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महादेव गोविंद रानडे (एम.जी. रानाडे) mahadev govind ranade in hindi for UPSC , धार्मिक सुधार

(mahadev govind ranade in hindi) महादेव गोविंद रानडे (एम.जी. रानाडे) धार्मिक सुधार ? m g ranade in hindi biography ?

न्यायमूर्ति एम.जी. रानाडे का राजनैतिक
चिंतन
इकाई की रूपरेखा
5.0 उद्देश्य
5.1 प्रस्तावना
5.2 रानाडे और धार्मिक सुधार
5.2.1 रानाडे की हिंद धार्मिक प्रथाओं की आलोचना
5.2.2 रानाडे का ईश्वरवाद का दर्शन
5.2.3 प्रार्थना समाज और ब्रह्मो समाज की तुलना
5.3 रानाडे और सामाजिक सुधार
5.3.1 रानाडे की हिंदू समाज की आलोचना
5.3.2 रानाडे सामाजिक सुधार के तरीकों पर
5.3.3 रानाडे सामाजिक सुधार पर
5.4 रानाडे की भारतीय इतिहास की विवेचना
5.4.1 रानाडे भारतीय इतिहास में इस्लाम की भूमिका पर
5.4.2 रानाडे के मराठा शक्ति पर विचार
5.4.3 रानाडे के भारत में अंग्रेजी राज पर
5.5 न्यायमूर्ति रानाडे के राजनैतिक विचार
5.5.1 रानाडे के उदारवाद पर विचार
5.5.2 रानाडे राज्य की प्रकृति और कार्यों पर
5.5.3 रानाडे के भारतीय प्रशासन पर विचार
5.5.4 रानाडे भारतीय राष्ट्रवाद के भविष्यवक्ता
5.6 न्यायमर्ति रानाडे के आर्थिक विचार
5.6.1 रानाडे भारतीय राजनैतिक अर्थव्यवस्था पर
5.6.2 रानाडे भारतीय कृषि पर
5.6.3 रानाडे औद्योगीकरण पर
5.7 सारांश
5.8 उपयोगी पुस्तकें
5.9 बोध प्रश्नों के उत्तर

5.0 उद्देश्य
इस इकाई में 19वीं सदी में भारत में सामाजिक.राजनीतिक और आर्थिक सुधारों की वकालत करने वाले न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानाडे के सामाजिक और राजनैतिक विचारों की चर्चा की गयी है। इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आपको निम्न विषयों पर रानाडे के विचारों पर जानकारी होनी चाहिएः
ऽ सामाजिक और धार्मिक सुधारए
ऽ उदारवाद और राष्ट्रवाद की उनकी अवधार.ााएँए
ऽ भारत के आर्थिक विचार की समस्याएँ।
5.1 प्रस्तावना
उन्नीसवीं सदी में भारत में सामाजिक और राजनीतिक सुधार लाने वाली विभिन्न विचारधाराओं का उदय हो रहा था। न्यायमूर्ति एम.जी.रानाडे भारत के पश्चिमी भाग में इस सुधारवादी आंदोलन की अग्रिम पंक्ति में थे।

रानाडे का जन्म 18 जनवरी, 1842 को नासिक में एक पुरातनपंथी और संपन्न ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा कोल्हापुर में और उच्चतर शिक्षा बम्बई में एम.जी. रानाडे हई। वह एक मेधावी छात्र रहे और उन्होंने बी.ए. और एल.एल.बी., की उपाधी हासिल की। वह बम्बई न्यायिक सेवा में भर्ती हो गये। उन्होंने पुणे सार्वजनीक सभा, प्रार्थना सभा, इंडियन सोशल कांफ्रेस और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के क्रियाकलापों में हिस्सा लेकर महाराष्ट्र के लोक जीवन को प्रगतिशील स्वरूप देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

रानाडे ने लोगों में उनके अधिकारों के प्रति चेतना जगाने के लिए कई किताबें लिखी भाषण दिये और याचिकाओं की रूपरेखा तैयार की। अपनी तमाम गतिविधियों में उन्होंने राजा राममोहन राय के संदेश को आगे बढ़ाया। उन्होंने राय के कई विचारों में संशोधन किया और तर्क दिया कि सामाजिकए धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक सुधार एक दूसरे से जड़े थे। वह चहुमुखी और समग्र सुधार के हिमायती थे। वह भारत में एक ऐसे स्वतंत्र जनवादी समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसका आधार न्यायए समानता और स्वतंत्रता हो।

आगे के पृष्ठों में हम न्यायमूर्ति रानाडे क सामाजिकए धार्मिकए राजनीतिक और आर्थिक विचारों को समझाने की कोशिश करेंगे।

5.2 रानाडे और धार्मिक सुधार
रानाडे अत्यंत धार्मिक व्यक्ति थे और वह हिंदुओं में बुनियादी सुधार लाना चाहते थे। क्योंकि उनका मानना था कि हिंदुओं का कामी पतन हो गया था। यह पतन धार्मिक विश्वासों और रीतियों में विकृतियों के कारण हुआ था। इसलिए रानाडे ने सुधार का आग्रह किया।

5.2.1 रानाडे की हिंदू धार्मिक प्रथाओं की आलोचना
भारतीय संस्कृति और धर्म के महान प्रशंसक होते हुये भी रानाडे कुछ हिंदू धार्मिक विश्वासों और प्रथाओं की आलोचना करते थे। वह हिंदू धर्म में सुधार चाहते थे। इसलिए उन्होंने धर्म परिवर्तन या किसी अलग मत की स्थापना की वकालत नहीं की। वह यह महसूस करते थे कि हिंदू धर्म का बुनियादी दर्शक स्वस्थ था और आवश्यकता इस बात की थी कि हिंदू धर्म को उन भ्रष्ट और विकृत रीतियों से मुक्त किया जाये जो इस धर्म में घुस आयी थी।

रानाडे को हिंदू धार्मिक रीतियों की भावना को छोड़कर उनके बाह्य रूप में चिपटे रहने की प्रवृत्ति से चिड़ होती थी। वह बहुईश्वरवाद अर्थात् कई देवताओं की पूजा की आलोचना करते थे। उनका विश्वास एक ईश्वर के अस्तित्व में था। उनके अनुसार बहुईश्वरवाद से अंधविश्वासी और भ्रष्ट रीतियों को बढ़ावा मिला था। इससे मूर्ति पूजा को भी जन्म मिला है। विभिन्न देवताओं के मंदिर धार्मिक पुरातनपंथ और निहित स्वार्थों का केन्द्र बन गये। मूर्ति पूजा से धार्मिक अधिकारों के हाथ मजबूत हुये और एक निष्कृटतम पुरोहीत का जन्म हुआ था। इन सबने मिलकर जन साधारण को असली धार्मिक और दार्शनिक नियमों से काट दिया था। इसलिए हिंदू धार्मिक परंपरा के भीतर सुधार की अत्यंत आवश्यकता थी।

रानाडे हिंदू धर्म को उनकी तमाम करीतियों से मुक्त कराना चाहते थे और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने अपने मित्रों के सहयोग से प्रार्थना समाज की स्थापना की।

5.2.2 रानाडे का ईश्वरवाद का दर्शन
रानाडे एक ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते थे और इसलिए वह एक ईश्वरवादी थे। अपनी किताब ‘‘फिलासाफी आफ इंडियन थीम्ज (भारतीय ईश्वरवाद का दर्शन)’’ में इन्होंने ब्रह्माण्ड की ईश्वरवादी विवेचना को प्रतिपादित किया और भौतिकवाद और अज्ञेयवाद के खिलाफ लिखा। उनका सिद्धांत था कि अस्तित्व मानव आत्मा प्रकृति (पदार्थ) और ईश्वर के बीच बंटा हुआ है। ईश्वर समस्त चिंतनधाराओं का स्रोत है। मानव मन ईश्वर में शरण का इच्छुक रहता है। क्योंकि ईश्वर वह परम आत्मा है। जिसने मानव और प्रकृति के बीच संपर्क स्थापित किया। ईश्वर समस्त बुद्धि, दयालुता, सौंदर्य और शक्ति का सोत है।

मानव ने सभ्यता के विकास के विभिन्न चरणों में ईश्वर को समझने की कोशिश की है। बहुईश्वरवाद और मूर्ति पूजा इसी प्रक्रिया के कुछ चरण हैं। रानाडे यह आशा करते थे कि विज्ञान की प्रगति और ज्ञान के प्रसार के साथ मानव आत्मा के कुछ पहलुओं को समझाने में समर्थ होगा। रानाडे के अनुसार आत्मा प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक जीव में व्याप्त है। यह ब्रह्माण्ड को व्यवस्थित और सोद्देश्य बनाती है। यह तर्क, चेतन, मन और व्यक्तिगत इच्छा को सक्रिय करती है।

ईश्वर में विश्वास करते हुए भी, रानाडे मानव को ईश्वर के हाथ की कठपुतली नहीं मानते थे। मानव के पास अपना आत्मचिंतन मन और स्वतंत्र इच्छा होती है। मानव के ये विशिष्ट गण ही कानून और नैतिकता की बुनियाद हैं। हर मनुष्य के पास विवेक होता है। और अपने विवेक की रोशनी में काम करने की स्वतंत्रता होती है। उसके पास आत्म-विकास और पूर्णता की सामर्थ्य होती है। रानाडे की दृष्टि में सत्य को पवित्र ग्रन्थों में नहीं पाया जा सकता, बल्कि इसकी खोज करनी होती है। मनुष्य को ही दूसरे मनुष्यों के पास अपने संबंधों के उद्देश्य और सत्य की खोज करनी चाहिए। उनके ईश्वरवादी दर्शन का केंद्रीय विचार था नैतिकता। नैतिकता शाश्वत नहीं होती, बल्कि समय-समय पर इसकी समीक्षा करनी होती है।
रानाडे आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद में विश्वास नहीं करते थे। क्योंकि उनकी दृष्टि में ईश्वर और मानव एक नहीं है। दैवीय विधान ने उन्हें अलग-अलग रखा है। उनके अनुसार कोई भी मनुष्य ईश्वर बन सकता और न ही वह अपनी सत्ता को ब्रह्म में लीन कर सकता है। आत्मा परमात्मा के मिलन का यह लक्ष्य रहस्यमय भ्रामक है। रानाडे के अनुसारए सत्य और नैतिकता से निर्देशित साधु जीवन जीना ही मोक्ष का सार है।

5.2.3 प्रार्थना समाज और ब्रह्म समाज की तुलना
राजा राममोहन राय द्वारा संस्थापित ब्रह्म समाज से रानाडे को प्रार्थना समाज की स्थापना की प्रेरणा मिली। लेकिन रानाडे ने शुरू से ही यह निश्चय कर लिया था कि प्रार्थना समाज ब्रह्म समाज को हू-ब-हू नकल नहीं करेगा। वह चाहते थे कि प्रार्थता समाज भीतर से बदलाव लाये, हिंदूत्व में रह कर, ब्रह्म समाज की तरह नहीं जिसने, रानाडे के अनुसार, हिंदुत्व से बाहर जाकर हिंदू संप्रदाय की ऐतिहासिक निरंतरता को गड़बड़ा दिया था। प्रार्थना समाज ने भारतीय स्रोतों से प्रेरणा लेने की कोशिश की क्योंकि पुरातनपंथियों में यह विश्वास बैठा हुआ था कि ब्रह्म समाज पर ईसाई धर्म का प्रभाव था। रानाडे का दावा था कि वह ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ और तुकाराम जैसे मराठी संतों के लंबी परंपरा के सदस्य थे। उनका दावा था कि प्रार्थना समाज वास्तव में भक्ति आंदोलन का ही विस्तार था। इस तरह, इसकी प्रेरणा के स्रोत भारतीय थे और इसकी रीतियों का मूल स्थानीय। इसलिए प्रार्थना समाज महाराष्ट्र में एक अलग मत नहीं बन गया और धर्म के भीतर से सुधारने की अपनी कोशिशों में लगा रहा।

इस तरह, हम देखते हैं कि रानाडे हिंदू दार्शनिक और धार्मिक परंपरा का अत्यधिक सम्मान देने वाले एक धार्मिक व्यक्ति होते हये भी हिंदू धर्म में सुधार करना चाहते थे। जिससे यह अपने पुराने सार को फिर पा सके।
बोध प्रश्न 1
टिप्पणीः 1) अपने उत्तर के लिए नीचे दिये स्थानों का इस्तेमाल करें।
2) अपने उत्तरों का मिलान इकाई के अंत में दिये उत्तरों से कर लें।
1) हिंदू धर्म की लोक.रीतियों के खिलाफ रानाडे की मुख्य आलोचना क्या थींघ्
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…………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………..
2) प्रार्थना समाज किस तरह ब्रह्म समाज से भिन्न था?
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5.3 रानाडे और सामाजिक सुधार
रानाडे की सधार की परिकल्पना पूर्ण थी क्योंकि इसमें हमारे जीवन के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक पहलुओं को सामाहित किया गया था। आगे के पृष्ठों पर हम रानाडे की हिंदू समाज की आलोचना, उनके समाज के सुधार के तरीके, जाति-व्यवस्था नारी-मुक्ति और शिक्षा पर उनके दृष्टिकोण पर चर्चा करेंगे।
5.3.1 रानाडे की हिंदू समाज की आलोचना
रानाडे का मानना था कि हिंदू समाज की तमाम बुराइयों की जड़ को हिंदू धर्म के विकृत समय में देखा जा सकता है। धर्म में ही जाति व्यवस्था, छुआछुत और महिलाओं की दासता को स्वीकृति दी।

उनके अनुसार जाति व्यवस्था ने हिंदू समाज को तबकों और गुटों में बाँट दिया था। जाति व्यवस्था जन्म के आधार पर निर्धारित स्तर पर आधारित थी-जाति की इस स्थिति को बदला नहीं जा सकता। व्यक्ति के सामाजिक लेन-देन का निर्धारण उसकी योग्यता के आधार पर नहीं, जन्म के आधार पर होता है।

रानाडे हिंदू समाज में पूर्ण बदलाव चाहते थे। वह हिंदू समाज में स्वतंत्रता की कमी के आलोचक थे। उनका लोगों से आग्रह था कि वे मठाधीशों के बहकावे में न आकर अपने विवेक का इस्तेमाल करें। रानाडे एक ऐसा समाज बनाने की वकालत करते थे जिसमें व्यक्तियों को एक दूसरे के साथ मिलने की स्वतंत्रता होगी और उन पर जाति का प्रतिबंध नहीं होगा।

5.3.2 रानाडे सामाजिक सुधार के तरीकों पर
रानाडे सामाजिक सुधारों की इसलिये वकालत करते थे क्योंकि वह जानते थे कि चहुमुखी सुधार हिंदू समाज में बुनियादी बदलाव लाने के लिये आवश्यक थे। समाज सुधार के अलग-अलग तरीके थे और रानाडे का मानना था कि क्रांति को छोड़कर और सभी तरीकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिये। उनके अनुसार सामाजिक सुधार के निम्न चार तरीके थेः
1द्ध पहला तरीका परंपरा का तरीका था, जिसमें सामाजिक सुधारों की वकालत के लिये
धर्म ग्रंथों की मदद ली जाती है। !
2द्ध दूसरा तरीका था लोगों के विवेक को जागृत करना सधारकों को चाहिये कि वे लोगों को भ्रष्ट, अंधविश्वासी और अनुचित रीतियों के प्रति संवेदनशील बनायें।
3द्ध तीसरा तरीका था दंड लगाकर सुधार को लागू किया जाये। जैसा कि सरकार का विधवाओं को जलाने पर रोक लगाना।
4द्ध चैथा तरीका विद्रोह, जिसका लक्ष्य बरी और अमानवीय प्रथाओं को बलपूर्वक बदलना। लेकिन, इससे निरंतरता के टूटने और समाज के विभाजित हो जाने का डर था।

रानाडे क्रांति के तरीके के हामी नहीं थे क्योंकि इससे संप्रदाय की निरंतरता टूट सकती थी। रानाडे पहले दो तरीकों की सिफारिश करते थे, लेकिन वह राज्य की शक्ति के इस्तेमाल या सुधारों को बलात् लागू करने के खिलाफ भी नहीं थे। वह इस बात के भी खिलाफ नहीं थे कि एक विदेशी सरकार इतने अरसे तक भारतीयों के लिये विधान देती रहे। साथ ही, वह यह भी जानते थे कि केवल विधान से बदलाव नहीं आने वाला और इसके लिये जनता के लोकप्रिय आंदोलन की आवश्यकता होगी।

रानाडे न तो क्रांतिकारी थे, और न ही पुनर्जागरणवादी। वह धीमे और क्रमिक बदलाव के उद्विकासशील रास्ते के प्रति समर्पित थे। उनकी राय मेंए स्थायी प्रगति केवल जीवन के । मान्य तरीके के भीतर नये विचारों का सामंजस्य करके ही संभव थी।

5.3.3 रानाडे सामाजिक सुधार पर
रानाडे समाज के चहुमुखी विकास में विश्वास करते थे और उनका मानना था कि सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक सुधार एक दूसरे पर निर्भर थे। रानाडे के अनुसार सुधार धीरे-धीरे होना चाहिये। और इसे तरीके से किया जाना चाहिये जिससे परंपराओं की निरंतरता भंग न हो। वह प्राचीनता को फिर से लाने के खिलाफ थे क्योंकि इससे कछ भी सकारात्मक हासिल नहीं होता। उनका कहना थाः ‘‘समाज जैसे जीवित संगठन में कोई पुनर्जागरण संभव नहीं है। मृतक हमेशा के लिये गाड़े और जला दिये गये हैं और मृत अतीत को फिर से जलाया नहीं जा सकता। अगर पुनर्जागरण असंभव है तोए समझदार लोगों के लिये केवल सुधार का ही विकल्प बचा रहता है। विभिन्न सामाजिक अधिवेशनों और सभाओं को संबोधित करते हुएए रानाडे ने सुधारकों से आग्रह किया कि वे धीमे और क्रमिक बदलाव के लिये काम करें। उनका विश्वास था कि अगर सुधार की इस प्रक्रिया को नहीं अपनाया गया तो भारत का भविष्य अंधकारमय होगा।

रानाडे की कोशिशें सामाजिक और राजनीतिक सुधारों की तुलनात्मक महत्ता के विवाद की पृष्ठभूमि में थी। लोकमान्य तिलक और उनके अनुयायियों की यह राय थी कि राजनीतिक सुधार सामाजिक सुधारों से अधिक अहम थे क्योंकि राजनीतिक सत्ता हासिल करने के बाद, सामाजिक सुधारों को लागू करने के हमेशा संभावना रहती है। लेकिन रानाडे इससे सहमत नहीं थे और उनका विश्वास था कि सामाजिक सुधार अधिक अहम थे। उनकी राय में एक आधुनिक समाज की बुनियाद केवल सामाजिक सुधारों के जरिये ही डाली जा सकती है, सामाजिक सुधार के बाद राजनीतिक सत्ता के लिये संघर्ष सुगम हो जाता है।

इस अनुभाग के शेष भाग में हम (1) रानाडे के जाति व्यवस्था में सुधारों पर विचार (2) नारी-मुक्ति और (3) शिक्षा पर चर्चा करेंगे।

रानाडे जाति व्यवस्था के आलोचक थे, उनका विश्वास था कि जाति व्यवस्था के कारण व्यक्तिगत क्षमताओं का विकास नहीं हो पाता। रानाडे इस तथ्य की आलोचना करते थे कि जाति व्यवस्था में व्यवस्था का स्वतंत्र चुनाव करने की छूट नहीं होती, और न ही इसमें अवसर की समानता की सुनिश्चितता है। रानाडे चयन की स्वतंत्रता और समानता के आधार पर हिंदू समाज के पुनर्गठन के हिमायती थे। उन्होंने जाति व्यवस्था समाप्त करने का आग्रह किया और अंतरजातीय विवाहों की वकालत की। उन्होंने सुझाव दिया कि निचली जातियों को विकास की दूसरी सुविधाओं के जरिये शिक्षा पहुंचायी जाये।

हिन्दू सामाजिक व्यवस्था द्वारा नारी-उत्पीड़न एक और ऐसी परंपरा थी जिसमें रानाडे सुधार करना चाहते थे। रानाडे ने महिलाओं के विवाह की आय बढ़ाने वाले सहमति आयुविधेयक का समर्थन किया।

शिक्षा एक और ऐसा अहम विषय था। जिसकी तरफ रानाडे का ध्यान आकृष्ट हुआ। उन्होंने नागरिक जीवन के गुण भरने वाली एक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा की भारत में हिमायत की। शिक्षा का उद्देश्य सत्य की खोज होना चाहिये। इस तरह उनकी दृष्टि में शिक्षा का प्रभाव मुक्ति देने वाला है। वह यह पसंद नहीं करते थे कि शिक्षार्थी अपने शिक्षकों का अंधानुकरण करें। वह चाहते थे कि वे जोखिम (या रोमांच) की भावना विकसित करें। उनकी राय थी कि विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में परंपरा और आधुनिकता का उचित मिश्रा होना चाहिये। वह शारिरीक शिक्षा को भी उतनी ही अहमियत देते थे। रानाडे शिक्षा की पद्धति से अधिक अहमियत शिक्षा के विषय को देते थे। उन्हें परीक्षाओं में अधिक विश्वास नहीं था और वह चाहते थे कि विश्वविद्यालय ज्ञान और उत्कृष्टता के केंद्र बनें।

रानाडे भारतीय भाषाओं के समर्थक थे। और उनकी यह कोशिश रही कि इन भाषाओं का विकास किया जाये जिससे भारतीय जनता के सांस्कृतिक जीवन को समृद्ध किया जा सके। रानाडे चाहते थे कि अंग्रेज सरकार शिक्षा विशेष तौर पर प्राथमिक शिक्षा पर और अधिक खर्च करें। क्योंकि प्राथमिक शिक्षा बहुत उपेक्षित थी। उस समय सरकार के लिये यह संभव नहीं था कि वह हर जगह पर स्कूल खोलेए इसलिये रानाडे ने सरकारी मददवाले और निजी (या गैर-सरकारी) दोनों तरह के स्कलों की स्थापना का आग्रह किया। उनकी माँग थी कि हर गाँव में एक स्कूल खोला जाये। नारी शिक्षा और पिछड़े संप्रदायों की शिक्षा उनके प्रिय विषय थे और उन्होंने सरकार और समाज से आग्रह किया कि वह समाज के इन असहाय वर्गों के लिए शिक्षा की गतिविधियों को आगे बढ़ाये।

रानाडे अनुबन्ध और स्वतंत्र चुनाव पर आधारित एक नये भारतीय समाज की स्थापना करना चाहते थे। वह भारतीयों में मानवीय गरिमा का बोध और प्रगति के प्रति प्रतिबद्धता का भाव भरना चाहते थे।

बोध प्रश्न 2
टिप्पणीः 1) अपने उत्तर के लिये नीचे दिये स्थान का इस्तेमाल करें।
2) अपने उत्तर का मिलान इकाई के अंत में दिये उत्तर से कर लें।
1) रानाडे हिंदू समाज में किस तरह का बदलाव लाना चाहते थे?
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2) रानाडे के अनुसार हिंदू समाज पर जाति व्यवस्था के कौन से दुष्प्रभाव थे?
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3) रानाडे ने समाज के कौन से चार तरीकों की चर्चा की?
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रानाडे के अनुसार, मराठा राज्य मराठी भाषा बोलने वाले लोगों द्वारा शुरू किये गये एक बड़े सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलनों का नतीजा था रानाडे ने इंगित किया कि मराठा राज्य शिवाजी के बाद भी जीवित रहा और सच में उनकी मृत्यु के बाद ही 140 सालों तक दूर-दूर तक फैला। रानाडे का मानना था कि मराठा शक्ति का उदय एक राष्ट्रीय विद्रोह था, तमाम जनता का विद्रोह जो भाषा स्वाधीन राजनीतिक अस्तित्व के जरिये और भी एकजुटता की तलाश में थी। रानाडे का मानना था कि मराठा शक्ति का उदय केवल एक राजनीतिक क्रांति नहीं थी बल्कि मल रूप से यह एक सामाजिक क्रांति थी। यह सामाजिक क्रांति राजनीतिक क्रांति से पहले हुई और इसने राजनीतिक क्रांति के लिए जमीन तैयार की। रानाडे महाराष्ट्र के भक्ति आन्दोलन को 16वीं सदी में यूरोप में हुए प्रोटेस्टेंट सुधार आंदोलन से जोड़ कर देखते थे। इनका मानना था कि भक्ति आंदोलन ‘‘जन्म के आधार पर होने वाले वर्ग भेदों और तमाम किस्म के अनुष्ठानों के प्रति अपनी विरोध की भावना के कारण शास्त्र विरुद्ध और एक शुद्ध हृदय को वरयिता देने के कारण नैतिकष् था। रानाडे के अनुसार इससे यह साबित होता है कि हरेक राजनीतिक बदलावे के लिए सुधार जरूरी होता है। रानाडे का मानना था कि शिवाजी के नेतृत्व में मराठों के शक्तिशाली हो जाने का मुख्य कारण शिवाजी की असाधारण सामर्थ् थी। उन्होंने मराठों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे एक होकर और अलगाववादी प्रवृत्तियों को छोड़कर स्वराज के लिए संघर्ष करें। और जनता के दिलों में गहरे बैठे होने के कारण ही मराठा राज्य विपरीत परिस्थितियाँ होने पर भी समाप्त नहीं हुआ।

लेकिन रानाडे जानते थे कि मराठा राज्य में एकजुटता और आत्मानुशासन न होने के कारण मराठों का राष्ट्रीय उभार अस्थाई नहीं हो सका। मराठों द्वारा एक आधुनिक राज्य की स्थापना इसलिए संभव नहीं थी क्योंकि उसके लिए आवश्यक गुणों को उस समय व्याप्त जाति व्यवस्था में प्रोत्साहन प्राप्त नहीं था। जाति का ऐसे उदार सामाजिक राज्यतंत्र का विकास नहीं कर पाये ‘‘जिससे समाज के विभिन्न तत्व की प्रगति में मदद मिलती।’’ इससे मिली सीख को इंगित करते हुए रानाडे ने लिखा ‘‘कोशिश नाकाम रही, लेकिन नाकामी भी अपने आप में महानतम गुणों की शिक्षा रही और संभवतः अंग्रेजी दिशा निर्देश के तहत भारतीय नस्लों की एकता को मजबूत करने वाले प्रारंभिक अनुशासन का रूप लेने को उद्धल रहे।’’
5.4 रानाडे की भारतीय इतिहास की विवेचना
रानाडे हिंदू समाज में प्रचलित मानवीय रीतियों के घोर आलोचक होते हुए भी किसी भी तरह से इसके बिल्कुल खिलाफ नहीं थे। सच में तो वह भारत की परम्परा पर बहुत गर्व करते थे और यह दावा करते थे कि भारतीय लोग ईश्वर के चुने हुए लोग हैं। रानाडे की भारतीय इतिहास की विवेचना इसलिए अहम थी क्योंकि यह उनकी राष्ट्रवाद की अवधारणा के विकास का आधार बनी। रानाडे के अनुसार इतिहास का विकास दैवीय इच्छा के आधार पर हुआ। यह दैवीय इच्छा थी कि भारतीयों को विभिन्न आक्रमणों का अनुभव हो। इन आक्रमणों के कारण भारतीयों को दूसरी कौमों और संस्कृतियों से सीखने और अपनी पहचान हये बिना उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक परम्पराओं के उत्कृष्टतम तत्वों को अपने में मिला लेने का अवसर मिला।
इस अनुभाग से हम निम्न विषयों पर रानाडे के विचारों पर चर्चा करेंगे।
1) मराठा शक्ति का उदय
2) भारत में अंग्रेजी राज्य की ईश्वर की ओर से नियत होने की प्रकृति

5.4.1 रानाडे भारतीय इतिहास में इस्लाम की भूमिका पर
रानाडे का विश्वास था कि इस्लामी परम्परा के साथ अन्तःक्रिया होने के कारण स्वदेशी भारतीय समाज और संस्कृति समृद्ध हुई। इस सिलसिले में वह धार्मिक दर्शक की वह भक्ति और सूफी परंपराओं की मिसाल देते थे। वह संस्कृति की मिश्रित प्रकृति से विशेष तौर पर प्रभावित थे जोकि इस अन्तःक्रिया का नतीजा था। रानाडे हिन्दुत्व की पुनर्विवेचना से निकलने वाले भक्ति और (इस्लामी विश्व दृष्टिकोण की पुनर्रचना के द्योतक) सुफी आन्दोलनों के प्रशंसक थे। वह ललित कलाओं और वास्तुशिल्प और दूसरी सृजनात्मक गतिविधियों में आयी बारीकी से प्रभावित थे जोकि भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों और परंपराओं के आपस में मिश्रित होने का नतीजा था।

5.4.2 रानाडे के मराठा शक्ति के उदय पर विचार
रानाडे ने मराठा इतिहास का तन्मयता से अध्ययन किया था और वह ब्रितानी इतिहास के हाथों मराठा इतिहास के विकृत किये जाने से चकित थे। वह शिवाजी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने मराठा विद्रोह की ऐतिहासिक प्रक्रिया का गहन अध्ययन किया। उन्होंने अपना मशहूर लेख ‘‘द राइज आफ मराठा पावर’’ लिखकर यह दिखाया कि मराठा आन्दोलन का अपना दर्शन और उद्देश्य था।

5.4.3 रानाडे के भारत में अंग्रेजी राज्य पर
रानाडे की राय थी कि भारत पर अंग्रेजों की जात दवाय प्रबन्ध था क्योंकि ईश्वर की यही इच्छा थी कि भारतीय अंग्रेजों के निर्देश में रहे। उन्हें इस बात में कोई शक नहीं था कि भारतीय ईश्वर के चुने हुए लोग है। लेकिन अपने आप की और अपने अतीत की मुक्ति के लिए उन्हें अंग्रेजों के दिशा निर्देशों की जरूरत थी।

रानाडे ने महसूस किया कि विदेशी शासन का समाज के बौद्धिक, नैतिक और सांस्कृतिक, स्वास्थ्य पर गलत असर पड़ा था। फिर भी, उनका विश्वास था कि भारतीय उद्योगों की स्थापना बाजारों के प्रबन्ध, आधुनिक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा, अग्रेजी भाषा के ज्ञान और । विभिन्न कलाओं और विज्ञान में दक्षता के लिए अंग्रेजों के अनुभव का लाभ उठा सकते थे। इस तरह उनकी दृष्टि में अंग्रेजों का साथ एक लम्बी शैक्षिक प्रक्रिया थी जिससे भारत को अपनी आत्मा को अनुभूत करने में मदद मिलनी थी। उन्होंने भारतीयों से कहा कि वे अपने अंग्रेजी सम्पर्क से सीखे क्योंकि उनका विश्वास था कि भारत जैसे महान देश को हमेशा-हमेशा के लिए गुलाम बनाये नहीं रखा जा सकता और एक न एक दिन ईश्वर की इच्छा से इस देश की जनता उठकर एक स्थाई कॉम के स्तर पर आयेगी। उनका मानना था कि सत्ता के हस्तांतरण को रोका नहीं जा सकता।

हमने देखा कि रानाडे की भारतीय इतिहास की विवेचना का आधार उनका यह विश्वास था कि भारतीय ईश्वर के चुने हुए लोग हैं। और वे अपने अतीत की मुक्ति अंग्रेजी सम्पर्क के जरिये कर लेंगे।

बोध प्रश्न 3
टिपणीः 1) अपने उत्तर के लिए नीचे दिये स्थान का इस्तेमाल करें।
2) अपने उत्तर का मिलान इकाई के अंत में दिये उत्तर में कर लें।
1) रानाडे की गय में मराठा साम्राज्य कामयाब क्यों नहीं हो पाया?
…………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………..
2) रानाडे की भारतीय इतिहास की विवेचना किम विश्वास पर आधारित थी?
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5.5 न्यायमूर्ति रानाडे के राजनीतिक विचार
रानाडे को आधुनिक भारत का भविष्यवक्ता इसलिए माना जाता है कि उनके पास भारत के विकास की भावी दिशा की परिकल्पना थी। रानाडे की कोशिश थी कि भारतीय जनता को भौतिक प्रगति के लाभों के आरे में प्रबद्ध किया जाये जिसका इस्तेमाल नैतिक और वांछनीय जीवन के साधन के रूप में हो सकता है। इसलिए उन्होंने एक ऐसे राजनीतिक दर्शन का प्रतिपादन किया जिसका उद्देश्य राजनीति को आध्यात्मिक पुट देना था लेकिन यह दर्शन राजनीति में धर्म या आध्यात्मिक ताकतों के इस्तेमाल के खिलाफ था उनका विश्वास उदारवाद में था। लेकिन इसके सिद्धान्तों में संशोधन भी किया।

इस अनुभाग में, हमारी चर्चा का विषय रहेंगे ;पद्ध रानाडे के उदारवाद पर विचार ;पपद्ध राज्य की प्रकृति और कार्यों पर विचार ;पपपद्ध भारतीय राजनीति पर विचार और ;पअद्ध भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा पर विचार।

5.5.1 रानाडे के उदारवाद पर विचार
रानाडे की उदारवाद की अवधारणा का आधार उनका नैतिकता का समग्र सिद्धान्त, जिसका यह विश्वास था कि तमाम मानवीय गतिविधियों का उद्देश्य मनुष्य और जीवन के तमाम क्षेत्रों में उसकी क्षमता का विकास करना था। रानाडे के अनुसार हमारे जीवन का उद्देश्य मूल रूप से नैतिक है। जैसे कि उन्होंने लिखा, ’’यह लक्ष्य था समूचे मनुष्य की बुद्धि को मुक्ति करने, उसके कर्तव्य के स्तर को ऊँचा उठाने और उनकी तमाम शक्तियों को पूर्ण करने के जरिये उनका पुनरुद्धार करनाए उसे शुद्ध करना और पूर्ण बनाना। उनके अनुसार राजनीतिक उत्थान सामाजिक मुक्ति और आध्यात्मिक प्रबुखता तीन अहम लक्ष्यों को प्राप्त करना आवश्यक था।

रानाडे नरमपंथी थे। वह क्रांतिकारी तरीकों में विश्वास नहीं करते थे। उनका राजनीतिक तरीका मूल रूप से संवैधानिक था। इस तरीके में साधन की शुद्धता पर जोर दिया गया था। दूसरे, बदलाव की कोशिश संविधान समस्त सत्ता के माध्यम से होनी थी, इसे तोड़कर नहीं। तीसरे, आंदोलनकारियों से यह अपेक्षा की जाती थी वे तमाम उपलब्ध कानुनी साधनों का भरपूर इस्तेमाल करें और शासकों का दिल बदलने की कोशश करें। इस तरीके में याचिकाओं और निवेदनों के दाखिलों की अहम भूमिका थी क्योंकि वह सोचते थे कि स्थानीय शिकायतों के मामले में इस तरह के तरीके कामयाब साबित होंगे। रानाडे का सोचना था कि ये याचिकाएँ अगर नाकाम रही तो भी लोकतंत्र और राजनीति के प्रशिक्षण में उनकी उपयोगिता काम आने वाली थी।

उदारवाद की परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा था कि नरमपंथ इसका नारा होगा। उदारवादियों के लिए उन्होंने जो लक्ष्य सामने रखे थे वे मानव जाति की गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं में विश्वास, राज्य के कानूनों का पालन करने का कर्तव्य और सधारों के लिए निरंतर कोशिश करना। उदारवादियों का लक्ष्य धीरे-धीरे बदलाव लाना होना चाहिए। रानाडे संवैधानिक तरीकों से बदलाव की वकालत करते थे। उनका विश्वास था कि तरक्की स्थायी तभी हो सकती है जब यह धीरे-धीरे हो इसलिए रानाडे की उदारवादिता मूल रूप से प्रगतिशील थी।

5.5.2 रानाडे राज्य की प्रकृति और कार्यों पर
राजनीतिक अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में राज्य की भूमिका को लेकर रानाडे के विचार अंग्रेज व्यक्तिवादियों के विचारों से भिन्न थे। उनका मानना था कि राज्य अपने उत्कृष्टतम नागरिकों को शक्ति, बुद्धि, दया और दयालुता का प्रतीक है, इसलिए, इसे मानव जीवन में कहीं अधिक सकारात्मक भूमिका अदा करनी होती है। यह राज्य का कर्तव्य होता है कि वह अपनी जनता के जीवन की रक्षा करे। और अधिक नेक, सुखी और संपन्न बनाये। राज्य का उद्देश्य मूल रूप से नैतिक है। यह और ऊँचे दरजे के नागरिकों के जीवन को प्राप्त करने का एक माध्यम है।

रानाडे के अनुसार आधुनिक सामय में राज्य केवल अपनी पलिस के कार्यों पर निर्भर नहीं रह सकता। अब उसे सामाजिक कल्याण और सामाजिक प्रगति को भी देखना होता है। रानाडे का कहना था कि राज्य को विनिमय, उत्पादन और वितरण के कामों को भी अंजाम देना चाहिए। राज्य को चाहिए की वह सार्वजनिक जीवन को नियमित और नियंत्रित करे। राज्य की शक्ति का इस्तेमाल सामाजिक कुरीतियों और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को रोकने के लिए होना चाहिए। दूरे राज्य को उत्पादन की गतिविधियों में शामिल होना चाहिए। रूढ़ उदारवादियों का कहना था कि राज्य को आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। लेकिन रानाडे का तर्क था कि राज्य अर्थव्यवस्था के अहम क्षेत्रों में उद्योग लगाकर उत्पादन सम्बन्धी अंजाम दे सकता है। वह यह नहीं चाहते थे कि राज्य की कार्यवाही व्यक्तिगत पहल का स्थान ले ले बल्कि वह तो यह चाहते थे कि व्यक्तिगत पहल का आधार और भी व्यापक हो और समाज के सदस्यों में आत्म.सहायता और को बढ़ावा दिया जाये। जबकि व्यक्ति इस योग्य हो जायें कि वह अपने मसलों की खुद देखभाल कर सकें तो राज्य को पीछे हट जाना चाहिए, क्योंकि अंततः राज्य की सुरक्षा और नियंत्रण ऐसी बैसाखियाँ मात्र ही तो हैं जिनकी मदद से राष्ट्र चलना सीखता है। इस तरह रानाडे व्यक्तिगत पहल और राज्य के हस्तक्षेप के बीच एक सही संतुलन बनाना चाहते थे।

रानाडे समाजवादी तो नहीं थे, फिर भी वह राज्य के वितरण सम्बन्धी कामों की अहमियत को महसूस करते थे। वह मानते थे कि जनता की बेहतरी के लिए न्यनतम साधन जटाना राज्य का कर्तव्य है। रानाडे संपत्ति के अधिकार और स्वतंत्र व्यक्ति पहल को मानते थे। फिर भी वह अमीरों के अधिकारों पर कुछ अंकुश लगाने की वकालत करते थे। अमीर और गरीब के बीच की खाई को कम करने के लिए और सभी नागरिकों के लिये एक न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करने के लिए रानाडे राज्य के हस्तक्षेप का सुझाव देते थे। रानाडे का तर्क था कि भारत जैसे गरीब और पिछड़े देश में राज्य को उत्पादन और वितरण प्रक्रियाओं में एक सकारात्मक भूमिका निभाना आवश्यक है।

5.5.3 रानाडे के भारतीय प्रशासन पर विचार
रानाडे ने भारतीय प्रशासन का तमन्यता से अध्ययन किया था और उन्होंने इसकी कार्य-प्रणाली में कई सुधारों का सुझाव भी दिया। भारत में एक लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना उनका लक्ष्य था। उन्होंने अंग्रेजी सरकार से यह निवेदन किया कि वह लोगों को उनके मौलिक अधिकार दें। उनका मानना था कि भारत सरकार का विकास निम्न 6 सिद्धान्तों पर होना चाहिए (1) कानून की सर्वोच्चता (2) संसद के उच्चतर सदन में राजाओं का प्रतिनिधित्व वाली प्रतिनिधि सरकार (3) राज्यों के लिए समान संविधान (4) संसदीय सरकार (5) भारतीय संविधान के पूरी तौर पर विकसित होने तक शाही संसद में भारत का प्रतिनिधित्व और (6) न्यायपालिका का केन्द्रीकरण।

रानाडे की राय थी कि राष्ट्रीय समन्यवय, स्थानीय कार्यपालिका और सामहिक कार्यवाही को केन्द्रीय सरकार का दिशा-निर्देशक सिद्धान्त होना चाहिए। सरकार के सभी स्तरों पर संपर्क स्वयं होने चाहिए जिससे उचित समन्यवय स्थापित हो सके। स्थानीय स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सरकार की मांगों में सन्तुलन बनना चाहिए।

रानाडे सत्ता के विकेन्द्रीयकरण के समर्थक थे और जब लार्ड रिपन न 1882-83 में भारत में स्थानीय प्रशासनिक निकायों को गठित करने का निश्चय किया तो उन्हें बहुत खुशी हुई थी। उनकी राय थी कि सत्ता के केन्द्रीकृत होने के कारण प्रगति के तत्वों की भ्रूण हत्या हो गयी थी और स्थानीय पहल बेकार चली गयी थी।

वह चाहते थे कि अस्थानीय कामों को स्थानीय अधिकारियों को सौंपा जाये। वह स्थानीय शासन की एक ऐसी व्यापक योजना के विकास के हिमायती थे जिसमें व्यवस्था की बुनियाद ग्रामीण निकाय हो। वह यह दावा करते थे कि किसी समय में भारत में पंचायत व्यवस्था बहुत मजबूत और असरकारी थी। वह चाहते थे कि सरकार स्थानीय निकायों को व्यापक अधिकार दें जिससे वे मजबूत और जिम्मेदार बन सकें।

रानाडे ने राजवाड़ों में कुछ सुधार लागू करने की कोशिश की क्योंकि वे चाहते थे कि इन रजवाड़ों में, शासन उत्तरदायी हो और समय पर परखी रीतियों के आधार पर काम करें। उनका सुझाव था कि राज्य के कानून लिखित रूप में होने चाहिये। स्थानीय निकायों को और अधिक अधिकार दिये जाने चाहिए। सभाओं की एक परिषद की नियमित करके शासक के मनमाने अधिकारों पर अंकुश लगाना चाहिए इत्यादि।

5.5.4 रानाडे भारतीय राष्ट्रवाद के भविष्यवक्ता
रानाडे भारतीय राष्ट्रवाद के भविष्यवक्ता थे। वह पहले भारतीय चिन्तक थे। जिन्होंने इस बात पर जोर दिया कि राष्ट्रीय विकास का आधार लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और उदारवाद के सिद्धान्त होने चाहिए। उन्होंने धार्मिक सहिष्.ाता और हिंदू-मस्लिम एकता पर जोर दिया। क्योंकि उनका विश्वास था भारतीय लोग ईश्वर के चुने हुए लोग थे और भारत ही असली प्रतिशत भूमि थी। यह उनका ऐतिहासिक कर्तव्य था कि वे दुनिया को रास्ता दिखायें।

रानाडे ने यह स्पष्ट कर दिया था कि अकेले हिंदू या मुस्लिम संस्कृति भारतीय राष्ट्रवाद की बुनियाद नहीं बन सकती। बल्कि पिछले तीन हजार सालों से विकसित हो रही मिली-जुली भारतीय संस्कति भारतीय राष्ट्रवाद का आधार था। उनके अनसार भारतीय जनता । सबसे विशेष गुण था, दूसरी संस्कृति के सबसे अच्छे तत्वों को अपने में मिला लेना और । उनकी संस्कृति को एक नया आकार एवं नया रूप देना। रानाडे को अपेक्षा थी कि अंग्रेजों के साथ अंतःक्रिया से भी भारतीय संस्कृति समृद्ध होगी। कोई क्रांति नहीं हुई फिर भी चीजों की पुरानी हालात में आत्मसात करने की धीमी प्रक्रिया के जरिये स्वतः सुधार आ रहा है। दुनिया के महान धर्मों का जन्म यहाँ हुआ और अब वे फिर भाइयों की तरह मिले है और उच्चतर मुक्ति के लिए तैयार हैं, जिससे सब एक दूसरे से बंध जायेंगे और सबमें जीवन का संचार होगा। तमाम राष्ट्रों में केवल भारत को यह दान मिला है।’’

रानाडे विभिन्न संप्रदायों के सबसे अच्छे तत्वों के मिश्रण को बढ़ावा देना चाहते थे। जिससे एक सामान्य भारतीय राष्ट्रीयता को विकसित किया जा सके। राष्ट्रीय एकीकरण उनका आदर्श था। और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए जितने क्षेत्रों में जितने स्तरों पर संभव हो सके वे काम करना चाहते थे। यह प्रगति धीमी थी लेकन उनका विश्वास था कि एकता के लिए छोटे रास्ते खतरनाक थे। .

रानाडे मानते थे कि भारत के सभी प्रमुख संप्रदायों को एक साथ मिलकर सामान्य लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहिए। और गरीबी ओर पिछड़ेपन के खिलाफ संघर्ष करना चाहिए। स्वतंत्रता और सम्पन्नता एकता के बिना संभव नहीं थे। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि भारतीय राष्ट्रवाद का यह सामान्य सिद्धान्त था कि भारतीय प्रगति का मतलब था कि इसके सभी हिस्सों और संप्रदायों की प्रगति। वह मानते थे कि एकजुट कार्यवाही और प्रगति के जरिये भारतीय इतनी शक्ति जुटा सकते थे कि अंग्रेजों से भारतीयों को सत्ता का हस्तांतरण अवश्यंभावी हो जाये। भारतीय राष्ट्रवाद प्रमुख लक्षणों को इंगित करते हुए उन्होंने लिखा ‘‘आंतरिक स्रोत, वह गुप्त उद्देश्य जो कई मामलों में वेतन रूप में अनुभूत नहीं होता, मानव गरिमा और स्वतंत्रता का बोध है जो धीरे-धीरे अपनी सर्वोच्चता का राष्ट्रीय मानस पर प्रभाव डाल रहा है। यह पारिवारिक जीवन के एक क्षेत्र तक सिमित नहीं है। यह समचे मनुष्य में घुसपेट करता है और उसे यह अहसास कराता है कि व्यक्तिगत शुद्धता और सामाजिक न्याय का हम सबके ऊपर सर्वोच्च दावा है जिसकी अपेक्षा हम लंबे समय तक अस्तित्व के निम्नतर स्तर पर गिरे बिना नहीं कर सकते। इस तरह, राजनीतिक मामलों में रानाडे स्वतंत्रता और प्रगति के उद्देश्यों की वकालत करते थे और राज्य का ऐसा ढांचा विकसित करना चाहते थे जिनमें व्यक्तिगत अधिकारों और सार्वजनिक भलाई के बीच सही सन्तुलन बन सके। अपने आर्थिक विचारों में वह उसी सैद्धान्तिक संतुलन की बात को रखते थे।
बोध प्रश्न 4
टिप्पणीः 1) अपने उत्तर के लिए नीचे दिये स्थान का इस्तेमाल करें।
2) अपने उत्तर का मिलान इकाई के अंत में दिये उत्तर से कर लें।
1) रानाडे जिस राजनीतिक तरीके की वकालत करते थे उनके मुख्य गण क्या थे?
2) रानाडे के अनुसार राज्य के मुख्य काम क्या थे?

5.6 न्यायमूर्ति रानाडे के आर्थिक विचार
न्यायमूर्ति रानाडे को आधुनिक भारतीय अर्थशास्त्र का जनक माना जाता है क्योंकि उन्होंने भारत के आर्थिक विकास की समस्याओं का यथार्थवादी दृष्टिकोण से अध्ययन किया था। इस अनुभाग में हम भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था, भारतीय कृषि और भारत के औद्योगिकरण पर उनके विचारों की चर्चा करेंगे।
5.6.1 रानाडे भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर
भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था का अध्ययन करने के दौरान रानाडे में उस समय प्रचलित आर्थिक विकास के सिद्धान्तों की समीक्षा की। वह एक नतीजे पर पहंचे कि इन सिद्धान्तों का भारत जैसे पिछड़े देश में मनमाना इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि दूसरे सामाजिक विज्ञानों की तरह अर्थशास्त्र में भी समय, स्थान परिस्थितियों, व्यक्तियों के गुणों और सम्मानों उनके कानून संस्थानों और प्रथाओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए। परातन अर्थशास्त्र के नियमों को मनमाने ढंग से लारा नहीं कि सकता है। क्योंकि इतिहास में यह साबित कर दिया था कि वे हर समय और स्थान के लिए। उचित नहीं थे। रानाडे अतिवादी, व्यक्तिवाद से सहमत नहीं थे और न ही पुरातनपंथी, अर्थशास्त्रियों की सामाजिक उदासीनता से। उनका कहना था कि राज्य की कार्यवाही के आर्थिक क्षेत्र में भी कोई सैद्धान्तिक सीमा नहीं होनी चाहिये। और इसके विस्तार पर व्यवहारिक दृष्टिकोण से विचार होना चाहिये। जिन देशों में पूँजीवादी विकास देर से हुआ उन्हें प्रारंभिक और औद्योगिकरण के लिए राज्य पर निर्भर करना पड़ा।

रानाडे सोचते थे कि परातनपंथी अर्थशास्त्री वितरण की समस्या को ठीक से नहीं सुलझा पाये। इससे गरीब तो गरीबी में ही पड़े रहे और अमीर और अमीर होते चले गये। इस स्थिति में अनुबन्ध की स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं रह जाता है क्योंकि दोनों अनुबन्धित पक्ष बराबरी के नहीं होते। ‘‘ऐसी स्थिति में’’ उन्होंने लिखा ‘‘समानता और स्वतंत्रता की तमाम बातें घाव में नमक का काम करती है।’’ वह संपत्ति के अधिकार के हिमायती थे लेकिन उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि संपत्ति और विशेषाधिकार की समस्याएँ ऐतिहासिक वर्ग की और सामाजिक प्रक्रियाओं की देन थी। उनके बने रहने को केवल नैतिक आधार पर उचित ठहराया जा सकता था। और यह नैतिक औचित्य हमेशा समानता न्याय और निष्पक्षता पर आधारित था। इसलिए रानाडे किरायेदारों के पक्ष में जमींदारों के अधिकारों पर अंकुश लगाने के हिमायती थे। अगर यह समानता और निष्पक्षता की माँग थी। वह नीजी संपत्ति और उत्पादन के वितरण सम्बन्धित कानूनों के संशोधन के भी खिलाफ नहीं थे।

रानाडे का यह विचार था कि अर्थशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है और इसकी समस्याओं का अध्ययन ऐतिहासिक परिक्षेप में होकर और सामाजिक सहानुभूति के साथ किया जाना चाहिये। ।

5.6.2 रानाडे भारतीय कृषि पर
रानाडे महसूस करते थे कि कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार था। लेकिन अंग्रेजी राज्य के दौरान कि कृषि में कई खामियां थी और इसका वैज्ञानिक अधार पर पुनर्गठन जरूरी था। उनकी राय में भारतीय कृषि की खामियां थी कि कर्ज की स्थिति, उधम की कमी, सरकार द्वारा बहुत अधिक मालगुजारी की माँग, खेती के पिछड़े तरीके कृषि की साख का अभाव और आबादी के एक बड़े हिस्से की कृषि पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता कृषि में सुधार के लिए रानाडे ने निम्न सुझाव दिये,
1द्ध पंूजीदारी खेती या कृषि के नये तरीकों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये और जमीन ऐसे किसानों के हाथों में सौंप दी जानी चाहिए जिनके पास महंगे उपकरण और यंत्र खरीदने लायक पूँजी हो। इस तरह पूँजीदारी खेती के पक्ष में थे।
2द्ध उनका मानना था कि कृषि लायक जमीन को पूँजीदार किसान के हाथों दिया जाना इसलिए आवश्यक था क्योंकि वह उसका बेहतर इस्तेमाल करने की स्थिति में था। फिर भीए रानाडे जमीन को उन महाजनों के हाथ में दिये जाने के पक्ष में नहीं थे। जिनके पास जमीन जोतने का न रुझान था और न धैर्य। .ा्
3द्ध कृषि के विकास के लिए किसानों को पूँजी की जरूरत होती है। इसलिए रानाडे ने सुझाव दिया कि सहकारी ऋण संस्थानों सेवा संस्थाओं का गठन किया जाये। जो किसानों की जरूरतों को पूरा करने का काम करे। सरकार को चाहिए कि वह किसानों की ऋण सम्बन्धि आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए छोटी किसान सहकारी समस्याओं के गठन को बढ़ावा दें।
4द्ध रानाडे ने किसानों के अधिकारों की रक्षा के लिए विधान बनाकर देहाती ऋणता क्री समस्याओं के हल के उपाय सुविधा देने की साधन सुझाये। उन्होंने यह भी सुझाया कि किसानों को ऋण की सुविधा देने के लिए कृषि बैंकों का गठन किया जाये।
5द्ध कृषि के विकास के लिये आवश्यक था कि जमीन के बंदोबस्त का एक मानक निर्धारित किया जाये और उसे स्थिर किया जाये। वह ऐसी रैयतवाड़ी व्यवस्था के हिमायती थे जिसमें किसानों को अधिकार हो और मालगुजारी का बंदोबस्त स्थायी तौर पर हो।
6द्ध अविकसित जमीन के विकास के लिए रानाडे का यह सुझाव था कि उन पर राज्य के फार्म बनाये जायें। उन्हें आशा थी कि इन राज्य फार्मों के जरिये शासन केवल तभी संभव हो सकेगा जब भारतीय कृषि सम्पन्न हो जायेगी, और कृषि तब तक संपन्न नही हो सकती थी जब तक प्रबंध किफायत से चलने वाले और मेहनती किसानों के हाथों में न हो।
5.6.3 रानाडे औद्योगीकरण पर
भारत देश गरीबों का था। कृषि पर आवश्यकता से अधिक निर्भरता इस गरीबी का कारण था। इसलिए रानाडे का तर्क था कि भारतीय जनता की गरीबी औद्योगीकरण के अलावा और किसी माध्यम से दूर नहीं की जा सकती। फिर भी भारत एक पिछड़ा देश था और भारत जैसी अर्थविकसित अर्थव्यवस्था में व्यक्तिगत पहल के आधार पर औद्योगीकरण संभव नहीं था। राज्य के लिए यह आवश्यक होता था कि वह अहम क्षेत्रों राज्य के स्वामित्व वाले उद्योग लगाकर एक सकारात्मक भूमिका अदा करे। बदलाव की पहल राज्य को करनी थी। क्योंकि भारत में कृषि ‘‘देहात केंद्रित’’ और ‘‘कमजोर’’ होती जा रही थी। केवल औद्योगीकरण के जरिये ही इस कमजोरी का या मंदी को दूर किया जा सकता था।

रानाडे राष्ट्रीय आर्थिक विकास के लिए एक समेकित योजना के हिमायती थे। कृषि, व्यापार और उद्योग अर्थव्यवस्था के तीन अंग हैं और रानाडे मानते थे कि उनका उचित और तरतीबकार विकास किया जाना चाहिए। अर्थव्यवस्था को आधुनिक बनाने की कुंजी औद्योगीकरण था।

रानाडे ने राज्य द्वारा नियमित किये गये नियोजित आर्थिक विकास की हिमायत तो नहीं कीए फिर भी उनके पास राज्य के सकारात्मक हस्तक्षेप के जरिये किसी किस्म की योजना की। परिकल्पना थी, वह बदलाव की शक्तियों की गति देने के लिए राज्य की पहल के हिमायती थे।

बोध प्रश्न 5
टिप्पणीः 1) अपने उत्तर के लिए नीचे दिये स्थान का इस्तेमाल करें।
2) अपने उत्तरों का मिलान इकाई के अंत में दिये गये उत्तरों से कर लें।
1) रानाडे पूँजीधारी किसान के उदय के हिमायती क्यों थे?
2) रानाडे और पुरातनपंथी अर्थशास्त्रियों के विचारों में क्या भिन्नता थीघ्
5.7 सारांश
पीछे के पृष्ठों पर हमने न्यायमूर्ति रानाडे के सामाजिक और राजनीतिक विचारों की चर्चा की थी। आधुनिक भारत की अनेक संस्थाओं और रीतियों का स्रोत न्यायमूर्ति रानाडे ने सामाजिक और राजनीतिक विचारों में देखा जा सकता है। वह मानववादी परंपरा के एक उदारवादी चिंतक थे और समूची मानव जाति की प्रगति और कल्याण के पोषक थे। वह राजनीति को आध्यात्मिक रंग देने के हिमायती थे और हमारा जिंदगी में वह सत्य और नैतिकता की अहमियत पर जोर देते थे। वह एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसका आधार न्याय, समानता और निष्पक्षता हो। उन्होंने अव्यावहारिक परिस्थितियों को नहीं अपनाया और यही तर्क दिया कि सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए राज्य को एक सकारात्मक भूमिका अदा करनी चाहिए। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि मिश्रित भारतीय संस्कृति और सभी संप्रदायों का कल्याण भारतीय राष्ट्रवाद का आधार था। आर्थिक क्षेत्र में वह देश में औद्योगीकरण के लिए राज्य की पहल का समर्थन करते थे।

5.8 उपयोगी पुस्तकें
चंद्रा बी. 1974 राइज ऑफ इकानामिक नेशनलिज्म इन इंडिया, दिल्ली।
घोष एस. 1958 रिनसां टु इ.िडयन नेशनालिज्म एलाईड, कलकत्ता।
करुणाकरण के.पी. 1975 इ.िडयन पॉलिटिक्स फ्रॉम नौराजी टु नेहरू, गीतांजलि।
कब्र्रे, डी.जी. 1941 रानाडे.द प्राफेट आफ लिबरेटेड इंडिया, आर्य भूषण पुणे।
पैंथम टी. और डयूश के. (सं.) 1986 पॉलिटिकल थॉट इन मार्डन इंडिया सेज, दिल्ली।
पराटे टी.वी. महादेव गोविन्द रानाडे-ए बायोग्राफी।

5.9 बोध प्रश्नों के उत्तर
1द्ध रानाडे कछ धार्मिक समर्थन प्राप्त कुरीतियों को पालन करने के लिए हिन्दुओं की आलोचना करते थे। वह इसलिए हिन्दुओं की बहुदेववादी एवं मूर्तिपूजा के लिए उनकी आलोचना करते थे उनका मानना था कि विभिन्न भगवानों के मंदिर निहित स्वार्थों के केंद्र बन गये थे। बहुदेववादी एवं मूर्तिपूजा ने अविश्वासों को जन्म दिया।
2द्ध ब्रह्मो समाज में जहाँ एक अलग मत के रूप में अपने आपको स्थापित किया था वहीं प्रार्थना समाज का जोर इस बात पर था कि वह हिन्दू धर्म के भीतर रह कर ही हिंदू समाज में सुधार का काम करेगा। ब्रह्मों समाज से हट कर, प्रार्थना समाज ने भारतीय स्रोतों से प्रेरणा ग्रहण की और उनका दावा भक्ति आंदोलन की लंबी परंपरा से संबंध होने का रहा।

बोध प्रश्न 2
1द्ध रानाडे की अपेक्षा थी कि हिंदू समाज में बदलाव प्रतिबन्ध से स्वतंत्रता की ओर, अज्ञानी विश्वास से आस्था की ओर, हैसियत से अनुबंध की ओरए अधिकार से तार्किकता की ओर, अनियमित जीवन से नियमित जीवन की ओर धर्मांधता से सहिष्णुता की ओर और भाग्यवाद से मानव गरिमा के बोध की ओर जाना चाहिए।
2द्ध रानाडे के अनुसार जाति व्यवस्था भारत के पतन के लिए अत्याधिक जिम्मेदार थी क्योंकि इसने हिंदू समाज को सैकड़ों छोटे-छोटे तबकों में बांट दिया था। इस व्यवस्था में योग्यता के लिए कोई जगह नहीं थी। क्योंकि प्रगति ऊँचे स्तर की ओर उन्नति के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी क्योंकि किसी व्यक्ति का समाज में क्या स्थान होगा इसका निर्धारण उस आदमी के जन्म की जाति के आधार पर होता था। इससे छुआछुत जैसी कुरीतियों को जन्म दिया।

3द्ध रानाडे के अनुसार सामाजिक सुधार के चार तरीके थे। सामाजिक सुधार का पहला तरीका था परंपरा। दूसरा तरीका था, लोगों के विवेक को जगाना। तीसरा था विधान और राज्य की शक्ति की मदद से सुधारों को बलपूर्वक लागू करना और चैथा तरीका था क्रांति।

बोध प्रश्न 3
1द्ध रानाडे के अनुसार भारत पर मुस्लिम शासन से भारतीयों को बहुत लाभ हुआ क्योंकि दर्शन, धर्म, कला दस्तकारी, विज्ञान और शासन कला के क्षेत्र में भारतीयों ने इस्लाम से कुछ नई बातें सीखीं और उन्हें अपने धर्म और संस्कृति में अपना लिया।
2द्ध रानाडे का मानना था कि मराठा राज्य की स्थापना मराठा लोगों के एक महान सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन का नतीजा था। दूसरे यह एक राष्ट्रीय विद्रोह था। तीसरे इसके पहले मराठा संतों का सामाजिक आंदोलन हो चुका था जिसका स्वरूप प्रगतिवादी था। और अन्ततः इसका नेतृत्व शिवाजी जैसे नेता के हाथ में था. जो असाधारण योग्यता और गुणों के धनी थे।

बोध प्रश्न 4
1द्ध रानाडे की उदारवादिता एक नरमपंथी उदारवादिता थी। जिसकी क्रांतिकारी तरीकों में कोई आस्था नहीं थी। उनका राजनीतिक तरीका संवैधानिक था। इस तरीके में बदलाव का माध्यम संवैधानिक अधिकार को होना था। रानाडे का सोचना था कि स्मरण-पत्रों और आवेदनों याचिकाओं के दाखिल करने की संवैधानिक तरीके में एक अहम भूमिका थी।
2द्ध रानाडे मानव जीवन में राज्य के सकारात्मक हस्तक्षेप में विश्वास करते थे उन्होंने राज्य के काम को तीन हिस्सों में बाँटा विनिमय, उत्पादन और वितरण के काम। उनके अनुसार राज्य का काम सार्वजनिक जीवन को नियमित करना था। उत्पादकता के क्षेत्र में इसका काम उद्योग लगाने का था। और उसे ही न्याय और निष्पक्षता के आधार पर संपदा के उचित वितरण को सुनिश्चित करना था।

बोध प्रश्न 5
1द्ध रानाडे का मानना था कि पुरातनपंथी अर्थशास्त्रियों के विचारों को भारत जैसे पिछड़े देश में आँखें बन्द कर लाग नहीं किया जा सकता। पुरातनपंथी अर्थशास्त्रियों के विपरीत रानाडे आर्थिक मामलों में राज्य के हस्तक्षेप में विश्वास करते थे। वितरण के क्षेत्र में भी हम आर्थिक नियमों पर निर्भर नहीं कर सकते थे। उत्पादन का वितरण अगर न्याय और निष्पक्षता के आधार पर होना था तो राज्य का हस्तक्षेप जरूरी था। पुरातनपंथी अर्थशास्त्री राज्य का हस्तक्षेप नहीं चाहते थे।
2द्ध रानाडे पूँजीधारी किसान के उदय के समर्थक थे। क्योंक वह सोचते थे पूँजीधारी किसान कृषि में पूँजी लगा सकेगा। वह महंगे उपकरण खरीद कर कृषि को आधुनिक बनायेगा। और वह एक मुनाफे वाले व्यापार के तौर पर जमीन जोतने के काम को करेगा और कृषि के प्रबंध में मेहनत लगायेगा ।

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