीं होता है. यही कारण (तनदविि) ठोस हिम के रूप में परिलक्षित होता है।
(ख) परिहिमानी मण्डल-इस प्रदेश में वर्ष पर हिमाच्छादन नहीं होता है, बल्कि ग्रीष्म ऋतु में तापमान बढ़ जाता है। बर्फ पिघलने लगती है, जिस कारण वाह (तनदविि) जल के रूप मे होने लगता है, परन्तु शीतृतु में वाह (runoft) हिम रूप में ही होता है। फलस्वरूप इन्होंने इस प्रदेश का सीमांकन तापमान के आधार पर किया है। इसको निम्न उप प्रदेशों में वाँटने का प्रयास किया है।
(i) अतिहिमानी प्रदेश-इस प्रदेश का अध्ययन बहुत कम किया गया है। इसके अन्तर्गत अन्टार्कटिक तथा पियरीलैण्ड वन्जर
सम्मिलित किया जाता है।
(ii) मध्य परिहिमानी प्रदेश-इसके अन्तर्गत यूरेशिया तथा अमेरिका के परिहिमानी प्रदेशों को सम्मिलित किया जाता है। यहाँ पर ग्रीष्मकाल में हिमद्रवण हो जाता है। इसके अन्तर्गत कार्यरत प्रक्रम-तुषार अपक्षय, मृदासर्पण, तुषार अपरदन आदि प्रमुख हैं। इन प्रक्रमों के द्वारा यहाँ पर प्रस्तर सरिता, ब्लाक फील्ड, तुङ्ग सपाटीकृत बेदिका, मृदासर्पण ढाल आदि प्रमुख स्थलाकृतियों का निर्माण हुआ है।
(iii) टुण्ड्रा प्रदेश- यहाँ पर सघन वनस्पति का आवरण पाया जाता है, जिस कारण प्रक्रमों द्वारा स्थलाकृतियों के निर्माण में बाधा उत्पन्न हो जाती है। यहाँ पर कई बार हिमीकरण तथा हिम द्रवण की क्रिया होती है।
(iv) स्टेपी परिहिमानी प्रदेश-इस प्रदेश के अन्तर्गत मंगोलिया, अल्वर्टा तथा उत्तरी आइसलैंड को सम्मिलित किया है। इसमें पवन का कार्य सक्रिय होता है।
(v) टैंगा प्रदेश-इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण टैंगा प्रदेश सम्मिलित किया जाता है। वसंतकाल में बड़े पैमाने पर हिमद्रवण हो जाता है।
2. बनाच्छादित मध्य अक्षांशीय मण्डल-इसके अन्तर्गत, यूरेशिया में अटलांटिक तट से लेकर बैकाल झील के सहारे होता हुआ, आमूर बेसिन, कोरिया तथा जापान तकय उत्तरी अमेरिका में टेक्सास लैब्रोडोर, फ्लोरिडा से यूकाटन तक, अलास्का से कैलीफोर्निया (पश्चिमी भाग), दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिणी अमेरिका में चिली के दक्षिण, नेटाल तट, आस्ट्रेलिया का पूर्वी तट, तस्मानिया, न्यूजीलैण्ड को सम्मिलित किया जाता है। इसको तीन उपमण्डल में बांटा गया है –
(क) सागरीय मण्डल-इसका विस्तार नार्वे, पोलैण्ड, ब्रिटिश कोलम्बिया, चिली, तस्मानिया तथा न्यूजीलैण्ड में पाया जाता है। तुषार इतना कम सक्रिय होता है कि इसका प्रभाव चट्टानों पर नहीं पड़ पाता है। ग्रीष्मकाल में वर्षा होती है।
(ख) महाद्वीपीय मण्डल-इसका विस्तार एशियाँ तथा उत्तरी अमेरिका के पूर्वी भाग में पाया जाता है। इसमें तुषार की क्रिया तीव्र होती है। बसन्तकाल में जब हिमद्रवण होता है तो चादरी-अपरदन अधिक सक्रिय हो जाता है। इस क्षेत्र में रासायनिक अपक्षय तथा अपरदन न्यून होता है।
(ग) गर्म शीतोष्ण तथा उपोष्ण मण्डल -इसका विस्तार रूम सागरीय जलवायु प्रदेश में पाया जाता है। तुषार अपक्षय नहीं होता है, परन्तु भू-स्खलन अधिक होता है। सरिताओं द्वारा अपरदन अधिक होता है।
3. शुष्क मण्डल-इस भाग में वनस्पतियों का आवरण कम पाया जाता है, परन्तु वर्षा का वितरण असमान पाया जाता है। जब
किसी क्षेत्र में वर्षा की मात्रा तीव्र हो जाती है, तो वाही जल का कार्य सक्रिय हो जाता है, जिस कारण बाजाडा तथा पेडीमेण्ट का निर्माण होता है। जब वर्षा की मात्रा न्यून होती है तो वायु का कार्य अधिक सक्रिय हो जाता है जिस कारण बालुका स्तूप, वात गर्त आदि का निर्माण हो जाता है। इस मण्डल को तीन उप विभागों में बाँटा जाता है –
(क) उपार्द्र स्टेपी प्रदेश-इसका विस्तार पूर्वी अफ्रीका, कालाहारी, सहारा का उत्तरी-दक्षिणी भाग, एशिया माइनर, आस्ट्रेलिया, मध्य एशिया, कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका आदि में पाया जाता है। इसमें लोयस का निर्माण बड़े पैमाने पर होता है। जहाँ पर वर्षा अधिक हो जाती है, वहाँ पर वाही जल सक्रिय हो जाता है।
(ख) अर्थ-शुष्क प्रदेश-इस प्रदेश में जब वर्षा तीव्र हो जाती है, तो क्षणिक सरिता प्रवाह का विकास हो जाता है जिस कारण पेडीमेण्ट तथा इन्सेल वर्ग का निर्माण हो जाता है।
(ग) शुष्क प्रदेश-इस प्रदेश में वर्षा का अभाव पाया जाता है, जिस कारण वाही जल बिल्कुल नही कार्य करता है। शुष्कता के कारण वायु का कार्य सक्रिय रहता है, परन्त इस एक परिवहन कारक के रूप में ही होता है। दिन-रात के तापमान में भिन्नता के कारण विघटन की क्रिया बड़े पैमाने पर होती है।
4. आर्द्र उष्ण कटिबन्धीय मण्डल- यहाँ पर शुष्क तथा आर्द्र मौसम पाया जाता है। उच्च तापमान एवं अधिक वर्षा के कारण रासायनिक अपक्षय तथा अपरदन अधिक होता है। इसको दो उप प्रदेशों में बांटा जाता है –
(प) सवाना प्रदेश-इस क्षेत्र में जब अचानक वर्षा तीव्रगति से हो जाती है, तो नदियाँ सक्रिय हो जाती हैं। धीरे-धीरे उच्चावचन घटने लगता है तथा मलवा निम्न भाग में जमा होता जाता है। यह क्रिया कालान्तर तक चलती रहती है, जिस कारण उच्चावचन घटता जाता है। जहाँ पर जमाव हो जाता है, वहाँ कहीं-कहीं पर पठार का निर्माण हो जाता है।
(पप) उष्णार्द्र वन प्रदेश-यहाँ पर तापमान तथा वर्षा दोनों अधिक होती है, जिस कारण रासायनिक क्रिया अधिक होती है। जहाँ पर रासायनिक अपक्षय होता है, यदि ये शैल नदियों के मार्ग में पड़ती है तो प्रपातों का निर्माण होता है। नदी का ढाल सीढ़ीनुमा पाया जाता है।
जलवायु भू-आकृति विज्ञान का भू-आकृति विज्ञान में अत्यन्त महत्व है। वास्तव में, भू-आकृति विज्ञान स्थलरूपों का विज्ञान है। स्थलरूप प्रक्रमों द्वारा सृजित होते हैं। प्रक्रम जलवायु के प्रतिनिधि होते है। जलवायु की सक्रियता, न्यूनता तथा परिवर्तन स्थलरूपों में परिवर्तन घटित कर देता है। ऐसी वस्तुस्थिति में जलवायु- भूगर्भिग संरचना, जलवायु – प्रक्रम, जलवायु – स्थलरूप के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन एवं अनुसंधान भू-आकृति विज्ञान में अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है।