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बुनाई मशीन का आविष्कार किसने किया था , knitting machine was invented by in hindi सिलाई मशीन का आविष्कारकर्ता कौन था
जाने बुनाई मशीन का आविष्कार किसने किया था , knitting machine was invented by in hindi सिलाई मशीन का आविष्कारकर्ता कौन था ?
प्रश्न: कार्टराइट का औद्योगिक क्रांति में योगदान बताइए।
उत्तर: 1785 में कार्टराइट ने ‘शक्तिचलित करघे पावरलूम‘ का आविष्कार करके कारखाना प्रणाली की शुरूआत की।
प्रश्न: बुनाई मशीन का आविष्कार कब और किसके द्वारा किया गया।
उत्तर: 1825 में रिचर्ड रॉबर्टस ने पहली स्वचालित श्बुनाई मशीनश् का आविष्कार किया, जिससे सिले हुए वस्त्र बड़े पैमाने पर तैयार होने लगे।
प्रश्न: सिलाई मशीन का आविष्कारकर्ता कौन था? इससे औद्योगिक क्रांति पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर: 1846 में ‘एलियास हो‘ ने ‘सिलाई मशीन‘ का आविष्कार कर दिया था (लेकिन वह लकड़ी की थी) इस प्रकार बनाई से लेकर सिलाई तक वस्त्र उद्योग का कार्य मशीनों द्वारा बड़े पैमाने पर होने लग गया।
प्रश्न: जेक्स बिड़ले
उत्तर: जेक्स बिड़ले ने नहरों का निर्माण किया। जिससे यातायात सुगम एवं सस्ता हो गया। फ्रांसीसी फर्डिनेड ने स्वेज नहर का निर्माण कर यूरोप और पश्चिम-दक्षिण पूर्वी एशिया की मध्य की दूरी को कम कर दिया।
प्रश्न: ‘विलम्ब से होने वाली जापानी औद्योगिक क्रान्ति में कुछ ऐसे कारक भी थे जो पश्चिमी देशों के अनुभवों से बिल्कुल भिन्न थे।‘ विश्लेषण कीजिए।
उत्तर: औद्योगिक क्रान्ति का सूत्रपात 1760 ई. में ब्रिटेन में हुआ और यहां से यह यूरोप तथा विश्व के अन्य भागों में फैली। इस क्रांति ने मानव पर मशीन की श्रेष्ठता स्थापित कर दी थी। इसके साथ ही घरेलू उद्योगों का स्थान फैक्ट्री प्रणालियों ने ले लिया। वर्तमान में विकसित राष्ट्रों के विकसित होने के पीछे औद्योगिक क्रान्ति का बड़ा हाथ है।
जापान में औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात वर्ष 1868 में आरम्भ हुआ अर्थात् यूरोपीय देशों की औद्योगिक क्रान्ति के आधी से भी अधिक शताब्दी बाद। इस दौरान यहां औद्योगीकरण का विकास दो चरणों में हुआ। प्रथम चरण वर्ष 1868 से 1885 तथा दूसरा चरण दो विश्व युद्धों के मध्य का काल। विलम्ब से औद्योगिक क्रान्ति प्रारम्भ होने के साथ ही इसके लिए उत्तरदायी कुछ कारक पश्चिमी देशों से अलग थे।
जापान में औद्योगीकरण की प्रक्रिया युद्धोपकरण के निर्माण की आवश्यकता से प्रेरित थी जबकि यूरोपीय औद्योगिक क्रांति के पीछे निहित कारकों में उपभोक्ता वस्तुओं की प्रधानता रही। इसके अलावा अधिकांश पूँजीवाद के आरम्भिक विकास के काल में बैंकिंग पूँजी सामान्यतया औद्योगिक पूँजी से पृथक होती थी जबकि जापान में स्थिति भिन्न थी। जापान में औद्योगिक पँजी का स्वतंत्र रूप में विकास नहीं हुआ। राज्य ने स्वयं औद्योगीकरण की दिशा में पहल की। राज्य ने उद्योगों को विकसित किया और अपेक्षाकृत कम दामों पर निजी उद्यमियों को बेच दिया। अधिकतर निजी उद्यमी बैंकिंग घरानों के तिनिधि थे। इसी कारण नया औद्योगिक वर्ग सामने नहीं आ सका, बल्कि बैंकिंग एवं महाजनी पूँजी को ही प्रोत्साहन मिला तथा उन्हीं में से एक अंश का औद्योगिक पूँजी में रूपान्तरण हो गया। अतः आधुनिक पूँजीवादी राष्ट्रों की तुलना में जापानी पूँजीवाद का चरित्र अपरिपक्व बना रहा।
इसके अलावा यदि यूरोपीय पुँजीवाद की तलना जापानी पूँजीवाद से करते हैं तो हम पाते हैं कि यूरोप में वाणिज्यवाद के रूप में वाणिज्यवाद के रूप में जो व्यावसायिक एकाधिकार, निरंकुश सत्ता पर आधारित था, जब यह थोड़ा प्रौढ़ हुआ तो इसने राज्य की निरंकुशता पर नियंत्रण लगाया। परन्तु जापान में स्वतंत्र पूँजीपति वर्ग का विकास नहीं हो सका तथा राज्य की छतरी में ही पूँजीवाद का विकास होता रहा। अतः हम कह सकते हैं कि विलम्ब से होने वाली जापानी औद्योगिक क्रान्ति में कुछ कारक ऐसे भी थे जो पश्चिमी देशों के अनुभवों से बिल्कुल भिन्न थे।
प्रश्न: औद्योगिक क्रान्ति के विभिन्न क्षेत्रों पर पड़े प्रभावो/परिणामों की विवेचना कीजिए।
उत्तर: नोबैल्स – ‘‘क्रान्ति का परिणाम था नई जनता, नये वर्ग, नई नीतियां, नयी समस्याएं और नये साम्राज्या‘‘
सामाजिक क्षेत्र पर प्रभाव
1. परम्परागत सामाजिक संरचना में परिवर्तन – व्यावहारिक परम्परागत सामन्तवादी एवं विशेषाधिकारी वर्ग की जगह नवोदित उद्यमी वर्ग ने स्थान ले लिया एवं देश की राजनीति पर प्रभाव जमाया। इन्हें साथ दिया औद्योगिक क्रान्ति की संतान (श्रमिक-मजदूर) ने। बाद में उद्योगपति वर्ग एवं श्रमिक एवं मजदूर वर्ग में संघर्ष हुआ।
2. मध्यम वर्ग का उदय – औद्योगिक क्रांति से पूर्व समाज में मुख्यतः गरीब व कुलीन दो ही वर्ग थे। लेकिन इसके परिणामस्वरूप मध्यम वर्ग का तेजी से विकास हुआ। जिसने यूरोपीय सामाजिक संरचना को बदल डाला।
3. संयुक्त परिवार प्रणाली को आघात पहुंचा- ग्रामों से शहरों की ओर पलायन से एकल परिवार प्रणाली सामने आयी।
4. स्त्रियों की दशा में परिवर्तन – व्यावसायिक व राजनीतिक सुविधाओं की मांग बढ़ी, शिक्षा का प्रबंध होने लगा मताधिकार की मांग उठी।
5. मजदूर-श्रमिकों का अमानवीय शोषण – श्रमिक वर्ग की दयनीय स्थिति।
6. अनैतिकता का विकास एवं सामाजिक तनाव में वृद्धि- आकस्मिक शहरीकरण से आवास, पानी की समस्या बढ़ी। जनस्वास्थ्य की समस्या बढ़ी। प्रदूषित वातावरण, गंदी बस्तियों व शुद्ध पेयजल न होने से अनेक रोग बढे, तथा व्यभिचार में वृद्धि एवं चारित्रिक पतन हुआ। मजदूर श्रमिकों के कम वेतन, तंग कोठरियों में रहना आदि से नशवार – की प्रवृत्ति बढ़ी।
7. जीवन स्तर में उन्नति एवं मनोरंजन के साधनों का विकास हुआ।
8. शिक्षा का तेजी से प्रसार हुआ जिससे विभिन्न-अधिकारों की मांगे बढ़ी।
9. जनसंख्या का स्थानान्तरण बहुत बड़े पैमाने पर हुआ जिससे सामाजिक बहुलता में वृद्धि हुई।
10. खान-पान, पहनावा, आवास, सोच-विचार आदि में आमूल चूल परिवर्तन आ गया।
राजनैतिक क्षेत्र पर प्रभाव
1. औपनिवेशिक प्रतिस्पर्धा की शुरूआत जिससे यूरोपीय साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का तीव्र दौर आया।
2. राज्य की विदेश नीतियाँ अब अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में तय की जाने लगी।
3. श्रमिक चेतना का विकास एवं समाजवाद का आगमन।
4. राज्य की अहस्तक्षेप की नीति में परिवर्तन अब हस्तक्षेपवादी नीति शुरु हो गई।
5. मजदूर पार्टियों का विकास हुआ जिससे यूरोप में अनुदारवादी एवं उदारवादी दलों का विकास हुआ।
6. मध्यमवर्ग का राजनीतिक उत्कर्ष हुआ जिसने परम्परागत सामंतवर्ग को चुनौती दी।
7. राज्य के कार्यों में वृद्धि।
8. राजनीतिक सत्ता भूमिपतियों के हाथों से मुक्त हुई और जनतंत्र का विकास हुआ।
9. सामाजिक हित में संसदीय सुधार शुरू हुए। 1867 में मजदूरों को मताधिकार दिया गया
10. राष्ट्रों में परस्पर अविश्वास, शंका व द्वैषता का विकास हुआ।
11. असुरक्षा की भावना ने अन्तर्राष्ट्रीय तनाव को बढ़ाया जिसके परिणामस्वरूप प्रथम विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हुई।
आर्थिक क्षेत्र पर प्रभाव
1. उत्पादन में वृद्धि एवं लागत में कमी हुई। उत्पादन 50-60 वर्षों में 30 से 40 गुना बढ़ गया जिससे निर्यात में बढ़ोतरी हुई।
2. पुराने कुटीर उद्योगों का हृास एवं बड़े-बड़े कारखानों एवं फैक्ट्री पद्धति का विकास।
3. राष्ट्रीय बाजारों का संरक्षण।
4. पारस्परिक निर्भरता का विकास।
5. अहस्तक्षेपवादी अवधारणा का त्याग।
6. व्यापार चक्रों की पुनरावर्ति एवं आर्थिक संकट की पुनरावर्ति।
7. ट्रेड यूनियनों का विकास तेजी से होने लगा जिससे श्रमिक एवं मजदूरों की स्थिति में सुधार हुआ।
आर्थिक प्रभाव
1. औद्योगिक केन्द्रों एवं नगरों का विकास। मेनचेस्टर, लिवरपूल आदि अब नगर अर्थव्यवस्था के आधार बन गये।
2. कच्चे माल की आपूर्ति व उत्पादित माल को खपाने के लिए अविकसित व पिछडे देशों में मंडियों एवं बाजारों की तलाश शुरु हुई जिससे उपनिवेशवाद की दौड़ हुई।
3. औद्योगिक पूंजीवाद का उदय – अर्थात् उद्योग स्थापित करने के लिए अधिक पूंजी की आवश्यकता महसूस हुई जिससे संयुक्त स्कन्ध कम्पनियों एवं औद्योगिक निगमों का जन्म हुआ। ऋण की सुविधा से बैंकिंग का विकास हुआ तथा परिवहन आदि में रिस्क की वजह से बीमा क्षेत्र का व्यापक विकास हुआ।
4. नई आर्थिक विचारधारों का विकास। पूँजीवादी व्यवस्था को पोषित करने वाली नई आर्थिक विचारधाराओं का विकास हुआ।
प. लैसेज फेयर – एडम स्मिथ
पप. मजदूरी का लौह नियम – रिकार्डों
पपप. जनसंख्या की वृद्धि गुणात्मक जबकि खाद्यान की वृद्धि समांतर बढ़ती है अतः जनसंख्या सीमित रखने का सबसे अच्छा उपाय है मजदूरों को दरिद्र अवस्था में बनाएं रखना – माल्थस।
पअ. समाजवाद अर्थात समाज में समानता की स्थापना करना।
ंण् आर्थिक व्यक्तिवाद के विरूद्ध
इण् श्रमिक व मजदूरों की एकता
बण् धन का न्यायोचित वितरण
मानतावादी उद्योगपति
कुछ मानवतावादी उद्योगपति हुए जिन्होंने श्रमिकों एवं मजदूरों के कल्याण के लिए कुछ कदम उठाए। जिनमें ब्रिटिश – रॉबर्ट ओवन, विलियम थामसन, टॉमस हाडस्किन फ्रांसीसी-सेंट साइमन, फाउरिये, लूई ब्लाँक आदि समाजवादी विचारक प्रसिद्ध हैं। जिसे व्यवहारवादी धरातल प्रदान किया कार्ल मार्क्स एवं हीगल ने।
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