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लॉ ऑफ थ्री स्टेजेस इन हिंदी | तीन चरणों के ऑगस्ट कॉम्टे कानून त्रिस्तरीय नियम क्या है law of three stages in hindi

law of three stages in hindi लॉ ऑफ थ्री स्टेजेस इन हिंदी | तीन चरणों के ऑगस्ट कॉम्टे कानून त्रिस्तरीय नियम क्या है ?

तीन अवस्थाओं के नियम
वर्ष 1822. में जब कॉम्ट सेंट साइमन के सचिव के रूप में कार्य कर रहा था तब ही उसने मानव जाति के विकास की क्रमबद्ध अवस्थाओं को खोज निकाला। अपने अध्ययन में उसने मानव प्रजाति की प्रारंभिक अवस्था से, जिसमें वह एक बिना पँछ के वानर से उत्कृष्ट नहीं था, यूरोप की सभ्य समाज की अवस्था तक सभी को शामिल किया। अपने इस अध्ययन में उसने तुलना करने की वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया और मानव प्रगति के नियम या तीन अवस्थाओं के नियम का प्रतिपादन किया।

कॉम्ट का विश्वास था कि मानव मस्तिष्क का विकास व्यक्ति के मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ ही हुआ है। दूसरे शब्दों में उसके अनुसार जैसे व्यक्ति अपने बचपन की निष्ठावान विश्वासी अवस्था से किशोर अवस्था की समालोचक तत्वमीमांसी (जो अस्तित्व की अमूर्त धारणाओं को समझने की कोशिश करता है) अवस्था में पहुंचता है और फिर वयस्क होने पर स्वाभाविक दाशीनक अवस्था में पहुंच जाता है, उसी प्रकार मानव जाति भी विकसित होती है और उसकी चिंतनधारा भी तीन मुख्य अवस्थाओं में विकसित हुई है।

मानव चिंतन के विकास की ये तीन अवस्थाएं इस प्रकार है
प) धर्मशास्त्रीय अवस्था (जीमवसवहपबंस ेजंहम)
पप) तत्वमीमांसीय अवस्था (उमजंचीलेपबंस ेजंहम)
पप) सकारात्मक अवस्था (चवेपजपअम ेजंहम)

प) धर्मशास्त्रीय अवस्था में मस्तिष्क में किसी घटना को मानव प्राणी के तुलनीय प्राणियों या शक्तियों में आरोपित करके उसका विवेचन होता है । इस अवस्था में, मानव प्राणी का सभी कार्यों के पहले तथा अंतिम कारणों (आरंभ तथा प्रयोजन) की खोज करने का प्रयत्न होता है। इस प्रकार, इस स्तर पर मानव मस्तिष्क में यह मानकर चला जाता है कि सभी घटनाएं आलौकिक शक्तियों के तात्कालिक प्रभाव के कारण घटित होती हैं। उदाहरणतः कुछ जनजातियों में यह विश्वास किया जाता है कि चेचक, हैजा आदि जैसी कुछ बीमारियां देवताओं के प्रकोप का परिणाम होती हैं।

पप) तत्वमीमांसीय अवस्था में मस्तिष्क में घटनाओं की प्रकृति का समान अमूर्त अस्तित्व के माध्यम से विवेचन होता है। ये अमूर्त अस्तित्व मानवरूपी तत्व हैं। तत्वमीमांसीय विश्व के अर्थ तथा उसकी व्याख्या सार तत्वों, आदर्शों व स्वरूपों के संदर्भ में होती है अर्थात् इसे चरम वास्तविकता जैसे ईश्वर की संकल्पना के रूप में परिभाषित किया जाता है।

पपप) सकारात्मक अवस्था में घटनाओं को ‘‘मूल स्रोतों‘‘ या अंतिम कारणों के रूप में देखना बंद कर दिया जाता है क्योंकि न तो इन्हें तथ्यों के रूप में जांचा जा सकता है और न ही उनका हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने में ही उपयोग किया जा सकता है। इस अवस्था में मानव मस्तिष्क स्वयं को उनके नियमों के अध्ययन में लगाता है अर्थात् उनके अनुक्रम तक सादृश्य के अपरिवर्तनीय संबंधों का अध्ययन करता है (कोजर 1971ः 7)। ऐसे नियम प्रस्थापित होते हैं जो तथ्यों को एक दूसरे से जोड़ते हैं और जो सामाजिक जीवन को नियमित करते हैं।

कॉम्ट का यह मानना था कि मानव चितंन की प्रत्येक अवस्था का विकास अनिवार्य रूप से पूर्ववर्ती अवस्था से ही होता है। जब पूर्ववर्ती अवस्था पूरी हो जाती है तभी नई अवस्था का विकास होता है। उसने मानव चितंन की तीन अवस्थाओं के सामाजिक संगठन, समाज में पाए जाने वाली सामाजिक व्यवस्थाओं के प्ररूपों तथा समाज में पाई जाने वाली सामाजिक इकाइयों के प्रकारों तथा भौतिक अवस्थाओं के साथ परस्पर संबंध दिखाए हैं। उसका विश्वास था कि सामाजिक जीवन का विकास उसी ढंग से होता है जिस तरह मानव चितंन में क्रमिक परिवर्तन आते हैं।

कॉम्ट के अनुसार सभी समाजों में परिवर्तन आते रहते हैं। एक ऐसी अवस्था होती है जिसमें समाज में सामाजिक स्थिरता होती है। ऐसे समाज में बौद्धिक सामंजस्य होता है और समाज के विभिन्न भाग संतुलन में होते हैं। यह समाज का समन्वित काल होता है। लेकिन जब क्रांतिक काल आता है तो पुरानी परंपराएं, संस्थाएं आदि गड़बड़ा जाती हैं। बौद्धिक सामंजस्य समाप्त हो जाता है और समाज में एक असंतुलन फैल जाता है। कॉम्ट के विचार में फ्रांसीसी समाज इसी क्रांति काल से गुजर रहा था। उसके अनुसार समाज अराजकता के एक संक्रमण काल के दौर से अवश्य गुजरता है जो कम से कम कुछ पीढ़ियों तक चलता रहता है और यह काल जितने ज्यादा समय तक चलता रहेगा, समाज का पुनर्नवीकरण उतना ही पूर्ण होगा (कोजर 1971ः8)।

मानव प्रजाति के इतिहास में मानव चिंतन की धर्मशास्त्रीय अवस्था में धर्म का राजनीति पर प्रभुत्व रहता है और शासन फौजी शासकों का होता है। तत्वमीमांसक अवस्था में चर्च के पादरियों तथा वकीलों का प्रभुत्व होता है। यह अवस्था लगभग मध्यकाल तथा पुनर्जागरण आंदोलन के समकालीन थी। सकारात्मक अवस्था में, जिसका उदय कॉम्ट के जीवन-काल में हो ही रहा था, औद्योगिक प्रशासकों तथा वैज्ञानिक मार्ग दर्शकों का प्रभुत्व होगा।

धर्मशास्त्रीय अवस्था में सामाजिक इकाई के रूप में परिवार एक महत्वपूर्ण इकाई था। तत्वमीमांसक अवस्था में राज्य एक महत्वपूर्ण इकाई था और सकारात्मक अवस्था में संपूर्ण मानव जाति प्रचालक सामाजिक इकाई होगी।

कॉम्ट का विश्वास था कि बौद्धिक विकास अर्थात् मानव चिंतन का विकास मानव प्रगति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आधार होता है। हालांकि, उसने अन्य कारकों को भी अस्वीकार नहीं किया। उदाहरणतः उसने जनसंख्या में वृद्धि को एक ऐसा प्रमुख कारक माना जो मानव प्रगति की दर का निर्धारण करता है। जितनी ज्यादा जनसंख्या होगी उतना ही अधिक श्रम विभाजन होगा। समाज में जितना अधिक श्रम विभाजन पाया जाएगा उतना ही वह समाज विकसित होगा। इस प्रकार उसने श्रम विभाजन को सामाजिक विकास की प्रक्रिया का एक शक्तिशाली कारक माना है। कॉम्ट के विचारों का अनुसरण करते हुए एमिल दखाईम ने सामाजिक श्रम विभाजन का सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसके बारे में इसी पाठ्यक्रम के खंड 3 में आपकों अवगत करवाया जाएगा।

तीन अवस्थाओं का नियम विज्ञानों के श्रेणीक्रम के साथ भी जुड़ा हुआ है। जैसे-जैसे चिंतनधाराओं का विकास होता है वैसे ही विभिन्न विज्ञान स्थापित होते जाते हैं। समाजशास्त्र को छोड़कर सभी विज्ञान सकारात्मक अवस्था तक पहुंच चुके हैं लेकिन समाजशास्त्र के विकास के साथ ही यह प्रक्रिया पूरी हो जाएगी। आइए अब हम विज्ञानों के श्रेणीक्रम पर विचार करें। परंतु पहले सोचिए और करिए 1 को पूरा कर लें।
सोचिए और करिए 1
आपने अभी ऑगस्ट कॉम्ट के विचारों को पढ़ा है। समाज संबंधी उसके विचारों के संबंध में, समन्वित काल में सामाजिक स्थिरता तथा संतुलन और क्रांतिक काल में सामाजिक अशांति अथवा असंतुलन होता है आदि। हमारे अपने देश की सामाजिक अवस्था के बारे में दो बुजुर्गों से चर्चा करिए।

अपनी चर्चा के आधार पर भारत की वर्तमान सामाजिक दशा के बारे में एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। यदि संभव हो तो अपनी टिप्पणी की अपने अध्ययन केंद्र के दूसरे विद्यार्थियों की टिप्पणियों से तुलना कीजिए।

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