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कारक और विभक्तियाँ क्या होती है , कारक और विभक्ति की परिभाषा किसे कहते है , प्रकार , भेद उदाहरण
karak and vibhakti in hindi , कारक और विभक्तियाँ क्या होती है , कारक और विभक्ति की परिभाषा किसे कहते है , प्रकार , भेद उदाहरण , प्रश्न और उत्तर ?
कारक और विभक्तियाँ
संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से वाक्य के अन्य शब्दों के साथ उनका (संज्ञा या सर्वनाम) सम्बन्ध सूचित हो, उसे (उस रूप को) कारक कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि संज्ञा या सर्वनाम के आगे जब ‘ने’, ‘से’, ‘को’ आदि विभक्तियाँ लगती हैं, तब उनका रूप ही कारक कहलाता है । इसी स्थिति में वे श्पदश् बनते हैं और पद बनकर ही वे वाक्य के दूसरे शब्दों या क्रिया से लगाव रख पाते हैं । ‘ने’, ‘को’ आदि विभिन्न कारकों की विभक्तियाँ हैं जिनके लगने पर ही कोई शब्द कारक-पद बन पाता है । कारक-पद अथवा क्रियापद बनने पर ही कोई शब्द वाक्य में बैठ सकता है । जैसे-राम ने खारे जल के समुद्र पर बन्दरों से पुल बंधवा दिया । यहाँ ‘राम ने’, ‘समुद्र पर’, ‘जल के’, ‘बन्दरों से’, ‘पुल’ संज्ञाओं के कारक हैं । ‘ने’, ‘पर’ आदि विभक्तियों से युक्त शब्द ही कारक हैं।
कारक का अर्थ है ‘करनेवाला’। ‘करनेवाला’ कोई क्रिया ही सम्पादित करता है । इस प्रकार कारक का सम्बन्ध कार्य अर्थात् क्रिया से है । वाक्य में प्रयुक्त उस नाम (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण) को कारक कहते हैं जिसका अन्वय (सम्बन्ध) क्रिया या कृदन्त क्रिया के साथ होता है । हिन्दी में कारक आठ हैं-कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध, अधिकरण और सम्बोधन । संस्कृत में कारक के छः ही भेद माने गए हैं । संस्कृत में सम्बन्ध और सम्बोधन को कारक नहीं माना गया है । वस्तुतः वहाँ कारक और विभक्ति को पृथक्-पृथक् माना जाता है । किन्तु हिन्दी में तो कारक और विभक्ति को एक मानने की चाल है ।
हिन्दी की विभक्तियाँ
कारकों के बोध के लिए संज्ञा या सर्वनाम के आगे जो प्रत्यय लगाए जाते हैं उन्हें व्याकरण में विभक्तियाँ कहते हैं । विभक्ति से बना शब्दरूप ‘विभक्त्यन्त शब्द’ या ‘पद’ कहलाता है । हिन्दी कारकों की विभक्तियों के चिह्न-
कारक विभक्तियाँ
कर्ता (nominative) O,ने
कर्म (objective) O,को
करण (instrumental) से
सम्प्रदान (dative) को, के लिए
अपादान (ablative) से
सम्बन्ध (genitive) का, के, की, रा, रे, री
अधिकरण (locative) में, पै, पर
सम्बोधन (addressive) O, हे, अहो, अजी, अरे ।
विभक्तियों का प्रयोग
हिन्दी में दो प्रकार की विभक्तियाँ हैं-(1) विश्लिष्ट, (2) संश्लिष्ट । संज्ञाओं के साथ आनेवाली विभक्तियाँ विश्लिष्ट होती हैं अर्थात वे संज्ञाओं से अलग रहती हैं । जैसे- राम ने, टेबुल पर, लड़कियों को, लड़कों के लिए आदि । सर्वनामों के साथ विभक्तियाँ संश्लिष्ट होती हैं अर्थात् मिली होती हैं । जैसे-मेरा, तेरा, तुम्हारा, उन्हें, तुमको आदि । तुम्हारे लिए = तुम ़ के लिए ।
कर्ता कारक
वाक्य में जो शब्द काम करनेवाले के अर्थ में आता है उसे ‘कर्ता’ कहते हैं । जैसे-राम खाता है । इसमें खाने का काम राम कर रहा है । अतः ‘राम’ ही कर्ता है । श्नेश् इसकी विभक्ति है । वाक्य में दो रूपों में कर्ता का प्रयोग होता है-(1) जिसमें ‘ने’ विभक्ति नहीं लगती अर्थात् जिसमें कर्ता के अनुसार क्रिया के लिंग, वचन और पुरुष होते हैं । इसे अप्रत्यय कर्त्ताकारक कहते हैं । जैसे-राम खाता है- में क्रिया ‘खाता है’ है जो कर्ता ‘राम’ के लिंग और वचन के अनुसार है । जहाँ क्रिया के लिंग, वचन और पुरुष कर्ता के अनुसार न होकर कर्म के अनुसार होते हैं, वहाँ ‘ने’ विभक्ति लगती है । यह सप्रत्यय कर्त्ताकारक है । जैसे- ‘राम ने मिठाई खाई’ में क्रिया ‘खायी’ कर्म ‘मिठाई’ के अनुसार है । कर्ता के ‘ने’ चिह्न का प्रयोग-
(1) जब क्रिया सकर्मक तथा सामान्य भूत, आसन्नभूत, पूर्णभूत, संदिग्ध भूत और हेतुहेतुमद्भूत कालों के कर्मवाच्य में हो तो ‘ने’ का प्रयोग होता है । जैसे-
आसन्नभूत-मोहन ने रोटी खायी ।
पूर्णभूत–राम ने रोटी खायी थी।
संदिग्धभूत-श्याम ने रोटी खायी होगी ।
हेतुहेतुमद्भूत-राम ने पुस्तक पढ़ी होती तो उत्तर ठीक होता ।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि केवल अपूर्णभूत को छोड़कर शेष पाँच भूतकालों में ‘ने’ चिहन का प्रयोग होता है।
(2) जब संयुक्त क्रिया के दोनों खंड सकर्मक हों तो अपूर्णभूत को छोड़कर अन्य सभी भूतकालों में कर्ता के साथ ‘ने’ का प्रयोग होता है । जैसे-
राम ने खा लिया । मोहन ने उत्तर कह दिया । इन वाक्यों में ‘खा लिया’ और ‘कह दिया’ संयुक्त क्रियाएँ हैं । इसके दोनों खंड सकर्मक हैं ।
(3) अकर्मक क्रिया में प्रायः ‘ने’ विभक्ति नहीं लगती, किन्तु कुछ ऐसी अकर्मक क्रियाएँ हैं जिनमें ‘ने’ चिह्न का प्रयोग अपवादरूप में होता हैय जैसे- नहाना, छींकना, खाँसना, थूकना । ऐसी क्रियाओं के बाद कर्म नहीं आता है। उदाहरण–
उसने नहाया । राम ने थूका । राम ने खांसा । उसने छींका ।
(4) जब अकर्मक क्रियाएँ सकर्मक बन जायें तो ‘ने’ चिहन का प्रयोग होता है, अन्यथा नहीं।
जैसे-
राम ने लड़ाई लड़ी। राम ने टेढ़ी चाल चली।
(5) प्रेरणार्थक क्रियाओं के साथ अपूर्ण भूत को छोड़कर शेष सभी भूतकालों में ‘ने’ का प्रयोग होता है । उदाहरण-मैंने उसे पढ़ाया । उसने एक रुपया दिलवाया। निम्न रूपों में ‘ने’ चिहन का प्रयोग नहीं होता है-
(1) सकर्मक क्रियाओं के कर्त्ता के साथ वर्तमान और भविष्यकाल में ‘ने’ चिह्न का प्रयोग नहीं होता । उदाहरण्-राम रोटी खाता है । राम रोटी खाएगा।
(2) कुछ सकर्मक क्रियाओं, जैसे-बकना, बोलना, भूलना के सामान्यभूत, आसन्नभूत, पूर्णभूत, संदिग्धभूतकालों में अपवादस्वरूप कर्त्ता में ‘ने’ चिहन का प्रयोग नहीं होता ।
उदाहरण–मैं बोला । मैं भूला । वह भूला । वह बका।
(3) संयुक्त क्रिया का अन्तिम खण्ड यदि अकर्मक हो तो उसमें ‘ने’ का प्रयोग नहीं होता है।
उदाहरण- राम पुस्तक ले आया । उसे रेडियो ले जाना है । मैं खा चुका हूँगा ।
(4) जिन वाक्यों में लगना, जाना, सकना तथा चुकना सहायक क्रियाएँ आती हैं उनमें ‘ने’ का प्रयोग नहीं होता है । जैसे – राम खा चुका । वह पानी पीने लगा । मुझे बनारस जाना है।
कर्मकारक
इसका चिह्न ‘को’ है। कभी-कभी ‘को’ के स्थान पर ‘ए‘ प्रत्यय भी जुड़ता हैय जैसे- ‘मुझको उसकी तलाश थी, वाक्य को ’मुझे उसकी तलाश थी’ भी कहा जाता है । यदि कर्म निर्जीव हो तो सामान्यतः ‘को’ चिह्न का प्रयोग नहीं किया जाता है। उदाहरण-
राम चित्र बनाता है।
कुछ कोयले ले आओ।
सीता पत्थर तोड़ती है।
निर्जीव कर्म के साथ प्रयुक्त ‘को’ चिह्न दिशासूचक होता है। जैस- वह घर को गया ।
करण कारक
इसका चिह्न ‘से’ है । जिस साधन से कार्य का करना या होना पाया जाय, उसके बाद ‘से’ चिहून का प्रयोग होता है । कभी-कभी इस कारक में ‘द्वारा’ या ‘साथ’ का भी प्रयोग होता है । उदाहरण-
चाकू से तरकारी काटो ।
तुम तार द्वारा मुझे सूचित करना ।
राम को उसके साथ भेज दिया करो ।
यदि करण कारक बहुवचन में है तो कभी – कभी ‘से’ का प्रयोग नहीं भी होता है । जैसे-
अब आप खेल का आँखों देखा हाल सुनिए । (आँखों = आँखों से)।
मैं इस काम को अपने हार्थों करना चाहता हूँ । (हाथों =. हाथ से)।
संप्रदान कारक
इसका चिह्न है-‘को‘, ‘के लिए’। जिसे कोई वस्तु दी जाती हो या जिसके लिए कार्य किया जाता हो, उसके बाद ‘को’ या ‘के लिए’ का प्रयोग होता है-
उदाहरण-
बच्चे को जूता पहनाओ। राम के लिए पुस्तक लानी है ।
जहाँ पर एक ही वाक्य में संप्रदान कारक में दो संज्ञाएँ आ जाती हैं, वहाँ दोनों के बाद ‘को-को’ या ‘के लिए- के लिए’ परसों का प्रयोग न करके एक के बाद ‘को’ तथा दूसरी संज्ञा के बाद ‘के लिए’ परसर्ग का प्रयोग अच्छा रहता है ।
उदाहरण-
‘पिताजी ने मुझको पैसे दिए और तुमको मिठाई रखी हुई है’-इससे यों कहना अच्छा रहता . है- ‘पिताजी ने मुझको पैसे दिए और तुम्हारे लिए मिठाई रखी हुई है।’
अपादान कारक
इसका भी चिह्न ‘से’ है। किन्तु करण कारक से भिन्न है। जिस संज्ञा से क्रिया निकले या अलग हो वहाँ अपादान कारक का प्रयोग होता है। करण कारक में दो संज्ञाओं की निकटता या साहचर्य का भाव है, जब कि अपादान में दूरी या अलगाव का भाव होता है।
उदाहरण-
करण कारक -‘से’
(1) वह पेड़ की डाल से लिपटा है ।
(2) वह डंडे से मार रहा है।
अपादान कारक-‘से’
(1) वह पेड़ की डाल श्सेश् गिर पड़ा। (2) धनुष ‘से’ बाण निकल रहे हैं।
सम्बन्ध कारक- का, के, की
इनके द्वारा अवस्था, नाते-रिश्ते, स्वामित्व, माप, कर्ता-कर्म, कारण-कार्य, जनक-जन्य आदि अनेक सम्बन्ध व्यक्त होते हैं।
उदाहरण-
(1) बीस वर्ष की युवती । (अवस्था का सम्बन्ध)
(2) श्याम की बहन । (नाते-रिश्ते का सम्बन्य)
(3) पाँच एकड़ की भूमि । (माप का सम्बन्ध)
(4) मोहन का ग्रंथ । (स्वामित्व का सम्बन्ध)
(5) सोने के कंगन । (कारण-कार्य सम्बन्ध)
(6) तुलसी का रामचरित मानस । (कर्ता-कर्म सम्बन्ध)
(7) राम की पुत्री। (जनक-जन्य-सम्बन्ध)
अधिकरण कारक
इसके परसर्ग हैं- ‘में, पर’। संज्ञा का वह रूप जिससे क्रिया के आधार का बोध हो, अधिकरण कहलाता है। कोई संज्ञा या सर्वनाम किसी दूसरी संज्ञा अथवा सर्वनाम का आधार हो तो उसके बाद ‘में या पर’ परसर्ग का प्रयोग होता है। इस आधार के दो भेद हैं-
(1) भीतरी आधार- यहाँ ‘में’ परसर्ग प्रयुक्त होता है। ‘में’ का अर्थ ‘भीतर’ ही होता है। जैसे-तिल में तेल, पॉकेट में रुपए, ग्लास में पानी, मन्दिर में मूर्ति आदि ।
(2) बाहरी आधार-‘पर’ बाहरी अथवा ऊपरी आधार का परसर्ग है। जैसे-टेबुल पर किताब है । डाल पर चिड़िया बैठी है ।
संबोधन कारक
इसका क्रिया से सम्बन्ध नहीं होता है, वाक्यगत अन्य शब्दों से भी इसका सम्बन्ध नहीं होता । परसर्ग के स्थान पर इसमें सम्बोधित संज्ञा या सर्वनाम से पश्चात विस्मयादिबोधक चिन्ह (!) लगाया जाता है । इसके साथ ही शुरू में ‘हे, अरे, अरी’ आदि विस्मयसूचक अव्यय जोड़ दिए जाते हैं, जैसे- हे बालको ! अरे लड़को ! रे शठ !
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