हिंदी माध्यम नोट्स
mao zedong in hindi | माआत्से-तुंग के विचार क्या है | माओ से तुंग पुस्तकें | माओ त्से तुंग के राजनीतिक विचार
माओ त्से तुंग के राजनीतिक विचार (mao zedong in hindi) माआत्से-तुंग के विचार क्या है | माओ से तुंग पुस्तकें नाम बताइये ? सिद्धांत क्या थे ?
माआत्से-तुंग के विचार
माओ की विचारधारा का विकास माओ और उसके अन्य साथियों द्वारा दीर्घकालिक एवं बार-बार होने वाले संघर्षों में प्राप्त अनुभवों की सहायता से अनेक वर्षों में हुआ था। सन् 1925 में माओ को किसानों का संगठित करने हेतु हुनान भेजा गया था। उनके साथ कार्य करते समय उसकी उनके प्रति जानकारी का विकास हुआ था। उसकी हुनान की धारणाओं ने उसे किसान वर्ग के प्रति अपनी अभिधारणा सूत्रित करने हेतु प्रेरित किया था। सन् 1927 में उसने अपनी “हुनान के किसान आन्दोलन किये गये अनुसंधान की रिपोर्ट’’ को प्रकाशित किया था। क्रॉन्ति में किसानों के महत्व का उल्लेख करते हुए उसने लिखा था: कुछ ही समय में चीन के केन्द्रीय, दक्षिणी एवं उत्तरी प्रान्तों में करोड़ों की संख्या में किसान वर्ग एक बवंडर या झंझावत की भाँति विद्रोह स्वरूप उठ खड़ा होगा, एवं यह एक ऐसा बल होगा जो अभूतपूर्व रूप से इतना उद्यत एवं हिंसक होगा कि कोई भी सत्ता, चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हो, इसका दमन करने में असमर्थ होगी। जिन बंधनों से वे इस समय जकड़े हुए हैं, उन सब को वे तोड़ देंगे और मुक्ति के मार्ग पर तेजी से आगे बढ़ेंगे। सभी साम्राज्यवादियों, युद्ध सामन्तों, बेईमान कर्मचारियों, स्थानीय गुन्डों एवं असामाजिक तत्वों को वे उनकी कब्र में भेज देंगे। उनके निर्णय के अनुसार स्वीकार किये जाने या अस्वीकार किये जाने की परख के लिये समस्त कॉन्तिकारी दल एवं समस्त कॉन्तिकारी साथी उनके सामने खड़े होंगे। लोकतांत्रिक क्रॉन्ति की उपलब्धियों हेतु माओ ने किसानों को इसमें से सात मुद्दे नियत किये थे। उसने अपनी अभिधारणा का विकास उस समय के संदर्भ में किया था। यह देश मल्ल, मे मषि प्रधान था। जनता के जीवन-यापन का मुख्य साधन भूमि थी और बीसवीं सदी के तीसरे एवं चैथे दर्शकों तक यह सुधारवादी परिवर्तनों को लागू किये बिना उनको जीवित रखने में असमर्थ थी। इस सच्चाई का आभास केवल माओ-जी-डोंन्ग एवं उसके साथियों ने किया था। विदेशी आक्रमणकारियों एवं स्वदेश के आन्तरिक प्रतिक्रियावादी वर्ग दोनों के विरुद्ध उसने मुख्य रूप से किसान वर्ग के बीच से एक जनता की सेना का विकास किया था और एक अनुशासन-बद्ध दल संगठन के रूप में उनका निर्माण किया था।
सन् 1930 के काल में हुए संघर्षों ने माओ को संयुक्त मार्च की राजनीति की प्रभावोत्पादकता का कायल कर दिया था। सन् 1940 में प्रकाशित “नये लोकतंत्र पर’’ नामक पुस्तिका में उसने अपनी अभिधारणा का विस्तृत रूप से वर्णन किया था। उसने ऐसे सब व्यक्तियों के बीच संधि स्थापित किये जाने का समर्थन किया था जो जापानी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष करने के इच्छुक थे एवं चीन में एक नये लोकतांत्रिक राज्य का विकास करने हेतु समर्पित होना चाहते थे। मार्क्सवादी-लेनिनवादी नियमों का पालन करते हुए उसने लोकतांत्रिक केन्द्रीयता की धारणा का भी विकास किया था। उसने प्रदर्शित किया था कि मुक्तरूप से की जाने वाली परिचर्चाओं एवं मुक्त रूप से मताधिकारों का उपयोग करने के माध्यम से जनता किस प्रकार नीति निर्धारण करने की पद्धति में प्रभावशाली ढंग से भाग ले सकती है। नये लोकतंत्र की आर्थिक नीति की चर्चा करते हुए उसने कहा था कि निजी एवं सार्वजनिक संस्थानों का आस्तित्व साथ-साथ बनाये रखा जा सकता है। “समस्त बैंक, बड़े उद्योग एवं बड़े व्यापारिक संस्थान राज्य की सम्पत्ति होंगे-राज्य उस समय तक, निजी सम्पत्ति के अन्य स्वरूपों को जब्त नहीं करेगा या पूँजीपतियों के उत्पादन के विकास पर रोक नहीं लगायेगा, जब तक कि यह सुनिश्चित रूप से माना जायगा कि यह जनता की आजीविका को नियंत्रित नहीं करता है।
“विरोधात्मकता पर’’ नामक आलेख में माओ के दार्शनिक विचारों की रूप रेखा प्रस्तुत की गई थी। तर्कशास्त्र की मार्क्सवादी अभिधारणा का पालन करते हुए वह लिखता है कि संघर्ष करना मानव जाति के आपसी सम्बन्धों में जन्मजात रूप से विद्यमान होता है और यह राजनीति को भी अपने अनुशासन में रखता है।
वह बताता है कि प्रतिवाद दो प्रकार के होते हैं-विरोधात्मक एवं गैर-विरोधात्मक-विरोधी वर्गों एवं विरोधी सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच होने वाले प्रतिवादी, जैसे भू-स्वामियों एवं किरायेदारों के बीच होने वाले एवं पूँजीवादी एवं समाजवादी के बीच होने वाले विरोधात्मक स्वरूप के होते हैं। गैर-विरोधात्मक प्रतिवाद उन प्रतिवादों को कहते हैं, जो सारे राष्ट्र के हितों एवं व्यक्तिगत रूप के हितों के बीच होते हैं, जो प्रतिवादी लोकतंत्रता एवं केन्द्रीयता की बीच होते हैं, जो प्रतिवादी नेताओं एवं नेतृत्व की जाने वाली जनता के बीच होते हैं एवं जो प्रतिवाद सरकार एवं जनता के बीच होते हैं’’। माओ जी डोन्ग ने लिखा था कि “वस्तुओं में प्रतिवादों के नियम को निश्चित रूप से समझना हमारे लिये सर्वोच्च रूप से महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इस प्रकार के विश्लेषणों के आधार पर हम इन प्रतिवादों का निदान करने के तरीकों का पता लगा सकते हैंश्। माओ-जी-डोंग के अनुसार विरोधात्मक प्रतिवादों का विघटन करने के लिये संघर्ष करने की आवश्यकता पड़ती है जब कि गैर-विरोधात्मक प्रतिवादों का खण्डन, समझाने, मित्रतापूर्ण परिचर्चाओं एवं इसी प्रकार के अन्य अहिंसक तरीकों के माध्यम से किया जा सकता है। उसने लिखा था, ष्प्रतिवाद सर्वव्यापी एवं निश्चित रूप के होते हैं एवं वस्तुओं के विकास की समस्त प्रक्रियाओं में विद्यमान होते हैं और शुरू से आखिर तक की सारी प्रक्रियाओं में देखे जा सकते हैं।
अपने जानकारी के सिद्धान्त को विस्तारपूर्वक बताते हुए उसने लिखा था कि दल के सदस्यों को क्रॉन्तिकारी आचरणों या मेहनत करने वाले जन-समूहों द्वारा किये जाने वाले वास्तविक रूप के क्राँन्तिकारी आन्दोलनों के साथ अपने स्वयं के परिष्कारों का सम्बन्ध विच्छेद नहीं करना चाहिये। उसने लिखा था, ‘‘अपने आचरण के माध्यम से सच्चाई की खोज कीजिये और फिर अपने आचरण के माध्यम से ही सच्चाई को प्रमाणित करके उसका विकास कीजिये। प्रत्यक्षिक ज्ञान से शुरू कीजिये एवं उसको सक्रिय रूप से विकसित करके तर्कपरक ज्ञान का रूप दीजिये: उसके तर्कपरक ज्ञान की सहायता से शुरू कीजिये एवं क्रान्तिकारी आचारण को सक्रिय रूप से निर्देशित करके व्यक्तिपरक एवं वस्तुपरक दोनों विश्वों में परिवर्तन ले आइये। आचरण, ज्ञान, फिर से आचरण, फिर ज्ञान। यह स्वरूप अविरत क्रम से चलता रहता है और प्रत्येक क्रम के बाद आचरण एवं ज्ञान का स्तर ऊपर बढ़ता रहता है। ज्ञान के भौतिकवादी सिद्धान्त का यही सार है एवं जानने और कार्य करने की एकता के सिद्धान्त का भौतिकवादी सार भी यही है’’।
उसने दल के सभी कार्यकर्ताओं से निजी स्वार्थों से ऊपर उठने की माँग की थी और कहा था कि ‘‘किसी भी साम्यवादी को किसी भी समय एवं किसी प्रकार की परिस्थितियों में अपने निजी स्वार्थों को प्राथमिकता नहीं देनी चाहिये-उसको उन्हें देश एवं जनता के हितों के नीचे रखना चाहिये। इसलिये स्वार्थपरता निकम्मापन, बेईमानी, लोकप्रसिद्धि का प्रयास करना इत्यादि सब सबसे अधिक अवहेलनीय होते हैं, जब कि निस्वार्थता, अपनी समस्त शक्ति लगाकर कार्य करना, जन कार्य हेतु सम्पूर्ण हृदय से त्यागमन होना एवं शान्तिपूर्वक कड़ी मेहनत करना, ऐसे गुण होते हैं जिनसे व्यक्ति को सम्मान प्राप्त होता है।
किसी भी क्रान्तिकारी दल के लिये माओ-जी-डोंन्ग ने ष्अनुशासन के लिये तीन प्रमुख नियमों’’ एवं “ध्यान देने हेतु आठ विषयों को नियत किया था।
अनुशासन हेतु तीन प्रमुख नियम निम्नलिखित हैं:
1) अपनी समस्त गतिविधियों में आदेशों का पालन कीजिये।
2) जन-समूहों से एक सुई या धागा तक मत लीजिये।
3) जब्त की गई प्रत्येक वस्तु समर्पित कर दीजिये।
ध्यान देने हेतु आठ विषय निम्नलिखित हैंः
1) विनम्रतापूर्वक बोलिये।
2) जो कुछ आप खरीदें, उसका उचित मूल्य दीजिये।
3) उधार ली गई प्रत्येक वस्तु को वापस लौटाइये।
4) अपने द्वारा की गई किसी भी क्षति की भरपाई कीजिये।
5) जनता की कसम मत खाइये।
6) फसल की किसी भी रूप में क्षति मत कीजिये।
7) महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार का दुराचरण मत कीजिये।
8) बन्दियों के साथ दुरव्यवहार मत कीजिये।
ये, वे नियम थे, जिनके आधार पर सेना एवं साम्यवादी दल दोनों का विकास किया गया था और एक नये चीन का निर्माण करने हेतु उन्होंने कॉन्तिकारी संघर्षों को लड़ा था।
माओ की विचारधारा की उत्पत्ति
कार्ल मार्क्स 1818-1883 एवं फ्रेड्रिक एन्जिल्स 1820-1895 द्वारा रचित मार्क्सवाद एक, दार्शनिक, आर्थिक एवं समाजवादी राजनीतिक विचारों की प्रणाली है। वी.आई. लेनिन 1870-1924 ने नई परिस्थितियों में इसका रचनात्मक रूप से विकास किया था। माओ जीडांग के नेतृत्व में चीन के सोम्यवादी दल ने भी इसमें, चीनी परिस्थितियों के संदर्भ में अभिवृद्धि की थी एवं इसका नाम मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी विचारधारा रख दिया था। मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद द्वारा चीनी क्रॉन्ति को, सैद्धान्तिक रूप का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ था।
क्रान्ति के काल में सी.पी.सी. के सैद्धान्तिक आधारों, नियमों एवं गतिविधियों का रूप रेखाँकन एवं निर्देशन विशेषरूप से अर्जित किये गये अनुभवों द्वारा, एवं क्रॉन्तिकारी संघर्षों की श्रृंखला के दौरान विकसित किये गये सामरिक महत्व के विचारों और यथार्थता एवं कार्यवाहक नियमों के प्रति नेताओं एवं कार्यकर्ताओं की विस्तृत रूप से मान्य धारणाओं द्वारा किया जाता था। सन् 1945 में यूनान में हुए सी.पी.सी. के सातवें सम्मेलन के काल में अपनाये गये दल के संविधान में माओ के विचारों की परिभाषा “समस्त कार्यों हेतु निदेशनात्मक नियमों’’ के रूप में की गई थी। सम्मेलन में बोलते समय लियू-शाओगी ने माओ की विचारधारा की व्याख्या एक ऐसे सिद्धान्त के रूप में की थी, जिसने मार्क्सवादी लेनिनवादी सिद्धान्त एवं चीनी क्रॉन्ति के आचरण का एकीकरण कर दिया था। माओ की विचारधारा को उसकी व्यक्तिगत प्रतिभा सम्बन्धी सम्पदा नहीं माना जाना चाहिये। विस्तृत रूप से यह उस काल के, समस्त मार्क्सवादी प्रतिभासंम्पन्न जन-समुदाय द्वारा किये गये अनुभवों एवं सामूहिक रूप की मानसिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती है। दीर्घकालिक संघर्षों को लड़ते समय सी.पी.सी. द्वारा अर्जित किये गये समस्त अनुभवों एवं विचारों को संकलित करके, सारांश के रूप में, उनको माओ की विचारधारा का स्वरूप प्रदान कर दिया गया था।
Recent Posts
सारंगपुर का युद्ध कब हुआ था ? सारंगपुर का युद्ध किसके मध्य हुआ
कुम्भा की राजनैतिक उपलकियाँ कुंमा की प्रारंभिक विजयें - महाराणा कुम्भा ने अपने शासनकाल के…
रसिक प्रिया किसकी रचना है ? rasik priya ke lekhak kaun hai ?
अध्याय- मेवाड़ का उत्कर्ष 'रसिक प्रिया' - यह कृति कुम्भा द्वारा रचित है तथा जगदेय…
मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi
malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…
कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए
राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…
हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained
hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…
तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second
Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…