हिंदी माध्यम नोट्स
न्यायपालिका किसे कहते हैं | भारत में न्यायपालिका की परिभाषा क्या है , कार्य विशेषता महत्व judiciary in hindi
judiciary in hindi meaning in india न्यायपालिका किसे कहते हैं | भारत में न्यायपालिका की परिभाषा क्या है , कार्य विशेषता महत्व जानकारी हिंदी में स्वतंत्र न्यायपालिका को कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है ?
प्रस्तावना
संवैधानिक सरकार पर आधारित किसी राजनीतिक व्यवस्था में, नियम बनाने, नियम लागू करने और नियम की व्याख्या करने के प्रकार्य विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की तीन संस्थाओं में बाँट दिए गए हैं। एक न्यायाधिकरण जो कि विधायी तथा कार्यकारी शक्ति से स्वतंत्र है, और उनके मनमाने प्रयोग पर एक नियंत्रक की भूमिका निभाती है, एक संवैधानिक सरकार का अनिवार्य लक्षण है। न्यायाधिकरण इस संदर्भ में अन्तिम निर्णायक भी है जो कि स्वयं संविधान का अर्थ है। एक संघीय व्यवस्था में न्यायाधिकरण संघ व उसके घटना इकाइयों के बीच विवादों के अन्तिम निष्कर्ष हेतु एक न्यायालय की भूमिका भी निभाता है। चूंकि सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों की अत्यधिक अहम भूमिका तथा प्रकार्य हैं, न्यायाधिकरण की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न उपाय किए गए हैं। चलिए, पहले भारत में आधुनिक न्यायिक व्यवस्था के उद्भव को तलाशते हैं और फिर इसकी शक्तियों तथा प्रकार्यों से संबंधित विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों की जाँच करते हैं।
भारत में न्यायपालिका का उद्भव तथा विकास
न्यायपालिका का विकास आमतौर पर आधुनिक राष्ट्र-राज्यों के विकास के साथ ही देखा जा सकता है। यही वह चरण था जब यह माना जाता था कि न्याय का अधिकार और उपयोग राज्य का विशेषाधिकार है।
प्राचीन काल में, न्याय का उपयोग राज्य का प्रकार्य नहीं माना जाता था क्योंकि यह धार्मिक कानून अथवा धर्म पर आधारित होता था। अधिकांश राजाओं के दरबार उस धर्म के अनुसार न्याय दिया करते थे जो था – ‘जीवन के चार चरणों (आश्रमों) से निभाए जाने वाले वैयक्तिक कर्त्तव्य पर टिके शाश्वत नियमों और व्यक्ति की सामाजिक स्थिति (वर्ण) के अनुसार उसकी प्रतिष्ठा का एक समुच्चय।‘ राजा के पास कोई वास्तविक विधयी शक्ति, ‘‘अपनी ही पहल और इच्छा पर‘‘ अध्यादेश जारी करने की शक्ति, नहीं थी। यदि कोई कानून आद्यनियमित और राजसी रूप से मान्यता प्रदान भी है, वह व्यक्ति जिस पर प्रथा व्यवहार्य है, इसकी अवज्ञा इस आधार पर कर सकता है कि वह धर्मादश विरुद्ध है। ग्राम स्तर पर, स्थानीय/ग्राम/जन-अदालतें प्रथागत के अनुसार न्याय दिया करती थीं।
तथापि, मध्यकाल में, राजा स्वयं न्याय देने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अनाधिकार रूप से अपनाता था। वह देश में सर्वोच्च न्यायाधीश होता था।
भारत में ब्रिटिश शासन के आगमन के साथ हो, वर्ष 1661 के चार्ल्स द्वितीय के रॉयल चार्टर ने इंग्लैंड के कानून के अनुसार गवर्नर तथा कौन्सिल को नागरिक तथा आपराधिक, दो मामलों ने निर्णय देने का शक्ति प्रदान की। परन्तु रेगलेटिंग एक्ट, 1973 के साथ ही भारत में प्रथम सर्वोच्च न्यायालय स्थापित होने लगा। कलकत्ता स्थित, इस सर्वोच्च न्यायालय ‘क्राउन‘ द्वारा नियुक्त मुख्य न्यायाधीश तथा तीन न्यायाधीश (बाद में घटकर दो न्यायाधीश रह गए) होते थे और इसे कम्पनी की अदालत की बजाय एक राजा का दरबार बनाया गया था। जहाँ कभी भी सर्वोच्च न्यायालय स्थापित थे अदालत का ‘‘महामहिम के विषयों‘‘ पर क्षेत्राधिकार था। तदोपरांत सर्वोच्च न्यायालय मद्रास तथा बम्बई में स्थापित किए गए।
इस काल में न्यायिक प्रणाली में दो व्यवस्थाएँ थीं – महाप्रान्तों में सर्वोच्च न्यायालय और प्रान्तों में सद्र अदालतें । जबकि पूर्ववर्ती इंग्लैंड के कानून और प्रक्रिया का अनुसरण किया, परवर्ती ने नियमन विधि और स्वीय विधि का अनुसरण किया।
तदोपरांत, हाई कोर्ट्स एक्ट, 1861 के अधीन इन दोनों व्यवस्थाओं का विलय हो गया। इस अधिनियम द्वारा कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास के महाप्रान्त नगरों में सुप्रीम कोर्टो तथा देशज न्यायालयों (सद्र दीवानी अदालतें सद्र निजामत अदालत) का स्थान हाई कोर्टो ने ले लिया। पनरावेदन की उच्चतम अदालत तथापि प्रीवी कौन्सिल की न्यायिक समिति थी।
भारतीय विधि-व्यवस्था के इस विकास-चरण में, एक एकीकृत न्यायालय प्रणाली के उद्गमन में एक नए युग का प्रारम्भ दृष्टिगोचर होता है।
1935 के अधिनियम द्वारा दिल्ली में फैडरल कोर्ट ऑव इण्डिया स्थापित किया गया। यह न्यायालय भारतीय संविधान की व्याख्या चाहने वाले मामलों के सम्बन्ध में उच्च न्यायालयों तथा प्रीवी कौन्सिल के बीच एक अध्यस्थ पुनरावेदनकर्ता के पास कुछ अन्य मामलों में सलाहकारी के साथ-साथ मौलिक क्षेत्राधिकार भी थे। इस न्यायालय ने 26 जनवरी 1950, भारतीय संविधान लागू होने के दिन ही से, कार्य करना शुरू कर दिया।
न्यायिक सुधार
न्याय के प्रयोग के विरुद्ध सर्वाधिक आश्चर्यजनक निरनुमोदन है – लम्बित मामलों की विशाल संख्या और न्याय अवसर्जन में विलम्ब । नब्बे के दशकारम्भ में, विभिन्न अदालतों में दो करोड़ से अधिक मामले लम्बित थे। मामलों की बड़ी संख्या के अम्बार का कारण न्यायपालिका में प्राधारात्मक तथा प्रक्रियात्मक दोषों को माना जा सकता है। न्यायिक सोपान के विभिन्न चरणों पर बहुविधि उपायों की उपलब्धता भी न्यायिक प्रणाली के दुरुपयोग करने का अम्बार लगने के साथ-साथ अवसर्जन में विलम्ब की ओर भी प्रवृत्त करती हैं।
न्याय प्रणाली की अन्य कमजोरी है – क्लेश-प्रद क्रियाप्रणालियाँ और न्याय की अप्रीतिकर लागत । एक नई व्यवस्था साधिक करने और आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक न्याय के लिए न्यायिक सुधारों हेतु सुझाव आए हैं।
वास्तव में, दसवें विधि आयोग ने न्यायिक सुधारों हेतु सुझाव आमंत्रित किए थे। एक सुझाव भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का कार्यभार कम करना था, जो प्रतिवर्ष लगभग एक लाख रुपये मामले स्वीकार करता है (जबकि संयुक्त राज्य सर्वोच्च न्यायालय, पाँच हजार पंक्तिबद्ध में से केवल 100 से 150 केस ही स्वीकार करता है)। सर्वोच्च न्यायालय का कार्यभार घटाने के सुझावों में एक था- संवैधानिक मामलों के साथ अनन्य रूप से निबटने के लिए एक संवैधानिक न्यायालय की स्थापना करना, और दूसरा था – देश में क्षेत्रीय पुनरावेदन न्यायालय की स्थापना करना।
बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 2
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
1) सर्वोच्च न्यायालय का किन क्षेत्रों में मौलिक क्षेत्राधिकार है? कौन-सा क्षेत्र सर्वोच्च न्यायालय का एक अनन्य सुरक्षित क्षेत्र है?
2) एक उच्च न्यायालय का लेखाधिकार क्षेत्र सर्वोच्च न्यायालय के लेखाधिकार क्षेत्र से विस्तृत होता है और निम्न परमादेश जारी कर सकता हैः
बोध प्रश्न 2 उत्तर
1) यह मौलिक अधिकारों के एक अभिभावक के रूप में और यह संघीय न्यायालय के रूप में, मूल क्षेत्राधिकार रखता है। एक संघीय न्यायालय के रूप में, इसके पास संघ तथा एक राज्य के बीच अथवा एक राज्य तथा अन्य राज्य के बीच, अथवा राज्यों के बीच विवादों में अनन्य क्षेत्राधिकारी है।
2) किसी भी कानूनी अधिकार को अमल करने में लाने के लिए।
बोध प्रश्न 3
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
1) 1973 के केशवानन्द भारती केस का क्या महत्त्व है?
2) जनहित वाद (याचिका) क्या है?
बोध प्रश्न 3 उत्तर
1) सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के मूल प्राधार अथवा अभिलक्षणों को सिद्धांत उद्भूत किए ऋऋऋ जिन्होंने न्यायिक पुनरीक्षा के अधिकार को व्यापक विस्तीर्णता प्रदान की।
2) जनहित याचिका एक लोकतांत्रिक अधिकार है जो किसी भी ‘जनभावना से ओतप्रोत‘ व्यक्ति अथवा संगठन को राज्य तथा समाज-बल पीड़ितों की ओर से न्याय माँगने हेतु न्यायालय जाने की मत स्वीकृति देता है।
सारांश
जैसा कि हमने देखा, भारत में विद्यमान न्याय-प्रबंध ब्रिटिश काल से ही तलाशा जा सकता है। चार्ल्स द्वितीय (1661) का रॉयल चार्टर, 1973 का रेग्यूलेटिंग एक्ट, 186) का इंडियन हाई कोर्ट्स एक्ट और 1935 का एक्ट भारत में आधुनिक न्याय-प्रणाली के उद्भव में महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर हैं। भारतीय संविधान में सर्वोच्च न्यायालय की अभिकल्पना कानून के उच्चतम न्यायालय के रूप में की है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित कानून सभी छोटे न्यायालयों पर बाध्यकर बनाया गया है यथा उच्च न्यायालयों तथा अधीनस्थ न्यायालयों पर ।
न्यायपालिका का महा संगीय न्यायालय की नीति और नागरिकों के मौतिकः अधिकारों का अभिभावक की भाँति तय कर, भारतीय संविधान के निर्माताओं ने न्यायालयों की स्वतंत्रता और न्यायिक पुनरीक्षा जैसे विषयों पर बड़ा ही ध्यान दिया है।
न्यायिक पुनरीक्षा एक तकनीक है जिसके द्वारा न्यायालय विधायिका, कार्यपालिका व अन्य सरकारी अभिकर्ताओं के कार्यों की जाँच करते हैं और निश्चित करते हैं कि क्या ये कार्य वेध हैं और संविधान द्वारा तय मर्यादाओं के भीतर हैं अथवा नहीं। न्यायिक पुनरीक्षा का आधार है: (अ) कि संविधान एक वैधानिक प्रपत्र है और (आ) कि यह कानून उस विधायिका द्वारा बनाये गए कानूनों से पद में बड़ा है जो स्वयं ही संविधान द्वारा स्थापित है। अब यह भारत में भली-भाँति प्रमाणित हो चुकी है कि न्यायिक पुनरीक्षा में भारतीय संविधान का मूल प्राधार अथवा अभिलक्षण निहित है।
कुछ उपयोगी पुस्तकें
कपाल, बी एन.. देसाई, सुब्रह्मण्यम, व अन्य (सं.) सुप्रीम बट नाॅट इन्फलबल एस्सैज इन आॅनर आॅ दि सुप्रीम कोर्ट कोर्ट ऑन इण्डिया, ऑक्सफोर्ड यूनानर्सिटी प्रेस. नई दिल्ली, 2002 ।
बक्शी, उपेन्द्र, सोसिओलजि ऑव लॉ, सातवाहन, 19761
बाबू, डी.डी., लिमिटिड गवर्नमेण्ट एण्ड जुडीशिल रिव्यू, 1972 ।
लिन्गैट, रॉबर्ट, दि क्लासीकल लॉ ऑव इण्डिया, जे.डी.एम. डिरेट द्वार अनुदित, थॉम्सन प्रैस, नई दिल्ली, 1973।
स्टोक्स, एरिक, दि इंग्लिश यूटिलिटेरिअन एण्ड इण्डिया, कैम्बिज, लन्दन, 1959 ।
न्यायपालिका
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
भारत में न्यायपालिका का उद्भव तथा विकास
सर्वोच्च न्यायालय
संयोजन तथा नियुक्तियाँ
कार्यकाल
वेतन
उन्मुक्तियाँ
सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार-क्षेत्र
मौलिक अधिकार-क्षेत्र
अपील संबंधी
सलाह संबंधी अधिकार-क्षेत्र
पुनरीक्षण अधिकार-क्षेत्र
उच्च न्यायालय
उच्च न्यायालय का संयोजन
अधिकार-क्षेत्र
अधीनस्थ न्यायालय
न्यायिक समीक्षा
न्यायिक सुधार
सारांश
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर
उद्देश्य
इस इकाई में आप पढ़ेंगे – भारतीय न्यायपालिका का प्राधारय संयोजन, अधिकार-क्षेत्र तथा प्रकार्य। इस इकाई को पढ़ने के बाद, आप इस योग्य होंगे कि:
ऽ भारत में न्यायिक प्रणाली के उद्भव को तलाश सकें,
ऽ भारत में न्यायालयों के संयोजन का वर्णन कर सकें,
ऽ सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालयों के प्रकार्य तथा अधिकार-क्षेत्र स्पष्ट कर सकें,
ऽ और न्यायिक समीक्षा की संकल्पना और मौलिक अधिकारों के रक्षार्थ उनके महत्त्व को स्पष्ट कर सकें।
Recent Posts
सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke rachnakar kaun hai in hindi , सती रासो के लेखक कौन है
सती रासो के लेखक कौन है सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke…
मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी रचना है , marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the
marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी…
राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए sources of rajasthan history in hindi
sources of rajasthan history in hindi राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए…
गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है ? gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi
gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है…
Weston Standard Cell in hindi वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन
वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन Weston Standard Cell in…
polity notes pdf in hindi for upsc prelims and mains exam , SSC , RAS political science hindi medium handwritten
get all types and chapters polity notes pdf in hindi for upsc , SSC ,…