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मार्शल आर्ट किसे कहते हैं ? what is Martial arts in hindi definition भारत में मार्शल आर्ट कहाँ है

भारत में मार्शल आर्ट कहाँ है मार्शल आर्ट किसे कहते हैं ? what is Martial arts in hindi definition ?

भारत में मार्शल आर्ट  
परिचय
भारत, विविध संस्कृतियों तथा विषम प्रजातियों वाली भूमि है जोकि प्राचीन काल से ही अपने मार्शल आर्ट्स की विविध के लिए जानी जाती है। पूर्व में युद्ध के लिए उपयोग होने वाले इन कला रूपों को आज सामान्य रूप से, शारीरिक स्वास्थ्य लाभ के लिए तथा धार्मिक संस्कार के रूप में या आत्मरक्षा के एक साधन के रूप में, प्रयुक्त किया जाता है। मार्शल आर्ट का शाब्दिक अर्थ है ‘युद्ध छेड़ने से संबद्ध कला‘। देश में अनगिनत मार्शल आर्ट्स घनिष्ठ रूप से नृत्य, योग और प्रदर्शन कला से संबंधित है। ब्रिटिश शासन के दौरान इनमें से कुछ कला रूपों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया जिससे कलारिपयाट्ट और सिलाम्बम भी सम्मिलित हैं लेकिन स्वाधीनता के पश्चात् वे पुनः प्रादुर्भित हुई और इन्होंने लोकप्रियता अर्जित की। भारत में मार्शल आर्ट्स के लोकप्रिय और प्रचलित प्रकारों में से कुछ पर नीचे विचार-विमर्श किया गया है:

कलारिपयाटू
यह भारत में सबसे पुराने मार्शल आर्ट्स में से एक है। यद्यपि इसका अभ्यास दक्षिणी भारत के अधिकांश भागों में होता था, परन्तु इसकी उत्पत्ति चैथी ‘शताब्दी में केरल राज्य में हुई थी। कलारी, एक मलयालम शब्द है, जिसका अर्थ है एक विशिष्ट प्रकार का विद्यालय/व्यायामशाला/प्रशिक्षण कक्ष जहाँ मार्शल आर्ट्स का अभ्यास किया जाता था या सिखाया जाता था (इस मामले में यह कलारिपयाटू है)। किवदंतियों के अनुसार, ऋषि परशुराम, जिन्होंने मंदिरों का निर्माण किया और मार्शल आर्टस का आरम्भ किया ने ही कलारिपयाटट का आरम्भ भी किया।

इस कला रूप में नकली द्वंद्व युद्ध (सशस्त्र और निरूशस्त्र संघर्ष) और शारीरिक अभ्यास सम्मिलित है। किसी ढोल-बाग या गीत से रहित इस कला का सबसे महत्वपूर्ण पहलू, इसकी युद्ध शैली है। कलारिपयाट्ट की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता पग कार्य है। इसमें लात मारने, वार करने और हथियार आधारित अभ्यास सम्मिलित हैं। देश में इसकी लोकप्रियता आसानी से देखी जा सकती है जब कोई व्यक्ति ‘अशोका‘ और ‘द मिथ‘ जैसी भारतीय फिल्में देखता है। यहाँ तक कि महिलाएं भी इस कला का अभ्यास करती हैं। उन्नियर्चा, एक महान नायिका, उन्होंने इस मार्शल आर्ट का उपयोग करके कई युद्ध जीते। यद्यपि कलारिपयाटू का उपयोग आजकल निःशस्त्र आत्मरक्षा के एक साधन और शारीरिक स्वास्थ्य लाभ हेतु एक माध्यम के रूप में किया जाता है, परन्तु इसकी जड़ें अभी भी पारंपरिक धार्मिक संस्कारों और उत्सवों में दिखाई देती हैं।
कलारिपयाटू में कई तकनीकों और पहलुओं का समावेश हैं। उनमें से कुछ हैंः उझिचिल या गिंगली तेल से मालिश, ओट्टा (एक ‘एस‘ की आकृति की लाठी), मैपयाटू या शरीरिक व्यायाम, पुलियांकम या तलवार से लड़ाई, वेरुमकई या नंगे हाथ से लड़ाई, अंगाथारी या धातु के हथियारों और कोल्थारी की छड़ियों का उपयोग।

सिलाम्बम
सिलाम्बम, एक प्रकार की लाठी चलाने की कला है, जो की तमिलनाडु का एक आधुनिक और वैज्ञानिक मार्शल आर्ट है। तमिलनाडु में शासन करने वाले राजाओं ने अपने शासनकाल में इसे प्रोत्साहन दिया था जिनमें पांड्य, चोल और चेर वंश के राजा सम्मिलित थे। विदेशी व्यापारियों को सिलाम्बम लाठियों, पर्ल, तलवार और कवच के विक्रय का सन्दर्भ दूसरी शताब्दी के तमिल साहित्य शिलप्पादिकारम में देखने को मिलते है। सिलाम्बम लाठी, रोम, यूनान और मित्र के व्यापारियों और यात्रियों के मध्य सबसे लोकप्रिय व्यापारिक वस्तुओं में से एक थी। ऐसा माना जाता है कि यह कला अपने उत्पति राज्य से मलेशिया पहुंची, यहा पर यह आत्मरक्षा की विधि के अलावा एक प्रसिद्ध खेल के रूप में परिणत हो गई।
लम्बी-लाठी का उपयोग नकली लड़ाई और आत्मरक्षा दोनों के लिए किया जाता था। पहली शताब्दी से ही यह राज्य के अत्यंत सुव्यवस्थित एवं लोकप्रिय खेलों में से एक था। इसकी उत्पत्ति का प्रमाण दैविक स्रोतों में मिल सकता है, उदाहरणस्वरूप सिलाम्बम की रचना का श्रेय भगवान मुरुगन (तमिल पौराणिक कथाओं में) और ऋषि अगस्त्य को दिया जाता है। वैदिक युग में, इसका प्रशिक्षण, युवकों को एक धार्मिक संस्कार के रूप में और आपातकालीन परिस्थितियों का सामना करने के लिए दिया जाता था। सिलाम्बम एक शुद्ध रक्षा कला से एक श्संग्राम अभ्यासश् में परिणित हो गया
है।
इस कला में विभिन्न प्रकार की लाठियों का उपयोग किया जाता है। पहले प्रकार की लाठी, जिसे ‘टॉर्च सिलाम्बम‘ कहा जाता है, इसमें लाठियों के एक छोर पर कपड़े की जलती हुई गेंद होती है, दूसरे प्रकार की लाठी एक मधर सरसराहट की ध्वनि उत्पन्न करती है, तीसरे प्रकार की लाठी एक लोच-रहित लाठी होती है जो खड़खड़ाहट की ध्वनि उत्पन्न करती है और चैथे प्रकार की लाठी काफी छोटी परन्तु शक्तिशाली होती है। जहाँ तक पोशाक का सम्बन्ध है खिलाड़ी तरह-तरह के रंगों की लंगोट, पगड़ी, आस्तीन रहित बनियान, कैनवास के जूते, वक्ष रक्षाकवच पहनते हैं और बेंत की बनी ढाल का उपयोग करते हैं।
सिलाम्बम में विभिन्न प्रकार की तकनीकों का उपयोग किया जाता है जिसमें सम्मिलित है पैरों की तेज चाल, लाठी चलाने के लिए दोनों हाथों का उपयोग, शरीर के विभिन्न स्तरों (सिर, कन्धा, कूल्हा और पैर के स्तर) पर बल, वेग और सटीकता को विकसित करने के लिए तथा प्रवीणता प्राप्त करने के लिए कटाक्ष, कटाव, वार और घुमाव का उपयोग। खिलाड़ी को सर्प प्रहार, बन्दर प्रहार, बाज प्रहार जैसे प्रहारों का उपयोग करके एक अदम्य झुण्ड को छिन्न-भिन्न करने म और उनके द्वारा फेंके गए पत्थरों का मार्ग मोडने में भी प्रशिक्षित होना चाहिए।
सिलाम्बम प्रतियोगिता में जीतने के तीन तरीके हैं। पहला तरीका है खिलाड़ी के हाथ से उसकी लाठी को छीना या उससे वंचित कर देना। दूसरे तरीके के अंतर्गत एक प्रतियोगी द्वारा दूसरे प्रतियोगी पर किए गए ‘स्पर्शो‘ की को गिनना पड़ता है (जिन्हें प्रतिद्वंद्वी के शरीर पर लगे चिन्हों की संख्या द्वारा दर्शाया जाता है)। तीसरे तरीके के अंदर पैसों की थैली की रक्षा करने में प्रत्येक प्रतियोगी द्वारा दिखाए कौशल का मूल्यांकन किया जाता है। अपने प्रतिद्वंदी के ललाट पर मारने में सफल होने वाला प्रतियोगी ही प्रतियोगिता में विजयी कहलाता है।

थांग-टा और सरित सरक
मणिपुर के मेइती लोगों द्वारा सृजित थांग-टा एक सशस्त्र मार्शल आर्ट है, जिसका उल्लेख सबसे घातक संग्राम रूपों में होता है। दूसरी तरफ, सरित सरक एक निःशस्त्र मार्शल आर्ट है, जिसमें हाथापाई के रूप में युद्ध किया जाता है। थांग-टा का इतिहास 17वीं शताब्दी में मिलता है जब मणिपुरी राजाओं द्वारा अंग्रेजों से लड़ने के लिए इसका सफलतापूर्वक उपयोग किया जाता था। अंग्रेजों द्वारा इस क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित हो जाने पर इन कला रूपों पर प्रतिबन्ध लग गया, हालाँकि स्वाधीनता के पश्चात् इनका पुनः प्रादुर्भाव हुआ है।
थांग का अर्थ होता है ‘तलवार‘, जबकि टा का अर्थ होता है ‘भाला‘, इस प्रकार तलवार और भाला इस थांग-टा के दो मुख्य तत्व हैं।
हुयेन लाल्लोंग के नाम से भी जाने जाने वाले इस लोकप्रिय और प्राचीन मार्शल आर्ट में एक कुल्हाड़ी और एक ढाल सहित अन्य हथियारों का भी उपयोग होता है। इसका अभ्यास तीन अलग-अलग तरीके से किया जाता है। पहला पूर्ण रूप से विधि-विधान से संबंधित है, जिसका सम्बन्ध तांत्रिक परंपराओं से है। दूसरे तरीके में भाला और तलवार के साथ नृत्य का एक मनमोहक प्रदर्शन सम्मिलित है। तीसरे और अंतिम तरीके में लड़ने की वास्तविक तकनीकों का समावेश है।
मार्शल आर्ट के अन्य रूपों से भिन्न, सरित सरक एक निःशस्त्र संग्राम है। जब इसकी तुलना एक ही समूह में विद्यमान कला के साथ की जाती है तो यह अपनी आक्रामक और कुटिल कार्रवाई के लिए काफी प्रभावशाली साबित होती।

चेइबी गद-गा
मणिपुर के सबसे प्राचीन मार्शल आर्ट्स में से एक, चेइबी गद-गा के अंतर्गत एक तलवार और एक ढाल का उपयोग करके युद्ध किया जाता है। अब इसमें संशोधन करके तलवार के स्थान पर एक मुलायम चर्म आवरण युक्त छड़ी आर एक चर्म निर्मित ढाल का उपयोग किया जाने लगा है। प्रतियोगिता एक सपाट सतह पर 7 मीटर व्यास वाले एक वृत्ताकार क्षेत्र में होती है। इस वृत्ताकार क्षेत्र के भीतर, 2-2 मीटर पर दो रेखाएं होती हैं। ‘चेइबी‘ छड़ी की लम्बाई 2 से 2.5 फीट के बीच होती है जबकि ढाल का व्यास प्रायः 1 मीटर होता है। इस प्रतियोगिता में विजय की प्राप्ति एक द्वंद्व के और अर्जित किए जाने वाले अंकों के आधार पर होती है। अंक. कौशल और शारीरिक बल के आधार पर दिए जाते है।

परी-खंडा
राजपूतों द्वारा सृजित परी-खंडा बिहार के मार्शल आर्ट का एक रूप है। इसमें तलवार और ढाल का उपयोग करके लड़ाई की जाती है। बिहार के कई भागों में अभी भी प्रचलित इस कला के विभिन्न चरणों और तकनीकों का उपयोग व्यापक रूप से छऊ नृत्य में किया जाता है। वास्तव में यह मार्शल आर्ट छऊ नृत्य का आधार है जिसमें इसके सभी तत्वों का समावेश है। इस मार्शल आर्ट के नाम में दो शब्दों का समावेश है, ‘परी‘ जिसका अर्थ है-ढाल जबकि ‘खंडा‘ का अर्थ होता है-तलवार, इस प्रकार इस कला में तलवार और ढाल दोनों का उपयोग होता है।

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