हिंदी माध्यम नोट्स
कर्नाटक संगीत का पितामह किसे कहा जाता है कहा गया है karnataka sangeet ka pita kaun hai
karnataka sangeet ka pita kaun hai ya janak कर्नाटक संगीत का पितामह किसे कहा जाता है कहा गया है ?
उत्तर : पुरन्दरदास को कर्नाटक संगीत का पितामह कहते है |
वर्ष 1484 में पुरन्दरदास के आगमन से कर्नाटक संगीत के विकास में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना घटी। उन्होंने कला में पूर्ण व्यवस्था और शुद्धीकरण के जरिए यह कार्य किया। यह स्थिति आज तक वैसी ही बनी हुई है। उन्हें श्कर्नाटकश् संगीत का पितामह कहा जाना ठीक ही है।
कर्नाटक शास्त्रीय संगीत
भारत में प्राचीनकाल से प्रचलित संगीत शास्त्र का इतिहास वेदों की ओर जाता है। भारतीय संगीत शास्त्र से संगीत अभिव्यक्ति की नई शैलियों की खोज से पता चलता है कि मनुष्य की प्रतिभा कितनी ऊँचाई तक पहुंच सकती है। मनोरंजन के अलावा संगीत का प्रयोग मानव के व्यक्तित्व के विकास हेतु किया जाता था ताकि आन्तरिक सुख प्राप्त कर सके। इसकी एक दम सही ध्वनि प्रणाली और विस्तृत राग व भारतीय संगीत की तबला पद्धतियां इसे विश्व की अन्य आधुनिकतम संगीत पद्धति के बराबर का स्थान दिलाती हैं।
संगीत के संबंध में हमारे पास जो प्राचीनतम शोध-प्रबन्ध है वह भारत का नाट्य शास्त्र है। भारत के बाद संगीत के संबंध में अन्य शोध-प्रबन्ध , जैसे कि मतंग का बृहद्देसी, सारंगदेव का संगीत रत्नाकर, हरिपाल का संगीत सुधाकर, रम्ममत्या का स्वरमेलकलानिधि आदि से हमें संगीत के विभिन्न पहलुओं के बारे में और भिन्न-भिन्न कालों के दौरान इसके विकास के बारे में सूचना का एक स्रोत प्राप्त होता है। दक्षिण भारत के प्राचीन तमिलों ने भारत की अत्यंत विकसित प्रणाली उसकी सोल्फा पद्धतियों, सुसंगत और विसंगत लेखों, सोपानों और विधियों के साथ विकसित की थी। संगीत और नृत्य के साथ अनेक वाद्य यंत्रों का भी प्रयोग किया जाता था। श्सिलप्पदिकरमश् नामक द्वितीय शताब्दी ई.प. के तमिल शास्त्रों में उस अवधि के संगीत का एक सामान्य उल्लेख किया गया है। सातवीं और आठवीं शताब्दी ईसवी के शैव और वैष्णव सन्तों का योगदान और तोलकापियम कोल्लादम भी संगीत इतिहास का अध्ययन करने के लिए स्रोत सामग्री उपलब्ध कराते हैं।
भारतीय संगीत के विकास के दौरान हिन्दुस्तानी और कर्नाटक संगीत के रूप में दो उप भिन्न-भिन्न शैलियां विकसित हुई जिसका उल्लेख 14 वीं शताब्दी ईसवी में पाल शासन काल के दौरान संगीतकारों द्वारा लिखित श्संगीत सुधाकरश् में पहली बार कर्नाटक और हिन्दुस्तानी शब्दों के रूप में किया गया है। हिन्दुस्तानी और कर्नाटक की दो भिन्न-भिन्न प्रणालियां. मस्लिमों के आगमन के बाद प्रचलन में आई, विशेष रूप से दिल्ली के मुगल शासकों के शासन के दौरान। संगीत की दोनों ही पद्धतियां एक समान मूल स्रोत से फली-फूलीं। हालांकि भारत के उत्तरी भाग के भारतीय संगीत में फारसी और अरबी संगीतकारों के संगीत की कुछ विशेषताओं को शामिल किया गया है जिसने दिल्ली के मुगल शासकों के न्यायालयों को सुशोधित किया और दक्षिण के संगीत का विकास उसके अपने मूल स्रोत के अनुसार जारी रहा। तथापि उत्तर और दक्षिण की दोनों पद्धतियों के मूलभूत पहलू वैसे ही रहे।
यह कहा जाता है कि दक्षिण भारतीय संगीत, जैसा कि वह आज जाना जाता है, मध्यकाल में यादवों की राजधानी देवगिरि में फला-फला और मुसलमानों द्वारा आक्रमण और नगर की लूटपाट के बाद नगर का सम्पूर्ण सांस्कृतिक जीवन विजयनगर के कष्णादेव राय के शासन के अधीन विजयनगर के कर्नाटक साम्राज्य में संरक्षण प्राप्त हुआ। उसके बाद, दक्षिण भारत का संगीत कर्नाटक संगीत के नाम से जाना जाने लगा।
वह न केवल एक रचनाकार थे बल्कि सर्वोच्च कोटि के लक्षणकार भी थे। दक्षिण भारतीय संगीत, जैसा कि वह अब है, भावी पीढी के लिए उनका यह एक विशुद्ध उपहार है। उन्होंने संगीत शिक्षा के लिए बुनियादी पैमाने के रूप में मलावागोवला पैमाना लागू किया। उन्होंने संगीत सीखने वालों के लिए श्पाठोंश् की एक श्रृंखला के एक भाग के रूप में श्रेणीबद्ध अभ्यास भी तैयार किया। संगीत शिक्षण में यह पद्धति आज भी विद्यमान है। पूरंदरदास द्वारा रचित श्स्वरावालिसश्, श्जनता वारिससश्, श्सुलदी सप्त तालश्, श्अलंकारश् और श्गीतमश् कला में निपुणता के लिए आधार बनाते हैं। संरचनात्मक शैलियों में अनेक लक्ष्य गीतम और लक्षणा गीतम, ताना वर्नम, तिल्लाना, सुलादी, उगभोग, वृत्त नम और कीर्तन उन्हीं की देन है। उनके कीर्तनों को दसरा पद अथवा देवर्नम के रूप में जाना जाता है।
सत्रहवीं शताब्दी में, कर्नाटक संगीत में 72 मलाकार्त की एक महत्त्वपूर्ण योजना शुरू हुई, जिसे वेंकटामाखी द्वारा लाग किया गया है और अपनी कृति श्चतुर्दडी प्रकाशिकाश् में वर्ष 1620 में शामिल किया। मलाकार्त योजना अत्यंत विस्तृत और रीतिबद्ध सूत्र है जिसका देश के विभिन्न भागों में प्राचीन और आधुनिक संगीत प्रणालियों में प्रयोग किया जाता है। इस योजना से राग की रचना के नए मार्ग खुल गए, जैसे कि त्यागराज ने उसका अनुसरण करते हुए बहुत से सुन्दर रागों का आविष्कार किया।
अम्यास संगीत के क्षेत्र में दक्षिण भारत में बुद्धिमान और विविध रचनाकारों की परम्परा कायम थी जिन्होंने हजारों रचनाओं के साथ कला को समृद्ध किया। पुरंदरदास, तल्लापाकम अन्नामाचार्य नारायण तीर्थ, भद्राचलम रामदास और क्षेत्रंजा ने रचनाओं की सम्पदाओं में योगदान किया। सत्रहवीं शताब्दी में, कर्नाटक संगीत में 72 मलाकात की एक महत्त्वपूर्ण योजना शुरू हुई, जिसे वेंकटामाखी द्वारा लागू किया गया है और अपनी कृति श्चतुर्दडी प्रकाशिकाश् में वर्ष 1620 ई.प. में शामिल किया। मलांकार्त योजना अत्यंत विस्तृत . और रीतिबद्ध सूत्र है जिसका देश के विभिन्न भागों में प्राचीन और आधुनिक संगीत प्रणालियों में प्रयोग किया जाता है। इस योजना से राग की रचना के नए मार्ग खुल गए, जैसे कि त्यागराज ने उसका अनुसरण करते हुए बहुत से सुन्दर रागों का आविष्कार किया।
अम्यास संगीत के क्षेत्र में दक्षिण भारत में बुद्धिमान और विविध रचनाकारों की परम्परा कायम थी जिन्होंने हजारों रचनाओं के साथ कला को समृद्ध किया। पुरंदरदास, तल्लापाकम अन्नामाचार्य नारायण तीर्थ, भद्राचलम रामदास और क्षेत्रंजा ने रचनाओं की सम्पदाओं में योगदान किया। सन् 1750 से 1850 ई.प. के बीच तिरूवरूर में संगीत की त्रिमूर्ति – त्यागराज, मुत्तुस्वामी दीक्षितार और श्यामा शास्त्री के जन्म के फलस्वरूप कर्नाटक संगीत में गतिशील विकास का युग प्रारम्भ हुआ। त्रिमूर्ति न केवल, अपने समकालीन थे बल्कि पश्चिमी संगीत के महान् रचनाकारों के भी समकालिक थे, जैसे कि बीथोवन मोजार्ट, वागनेर और हाइडेन आदि। यह पूरे विश्व में संगीत का श्स्वर्ण युगश् था। इस अवधि के दौरान कर्नाटक संगीत कलात्मक उत्कृष्टता के अपने शिखर पर पहुँच गया था।
त्रिमूर्ति काल के बाद अनेक रचनाकारों ने कर्नाटक संगीत के ध्वज को ऊँचा उठाए रखा। वीणा कुप्पाय्यर,पतनम् सुब्रमण्यम अय्यर, रामानद श्रीनिवास अयंगर मैसूर सदाशिव राव, मैसूर वासुदेवधर तथा पपनासाम सिवन जैसे कुछेक नाम हैं जिनका यहां उल्लेख किया जा सकता है। सुब्बारामा दिक्षितार द्वारा सन् 1904 में लिखित श्संगीत सम्प्रदाय प्रदर्शनी, पिछली शताब्दियों के संगीत, सगीतकारों और रचयिताओं के संबंध में सूचना के लिए प्राधिकृत ग्रन्थ हैं।
दक्षिण के बहुत से संगीतकार और रचयिता हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति के भी मर्मज्ञ और जानकार थे और जहां कहीं आवश्यकता होती, उन्होंने अपनी रचनाओं के लिए हिन्दुस्तानी रागों को अपनाया। यमन कल्याण, हमीर कल्याण, मालकोंस, वृन्दावनी सारंग, जयजयवन्ती आदि रागों को त्रिमूर्ति संगीत में अपनाया। राग काफी, कनादा, खमाज, पराज, पूर्वी, भैरव आदि में हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति में शैलियां अपने प्रतिरूपों से बिल्कुल मिलती जुलती हैं।
निबद्ध और अनिबद्ध संगीत से संबंधित अनेक संगीत शैलियां हैं, उदाहरणार्थ कल्पिता संगीत और मनोधर्म संगीत अथवा संशोधित संगीत। इन सभी शैलियों को सामान्यतः भिन्न-भिन्न शीर्षों के अन्तर्गत श्रेणीकृत किया गया है, जैसे कि शुद्ध संगीत, कला संगीत आदि। इन शीर्षों के अन्तर्गत अनेक शैलियों की अपनी-अपनी विशिष्ट विशेषताएं है। प्राचीन संगीत शैली, जैसे कि प्रबंध आदि, धीरे-धीरे भिन्न-भिन्न आधुनिक संगीत शैलियों तक पहुंची। हालांकि आधुनिक शैलियों में प्राचीन प्रबंधों के मूल तत्व अब भी विद्यमान हैं। इन प्राचीन प्रबंधों का प्रभाव देखने को मिलता है। बुनियादी तत्व अब भी आधुनिक शैली में विद्यमान है। निम्नलिखित संगीत शैलियां अध्ययन के लिए रुचिकर हैं। .
Recent Posts
मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi
malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…
कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए
राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…
हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained
hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…
तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second
Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…
चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi
chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…
भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi
first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…