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लोक सभा किसे कहते हैं | भारत में लोकसभा की परिभाषा क्या है की शक्तियां और कार्य lok sabha in hindi
lok sabha in hindi meaning definition in india लोक सभा किसे कहते हैं | भारत में लोकसभा की परिभाषा क्या है की शक्तियां और कार्य बताइए ?
संसद: लोक सभा
निम्न सदन अथवा जनता के सदन को साधारणतः लोक सभा के रूप में जाना जाता है। इसके सदस्य जनता द्वारा सीधे चुने जाते हैं। चुने जाने वाले अधिकतम सदस्यों की संख्या जो संविधान द्वारा तय की गई थी, 500 थी। सातवें संविधान संशोधन (1956) द्वारा इसे बढ़ाकर 520 सदस्य और 42वें संविधान संशोधन (1976) बढ़ाकर 545 सदस्य कर दी गई। इसमें शामिल थेअधिक-से-अधिक 525 ऐसे सदस्य जो राज्यों में क्षेत्रीय निर्वाचन-क्षेत्रों से सीधे चुनाव द्वारा चुने जाते थे, और अधिक-से-अधिक 20 ऐसे सदस्य जो केंद्रशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते थे। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रपति आंग्ल-भारतीय समुदाय के दो सदस्यों को नामांकित कर सकता है यदि वह समझता है कि उस समुदाय का लोक सभा में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है।
राज्यों के बीच सीटों का वितरण क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के सिद्धांत पर आधारित है जिसका अर्थ है प्रत्येक राज्य को सभी राज्यों की कुल जनसंख्या के अनुपात में उसकी आबादी के आधार पर सीटें आबंटित हैं। निर्वाचन के उद्देश्य से प्रत्येक राज्य निर्वाचन-क्षेत्र कही जाने वाली क्षेत्रीय इकाइयों में विभाजित है जो जनसंख्या के लिहाज से न्यूनाधिक एक ही आकार की होती है।
लोक सभा का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर कराया जाता हैय प्रत्येक वयस्क जो 18 वर्ष की आयु पार कर चुका है, वोट देने के योग्य है। वह प्रत्याशी जो सबसे अधिक संख्या में वोट सुनिश्चित कर लेता है, निर्वाचित हो जाता है। संविधान चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग के नाम से जाने जाने वाले एक स्वतंत्र संगठन की व्यवस्था देता है। निम्न सदन का आमतौर पर जीवन पाँच साल है, यद्यपि राष्ट्रपति द्वारा इसे पहले भी भंग किया जा सकता है।
लोक सभा का सदस्य बनने के लिए व्यक्ति एक भारतीय नागरिक होना चाहिए, वह 25 वर्ष की आय पूरी कर चुका हो और वे सभी अन्य अर्हताएँ रखता हो जो संसद के एक कानून द्वारा निर्धारित हैं। लोक सभा हेतु निर्वाचन के लिए प्रयास करता एक प्रत्याशी भारत में किसी भी राज्य से किसी भी संसदीय निर्वाचन-क्षेत्र से चुनाव लड़ सकता है।
संविधान ने सदस्यता के लिए कुछ अनर्हताएँ भी रखी हैं। कोई भी व्यक्ति संसद के दोनों सदनों का सदस्य अथवा संसद व किसी राज्य विधानमंडल दोनों का सदस्य नहीं हो सकता है। प्रत्याशी अनेक सीटों से चुनाव लड़ सकता है, परंतु यदि वह एक से अधिक सीट पर निर्वाचित होता है तो उसको अपनी पसंद की एक सीट के अलावा बाकी सब छोड़ देनी पड़ती हैं। यदि कोई व्यक्ति राज्य विधानमंडल तथा संसद, दोनों का चुनाव जीतता है और यदि वह राज्य विधानमंडल से निर्धारित समयावधि में त्याग-पत्र नहीं देता है, वह संसद में अपनी सीट पर अधिकार खो देगा। वे जिन्हें संसद के किसी कानून द्वारा छूट है, को छोड़कर कोई भी व्यक्ति केंद्रीय अथवा राज्य सरकार के अंतर्गत लाभ का कोई पद नहीं रख सकता है, और वह किसी सक्षम न्यायालय द्वारा दीवालिया अथवा विक्षिप्त मस्तिष्क वाला घोषित न हो। कोई सदस्य तब भी अयोग्य करार दिया जाता है जब वह बिना पूर्वानुमति के सदन की सभाओं से 60 दिन की अवधि तक अनुपस्थित रहता है अथवा वह स्वेच्छापूर्वक किसी अन्य देश की नागरिकता गृहण कर लेता है अथवा वह किसी विदेशी राज्य के प्रति अनुषक्ति की किसी अभिस्वीकृति के अधीन है।
वित्त विधेयक
किसी भी उस विधेयक को वित्त-विधेयक कहा जा सकता है जो राजस्व तथा व्यय से संबंधित हो। परंतु वित्त-विधेयक कोई धन-विधेयक नहीं होता है। अनुच्छेद 110 के अनुसार कोई भी विधेयक एक धन-विधेयक नहीं है जब तक वह लोकसभा अध्यक्ष द्वारा प्रमाणित न हो। एक धन-विधेयक को राज्य सभा में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। एक बार लोक सभा द्वारा पारित कर दिए जाने के बाद धन-विधेयक राज्य सभा को प्रेषित कर दिया जाता है। राज्य सभा किसी धन-विधेयक को निरस्त नहीं कर सकती है। इसको हर हाल में विधेयक की प्राप्ति-तिथि से चैदह दिनों की अवधि के भीतर, विधेयक को लोक सभा को लौटा देना होता है जो उसके बाद सभा अथवा किसी भी सिफारिश को स्वीकार अथवा निरस्त कर सकता है। यदि लोक सभा किसी भी सिफारिश को स्वीकार कर लेती है, धन-विधेयक को दोनों सदनों द्वारा पारित हुआ मान लिया जाता है। यदि लोक सभा किसी भी सिफारिश को नहीं मानती है, धन-विधेयक को बिना किसी संशोधन के दोनों सदनों द्वारा पारित हुआ मान लिया जाता है। यदि लोक सभा द्वारा पारित और राज्य सभा को उसकी सिफारिशों हेतु कोई धन-विधेयक चैदह दिनों भीतर उसको वापस नहीं किया जाता है, इसे मूल रूप में बताई गई अवधि की समाप्ति पर दोनों द्वारा पारित हुआ मान लिया जाता है।
संसदीय विशेषाधिकार
संसद-सदस्यों की स्वतंत्र और कुशल कार्यात्मकता हेतु यह आवश्यक है कि उनको कुछ विशेषाधिकार दिए जाएँ। संसद-सदस्यों के लिए दो प्रकार के विशेषाधिकार होते हैं: परिगणित और अगणित ।
परिगणित श्रेणी के अंतर्गत आने वाले मुख्य विशेषाधिकार जो एक सदस्य को प्राप्त हैं, वे हैं: (क) संसद के प्रत्येक सदन में बोलने की स्वतंत्रताय (ख) कुछ भी कथित अथवा मत व्यक्त किए गए के संबंध में किसी भी न्यायालय में कार्रवाई से प्रतिरक्षणय (ग) किसी भी रिपोर्ट, कागजात, वोटों अथवा कार्यवाहियों की संसद के किसी भी सदन द्वारा अथवा उसके अधिकाराधीन प्रकाशन के संबंध में उत्तरदायित्व से प्रतिरक्षणय (घ) सत्र के पूर्व और पश्चात् 40 दिन की अवधि के दौरान असैनिक मामलों में गिरफ्तारी से मुक्तिय और (ङ) किसी न्यायालय में एक गवाह के रूप में उपस्थित होने से छूट।
अगणित श्रेणी में उसी प्रकार के विशेषाधिकार तथा प्रतिरक्षण आते हैं जो ब्रिटिश पार्लियामेंट के हाउस ऑव कॉमन्स के सदस्यों को प्रदत्त हैं। हाउस ऑव कॉमन्स की ही भाँति, संसद की अवमानना के मामले में भारतीय संसद को किसी व्यक्ति को दंड देने का अधिकार है, चाहे वह सदस्य हो अथवा गैर-सदस्य।
कार्यपालिका पर नियंत्रण हेतु संसदीय युक्तियाँ
हमने देखा, संसद के महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक है – कार्यकारिणी को नियंत्रित करना। इस उद्देश्य से इसके लिए अनेक क्रिया-विधियाँ हैं।
संसद में कार्यवाही प्रक्रिया और प्रबंध के नियम व्यवस्था देते हैं कि जब तक पीठासीन अधिकारी अन्यथा निर्देश न दें, प्रत्येक बैठक प्रश्न-काल से आरंभ हो, जो कि प्रश्न पूछे जाने व उत्तर दिए जाने हेतु सुलभ है। प्रश्न पूछना सभी सदस्यों का एक अंतर्निहित संसदीय अधिकार है, वे चाहे किसी भी पार्टी से संबद्ध हों। प्रश्न पूछने में सदस्य का वास्तविक उद्देश्य होता है – प्रशासन की कमियों को उजागर करना, नीति-निर्धारण में सरकार के विचारों को सुनिश्चित करना और जहाँ नीति पहले से ही अस्तित्व में है, उस नीति में समुचित परिवर्तन करना।
ऐसी स्थिति में जब किसी प्रश्न का उत्तर प्रश्नकर्ता सदस्य को संतुष्ट नहीं करता और यदि वह महसूस करता है कि ‘जनहित में विस्तृत व्यवस्था‘ की आवश्यकता है, वह पीठासीन अधिकारी से एक चर्चा हेतु निवेदन कर सकता है। पीठासीन अधिकारी सामान्यतः बैठक के अंतिम आधे घंटे में चर्चा की इजाजत दे सकता हैं।
सदस्यगण, पीठासीन अधिकारी की पूर्वानुमति से, सार्वजनिक महत्त्व के किसी भी मसले पर किसी मंत्री का ध्यान आकृष्ट कर सकते हैं और उस मंत्री से उस विषय पर वक्तव्य देने का आग्रह कर सकते हैं। मंत्री या तो उसी वक्त एक संक्षिप्त वक्तव्य दे सकता है अथवा एक-आध घंटे बाद अथवा अगले दिन वक्तव्य देने का समय माँग सकता है।
मंत्रिगण सरकार को कार्यस्थगन प्रस्ताव की शरण लेने से उत्पन्न गंभीर परिणाम वाली चूक अथवा आचरण के किसी हाल में निर्णय के लिए फटकार लगा सकते हैं। इस प्रस्ताव का अभिप्राय किसी ऐसे मसले पर सदन का ध्यान खींचना होता है जिसके देश के लिए गंभीर परिणाम हो सकते हैं और जिसके संबंध में कोई समुचित अधिसूचनागत प्रस्ताव अथवा संकल्प बहुत विलंबित कदम होगा। कार्यस्थगन प्रस्ताव एक असाधारण प्रक्रिया है जो यदि स्वीकृत हो जाए तो सार्वजनिक महत्त्व के एक निश्चित मसले पर चर्चा हेतु सदन की सामान्य कार्यवाही को एक तरफ रख देना होता है। किसी कार्यस्थगन प्रस्ताव का स्वीकरण सरकार के अभिवेचन के बराबर है।
इन युक्तियों के अतिरिक्त, संसद विभिन्न सदन समितियों के माध्यम से कार्यकारिणी पर नियंत्रण . शक्ति का प्रयोग करती है।
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