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भू-आकृतियों या स्थलरूपों की अध्ययन-विधियाँ Methods of the Study of Landforms in hindi types

Methods of the Study of Landforms in hindi types भू-आकृतियों या स्थलरूपों की अध्ययन-विधियाँ कौन कौनसी है नाम बताइये ?

स्थलरूपों की अध्ययन-विधियाँ
(Methods of the Study of Landforms)
स्थलरूपों के पुरा-अध्ययन के इतिहास का अवलोकन करें तब ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में इसका अध्ययन दार्शनिकों, अन्वेषकों एवं यात्रियों द्वारा किया गया। सभी, स्थलरूपों को देखकर उनके वितरण, आकार-प्रकार तथा सृजनात्मक प्रक्रिया पर अपने अनुमानों एवं तर्को के आधार पर अध्ययन किया है। इन विद्वानों से प्राप्त सामग्रियों के आधार पर भू-आकृति विज्ञान में धीरे-धीरे उत्कृष्टता आयी। गणित के आधार पर स्थलरूपों के आकार-प्रकार तथा इनकी उत्पत्ति सम्बन्धी व्याख्यायें प्रस्तुत की गयी।
भू-आकृति विज्ञान के अन्तर्गत स्थलरूपों के अध्ययन के लिए भू-आकृति विज्ञानवेत्ता क्षेत्र पर्यवेक्षण के आधार पर स्थलरूपों के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण करते हैं। स्थलरूपों में समाविष्ट विशेषतायें इनमें भिन्नता एवं विषमता उत्पन्न करती हैं, जिसके आधार पर इनका वर्गीकरण किया जाता है। अन्त में, स्थलरूपों की उत्पत्ति सम्बन्धी तों, सिद्धान्तों एवं परिकल्पनाओं का प्रतिपादन किया जाता है। सामान्यतः स्थलरूपों का अध्ययन निम्न विधियों के अन्तर्गत किया जाता है –
(1) वर्णनात्मक अध्ययन विधि – स्थलरूपों के अध्ययन के लिए भू-आकृति विज्ञानेत्ताओं ने अनेक वर्णन प्रस्तुत किये हैं – क्षेत्र पर्यवेक्षण, प्रयोगशाला में गणितीय मापन तथा क्षेत्र पर्यवेक्षण एवं गणितीय परिकलन आदि प्रमुख हैं। परिणामतः स्थलरूपों के अध्ययन विधियों को तीन कोटियों में रखा जा सकता हैः (I) व्यक्तिनिष्ठ वर्णन, (II) वस्तुनिष्ठ वर्णन, तथा (III) व्यक्तिनिष्ठ एवं वस्तुनिष्ठ वर्णन।
(I) व्यक्तिनिष्ठ वर्णन विधि (Subjectvedescription Method) – किसी क्षेत्र विशेष में जाकर, उसके स्थलरूपों को देखकर उसकी स्थिति, आकार-प्रकार तथा मानव-जीवन पड़ने वाले प्रभावों आदि का विश्लेषण किया जाता है, तब वह व्यक्तिनिष्ठ वर्णन होता है। भू-आकृति विज्ञान में इस अध्ययन का महत्व अधिक है। इस विज्ञान के प्रांगण में गणितीय विश्लेषण का समावेश तीव्रगति से बढ़ रहा है, जिस कारण इसका महत्व बढ़ता जा रहा है, क्योंकि गणितीय विश्लेषण के आधार पर भू-आकृति विज्ञान में सत्यता की घोषणा हम विश्वास पूर्वक कर सकते हैं। गणितीय विश्लेषण से ऐसी भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो जाती है, जिनका समाधान क्षेत्र पर्यवेक्षण के आधार पर किया जाता है। कभी-कभी एक ही तथ्य का विश्लेषण गणितीय परिकलन भिन्न-भिन्न परिणाम प्रस्तुत करते हैं, ऐसी दशा में क्षेत्र-पर्यवेक्षण अत्यावश्यक है।
व्यक्तिनिष्ठ वर्णन का तात्पर्य यह नहीं होता है कि क्षेत्र में जो कुछ भी देखें, बिना सोचे समझे उनका चित्रांकन करने लगें, बल्कि इसका तात्पर्य यह है कि क्षेत्र में आकार-प्रकार, स्थिति. नदी डेल्टे का अध्ययन करना है, तो सर्वप्रथम इसकी स्थिति, उत्पत्ति अवस्था आदि का विश्लेषण करें, साथ-ही-साथ इनके प्रकारों का भी विश्लेषण अत्यावश्यक हो जाता है। नदी-डेल्टा को देखने पर स्पष्ट होता है कि इसका निर्माण किसी नदी के मुहाने पर, नदियों के जमाव द्वारा अपरदन-चक्र की अन्तिम अवस्था में होता हैं।उत्पत्ति के कारणों की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है – जब नदी अपनी अन्तिम अवस्था में पहुँचती है, तब उसकी परिवहन शक्ति समाप्त होने लगती है, जिस कारण मलवा का निक्षेप मुहाने पर बड़ी मात्रा में होने लगता है। इसके आकार-प्रकार में सागरीय तरंगों का योगदान होता है। आकार के आधार पर वर्गीकरण किया जाता है – (क) चापाकार डेल्टा, तथा (ख) पंखाकार डेल्टा। व्यक्तिनिष्ठ वर्णन अथवा क्षेत्र पर्यवेक्षण भू-आकृति विज्ञान में महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि बिना इसके गणितीय विश्लेषण से वास्तविकता का बोध नहीं होता है।
(II) वस्तुनिष्ठ अध्ययन (Genetic description Method) – वर्तमान में वैज्ञानिक प्रगति होने पर हमारे पास प्रयोगशाला की सुविधायें विद्यमान हैं तथा कम्प्यूटर इत्यादि से गणितीय परिकलन शीघ्रता से किया जाने लगा है, तो स्थलरूपों का अध्ययन मात्रात्मक हो गया है। साथ-ही-साथ क्षेत्र पर्यवेक्षण-ज्ञान सत्यता के काफी निकट हो गया है। मात्रात्मक अध्ययन की दो विधियाँ हैं- (क) क्षेत्र में स्वयं जाकर क्षेत्र के मापन द्वारा अध्ययन, तथा (ख) छोटे-से-छोटे मापक के मानचित्रों के आधार पर गणितीय परिकलन द्वारा अध्ययन। उदाहरणार्थ- यदि किसी क्षेत्र का ढाल विश्लेषण करना है, तो इसके लिए दोनों विधियों का प्रयोग किया जा सकता है – (क) क्षेत्र में जाकर पहाड़ी, सरिता-प्रवाह, घाटी आदि का मापन यन्त्रों की सहायता से करें, तथा (ख) लघुमापक (1ः 50,000) मानचित्रों का प्रयोग करके उसके गणितीय परिकलन द्वारा ढाल का अध्ययन करें। गणितीय परिकलन के लिए लघु मानचित्रों से समोच्च रेखा मानचित्र तैयार कर उसको ग्रिड में विभाजित कर लिया जाता है। गणितीय परिकलन तथा सारणीकरण द्वारा अध्ययन प्रस्तुत किया जा सकता है। उदाहरणार्थ
tan ϕ = N × I/1273
N = औसत समोच्च रेखाओं की कटिंग संख्या,
I = दो क्रमिक समोच्च रेखाओं का मध्यान्तर, तथा 1273 = अचर
उपर्युक्त सूत्र के आधार पर गणितीय परिकलन करने के पश्चात् 0° – 5°,5° – 10°, 10° – 15°, तथा झ 15° के वर्गों के अन्तर्गत सारणीकरण कर लिया जाता है। इसी प्रकार एक दूसरा उदाहरण भी प्रस्तुत किया जा सकता है – यदि किसी स्थान की प्रवाह-बेसिन का गणितीय परिकलन करना है, तो सर्वप्रथम क्षेत्र में छोटी-छोटी बिना सहायक की सरिताओं का मापन करें या लघु मानचित्रों या हवाई फोटोग्राफ मानचित्रों का प्रयोग कर छोटी-छोटी बिना सहायक की सरिताओं का मापन किया जाता है। ये प्रथम आर्डर की सरिता होगी। जहाँ पर दो प्रथम आर्डर की सरिताएँ मिलती हैं, वहाँ पर द्वितीय आर्डर की सरिता होगी। इस पर तृतीय, चतुर्थ ……. आर्डर बढ़ता जाता है। अन्त में, सबसे बड़ी सरिता के आधार पर सर्वोच्च आर्डर ज्ञात किया जाता है। सरिता की लम्बाई, क्षेत्रफल अथवा सरिता की संख्या की गणना करके मात्रात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जा सकता है। यथा –
द्विशाखन अनुपात (Rb)
RB = Nu/Nu ़1
Nu  = सरिता की संख्या
.
Prasad, G., 1984 : A Geomorphological study of Chhindwara Plateau, Unpublisher Thesis, Allahabad University, Allahabad.

सरिताओं की संख्या (Nu)
Nu Rb (K-u)
K = मुख्य सरिता श्रेणी, तथा
u  = वांछित आर्डर
बेसिन की सरिताओं की समस्त संख्या (ENu)
Σ Nu Rb K-1/Rb-1
Rb = द्विशाखन अनुपात
लम्बाई अनुपात (RL)
RL Lu / Lu -1
Lu = औसत लम्बाई अनुपात
क्षेत्रफल अनुपात (Ra)
Ra Au / Au -1
Au = बेसिन का औसत क्षेत्रफल
प्रवाह घनत्व (Dd)
Dd ( Σ LK/AK
Σ LK = समस्त सरिताओं की लम्बाई का योग
AK = समस्त बेसिन का क्षेत्रफल
प्रवाह गठन (Dt)
DT = 1/T P/2
DT = प्रवाह गठन
(III) व्यक्तिनिष्ठ तथा वस्तुनिष्ठ का समन्वयात्मक अध्ययन – वर्णनात्मक अध्ययन से हम किसी तथ्य को निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते हैं तथा मात्रात्मक अध्ययन से भी हम सत्यता के निकट तो होते हैं, परन्तु पूर्ण सत्य नहीं कह सकते हैं। वर्तमान में भू-आकृति विज्ञान में दोनों का समन्वयात्मक अध्ययन किया जा रहा जिससे स्थलरूपों के निर्माण की प्रक्रिया, उत्पत्ति सम्वन्धी सिद्धान्त तथा परिकल्पना का ज्ञान प्राप्त होता है। उदारणार्थ – क्षेत्र पर्यवेक्षण के आधार पर यदि हम आर्द्र एवं शुष्क प्रदेशों के स्थलरूपों की व्याखया से स्पष्ट होता है कि इसमें यदि चूने-पत्थर की चट्टान होगी, तो कार्ट स्थलाकृतियों का सृजन होता अपरदन-चक्र सिद्धान्त, कन्दरा उत्पत्ति सिद्धान्त आदि का प्रतिपादन किया जाता है। इसी प्रव उष्णार्द्र जलवायु प्रदेशों में पवन तथा वाहीजल सक्रिय रहता है, जिससे बालुकास्तूप, ज्यूजे बजाडा, पेडीमेण्ट, बेदिका, जलप्रपात, मियान्डर आदि स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। के निर्माण के साथ-साथ इनकी उत्पत्ति सम्बन्धी व्याख्या प्रस्तुत की जाती है। इसी अंाध जाता है कि ‘प्रत्येक जलवायु अपना विशिष्ट स्थलरूप निर्मित करता है।‘ स्थलरूपों के निम्न भी विश्लेषण किया जाता है, जैसे – मुलायम, कठोर, भेय, अभेद्य वलित, भ्रशित, व।
आग्रेय आदि किस प्रकार की चट्टान है। प्रत्येक संरचना में अलग-अलग प्रकार के स्थलरूपी का विकास होता है। इसी आधार पर विश्लेषण किया जाता है कि – ‘स्थलरूपों के निर्माण में भू-वैज्ञानिक संरचना सबस महत्वपूर्ण नियंत्रक कारक होती है।‘
स्थलरूपों को देखकर तकों, पूर्व इतिहासों तथा गणितीय परिकलन के आधार पर इसके समय का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। कभी-कभी स्थलरूपों में कुछ प्राचीन स्थलरूप परिलक्षित होते हैं,

जो वर्तमान जलवायु तथा प्रक्रम के प्रतिफल नहीं होते हैं। इसके लिए तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि यदि किसी कागज पर लिखा जाय तथा रबर से उसको मिटाया जाय एवं उस पर पुनः लेखन कार्य किया जाय, तो प्राचीन लिखे भाग कहीं-कहीं द्रष्टव्य होते हैं। इसी आधार पर प्राचीन जलवाय तथा प्रक्रम का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। ‘वर्तमान भूत की कुन्जी है‘ संकल्पना का प्रतिपादन इसी आधार पर किया गया है।
गणितीय विश्लेषण के आधार पर प्राचीन स्थलाकृतियों के अवशेषों के समय का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। इसकी बोधगम्यता की दो प्रणालियाँ हैं – (क) तुगंतामिति आयत चित्र के आधार पर – लघुमापक नाचना के आधार पर इसको तैयार करके सवसे ऊँची सतह को नवीन तथा निम्न सतह को प्राचीन सतह की संज्ञा दी जाती है, (ख) परिच्छेदिका के आधार पर किसी क्षेत्र की परिच्छेदिका तैयार करके विभिन्न समय की अपरदन-सतहों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।

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