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अंतर पर्वतीय पठार क्या होते हैं ? अंतर पर्वतीय पठार के उदाहरण intermontane plateau in hindi
intermontane plateau in hindi example अंतर पर्वतीय पठार क्या होते हैं ? अंतर पर्वतीय पठार के उदाहरण ?
(ii) स्थिति के आधार पर वर्गीकरण
पठार की स्थिति के आधार पर इन्हें चार प्रकारों में बाँटा जा सकता हैः-
(1) अन्तर पर्वतीय पठार (Intermountain Plateau) – ये पठार पर्वतों के मध्य स्थित होते हैं। पर्वत निर्माण के समय ही इनका निर्माण होता है। ये पठार दो अभिनतियों के बीच मध्य पिण्ड (Median Mass) के रूपा में होते हैं। जैसे तिब्बत का पठार, बोलीविया का पठार, तारिम वेसिन।
(2) पर्वतपदीय पठार (Piedmont Plateau)- ये पठार पर्वतों के आधार पर पाये जाते हैं। जहाँ पर्वत खत्म होता है, वहाँ इनका विस्तार हो जाता है। मैदान या समुद्र की तरफ तेज ढाल रखते हैं। पेटागोनिया का पठार इसका अच्छा उदाहरण है।
(3) महाद्वीपीय पठार (Continental Plateau) -जो पठार महाद्वीपों के मध्य पाये जाते हैं, उन्हें महाद्वीपीय पठार कहा जाता है। किनारों पर ऊँचे पहाड़ी या पर्वत होते हैं। अरब का पठार, दक्षिण अफ्रीका का पठार, भारत का पठार इसी क्रम में आते हैं।
(4) तटीय पठार (Coastal Plateau) – ये समुद्र तट पर स्थित होते हैं। इन पठारों का कुछ हिस्सा समुद्र में डूबा रहता है व कुछ हिस्सा तट के रूपा में दिखायी पड़ता है। भारत का कोरोमण्डल तट इसी प्रकार बना है।
पठार
(Plateaus)
भू-पृष्ठ का विस्तृत क्षेत्र पठार द्वारा निर्मित है। ये न तो पर्वतों की तरह ऊँचे व नुकीले होते हैं और न ही मैदान की तरह समतल। सामान्यतः पठार ऐसे भू-भाग को कहा जाता है, जो 300 मीटर से अधिक ऊँचा होता है तथा उसका शिखर चपटा एवं चैड़ा होता है। यह अपने समीपवर्ती क्षेत्र से तीव्र ढाल से अलग होता है। पठार की अधिकतम ऊँचाई 1000 मीटर तक मानी जाती है।
वॉरसेस्टर के अनुसार – “पठार उच्च भू-भाग है जिसका शिखर चैड़ा होता है।‘‘
फ्रिच एवं ट्रिवार्था के अनुसार – “ऐसे मेजनुमा उच्च भू-भाग को पठार कहा जाता है जो 500 फिट से अधिक ऊँचे हों।‘‘
अतः स्पष्ट है कि चैड़े, चपटे व ऊँचे भू-भाग पठार कहलाते हैं, जो पर्वतों या मैदानों से भिन्न होते हैं। इनकी कुछ विशेषतायें होती हैः-
1. पठार अपने निकटवर्ती क्षेत्र से तीब ढाल के साथ जुड़ते है।
2. पठार चैरस व चपटे होते हैं।
3. कई बार ये पर्वत मैदान के मध्य या पर्वत श्रेणियों के मध्य पाये जाते हैं, अतः इनकी ऊंचाई कभी-कभी औसत ऊँचाई से अधिक होती है, जैसे तिब्बत का पठार 6000 मीटर की ऊँचाई पर नि के उत्तर में स्थित है।
4. पठार का ऊपरी भाग चपटा व चैरस होता है पर समतल नहीं, उस पर अपरदन के कारक अनेक असमानतायें पैदा कर देते है। इनका निर्माण अनेक कारणों से होता है। कभी स्थल में उत्थान हो जाने से, कभी वलन क्रिया के कारण सामान्य वलन पड़ने से तो कभी भ्रंश पड़ने से।
विश्व में प्रत्येक महाद्वीप में छोटे-बड़े कई पठार पाये जाते हैं। जिनमें प्रमुख हैं- तिब्बत का (एशिया) व बोलिविया का पठार (दक्षिण अमेरिका) जो 6000 मी. से अधिक ऊँचे हैं। दक्खन का (भारत), मंगोलिया का पठार (एशिया), लरेशिया का पठार (कनाडा), ब्राजील का पठार (ब्राजील, दक्षिण अमेरिका) अपने विशाल विस्तार के लिये जाने जाते हैं। इसके अतिरिक्त कई छोटे-बड़े पठार हैं, जैसे – कोलम्बिया का पठार, लारेन पठार, बी पठार अफ्रीका, इथोपिया का पठार, ग्रेट वेसित आदि।
पठारों का वर्गीकरण
विश्व के सभी पठार अपने आकार, विस्तार, जलवायु, उत्पत्ति व संरचना आदि में बहुत अधिक भिन्नता रखते हैं। इनका किसी एक आधार पर वर्गीकरण करना कठिन है। प्रायः इनका वर्गीकरण निम्न आधार पर किया जाता हैः-
i. उत्पत्ति के आधार पर, ii. स्थिति के आधार पर,
iii. आकृति के आधार पर, iv. जलवायु के आधार पर।
(i) उत्पत्ति के आधार पर (Plateaus according to Origin) – पठार की उत्पत्ति किस प्रकार हुई इस आधार पर इन्हें दो भागों में रखा जाता हैः-
(1) सरल पठार (Simple Plateau) -जिस पठार की उत्पत्ति किसी भी एक कारक से हुई हो एवं उसकी संरचना एक प्रकार की शैलों से हो तो उसे सरल पठार कहते हैं। जैसे उत्तरी अमेरिका का कोलोराडा का पठार जल में डूबे धरातल के उत्थान से हुआ है। कभी-कभी ज्वालामुखी क्रिया से पठार का निमाण होता है, जैसे भारत में दक्खन का पठार। सरल पठार की उत्पत्ति चार तरह से होती हैः-
(अ) जल द्वारा निक्षेपित अवसाद तब चट्टान का रूपा ग्रहण कर लेते हैं व उत्थान के फलस्वरूपा सतह पर आ जाते हैं पर इसमें बलन नहीं पड़ते, ऐसे उच्च भू-भाग जलीय पठार कहलाते है। भारत का विन्ध्य पठार व चेरापूंजी का पठार, म्यांमार का शान का पठार, अमेरिका का कोलोरोडो पठार इसके उदाहरण हैं।
(ब) कभी-कभी वायु द्वारा लगातार अवसादों के लम्बे समय तक निक्षेप करने पर निक्षेपित अवसाद कठोर चट्टान में बदल जाता है जिससे वह क्षेत्र पठार का रूपा धारण कर लेता है। इसे बायोद्ध पठार कहते हैं। जैसे लोएस पठार, पाकिस्तान का पोटवार पठार।
(स) ठंडे क्षेत्रों में हिमनदियों के निक्षेप से पठारों का निर्माण होता है। इन्हें हिम्य पठार कहा जाता है। जैसे जर्मनी का प्रशिया पठार, भारत में गढ़वाल का पठार।
(द) धरातल पर ज्वालामुखी से लावा प्रवाह से पठार का निर्माण होता है तो उसे लावा पठार कहा जाता है। भारत का लावा पठार, अमेरिका का कोलम्बिया पठार इसी प्रकार बना है।
(2) संयुक्त पठार (Composite Plateau) – इन पठारों की उत्पत्ति या निर्माण में कई कारकों का योगदान होता है। साथ ही इसमें शैलों की संरचना भी मिश्रित होती है। आन्तरिक हलचलों से, अवसादों में बलन, उत्थान व ज्वालामुखी क्रिया, निक्षेप आदि कई क्रियायें कई बार क्रियाशील होकर पठार का निर्माण करती हैं। अतः शैलों में रूपाान्तरण, वलन व भ्रंशन पाया जाता है, आग्नेय अवसादी व कायान्तरित सभी प्रकार की चट्टानें पायी जाती हैं। भारत का दक्खन का पठार, कनाडा का लारेशिया पठार इसी प्रकार का पठार है।
(iii) आकृति के आधार पर वर्गीकरण –
कुछ विद्वान आकृति के आधार पर पठारों को तीन प्रकारों में रखते हैं:-
(1) गुम्बदाकार पठार (Dome shaped Plateau) -जब उत्थान के कारण किसी क्षेत्र में बीच का भाग ऊपर उठ जाता है तो एक पठार का रूपा ले लेता है, परन्तु इसका ऊपरी भाग गोलाकार रहता है। बाद में अपरदन से यह चैरस हो जाता है, जैसे भारत में छोटा नागपुर का पठार।
(2) विच्छेदित पठार (Dissected Plateau) – प्राचीन पठारी भाग जब बाह्य अपरदनकारी तत्वों से काट-छाँट दिये जाते हैं, जब उन्हें विच्छेदित पठार कहा जाता है। बस्तर का पठार इसी प्रकार का है।
(3) सोपानी पठार (Step like Plateau) -भ्रंश क्रिया के कारण सतह में क्रमवार निमज्जन होने पर या लावा प्रवाह की अनियमितता से सतह सीढ़ीनुमा बन जाती है। विन्ध्य पठार इसका उत्तम उदाहरण है।
(IV) जलवायु के आधार पर वर्गीकरण:
पठार की जलवायु उनके स्वरूपा में बहुत परिवर्तन लाती है, अतः इस आधार पर भी इनका वर्गीकरण किया जाता है।
(1) शुष्क पठार – जहाँ उच्च ताप व नमी का अभाव होता है, वहाँ पठार पर वनस्पति का अभाव होता है। अतः कठोर चट्टानें सतह पर पायी जाती है। हवा द्वारा कहीं-कहीं निक्षेप मिलते हैं। कहीं-कहीं निक्षेप किया जाता है। अतः ये बहुत कम कटे-छंटे होते हैं। पाकिस्तान का पोटवार पठार व अरब प्रायद्वीप में यमन का पठार इसी प्रकार का है।
(2) आर्द्र पठार – जिन पठारी क्षेत्रों में वर्षा अधिक होती है, वहाँ अपरदन क्रिया अधिक होती है। कई नदियाँ इन पर बहती हैं, जो घाटी जल प्रपात आदि का निर्माण करती है। ये अत्यधिक ऊबड़-खाबड़ होते हैं। असम का पठार आर्द्र पठार है।
(3) हिम पठार – जो पठार उच्च अक्षांशों में स्थित हैं, वे हमेशा हिम चादर से ढंक रहते हैं। अतःउन्हें हिम पठार कहा जाता है। ग्रीनलैण्ड इसका अच्छा उदाहरण है।
अतः अनेक प्रकार से पठारों का वर्गीकरण उनकी विशेषताओं के आधार पर किया जा सकता है।
पठार का महत्व एवं प्रभाव
पर्वतों की भाँति पठारी क्षेत्र भी ऊँचाई के प्रतीक हैं। इनका निर्माण प्रायः कठोर चट्टानों से होता है। कुछ पठार अत्यधिक प्राचीन हैं व कछ नये। अतः इनका प्रभाव मानव जीवन पर भिन्न-भिन्न पड़ता ह। प्रायः पठारी क्षेत्र कृषि के लिये उपयक्त नहीं होते हैं। ऊबड़-खाबड़ आकृति से मानव निवास के लिये भी यह आकर्षण नहीं बनते हैं। इनकी जलवायु इनके महत्व को बढ़ाती है। अगर पठारों की जलवायु आर्द्र हाता है तो यह वन क्षेत्र से ढंक जाते हैं तथा चारागाह भी बन जाते है, तब इनका महत्व बढ़ जाता है। अगर पठार पर लावा प्रवाह होता है तो लम्बे समय बाद वहाँ उपजाऊ काली मिट्टी बन जाती है तथा उनका महत्व कृष के लिये हो जाता है। नदियों के निरन्तर कटाव व निक्षेप से भी पठारों पर मिट्टी का आवरण बन जाता है। भारत का दक्खन का पठार इसी प्रकार से अत्यंत उपयोगी हो गया है।
पठारों का सबसे ज्यादा महत्व उसमें पाये जाने वाले खनिजों के कारण होता है। विश्व के प्रायः सभी प्रमुख पठारी भाग खनिजों के भण्डार है। दक्षिण अफ्रीका का सोना व बहुमूल्य पत्थर, तामा में सोना, ताँबा, बाजील में लोहा, मैगनीज, बाक्साइट, अभ्रक, भारत में लोहा, मैगनीज, बाक्साइट बड़ी मात्रा में पाया जाता है। अतः यह आर्थिक दृष्टि से बहुत महत्व रखते हैं।
पठारी क्षेत्र कठोर व ऊबड़-खाबड़ होने के कारण सड़क यातायात के प्रमुख केन्द्र होते है। रेले भी बनाई जाती हैं पर कम। पठारी इलाके जनसंख्या की दृष्टि से विरल होते हैं, क्योंकि जीविका के साधन कम पाये जाते हैं। तिब्बत का पठार जैसे बहुत विरल बसा है। जहाँ खनन उद्योग का विकास किया गया है, वहाँ मानव बसाव मिलता है। जहाँ कृषि का विकास हुआ है वहाँ सघन जनसंख्या पायी जाती है।
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