हिंदी माध्यम नोट्स
महालवाड़ी राजस्व व्यवस्था क्या है | महालवाड़ी व्यवस्था किसने लागू किया Mahalwari System in hindi
Mahalwari System in hindi was introduced by महालवाड़ी राजस्व व्यवस्था क्या है | महालवाड़ी व्यवस्था किसने लागू किया ?
महालवाड़ी व्यवस्था (Mahalwari System)
स्थायी बंदोबस्त और रैय्यतवाड़ी व्यवस्था दोनों के अंतर्गत ग्रामीण समुदाय उपेक्षित ही रहा। आगे महालवाड़ी पद्धति में इस ग्रामीण समुदाय के लिए स्थान निर्धारित करने का प्रयास किया गया। महालवाड़ी व्यवस्था के निर्धारण में विचारधारा और दृष्टिकोण का असर देखने को मिला। इस पर रिकार्डों के लगान सिद्धांत का प्रभाव माना जाता है। किन्तु, सूक्ष्म परीक्षण करने पर यह ज्ञात होता है कि महालवाड़ी पद्धति के निर्धारण में भी प्रभावकारी कारक भौतिक अभिप्रेरणा ही रहा तथा विचारधारा का असर बहुत अधिक नहीं था। वस्तुतः अब कंपनी को अपनी भूल का एहसास हुआ।
स्थायी बंदोबस्त प्रणाली दोषपूर्ण थी. यह बात 19वीं सदी के आरम्भिक दशकों में ही स्पष्ट हो गई थी। स्थायी बंदोबस्त के दोष उभरने भी लगे थे। इन्हीं दोषों का परिणाम था कि कंपनी बंगाल में अपने भावी लाभ से वंचित हो गयी। दूसरे, इस काल में कंपनी निरंतर युद्ध और संघर्ष में उलझी हुई थी। ऐसी स्थिति में उसके पास समय नहीं था कि वह किसी नवीन पद्धति का विकास एवं उसका वैज्ञानिक रूप में परीक्षण करे तथा उसे भू-राजस्व व्यवस्था में लागू कर सके। दूसरी ओर, कंपनी के बढ़ते खर्च को देखते हुए ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति में निवेश करने के लिए भी बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता थी। उपर्युक्त कारक महालवाडी पद्धति के स्वरूप-निर्धारण में प्रभावी सिद्ध हुए।
महालवाड़ी पद्धति उत्तर भारत तथा उत्तर पश्चिम भारत के एक बड़े क्षेत्र में लागू हुई। 1801 ई. तथा 1806 ई. के बीच ब्रिटिश कंपनी को हस्तांतरित क्षेत्र तथा विजित क्षेत्र के रूप में एक बड़ा क्षेत्र प्राप्त हो गया था। आरम्भ में इन्हीं क्षेत्रों में प्रबंधन किया गया यह क्षेत्र मुगल साम्राज्य के अधीन भी एक केन्द्रीय क्षेत्र रहा था। आगे इस व्यवस्था का विस्तार मध्य प्रांत तथा पंजाब में भी किया गया उत्तर भारत में जमींदार तथा मध्यस्थ के रूप में . तालुकेदार स्थापित हो रहे थे। शुरुआती दौर में कंपनी ने इन तालुकेदारों के सहयोग से ही भू-राजस्व की वसूली आरम्भ की। लेकिन आगे चलकर तालुकदारों की शक्तियों में कटौती की गयी तथा कंपनी ने अधिकतम रूप में भू-राजस्व की वसूली पर बल दिया। इससे कुछ पुराने और शक्तिशाली तालुकंदारों में रोष उत्पन्न हुआ और उन्होंने इस स्थिति का विरोध किया, किन्तु सरकार ने विद्रोही तालुकेदारों के प्रति सख्त रवैया अपनाते हुए विरोध को दबा दिया।
महालवाड़ी पद्धति की औपचारिक शुरूआत सर्वप्रथम 1822 ई. में कंपनी के सचिव होल्ट मेकेजी द्वारा बंगाल के रेग्यूलेशन (Regulation) के आधार पर की गयी। यद्यपि कुछ क्षेत्रों में तालुकेदारों के माध्यम से भी भू-राजस्व की वसूली की जानी थी, लेकिन इस पद्धति के तहत ग्राम अथवा महाल के साथ भू-राजस्व के प्रबंधन पर जोर दिया गया। इस पद्धति के अंतर्गत भू-राजस्व का प्रबंधन किसी निजी किसान के साथ न करके सम्पूर्ण गाँव अथवा महाल के साथ किया जाना प्रस्तावित था। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु. उस गाँव अथवा महाल की भूमि का व्यापक सर्वेक्षण होना था और फिर इस सर्वेक्षण के आधार पर राज्य की राशि तय की जानी थी। स्थायी बंदोबस्त के विपरीत इसका निर्धारण अस्थायी रूप में किया जाना था। इस बात का भी ख्याल रखा जाना आवश्यक था कि इसकी अवधि बहुत कम रहे, ताकि किसानों का इस पद्धति में विश्वास बना रहे। इसलिए इसके निर्धारण की अवधि न्यूनतम 10-12 वर्षों से लेकर अधिकतम 20-25 वर्षों तक रखी गयी। इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह भी थी कि इस पद्धति के अंतर्गत भू-राजस्व की राशि अधिकतम रूप में निर्धारित की गयी। उदाहरण के लिए. जिस क्षेत्र में ताल्लुकेदार के माध्यम से वसूली की गयी, वहाँ यह कुल भूमि लगान का लगभग 30 प्रतिशत निर्धारित किया गया। वहीं दूसरी ओर. जहाँ ग्रामप्रधान अथवा लंबरदार के माध्यम से ग्राम या महाल से वसूल किया जाना था, वहां भू-राजस्व की राशि कुल भूमि लगान का 95 प्रतिशत तक भी निर्धारित कर दी गयी थी।
वह.पद्धति 1830 ई. के दशक से पूर्व सीमित रूप में प्रभावी रही। किन्तु, विलियम बैंटिक के काल में मार्टिन बर्ड नामक अधिकारी ने इस महालवाडौं पद्धति को सरलीकृत करने का प्रयत्न किया। भूमि के सर्वेक्षण के लिए एक वैज्ञानिक पद्धति अपनायी गयी। मार्टिन बर्ड के द्वारा ही भूमि का मानचित्र और पंजीयन तैयार किया गया। इसके बाद भू-राजस्व की राशि कुल भूमि लगान का 66 प्रतिशम निर्धारित की गयी और यह प्रबंधन 30 वर्षों के लिए किया गया।.इसे देखने पर यह यह निष्कर्ष निकलता है कि मार्टिन बर्ड से लेकर जेम्स टॉपसन के काल तक महालवाड़ी पद्धति का बेहतर रूप उभरकर आया।
उपर्युक्त स्थिति के विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि महालवाडी पद्धति ने परम्परागत रूप में स्थापित तालुकेदारों के हितों को चोट पहुंचाई तथा उन्हें उनके विशेषाधिकारों से वंचित कर दिया। 1857 ई. के विद्रोह में अवध के तालुकेदारों की अच्छी भागीदारी को इसी वंचना के कारणों के रूप में देखा जाता है। किसानों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप 1857 ई. के विद्रोह में महालवाड़ी क्षेत्र के किसान ने व्यापक भागीदारी निभाई। ऐसी स्थिति में सन् 1857 के विद्रोह को केवल एक सिपाही, विद्रोह मानने वालों के लिए यह एक सवालिया निशान था।
धन का बहिर्गमन (drain of Wealth)
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उपर्युक्त सभी व्यवस्थाओं के मूल में कंपनी की वाणिज्यवादी प्रकृति व्याप्त थी। धन की निकासी की अवधारणा वाणिज्यवादी सोच के क्रम में विकसित हुई। अन्य शब्दों में, वाणिज्यवादी व्यवस्था के अंतर्गत धन की निकासी उस स्थिति को कहा जाता है जब प्रतिकूल व्यापार संतुलन के कारण किसी देश से सोने. चाँदी जैसी कीमती धातुएँ देश से बाहर चली जाएँ। माना यह जाता है कि प्लासी की लड़ाई से 50 वर्ष पहले तक ब्रिटिश कंपनी द्वारा भारतीय वस्तुओं की खरीद के लिए दो करोड़ रुपये की कीमती धातु लाई गई थी। ब्रिटिश सरकार द्वारा कंपनी के इस कदम की आलोचना की गयी थी किंतु कर्नाटक युद्धों एवं प्लासी तथा बक्सर के युद्धों के पश्चात् स्थिति में नाटकीय परिवर्तन आया।
बंगाल की दीवानी ब्रिटिश कंपनी को. प्राप्त होने के साथ कंपनी ने अपने निवेश की समस्या को सुलझा लिया। अब आंतरिक व्यापार से प्राप्त रकम, बंगाल की लूट से प्राप्त रकम तथा बंगाल की दीवानी से प्राप्त रकम के योग के एक भाग का निवेश भारतीय वस्तुओं की खरीद के लिए होने लगा। ऐसे में धंन की निकासी की समस्या उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था। अन्य शब्दों में, भारत ने ब्रिटेन को जो निर्यात किया उसके बदले भारत को कोई आर्थिक, भौतिक अथवा वित्तीय लाभ प्राप्त नहीं हुआ। इस प्रकार, बंगाल की दीवानी से प्राप्त राजस्व का एक भार्ग वस्तुओं के रूप में भारत से ब्रिटेन हस्तांतरित होता रहा। इसे ब्रिटेन के पक्ष में भारत से धन का हस्तांतरण कहा जा सकता है। यह प्रक्रिया 1813 ई. तक चलती रही, किंतु 1813 ई. के चार्टर के तहत कंपनी का राजस्व खाता तथा कंपनी का व्यापारिक खाता अलग-अलग हो गया। इस परिवर्तन के आधार पर ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि 18वीं सदी के अंत में लगभग 4 मिलियन पौण्ड स्टर्लिंग रकम भारत से ब्रिटेन की ओर हस्तांतरित हुई। इस प्रकार भारत के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि 1813 ई. तक कंपनी की नीति मुख्यतः वाणिज्यवादी उद्देश्य से परिचालित रही जिसका बल इस बात पर रहा कि उपनिवेश मातृदेश के हित की दृष्टि से महत्व रखते हैं।
1813 ई. के चार्टर के तहत भारत का रास्ता ब्रिटिश वस्तुओं के लिए खोल दिया गया तथा भारत में कंपनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया इसे एक महत्वपूर्ण परिवर्तन के रूप में देखा जा सकता है। स्थिति उस समय और भी चिंताजनक रही जबं ब्रिटेन तथा यूरोप में भी कंपनी के द्वारा भारत से नियांत किए जाने वाले तैयार माल को हतोत्साहित किया जाने लगा। परिणाम यह निकला कि . अब कंपनी के समक्ष अपने शेयर धारकों को देने के लिए रकम की समस्या उत्पन्न हो गई। आरंभ में कंपनी ने नील और कपास का निर्यात कर इस समस्या को सुलझाने का प्रयास किया, किंतु भारतीय नील और कपास कैरिबियाई देशों के उत्पाद तथा सस्ते श्रम के कारण कम लागत में तैयार अमेरिकी उत्पादों के सामने नहीं टिक सकं। अतः कई नियांत एजेंसियों को घाटा उठाना पड़ा यही कारण रहा कि कंपनी ने विकल्प के रूप में भारत में अफीम के उत्पादन पर बल दिया। फिर बड़ी मात्रा में अफीम भारत से चीन को निर्यात की जाने लगी। अफीम का निर्यात चीनी लोगों के स्वास्थ्य के लिए जितना घातक था उतना ही कंपनी के व्यावसायिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक था। अफीम व्यापार का विरोध किये जाने पर भी ब्रिटिश कंपनी ने चीन पर जबरन यह घातक जहर थोप दिया। ब्रिटेन भारत से चीन को अफीम निर्यात करता और बदले में वहाँ से रेशम और चाय की उगाही करता और मुनाफा कमाता। इस प्रकार. भारत से निर्यात तो. जारी रहा किंतु बदले में उस अनुपात में आयात नहीं हो पाया।
अपने परिवर्तित स्वरूप के साथ 1858 ई. के पश्चात् भी यह समस्या बनी रही। 1858 ई. में भारत का प्रशासन ब्रिटिश क्राउन (ठतपजपेी ब्तवूद) ने अपने हाथों में ले लिया। इस परिवर्तन के प्रावधानों के तहत भारत के प्रशासन के लिए भारत सचिव के पद का सृजन किया गया। भारत सचिव तथा उसकी परिषद का खर्च भारतीय खाते में डाल दिया गया। 1857 ई. के विद्रोह को दबाने में जो रकम खर्च हुई थी, उसे भी भारतीय खाते में डाला गया। इससे भी अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि भारतीय सरकार एक निश्चित रकम प्रतिवर्ष गृह-व्यय के रूप में ब्रिटेन भेजती थी। व्यय की इस रकम में कई मदें शामिल होती थी, यथा रेलवे पर प्रत्याभूत ब्याज, सरकारी कर्ज पर ब्याज, भारत के लिए ब्रिटेन में की जाने वाली सैनिक सामग्रियों की खरीद, भारत से सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारियों के पेंशन की रकम इत्यादि। इस प्रकार गृह-व्यय की राशि की.गणना धन की निकासी के रूप में की जाती थी उल्लेखनीय है कि 19वीं सदी में धन के अपवाह में केवल गृह-व्यय ही शामिल नहीं था वरन् इसमें कुछ अन्य मदें भी जोड़ी जाती थीं। उदाहरण के लिए भारत में कार्यरत ब्रिटिश अधिकारियों के वेतन का वह भाग जो वह भारत से बचाकर ब्रिटेन भेजा जाता था तथा निजी ब्रिटिश व्यापारियों का वह मुनाफा जो भारत से ब्रिटेन भेजा जाता था। फिर जब सन् 1870 के दशक में ब्रिटिश पौण्ड स्टर्लिंग की तुलना में रुपए का अवमूल्यन हुआ तो इसके साथ ही निकासी किए गए धन की वास्तविक राशि में पहले की अपेक्षा और भी अधिक वृद्धि हो गई।
गृह-व्यय अधिक हो जाने के कारण इसकी राशि को पूरा करने के लिए भारत में निर्यात अधिशेष बरकरार रखा गया। गृह-व्यय की राशि अदा करने के लिए एक विशेष तरीका अपनाया गया। उदाहरणार्थ, भारत सचिव लंदन में कौंसिल बिल जारी करता था तथा इस कौंसिल बिल के खरीद्दार वे व्यापारी होते थे जो भारतीय वस्तुओं के भावी खरीददार भी थे। इस खरीद के. बदले भारत सचिव को पौण्ड स्टर्लिंग प्राप्त होता जिससे वह गृह-व्यय की राशि की व्यवस्था करता था। इसके बाद इस कौसिल बिल को लेकर ब्रिटिश व्यापारी भारत आते और इनके बदले वे भारतीय खाते से रुपया निकालकर उसका उपयोग भारतीय वस्तुओं की खरीद के लिए करते। इसके बाद भारत में काम करने वाले ब्रिटिश अधिकारी इस कौसिल बिल को खरीदते। केवल ब्रिटिश अधिकारी ही नहीं, बल्कि भारत में व्यापार करने वाले निजी ब्रिटिश व्यापारी भी अपने लाभ को ब्रिटेन भेजने के लिए कौसिल बिल की खरीद्दारी करते। लंदन में उन्हें उन कौंसिल बिलों के बदले में पौण्ड स्टर्लिंग प्राप्त हो जाता था।
गृह-व्यय के रूप में भारत द्वारा प्रतिवर्ष ब्रिटेन भेजी जाने वाली राशि के कारण भुगतान संतुलन भारत के पक्ष में नहीं था। यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि शेष विश्व के साथ व्यापार में संतुलन भारत के पक्ष में बना रहा। चूँकि निर्यात अधिशेष उस संपूर्ण रकम को पूरा नहीं कर पाता, इसलिए उसकी पूर्ति हेतु भारत को अतिरिक्त राशि कर्ज के रूप में प्राप्त करनी होती थी। फलतः भारत पर गृह-व्यय का अधिभार और भी बढ़ जाता। इस तरह. आर्थिक संबंधों को लेकर एक ऐसा जाल बनता जा रहा था जिसमें भारत ब्रिटेन के साथ बंधता जा रहा था।
दादाभाई नौरोजी व आर सी, दत्त जैसे राष्ट्रवादी चिंतकों ने धन की निकासी की कटु आलोचना की और इसे उन्होंने भारत के दरिद्रीकरण का एक कारण माना। दूसरी ओर. मॉरिसन जैसे ब्रिटिश प्रक्षधर विद्वान निकासी की स्थिति को अस्वीकार करते हैं। उनके द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयल किया गया कि गृह-व्यय की राशि बहुत अधिक नहीं थी और फिर यह रकम भारत के विकास के लिए जरूरी था। उन्होंने यह भी सिद्ध करने का प्रयास किया कि अंग्रेजों ने भारत में अच्छी सरकार दी तथा यहाँ यातायात और संचार व्यवस्था एवं उद्योगों का विकास किया और फिर ब्रिटेन ने बहुत कम व्याज पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार से एक बड़ी रकम भारत को उपलब्ध करवायी।
जहाँ तक राष्ट्रवादी चिंतकों की बात है तो उनका कहना है कि भारत को उस पूँजी की जरूरत ही नहीं थी जो अंग्रेजों ने उस समय उसे उपलब्ध कराई। दूसरे. यदि भारत में स्वयं पूँजी का संचय हुआ होता तो फिर उसे कर्ज लेने की जरूरत ही क्यों पड़ती। आगे धन की निकासी की व्याख्या करते हुए इन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारत उस लाभ से भी चित रह गया जो उस रकम के निवेश से उसे प्राप्त होता। साथ हो. धन के निकासी ने निवेश को अन्य तरीका से भी प्रभावित किया। उपर्युक्त विवेचन की समीक्षा करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि राष्ट्रवादी आलोचना की भी कुछ अपनी सीमाएँ थीं। उदाहरण के लिए- दादाभाई नौरोजी जैसे राष्ट्रवादी चिंतकों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि भारत से जिस धन की निकासी हुई वह महज धन नहीं था, बल्कि पूँजी थी। दूसरे, उन्होंने भारत में कार्यरत ब्रिटिश अधिकारियों को भारत के आर्थिक दोहन के लिए उत्तरदायी माना। लेकिन फिर भी यह कहा जा सकता है कि हमारे राष्ट्रवादी चिंतकों ने औपनिवेशक अर्थतंत्र की क्रमबद्ध आलोचना कर ब्रिटिश शासन के वास्तविक चरित्र को उजागर किया। अतः भावी जागरूकता की दृष्टि से उनका चिंतन सराहनीय माना जाना चाहिए।
Recent Posts
मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi
malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…
कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए
राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…
हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained
hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…
तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second
Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…
चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi
chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…
भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi
first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…