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लुईस ए. कोसर का सिद्धांत क्या है | Lewis A. Coser theory in hindi द्वंद्व और तिरस्कार किसे कहते है ?

द्वंद्व और तिरस्कार किसे कहते है ? Lewis A. Coser theory in hindi लुईस ए. कोसर का सिद्धांत क्या है ?

 कोजर
प्रकार्यवाद और खासकर स्तरीकरण के प्रकार्यवादी सिद्धांतों की लोकप्रियता समाजशास्त्रियों में बढ़ने के साथ-साथ कुछ विद्वानों ने इनकी कमियों की ओर इशारा करना शुरू कर दिया। सबसे कड़ी आलोचना इस मान्यता की हुई कि सामाजिक व्यवस्था की रचना उसके मूल्यों की व्यवस्था के इर्दगिर्द बनी व्यापक सहमति की नींव पर होती है। इस मॉडल का आधार विविध उप-संरचनाओं की समरस क्रिया है।

मगर अनुभव के स्तर पर यह स्पष्ट हो गया था कि समूहों के बीच और उनके अंदर विभिन्न किस्म और आवेग के द्वंद्व निरंतर होते रहते हैं। इस विसंगति को आप क्या मानेंगे? क्या द्वंद्व सिर्फ एक विपथन है? क्या यह विचलन की एक अस्थायी घटना है जिसे सामाजिक व्यवस्था में विद्यमान सामाजिक नियंत्रण की अंतःनिर्मित प्रक्रिया संभाल सकती है? क्या द्वंद्व भी मतैक्य की तरह ही व्यवस्था का एक विशिष्ट लक्षण है? अगर यह बात सही है तो दोनों के बीच क्या संबंध है? कोजर का मुख्य सरोकार यही प्रश्न था।

कोजर को जॉर्ज सिमेल के प्रवर्तनकारी कार्य से प्रेरणा मिली। उन्होंने द्वंद्व को एक सकारात्मक, प्रकार्यात्मक भूमिका के रूप में देखा। कोजर अपना तर्क सिमेल के इस तर्क से शुरू करते हैं कि द्वंद्व या संघर्ष दो कार्यों को अंजाम देता हैः पहला. यह व्यवस्था के भीतर समहों की पहचान को स्थापित करता है। यह सामहिक चेतना को मजबूत करता है और एक समूह में यह जागरुकता लाता है कि वह उन ‘दूसरे‘ समूहों से अलग है जिनका वह विरोध कर रहा है। उनका यह तर्क पारसंस के तर्क से काफी मिलता है जिसे वह सीमा का पालन कहते हैं। दूसरा है, ‘परस्पर घृणा‘, जो समूहों के बीच में संतुलन बनाए रखती है और इस प्रकार यह एक समष्टि के रूप में सामाजिक व्यवस्था की प्रकार्यात्मक स्थिरता को बनाए रखती है। श्परस्पर घृणाश् शब्दावली का प्रयोग सिमेल ने किया था।

द्वंद्व के ये दोनों प्रकार्य हालांकि सामूहिक द्वंद्व की सभी स्थितियों में लागू होते हैं लेकिन स्तरित समूहों यानी जातियों और वर्गों के बीच होने वाले द्वंद्व को समझने के लिए ये सबसे उपयुक्त हैं ।

 द्वंद्व के प्रकार्य
मार्क्स के वर्ग सिद्धांत में सामूहिक पहचान को स्थापित करने और उसे बनाए रखने में द्वंद्व की भूमिका, उसका कार्य अच्छी तरह से स्पष्ट हो जाता है। मार्क्स के अनुसार वर्गों का गठन उनके अन्य वर्ग के साथ होने वाले द्वंद्व के जरिए ही होता है। व्यक्ति अन्य लोगों के साथ साझे वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण लेकर चलते हैं। मगर हो सकता है कि इसके वाबजूद वे अपने सामूहिक हितों के बारे से जागरूक नहीं हों। वे अपने आप में एक वर्ग जरूर होते हैं। मगर अपने लिए वे एक वर्ग का स्वरूप तभी धारण कर पाते हैं जब दूसरे वर्ग के विरुद्ध एक समान लडाई लडें़।

आइए, अब हम जाति व्यवस्था और इसमें द्वंद्व के दूसरे कार्य, ‘परस्पर घृणा‘ के बारे में पता करते हैं। कोजर का मानना है कि जातियों के बीच विद्यमान द्वंद्व सिर्फ विभिन्न जातियों की विशिष्टता और पृथकता को ही स्थापित नहीं करता बल्कि भारत के सामाजिक ढांचे की स्थिरता को भी सुनिश्चित करता है।

यह प्रतिद्वंद्वी जातियों के दावों के संतुलन से फलस्वरूप संभव होता है। एक ही जाति के लोग एकता के सूत्र में बंध जाते हैं जो अन्य जातियों के सदस्यों के प्रति उनके समान वैमनष्य और तिरस्कार से उत्पन्न होती है। सामाजिक प्रणाली में पदध्स्थान की क्रम परंपरा समाज में उपसमूहों या जातियों के एक-दूसरे के तिरस्कार से बनी रहती है।

द्वंद्व और तिरस्कार

अभी तक हमने स्तरों और जातियों के आपस में द्वंद्व और तिस्कार और उनसे उत्पन्न होने वाले प्रकार्यात्मक परिणामों पर चर्चा की है। इस तरह के दो प्रकार्य होते हैं। पहला, अन्य समूहों के साथ होने वाला संघर्ष या द्वंद्व समूह के भीतर एकीकरण और एकात्मता की भावना लाता है। दूसरा, समूची व्यवस्था को समूहों में एक दूसरे के प्रति विद्यमान घृणा या द्वेष का संतुलन बनाए रखता है।

अभ्यास 1
अध्ययन केन्द्र में अपने सहपाठियों के साथ द्वंद्व के प्रश्न पर विचार-विमर्श करें। क्या द्वंद्व का कोई कार्य हो सकता है? नोटबुक में अपने विचार लिखिए।

चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले यहां हम एक महत्वपूर्ण तात आपको बता दें। कभी-कभी बाहरी समूह वैमनष्य और तिरस्कार का लक्ष्य बनने के बजाए अन्य समूह के लिए सकारात्मक संदर्भ समूह का स्वरूप धारण कर लेते हैं । इस प्रकार आगे चलकर सदस्य बनने के उद्देश्य से बाहरी समूह की नकल, उसका अनुकरण किया जाता है। मेर्टन इसे प्रत्याशात्मक समाजीकरण का नाम देते हैं। मगर कोजर का मानना है कि वर्ण व्यवस्था में यह स्थिति नहीं होती क्योंकि इसमें जाति का स्थान जीवन भर के लिए निश्चित होता है और इसमें एक जाति से दूसरी जाति में गमन की नगण्य संभावना होती है। मगर एम.एन. श्रीनिवास के अनुसार आनुष्ठानिक रूप से निम्न जाति ऊंची जातियों के कर्म-कांड और जीवन-शैली अपनाने का प्रयास करती हैं ताकि जाति क्रम परंपरा में उनकी स्थिति या स्तर में सुधार आ सके। इसे वह संस्कृतीकरण कहते हैं।

विवश्त या खुली वर्ग व्यवस्था में स्तर सीमित होते हैं। इसमें ऊर्ध्वगामी और अधोगामी दोनों तरह का गमन संभव होता है। इस तरह की गतिशीलता एक आदर्श स्थिति है। हालांकि हो सकता है कि वास्तव में इसमें उतना ज्यादा गमन नहीं हो पाता हो। इस तरह की स्थिति में वर्गों की बीच वैमनष्य में उच्च वर्गों के प्रति आकर्षण भी मिला रहता है। उच्च वर्गों के प्रति वैमनष्य की भावना का यह मतलब नहीं कि इन वर्गों के मूल्यों का तिरस्कार किया जा रहा है। असल में यहां ‘अंगूर खट्टे हैं‘ वाली कहावत चरितार्थ होती है जिसका तिरस्कार किया जाता है उसे गुप्त रूप से पसंद भी किया जाता है।

बोध प्रश्न 1
1) वैमष्य और द्वंद्व के कोजर के अनुसार क्या कार्य है? पांच पंक्यियों में बताइए।
2) कोजर के अनुसार द्वंद्व के फलस्वरूप समूहों में
प) एकीकरण और एकात्मकता उत्पन्न होती है,
पप) खुला वैमनष्य पैदा होता है,
पपप) विखंडन होता है
पअ) क्रांति होती है
(सही या गलत बताइए)।

बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) द्वंद्व के प्रर्काय अनेक हैं। पहला, अन्य समूहों के साथ होने वाला द्वंद्व एक समूह को एकीकरण और एकात्मता की ओर ले जाता है। दूसरा, यह समूहों के बीच एक-दूसरे के प्रति विद्यमान वैमनष्य या विद्वेषों में संतुलन बनाकर संपूर्ण व्यवस्था को बरकरार रखता है। मगर कभी-कभी ऐसा होता है कि एक बाहरी समूह द्वेषपूर्ण प्रतिक्रिया देने के बजाए असल में सकारात्मक संदर्भ समूह बन जाता है। इसे हम प्रत्याशोत्मक समाजीकरण कहते हैं जो संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के जरिए वर्ण व्यवस्था में भी प्रवेश कर गया है।

 वर्ग द्वंद्व
अभी तक हमने मुख्य रूप से अन्य स्तरों के प्रति वैमनष्य की भावनाओं या भावों के बारे में बात की है। इस प्रकार की नकारात्मक भावनाएं विशेषाधिकारों के असमान वितरण के कारण उत्पन्न होती हैं। यहां पर आकर हमें वैमनष्यपूर्ण भावनाओं या मनोवृत्तियों और द्वंद्व के बीच भेद करना होगा। द्वंद्व दो या अधिक व्यक्तियों या समूहों के बीच परस्पर प्रभावी क्रिया है। नकारात्मक भावनाएं या वैमनष्य जरूरी नहीं कि द्वंद्वपूर्ण परस्पर क्रिया को जन्म दें।

अगर ऐसा है तो हम यह प्रश्न पूछ सकते हैं कि वे कौन-सी परिस्थितियां हैं जिनमें वैमनष्यपूर्ण भावनाएं समूहों को आपसी संघर्ष की ओर ले जाती हैं । कोजर का मानना है कि समूहों के बीच अधिकारों के असमान वितरण के फलस्वरूप वैमनष्य पैदा होता है क्योंकि इसे न्यायोचित नहीं माना जाता । इसके लिए पहले यह जरूरी है कि अधिकारहीन निर्धन समूह में यह जागरुकता आ जाए कि जो अधिकार और विशेषाधिकार उन्हें मिलनी चाहिए, उनसे उन्हें वंचित किया जा रहा है।

असमानतावादी व्यवस्था की एक बड़ी विशेषता यह है कि उसे उचित, न्यायसंगत ठहराने वाली विचारधारा भी उसके साथ-साथ निरपवाद रूप से मौजूद रहती है। जिस समूह को अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है उसे न्यायसंगत ठहराने वाली इस तरह की समर्थक विचारधारा का तिरस्कार करना होगा। वैध ठहराई जाने वाली व्यवस्था का जब इस तरह सचेतन तिरस्कार किया जाता है, उसे मानने से मना कर दिया जाता है तभी वैमनष्य की भावनाएं कार्रवाई में परिवर्तित की जा सकती हैं। यहां पर आपको कोजर के द्वंद्व परस्पर क्रिया विश्लेषण और कार्ल मार्क्स के विश्लेषण में काफी समानता नजर आ जाती है विशेषकर जब मार्क्स ‘अपने आप में एक वर्ग‘ के ‘अपने लिए एक वर्ग‘ में परिवर्तन की बात करते हैं। कोजर कहते हैं कि सामाजिक ढांचे को जब भी वैध, न्यायोचित नहीं माना तो संघर्ष के जरिए समान उद्देश्य वाले व्यक्ति आ जाते हैं और आत्मजागरुकता वाले ऐसे समूह बना लेते हैं जिनका हित एक जैसा होता है। (इकाई में आगे आप जानेंगे कि डाहरेंडॉर्फ ही ऐसा ही विचार रखते हैं)।

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