कालीबंगा सभ्यता के नोट्स , खोज कब और किसने की के बारे में kalibanga sabhyata in hindi

kalibanga sabhyata in hindi कालीबंगा सभ्यता के नोट्स , खोज कब और किसने की के बारे में ?
राजस्थान में सभ्यता के प्राचीन स्थल
राजस्थान में मानव की उपस्थिति के सबसे प्राचीन प्रमाण बनास और उसकी सहायक बेडच और गंभीरी नदियों के किनारे प्राप्त होते हैं। इन नदियों द्वारा लाये गये क्वार्टजाइट सिस्ट, शेल, बालुकाश्म तथा अन्य प्रस्तरीय खण्ड व पेबल नाथद्वारा औ. कॉकरोली के मार्ग में देखे जा सकते हैं परवर्ती काल में अल्प वर्षा के फलस्वरूप नदी तल में स्थिर पत्थर न वह सके, और नदी का तेल ऊपर होता गया। इसी समय मानव की उपस्थिति इस क्षेत्र में दिखाई देती है उसने अपने चारों ओर बिखरे इन्हीं पाषाण खण्डों से उपकरण बनाये लेकिन पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों ने उसे भ्रमणकारी बनाया। नई परिस्थतियों में उसने अपने आपको उसके अनुकूल बनाने का प्रयास किया। दक्षिण-पश्चिम राजस्थान के क्षेत्र में उपलब्ध भिन्न प्रकार के पाषाणों से उसने भिन्न प्रकार के उपकरणों का निर्माण किया। इस क्षेत्र में उसे पूर्वकालीन क्षेत्र के समान क्वार्टजाइट के पेबुल अनुपलब्ध थे अतः नवीन क्षेत्र में जो पाषाण खण्ड मिले, दैनिक जीवन में उपयोग हेतु उससे उपकरणों का निर्माण किया ये पाषाण खण्ड पिलंण्ट, चर्ट, अगेट, चाल्सीडोनी जैसे लघु आकार के थे जिनसे उपकरण भी छोटे आकार के बने जिन्हें लघुपायान उपकरण कहा गया। संभवतः इन्हें संयुक्त रूप में लकड़ी आदि में फंसा कर प्रयोग किया जाता था। तिलवाड़ा (बाड़मेर) एवं बागोर (भीलवाड़ा) में ये उपकरण एक रेतीले टीले पर मिले हैं।
उत्तरी राजस्थान में भूमिगत परिवर्तनों के फलस्वरूप सरस्वती एवं दृषद्वती नदियाँ विलुप्त हो गयी, जिसकी शुष्क तलहटी में कालीबंगा से हड़प्पा संस्कृति के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं। यह क्षेत्र हड़प्पा संस्कृति के काल में मानव आवास का महत्वपूर्ण क्षेत्र था।
कालीबंगा
राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में धग्बर (प्राचीन सरस्वती) के किनारे पर स्थित कालीबंगा हड़प्या सभ्यता का प्रमुख पुरास्थल है। इसकी खोज 1951 ई. में अमलानन्द घोष ने की थी। 1961 ई. से लगातार
एक दशक तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से बी० बी० लाल और बी० के० थापर के संयुक्त निर्देशन में यहाँ उत्खनन कार्य किया गया। यहाँ भी मुख्य रूप से दो टीले मिले हैं एक छोटा और ॐ पश्चिम में और दूसरा पूर्व में जो विस्तृत एवं अपेक्षाकृत निम्न था (हड़प्पा युगीन पुरास्थलों की यह सामान्य विशेषता) ये दोनों टीले सुरक्षात्मक दीवार द्वारा घिरे थे छोटे टीले के निम्न स्तरों में हड़ सभ्यता से भी पूर्व काल की सभ्यता के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। इसे पुरातत्ववेत्ताओं ने प्राकमा दुर्ग संस्कृति’ (Pre Harappan Culture) नाम दिया है। अतः कालीबंगा के उत्खनन से यह ज्ञात हुआ है। यहाँ हड़प्पा सभ्यता से पहले भी एक अन्य सभ्यता के लोग निवास करते थे। इन दोनों संस्कृतियों पुरावशेषों के बीच अन्तराल है जिससे स्पष्ट होता है कि इन दोनों में यहाँ कोई सम्बन्ध सम्पर्क नहीं रह उत्खनन से यह सिद्ध हुआ है कि लगभग 2500 ई. पू. में सरस्वती नदी के किनारे प्राकृहड़प्पा संस्कृति के लोग रहते थे और कुछ समय पश्चात ये यहाँ से अन्यत्र चले गये, यह स्थान वीरान पड़ा रहा तत्प यहाँ प्राकहड़प्पा संस्कृति के निवासियों के भग्नावशेषों के ऊपर हड़प्पा संस्कृति के निवासियों ने दुर्ग (ग क्षेत्र) बनाया तथा इसके पूर्वी भाग में नगर बसाया। इस प्रकार कालीबंगा में हमें दो संस्कृतियों के पुरावर
प्राकूहड़प्पा युगीन संस्कृति कालीबंगा में प्राकूहडप्पा कालीन संस्कृति के निवासियों की बस्ती एक सुरक्षात्मक दीवार (परकोटा) द्वारा सुरक्षित की गरी थी। यह दीवार 4.10 मी. मोटी 30 x 20 x 10 सेमी के आकार की कच्ची ईंटो द्वारा निर्मित की गयी थी। यह परकोटा उत्तर से दक्षिण 250 मी0 लम्बा तथा पूर्व से पश्चिम की ओर 180 मी0 चौड़ा था। इस बस्ती में भवनों के निर्माण के लिए भी कच्ची ईंटों का ही प्रयोग हुआ है। पक्की ईंटें केवल नालियाँ, स्नानागार एवं कुएँ आदि के निर्माण में प्रयुक्त हुई है। प्राकूहड़प्पा कालीन कालीबंगा के उत्खनन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि एक दुहरे जुते हुए खेत का प्राप्त होना है। इस प्रकार के जुते हुए खेत में दो फसले एक साथ उगाई जाती थी। उत्खनन में जौ एवं गेहूँ के उत्पादन के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। अन्य घरेलू सामग्री के अन्तर्गत त्रिभुजाकार पक्की मिट्टी से निर्मित केक, घीया पत्थर तथा तामडे पत्थर के मणके शख की चूड़ी, पक्की मिट्टी की खिलौना गाड़ी, पहिये. बैल की खण्डित मूर्ति, कड़े, हड्डियों की बनी सलाइयाँ, पत्थर के सिलवादे, मिट्टी की गेंद, ताम्बे का परशु आदि भी प्राप्त हुए हैं।
हड़प्पा युगीन संस्कृति = हड़प्पा सभ्यता से सम्बद्ध अन्य नगरों की भांति कालीबंगा में भी दो टीले दिखाई पड़ते हैं- पश्चिम में अपेक्षाकृत ऊँचा छोटा टीला तथा पूर्व में निम्नतल वाला बड़ा टीला छोटे टीले को ‘गढ़ी क्षेत्र’ कहा जाता है तथा बड़े टीले को नगर क्षेत्र इन दोनों को अलग अलग सुरक्षात्मक दीवार द्वारा रक्षित किया गया है यह दीवार 9.00 मी तक मोटी है तथा इसके निर्माण में 40 X 20 X 10 से.मी. एवं 30X15 x 7.5 से.मी. आकार की ईंटों का प्रयोग किया गया है। निम्नतल पर स्थित नगर द्वार पर रक्षा प्राचीर से लगा हुआ एक छोटा कक्ष प्राप्त हुआ है जो संभवतः द्वार रक्षक के लिए प्रयुक्त होता था।
कालीबंगा के नगर की व्यवस्था को देखकर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इसको एक निश्चित योजना के द्वारा बसाया गया था सारे नगर में उत्तर से दक्षिण की ओर तथा पूर्व से पश्चिम की ओर जाने वाली चौड़ी चौड़ी सड़कें जो 7.2 मी0 चौड़ी थी और एक दूसरी को समकोण पर काटती थी पूरा नगर इन सड़कों के जाल से कई चौकोर खण्डों में विभक्त था, जिन्हें मोहल्ला या कॉलोनी कहा जा सकता है इन सड़कों के किनारे कहीं कहीं पर ऊँचे ऊँचे चबूतरे मिलते हैं, जिन पर दुकानें लगती होगी भवनों के मुख्य द्वार इन प्रमुख सड़कों की ओर नहीं खुलते थे। मोहल्लों में जाने के लिए इन प्रमुख सड़कों से आधी चौड़ी (3.6मी.) मोहल्ले की सड़क होती थी तथा इस सड़क से आधी चौड़ी गली की सड़क (1.8 मी.) होती थी। प्रायः यहाँ के निवासियों के भवनों के द्वार गली की सड़क पर खुलते थे तीनों प्रकार की सड़कों के दोनों ओर पकी ईंटों से निर्मित गंदे जल के निकास हेतु नालियाँ बनायी। गयी थी जो ढकी हुई थी।
सामान्यतः भवनों के द्वार गली की सड़क पर खुलते थे और ये 70-75 से.मी. चौड़े होते थे द्वार पर प्रायः एक ही फाटक लगाया जाता था। मकानों की फर्श बनायी जाती थी। इन पर प्लास्टर करने की परम्परा विद्यमान थी मकानों की छत समतल होती थी जिसका निर्माण लकड़ी की शहतीरों से किया जाता था। कालीबंगा में मकानों से पानी -निकालने के लिए लकड़ी की नालियों का या युगीन स्टोन एवं मोहरे (कालीबंगा) प्रयोग हुआ है।
सामाजिक जीवन कालीबंगा के उत्खनन में प्राप्त साक्ष्यों से यह अनुमान लगाया जा सकता है समाज में धर्मगुरू (पुरोहित) चिकित्सक, कृषक, कुंभकार, बढ़ई, सोनार, दस्तकार, जुलाहे ईंट एवं निर्माता, मुद्रा (मोहर) निर्माता, व्यापारी आदि पेशों के लोग रहते थे। संभवतः पुरोहित या धर्मगुरू क तत्कालीन समाज में महत्वपूर्ण स्थान था यह वर्ग दुर्ग क्षेत्र में निवास करता था और धार्मिक क्रिया करता-करवाता था। इसके साथ दुर्ग क्षेत्र में शासक वर्ग एवं अन्य महत्वपूर्ण कर्मचारी तथा सम्पन्न रहते होंगे। निम्न तल पर स्थित नगर क्षेत्र में जनसाधारण लोग निवास करते थे। कालीबंगा के निवासि के नागरिक जीवन में त्यौहार एवं धार्मिक उत्सवों का महत्व था साथ ही खिलौने, पासे (गोटियों द्वा खेला जाने वाला एक खेल), मत्स्य कांटे आदि की उपलब्धता ने इनके जीवन में मनोविनोद के महत् को प्रदर्शित किया है। ये दोनों प्रकार की भोज्य सामग्री का उपयोग करते थे। शाकाहारी लोग फल, फू दूध, दही, जी. गेहूँ आदि का प्रयोग करते थे तथा मांसाहारी लोग भेड़, बकरी, सुअर, मछली, कछुआ, मुर आदि के मांस का प्रयोग करते थे।
धार्मिक जीवन कालीबंगा के निवासियों के धार्मिक जीवन के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्ति के पुराताि स्रोतों में मूर्तियाँ, मुद्राएँ (मोहरे), मृदपात्र, पत्थर की विशेष आकार की कलाकृतियाँ तथा कुछ भवन एव शवाधान मुख्य है।
आरत देव।
कालीबंगा के दुर्ग क्षेत्र में कच्ची ईंटो से निर्मित चबूतरे पर सात आयताकार अग्निवेदिकाएँ प्राप्त हुई हैं इनको देखकर यह अनुमान किया जाता है कि ये किसी न किसी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान का अंग थी। हड़प्पा संस्कृति से सम्बद्ध सरस्वती नदी घाटी में बाणावली. राखीगढ़ी (हरियाणा) तथा लोपल (गुजरात) से भी इनके साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। इन वेदिकाओं को एक आयताकार गड्डा खोदकर उसके बीच में आयताकार या गोलाकर स्तंभ या कभी कभी स्तंभ के स्थान पर ईंट खड़ी कर बनाया जाता था। इन गड्डों में जले हुए कोयले तथा अन्न के दाने तथा कुछ हड्डियों के टुकड़े प्राप्त हुए हैं। हड्डियों के टुकड़ों से संकेत मिलता है कि हवि के रूप में मांस का भी उपयोग किया जाता था तथा समाज में बलि प्रथा का प्रचलन था।
कालीबंगा के निवासियों के जीवन में सरस्वती नदी का विशेष महत्व तो था ही साथ ही घरों में अण्डाकार हुए भी मिले हैं और जहाँ एक चबूतरे पर सात-सात अग्निवेदिकाएँ मिली है. उनके पास भी कुआँ मिला है इस सभ्यता के प्रमुख स्थल मोहनजोदड़ो के दुर्ग क्षेत्र में तो विशाल स्नानागार प्राप्त हुआ है ये सभी समय इन लोगों के जीवन में पवित्र स्नान सम्बन्धी किसी अवधारण की उपस्थिति को सिद्ध करते हैं। मृत्यु के पश्चात् के विषय में कालीबंगा निवासी किस प्रकार का विचार रखते थे यह स्पष्ट नहीं कहा जा सकता लेकिन उत्खनन में जो शवाधान प्राप्त हुए है उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये मृत्योपरांत किसी न किसी प्रकार का विश्वास अवश्य रखते थे, क्योंकि मृतकों के साथ खाद्य सामग्री आभूषण, मणके, दर्पण तथा विभिन्न प्रकार के मृदमाण्ड आदि रखे जाते थे।
आर्थिक जीवन = कालीबंगा के भग्नावशेषों से अनुमान लगाया जा सकता है कि अधिकांश लोगों का जीवन सामान्य रूप से समृद्ध था सुख एवं समृद्धि के लिए लोगों ने विभिन्न साधनों का उपयोग किया
कालीबंगा के निवासी कौन कौन से पशु पालते थे, इसका ज्ञान हमें पशुओं के अस्थि अवशेषों मृपात्रों पर किये गये चित्रणों, मुद्रांकनों तथा खिलौनों से होता है ये भेड़-बकरी, गाय, भैंस, बैल, भैंसा तथा सुअर आदि पशुओं को पालते थे कालीबंगा के निवासी ऊँट भी पालते थे कुत्ता भी उनका पालतू जीव था।
सरस्वती– दृषद्वती नदियों द्वारा लाई जाने वाली मिट्टी कृषि जन्य उत्पादों के लिए बहुत उपजाऊ थी। इसमें वे जौ और गेहूँ की खेती करते थे हल लकड़ी के रहे होंगे। सिंचाई के लिए नदी जल एवं वर्षा पर निर्भर थे। कालीबंगा के कृषक निश्चय ही अतिरिक्त उत्पादन करता था।
हड़प्पा सभ्यता के नगरों की समृद्धि का प्रमुख कारण व्यापार एवं वाणिज्य था। यह जल एवं स्थल दोनों मार्गों से होता था। लोथल (गुजरात) इस सभ्यता में तत्कालीन युग का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र था। कालीबंगा से मुख्यतः हड़प्पा संस्कृति के मुख्य केन्द्रों को अनाज, मणके तथा ताम्बा भेजा जाता था ताम्बे का प्रयोग, अस्त्र-शस्त्र तथा दैनिक जीवन में उपयोग आने वाले उपकरण. वर्तन एवं आभूषण बनाने में होता था स्थानीय उद्योग पर्याप्त विकसित थे कुंभकार का मृद्भाण्ड उद्योग अत्यन्त विकसित था वह विभिन्न प्रकार के मृद्माण्ड चाक पर बनाता था, जिन्हें भट्टों में अच्छी तरह पकाया जाता था। मृद्भाण्डों में मुख्यरूप से मर्तबान, कलश, बीकर, तश्तरियाँ, प्याले टोंटीदार बर्तन छिद्रित भाण्ड एवं बालियाँ मुख्य हैं। हस्त निर्मित कुछ बड़े मृदभाण्ड भी प्राप्त हुए हैं जो संभवतः अनादि संग्रह हेतु काम में लिये जाते थे। इन मृदमाण्डों पर काले एवं सफेद वर्णकों से चित्रण भी किया जाता या जिसमें आड़ी-तिरछी रेखाएँ लूप बिन्दुओं का समूह, वर्ग, वर्ग जालक त्रिभुज, तरंगाकार रेखाएँ अर्द्धवृत्त, एक दूसरे को काटते वृत्त शल्कों का समूह आदि के प्रारूपण प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त पीपल की पत्तियों तथा चौपतिया फूल आदि वानस्पतिक प्रारूपों का अंकन भी प्राप्त हुआ है। बड़े बर्तनों पर
कुरेदकर भी अलंकरण किया गया है। किन्हीं किन्हीं मृदपात्रों पर ठप्पे भी लगे हुए मिले हैं और किसी-किसी पर तत्कालीन लिपि में लिखे लेख भी प्राप्त हुए हैं। उत्खनन में विभिन्न प्रकार की मुद्रा ( मोहरें ‘) मूर्तियाँ, चूड़ियाँ, मणके, औजार आदि से ज्ञात होता है कि हड़प्पा सभ्यता कालीन कालीबंग समाज में शिल्पकला का उचित स्थान रहा है।
सौना, चाँदी अर्द्ध बहुमूल्य पत्थर, शंख से आभूषणों का निर्माण किया जाता था। स्त्रियों कानो में कर्णाभरण, कर्णफूल, बालियाँ पहनती थी बालों में पिनों का प्रयोग करती थी। गले में मणको के हार धारण करती थी। हाथों में शंख मिट्टी, ताम्र एवं शेलखड़ी से निर्मित चूड़ियाँ धारण करती थी अंगुलियों में अंगूठी पहनती थी। एक शव के साथ ताम्र- दर्पण एवं कान के पास कुण्डल भी मिला है। स्पष्टतया कालीबंगा निवासी प्रसाधन प्रेमी थे।’
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