हिंदी माध्यम नोट्स
जैंतिया भाषा आन्दोलन क्या है | जैंतिया लोगों का भाषा आंदोलन jaintia language movement in hindi
jaintia language movement in hindi जैंतिया भाषा आन्दोलन क्या है | जैंतिया लोगों का भाषा आंदोलन किसे कहते है किस राज्य में बोली जाती है ?
जैंतिया लोगों की जातीय-भाषाई अपेक्षाएं
खासी जनजातीय लोगों द्वारा बोली जाने वाली खासी भाषा को जब स्कूलों में शिक्षा का माध्यम बना दिया गया तो 1975 में गठित बैंतिया भाषा और साहित्य संगठन भी सक्रिय हुआ। रोमन लिपि में लिखी जाने वाली जैंतिया भाषा को अँतिया भाषी लोगों का छोटा सा समूह ही बोलता है । संगठन को लगा कि उनकी भाषा इसी दायरे में सिमट के रह जाएगी इसलिए उसने अपनी भाषाई पहचान को प्रतिष्ठित करने का प्रयास आरंभ कर दिया। यह संगठन जैंतिया भाषा में नियमित रूप से साहित्यिक सम्मेलन आयोजित करता है, वादविवाद को बढावा देता है और निबंध लेखन प्रतियोगिताओं का आयोजन करता है। यह बैंतिया भाषा में साहित्यिक रचनाओं का प्रकाशन भी करता है।
स्वतंत्र भारत में अनेक जनजातीय पुनर्जागरण आंदोलन हुए हैं। आदिवासी हितों की ओर इसलिए ध्यान नहीं दिया गया कि आदिवासी लोग एक शक्तिशाली दबाव समूह नहीं थे। हम कह सकते हैं कि विकास और वंचना दोनों को जातीय-भाषाई आंदोलनों को गति देने का श्रेय जाता है। साक्षरता, गतिशीलता, राजनीतिक भागीदारी जैसे कुछ महत्वपूर्ण कारकों ने लोगों में अपनी विशिष्ट पहचान के प्रति जागरुकता पैदा कर दी है। आंचलिक स्वायत्तता की आकांक्षाएं राजनीतिक चेतना के स्तर से सीधी जुड़ी होती हैं। अलग गोरखालैंड, बोडोलैंड, झारखंड जैसी मांगों ने जो मुद्दे उठाए हैं वे इसी दिशा में संकेत करते हैं। ये आंदोलन भारतीय राष्ट्र राज्य के संघीय ढांचे में अधिक स्वायत्तता और आंचलिक सत्ताधिकार प्राप्त करने के प्रयत्न हैं । मिजो यूनियन (1946), नागा नेशनल काउंसिल (1946), ईस्टर्न ट्राइबल काउंसिल (1952), एपीएचएलसी (1960) जैसे जनजातीय संगठनों के उदय को व्याख्या मध्यम वर्गीय आंदोलनों के रूप में की जाती है। मिजो फ्रीडम मूवमेंट (1940), मिजो नेशनल फ्रंट (1961) जैसे संगठन अपनी मांग को उठाने में राजनीतिक रूप से अधिक प्रखर थे।
भाषायी जातीयता और राज्य
ब्रिटिश शासकों ने राज्य के राजनीतिक गठन में भाषायी जातीयता को कभी नहीं जाना। दरअसल, अंग्रेजों के आने से पहले और भारत में उनका शासन स्थापित हो जाने पर भी देश के अधिकतर राज्य अमूमन ऐतिहासिक घटनाएं मात्र थे। बहरहाल, जाने-अनजाने बंगाल का पुनर्गठन आगे चलकर भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस द्वारा भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की नीति को बढ़ावा देने का बहाना बन गया। इसी के फलस्वरूप 1918 में मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट ने भारत में भाषायी आंदोलनों की उपस्थिति को पहली बार स्वीकार किया। मगर इस प्रतिमानात्मक परिवर्तन के बावजूद भारत सरकार के अधिनियम 1919 में । क्षेत्रीय भाषाओं के प्रोत्साहन के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। महात्मा गांधी ने 1920 में भाषायी आधार पर प्रांतों के गठन का समर्थन किया हालांकि उन्हें यह आंशका भी थी कि इस तरह से भाषायी । प्रांतों के गठन की पैरवी करना कहीं हिन्दुस्तानी के प्रचार प्रसार में बाधक न बन जाए क्योंकि वह इसे राष्ट्र भाषा बनाना चाहते थे। बहरहाल, गांधी की इस रणनीतिक सहमति के बाद नेहरू की स्वीकृति के फलस्वरूप काँग्रेस का पुनर्गठन भाषायी प्रांतों के आधार पर कर लिया गया। इस प्रकार 21 प्रांतीय काँग्रेस कमेटियां बनाई गईं। फिर 1927 में काँग्रेस ने एक प्रस्ताव पास किया जिसमें आंध्र, उत्कल (उड़ीसा), सिंध और कर्नाटक के लिए अलग-अलग भाषायी प्रांतों के गठन करने की मांग सरकार से की गई।
बॉक्स 12.02
कांग्रेस के 1927 के प्रस्ताव के दस वर्ष बाद जाकर नेहरू ने भाषायी राज्यों के विचार को स्वीकार किया। इससे पहले सर्वदलीय सम्मेलन की रिपोर्ट में भाषा को एक विशिष्ट प्रकार की संस्कृति, साहित्य और परंपरा के समकक्ष, उसके तदनुरूप मान लिया गया था। इसमें यह भी कहा गया कि एक भाषायी क्षेत्र में ये कारक यानी संस्कृति, साहित्य और परंपरा उस प्रांत की सामान्य प्रगाति में सहायक होंगे। इस तरह की स्वीकृतियां भारत की आजादी के पहले और आंरभिक स्वातंत्रयोत्तर इतिहास में एक सामाजिक आंदोलन के रूप में भाषायी जातीयता के उदय की शुरुआत थी। अंग्रेजों ने 1930 में जाकर भाषायी आंदोलनों और उनके राजनीतिक महत्व को समझना शुरू किया। उड़ीसा प्रांत का गठन अक्सर भारत में पहले भाषायी आंदोलन की सफलता कहा जाता है। इसे संयुक्त संसदीय समिति (सत्र 1932-33) की सहमति प्राप्त थी। पर अनेक इतिहासकारों का मानना है कि उड़ीसा का गठन भाषायी कारणों से नहीं किया गया था, बल्कि इसे हिंदू भावनाओं की तुष्टि के लिए बनाया गया था। वहीं सिंध प्रांत को सिंधी भाषी लोगों के लिए नहीं बल्कि बहुसंख्यक मुस्लिम भावनाओं को तुष्ट करने के लिए बनाया गया था।
बहरहाल कांग्रेस ने भाषायी प्रांतों की नीति को जारी रखा और आंध्र और कर्नाटक के लिए दो और प्रांतों के गठन की मांग रखी। इसके बाद 1938 में मलयालम भाषी लोगों के लिए एक स्वायत्त भाषायी प्रांत-केरल का गठन करने की मांग रखी गई। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भाषायी प्रांतों की मांग कुछ समय के लिए थम गईं। मगर 1945-46 में अपने चुनावी घोषणापत्र में काँग्रेस ने फिर इस विचार को छोड़ दिया कि प्रशासनिक इकाइयों का गठन यथासंभव भाषायी और सांस्कृतिक आधार पर हो। औपनिवेशिक शासन के खत्म हो जाने के बाद कुछ ब्रिटिश इतिहासकारों ने भाषायी आधार पर राज्य बनाने की व्याख्या करते हुए कहा है कि इनके पीछे प्रछन्न और गुप्त इरादे थे। रॉबर्ट डी. किंग के अनुसार, “भाषायी प्रांतों के गठन की मांग के पीछे जो भावनाएं काम कर रही थीं उनका संबंध भाषा से कम बल्कि जाति और सांप्रदायिक वैमनस्य, विशेषाधिकारों के लिए आपसी संघर्ष से ज्यादा था।‘‘
भाषायी जनजातीयता और राज्यों का पुनर्गठन
प्रसिद्ध भाषाविद और एशियाई विषयों के सिद्ध विद्वान रॉबर्ट डी. किंग के विचार में भाषायी सीमाओं के । अनुरूप राष्ट्र राज्यों की धारणा भौगोलिक राजनीति में एक नई घटना है जिसकी शुरुआत 19वीं सदी में हुई थी। किसी राष्ट्र का एक भाषी होना निश्चित ही लाभकारी हैं क्योंकि इससे संप्रेषण संवाद जाता है। मगर यह कहना सही नहीं है कि बहुभाषी समाज अनिवार्यतः विखंडनशील होते हैं। समरूप और समांगी समाजों में अधिक राजनीतिक जीवनक्षमता और स्थायित्व होती है, इस मान्यता को भारत ने गलन सिद्ध कर दिखाया है जो एक लोकतांत्रिक राजनीतिक संघ में फूलने फलने में सक्षम रहा है। मगर इस प्रक्रिया में उसे कठिन समस्याओं से जुझना है। भाषायी जातीयता और इस सिद्धांत पर राज्यों का पुनर्गठन ऐसी ही विकट समस्या थी। स्वतंत्रता से पहले भारत में राज्य की सीमाएं मनमाने ढंग से तय की गई थीं। पंजाब, बंगाल और सिंध प्रांतों को छोड़कर कोई भी राज्य नृजातिवर्णन, संस्कृति, भाषा और उसके उपयोग धर्म या साझी जातीयता के किसी अन्य घटक पर आधारित ऐतिहासिक रचना के प्रतिमानों के अनुरूप नहीं था। अब मद्रास प्रेसीडेंसी को ही लें। इसकी सीमा दक्षिण-पूर्वी ढलान पर स्थित केप कैमोरिन से शुरू होकर पूर्व में जगन्नाथपुरी मंदिर तक फैली थी और बंगाल की खाड़ी और पश्चिम में मालाबार तट पर अरब सागर को छूती थी। इसमें ओड़िया, मलयालम, तेलुगु, तमिल और कन्नड़ जैसी प्रमुख भाषाएं बोली जाती थीं। यहां एक रोचक बात यह है कि मद्रास प्रेसीडेंसी की 60.3 प्रतिशत आबादी गैर तमिल भाषी थी। इसी प्रकार बंबई प्रेसीडेंसी में रहने वाले 57.2 प्रतिशत लोग मराठी से अलग भाषाएं बोलते थे जैसे गुजराती, सिंधी और कन्नड़। बंगाल प्रेसीडेंसी में 70.000,000 लोग रहते थे जिनमें आज के बिहार और उड़ीसा राज्य भी शामिल थे और जिसकी सीमा पश्चिमोत्तर में सतलज नदी तक फैली थी। लार्ड कर्जन ने बंगाल प्रेसीडेंसी को दो भागों में बांटकर पूर्वी बंगाल और असम प्रांत बनाया, जिसकी आबादी लगभग 31,000,000 थी। इस प्रांत में बोली जाने वाली मुख्य भाषाएं बंगाली और असमी थीं। दूसरा प्रांत पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और बिहार थे जिनमें मुख्यतःबंगाली, हिंदी और ओड़िया भाषाएं बोली जाती थीं। इतिहासकारों का मानना था कि बंगाल का विभाजन देखने में तो प्रशासनिक कारणों से किया गया था लेकिन इसके मल में एक मुस्लिम बहल पूर्वी बंगाल और एक हिंदू बहल पश्चिम बंगाल बनाने का उद्देश्य था। इस तरह के पुनर्गठन में धार्मिक जातीयता को प्रमुखता दी गई और भाषायी घटकों के प्रसिद्ध नृविज्ञानी हरबर्ट राइजली का कहना था कि इससे ओड़िया भाषा की समस्या का समाधान हो गया । भारत सरकार द्वारा वर्ष 1955 में गठित किए गए राज्य पुनर्गठन आयोग का कहना हैः
‘‘इन मौकों पर भाषायी सिद्धांत का प्रयोग महज प्रशासनिक सुविधा के लिए किया गया उसी हद तक जहां तक यह राजनीतिक जरूरतों से निर्धारित सामान्य पैटर्न में सही जांचा। बल्कि वास्तविकता यह थी कि बंगाल के विभाजन में भाषायी बंधुता की भारी अवहेलना की गई। सन् 1912 के बंदोबस्त में भी भाषायी सिद्धांत की अवहेलना ही की गई क्योंकि इसने बंगाली मुसलमानों और बंगाली हिंदुओं के बीच एक विभाजन रेखा खींच दी थी। इस तरह ये दोनों विभाजन इस धारणा के प्रतिकूल थे कि विभिन्न भाषायी समूह सामाजिक भावना की विशिष्ट इकाइयां हैं जिनके साझे राजनीतिक और आर्थिक हित होते हैं।‘‘
Recent Posts
मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi
malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…
कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए
राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…
हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained
hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…
तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second
Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…
चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi
chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…
भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi
first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…