JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Class 6

Hindi social science science maths English

Class 7

Hindi social science science maths English

Class 8

Hindi social science science maths English

Class 9

Hindi social science science Maths English

Class 10

Hindi Social science science Maths English

Class 11

Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History

chemistry business studies biology accountancy political science

Class 12

Hindi physics physical education maths english economics

chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology

Home science Geography

English medium Notes

Class 6

Hindi social science science maths English

Class 7

Hindi social science science maths English

Class 8

Hindi social science science maths English

Class 9

Hindi social science science Maths English

Class 10

Hindi Social science science Maths English

Class 11

Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics

chemistry business studies biology accountancy

Class 12

Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics

chemistry business studies biology accountancy

सूचना और संचार प्रौद्योगिकी में क्रांति की परिभाषा क्या है , किसे कहते है अवधारणा अर्थ information and communication technology in hindi

information and communication technology in hindi सूचना और संचार प्रौद्योगिकी में क्रांति की परिभाषा क्या है , किसे कहते है अवधारणा अर्थ सूचना और संचार प्रौद्योगिकी का आरंभ कब हुआ की जरूरत की स्थापना |

संचार प्रौद्योगिक में क्रांति
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
संचार के माध्यम
नई संचार प्रौद्योगिकी
संचार प्रौद्योगिकी से संबंधित मददे
संचार और राष्ट्रीय संप्रभुसत्ता
संचार में असमानताएं
नई अंतर्राष्ट्रीय सूचना व्यवस्था
वर्तमान सूचना और संचार व्यवस्था
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर संचार प्रौद्योगिक का प्रभाव
सारांश
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई में हम विद्यमान संचार और सूचना क्रांति के उदगम से जुड़े कुछ प्रमुख मुद्दों की समीक्षा करेंगे। इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप:
ऽ प्रमुख संचार प्रौद्योगिकियों की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे,
ऽ संचार क्रांति से संबंधित मुद्दों पर चर्चा कर सकेंगे,.
ऽ संचार के संबंध में उठे कुछ प्रमुख मुद्दों पर विकासशील देशों की स्थिति को स्पष्ट कर सकेंगे, और
ऽ विद्यमान संचार और सूचना प्रणाली की महत्वपूर्ण विशेषताओं की पहचान कर सकेंगे।

प्रस्तावना
प्रौद्योगिकी के इस युग में एक नाटकीय परिवर्तन यह हुआ है कि मानों विश्व एक ही स्थान पर सिमट कर आ गया हो अर्थात् विश्व में दूरियां हो गई हैं। इसके बहुत सारे कारण अथवा प्रभाव सूचना और संचार के क्षेत्र में हुए विकास में खोजे जा सकते हैं। संचार प्रौद्योगिकी की तीव्र गति और क्षमता ने आज हमारी अथाह अपेक्षाओं को भी पार कर दिया है।

इस डिजिटल (कपहपजंस) युग अर्थात् यंत्रों के (स्विचों के) युग में आवाज, मूल पाठ, आंकड़े और वीडियो सेवाओं के बीच अब प्रौद्योगिकी में अंतर नहीं रहा है तथा उपग्रह के आने के बाद अब सेवाओं की लागत का संबंध दूरी या विश्व के किसी भूभाग से नहीं रह गया। इस नई प्रौद्योगिकी, जो वास्तव में सूक्ष्म तंतुओं से बनी प्रकाशीय यंत्र है, ने सेवाओं की परम्परागत तकनीकों के प्रावधानों को बेकार सिद्ध कर दिया है। यदि हम इस नेटवर्क को भूमंडलीकरण की दृष्टि से देखें तो इस नई प्रौद्योगिकी का आरंभ 1980 के दशक के आरंभ में हुआ इसलिए अब अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क के बीच कोई दूरी नहीं रह गयी। इन प्रौद्योगिकीयों के कारण विश्व पर गहरा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव पड़ा है तथा जिसमें से अधिकतम का प्रभाव अभी तक हमारे सामने नहीं आया है।

यद्यपि संचार में बहुत से सुधार हो रहे हैं किंतु यह आश्चर्य का विषय है कि उत्तर के विकसित देशों और दक्षिण के विकासशील देशों के बीच असमानताएं बढ़ती जा रही हैं। विकासशील देशों के प्रयत्नों के बावजूद समाचारों एवं सूचना के प्रसारण में जो असंतुलन है उसे नष्ट करना चाहते हुए भी असंतुलन दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है तथा सूचना प्रसारण के प्रवाह में असंतुलन व विकृति पैदा हो रही है।

सबसे पहले संचार प्रौद्योगिकियों की परीक्षा करेंगे तथा इसके बाद संचार प्रौद्योगिकियों से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों की पहचान करेंगे जैसे कि राष्ट्र की संप्रभुता का प्रश्न, सूचनाओं के प्रचारक-प्रसारण में असंतुलनता तथा अर्जित किये गये समाचारों में आई विकृति इत्यादि । फिर भी यह बात सर्वमान्य है कि इन प्रौद्योगिकियों के प्रभाव से संबंधित, पूर्व घोषणा करना तो बहुत ही कठिन है किंतु हम संचार के क्षेत्र में जो व्यापक प्रवृत्तियां चल रही है उनकी जाँच परख करेंगे। जो हमारे लिए बहुत ही लाभदायक सिद्ध होगी।

संचार के माध्यम
संचार के माध्यम विश्व के लोगों को एक दूसरे से जोड़ते हैं तथा ये व्यक्तियों के आपसी संबंधों को स्थापित करने में महत्वपूर्ण साधन बने। विस्तृत रूप से जाना जाए तो संचार के माध्यमों को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं, प्रौद्योगिकी और गैर प्रौद्योगिकी। गैर प्रौद्योगिकी माध्यमों में भाषा, पर्यटन, आव्रजन तथा अंतर्राष्ट्रीय संगठन आते हैं। इस अध्याय में हम कुछ प्रमुख प्रौद्योगिकीयों से संबंधित माध्यमों जैसे कि मुद्रित सामग्री, डाक सेवाएं, रेडियो तथा दूरदर्शन प्रसारणों, दूर संचार एवं कंप्यूटर संचारों का सर्वेक्षण करेंगे।

मुद्रित सामग्री
मुद्रित सामग्री संचार का ऐसा सशक्त माध्यम है जो चिरस्थायी होता है। साथ ही राष्ट्रों की सीमाए पार करके संपूर्ण विश्व में आसानी से पहुँच जाता है। वैसे प्रेस की खोज 16वीं शताब्दी में हुई थी। इसमें पुस्तकें समाचार पत्र, सर्वाधिक पत्र पत्रिकाएं आदि शामिल होती हैं जो विश्व के विभिन्न पाठकों तक अपने विचार पहुँचाती हैं। अभी हाल के दिनों में नई प्रौद्योगिकियों के आने से अब इस माध्यम को तुरन्त ही विश्वभर में बहुत ही सरलता से भेजा जा सकता है। लम्बे समय से, मुद्रित सामग्री एक देश से दूसरे देश में भेजने के लिए परिवहन माध्यम पर ही निर्भर करती थी किन्तु । आज यह स्थिति समाप्त हो गई है। अपेक्षाकृत अब मुद्रित सामग्री वजन पर बहुत ही कम आधारित रह गई है। यह युग उपग्रह का युग है इसके माध्यम से किसी भी पुस्तक, समाचार पत्र, सर्वाधिक पत्र पत्रिकाओं को विश्व के सुदूर देशों में बैठे प्रकाशकों के पास और मुद्रित संयत्रों में प्रकाशित करने के लिए संपूर्ण सामग्री उपग्रह से तुरन्त वितरित हो रही है। इसके साथ ही एक ओर इलेक्ट्रॉनिक क्रांति के आने से परम्परागत प्रकाशक भी अब नए इलेक्ट्रॉनिक प्रकाशन के तरीकों को अपने प्रकाशित ग्रन्थों के लिए अपनाने लगे हैं। इसके परिणामस्वरूप एक बार प्रकाशित पृष्ठों को कंप्यूटर या दूरदर्शन सेटों, टेलीफोन लाइनों, टी वी कैबलों, वीडियो डिस्क के माध्यम से विश्व के किसी भी भाग में बिना किसी बाधा के आसानी से पहुँचाया जा सकता है।

डाक संचार
डाक संचार एक महत्वपूर्ण संचार का माध्यम है और इसका आरंभ 19वीं शताब्दी के उत्तरांध में हुआ था। और आज डाक संचार भूमण्डलीय संचार का लगभग सर्वव्यापक माध्यम बन गया है। परिवहन की तीव्र प्रगति और संचार प्रौद्योगिकी का प्रभाव इस माध्यम पर भी पड़ रहा है। अनेक देशों में आज निजी और सार्वजनिक कंपनियां एक्सप्रेस सर्विसेज में प्रतियोगिताएं कर रही हैं। जिससे विश्व के किसी भी देश में केवल दो दिन में उपभोक्ता सामान या पैकेज को निर्दिष्ट स्थान में भेजने में समर्थ है। इलेक्ट्रॉनिक मेल के माध्यम से एक डाकघर से दूसरे डाकघर में किसी भी सामग्री को पुनः प्रसारित करके तथा उसे उसके मूल रूप में परिवर्तित करके उसे प्रत्यक्ष रूप से गन्तव्य स्थान पर भेज दिया जाता है। व्यक्तिगत मेल के मामले में फैक्स मशीन डाक सेवा का स्थान ले रही है।

रेडियो प्रसारण
इस 20वीं शताब्दी के आरंभ से ही रेडियो एक महत्वपूर्ण साधन बन गया था जिसमें अंतर्राष्ट्रीय रेडियो ब्रोडकास्टिंग ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह बात विशेष ध्यान में रखनी चाहिए कि संचार के आधुनिकतम साधन उपलब्ध होने के बावजूद आज भी, विश्व के सैकड़ों देशों में रेडियो समाचार प्रसारण, विचारों और मनोरंजन के लिए सशक्त साधन बना हुआ है। बी बी सी और वॉयस ऑफ अमरीका जैसे प्रसिद्ध रेडियो स्टेशनों से प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों के सुनने वाले लोगों की विश्व में आज असीम संख्या मौजूद है।

उपग्रह दूर संचार
उपग्रह दूरसंचार का प्रारंभ 1960 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में हुआ। पहली वास्तविक संचार उपग्रह सेवा सिनेकाम प्प्प् से मानी जाती है जिसके माध्यम से 1964 में हुए टोक्यो ओलम्पिक खेलों का आंखों देखा हाल पूरे विश्व में प्रसारित किया गया था। अगले वर्ष इन्टेल सेट ने विश्व का पहला व्यापारिक संचार उपग्रह, “अरली बर्ड‘‘ को भूमण्डल कक्ष में स्थापित किया। आज भूमण्डलीय इन्टेलसैट व्यवस्था विश्व के लगभग 80 प्रतिशत लम्बी दूरी के अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार यातायात को अपने में समेटे हुए है अर्थात् 80 प्रतिशत उपग्रह सेवाएं हमें यह माध्यम उपलब्ध कराता है।

कंप्यूटर संचार
डिजिटल क्रांति के पीछे प्रेरक बल जो है वह वास्तव में कंप्यूटर का 1980 के दशक म आना हुआ है। प्रौद्योगिकी के इस युग में कंप्यूटर से कंप्यूटर तक व्यापक संचार का साधन बन गया है। आज कंप्यूटर से संचार व्यवस्था विश्वस्तरीय हो गई है। कंप्यूटर के प्रयोग में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है जिसमें इसकी धारण क्षमता, गति तथा विश्वस्तता शामिल हैं तथा साथ ही इसके मूल्यों में भी भारी गिरावट आई है। अब लोग अपने व्यक्तिगत कंप्यूटर खरीदने लगे हैं और अंतर्राष्ट्रीय कंप्यूटर नेटवर्क में शामिल हो रहे हैं।

नई संचार प्रौद्योगिकी
विश्वयुद्ध की घटनाओं के पश्चात संचार पर सीधा प्रभाव डालने वाली दो महत्वपूर्ण तकनीकों का विकास हुआ। इन तकनीकों में पहला संचार उपग्रह और दूसरा डिजिटल क्रांति है। यद्यपि संचार उपग्रह का प्रयोग तो 1960 के दशक में ही आरंभ हो गया था किंतु इसका पूरा लाभ 1980 के दशक में ही आरंभ हुआ। अब उपग्रह और डिजिटल संचार का सम्मिलित रूप से प्रयोग होने लगा है तथा जिससे आंकड़े, आवाज तथा चित्रों को राष्ट्रों की सीमाओं से पार भेजा जाने लगा है जिसके परिणामस्वरूप मौजूदा माध्यम की पहुँच को बढ़ावा मिला।

उपग्रह प्रौद्योगिकी
उपग्रह प्रौद्योगिकी आधारित संचार, 1957 के अंतरिक्ष युग के उदय होने के साथ साथ साकार हुआ है। यद्यपि पूर्व सोवियत संघ ने सबसे पहले अंतरिक्ष में पहला उपग्रह स्थापित किया था किंतु अमरीका ने सबसे पहले इसे प्रौद्योगिकी का प्रयोग संचार व अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों की जानकारी के लिए किया। एक संचार उपग्रह को पृथ्वी से अंतरिक्ष में लगभग 36,000 कि.मी. की दूरी पर स्थापित किया जाता है। इस ऊँचाई पर उपग्रह स्थापित करने से पृथ्वी की सतह का तीसरा हिस्सा देखा जा सकता है अथवा उपग्रह के कार्यक्षेत्र में शामिल किया जा सकता है। एक उपग्रह को स्टेशनों के उन किसी भी नम्बर से जोड़ा जा सकता है जो इसके ऐंटेना किंरजों से जुड़ा होता है जिसे फुट प्रिन्ट के नाम से जाना जाता है। इसकी किरणों के सभी बिंदुओं या लक्ष्यों की दूरी उपग्रह से समान दूरी पर होनी चाहिए। इसलिए हम कह सकते हैं कि उपग्रह दूरी के मामले में असंवेदनशील है। सन 1960 के दशक के मध्य से अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार उपग्रह संगठन (इनटेलैसर) एक उपग्रह मण्डल अंतर महाद्वीपीय दूरसंचार पर एक छत्र शासन करने लगा। इसके प्रतिपक्ष पूर्व समाजवादी देशों ने सन 1971 में अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष संगठन (इंटरसपूतनिक) की स्थापना की।. इसके अतिरिक्त अन्य उपग्रह संगठनों की भी स्थापना की गई ताकि विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके। उदाहरण के लिए समुद्र की खोज के लिए इंटरनेशनल मेरीटाइम सेटेलाइट आर्गेनाइजेशन की स्थापना 1979 में की गई ताकि भूमि की खोज यानि भूमि संचार के लिए उपयोग किया जा सके। इसके साथ ही क्षेत्रीय स्तर पर अरबसैट तथा एशिया वीजन की स्थापना की गई। इसके अलावा अनेक देशों ने अपने अपने उपग्रह स्थापित किए ताकि उनकी अपनी घरेलू दूर संचार की आवश्यकताएं पूरी की जा सके। 1980 के दशक में अमरीका ने अंतरिक्ष को सार्वजनिक प्रतियोगिता हेतु खोल दिया। परिणामस्वरूप निजी उपग्रह व्यवस्थाएं अस्तित्व में आई जिसने उपग्रह सेवाओं में इनटेलसैट के एकाधिकार को तोड़ दिया। इस तरह से अंतरिक्ष में उपग्रह स्थापित करने की आज विश्व में होड़ लगी हुई है।

डिजिटल क्रांति
इलेक्ट्रॉनिक एवं डिजिटल उन्नत साधनों की खोज ने संचार क्रांति को तीव्र गति प्रदान की है। मूल रूप से सूचना भेजने या प्रसारित करने के लिए दो तरह के दूर संचार के माध्यमों में से किसी एक को अपना कर कार्य संपादित किया जा सकता है। ये प्रकार है एनालाग या डिजिटल। ऐनालाग ट्रांसमीसन का प्रयोग इलेक्ट्रिकल संकेत देकर स्वर चित्र या आंकड़ों को भेजा जाता है। इस तरह से जब हम सूचना भेजते हैं तो हमें एक खास तरह का कार्य करना पड़ता है जैसे कि यदि स्वर ऊँचा है या तेज है ऐसी स्थिति में हम इलेक्ट्रॉनिक संकेत को तेज कर देंगे और यदि स्वर धीमा है तो संकेत को भी कम कर देंगे। वास्तव में विश्व के सभी दूर संचार के माध्यम एनालाग साधनों के माध्यम से ही आरंभ हुए थे। परन्तु आज तीव्र गति से उन सभी एनालाग साधनों का स्थानं डिजिटल प्रौद्योगिकी ले रही है। डिजिटल संचार प्रणाली में सूचना को पृथ्क दोहरे डिजिटों (जीरो और वनस जिन्हें बिट्स यानि छोटे अंश कहते हैं) में बदला जाता है। इन अंशों को उनके वास्तविक रूप में सुरक्षित रखा जाता है और उनके असली रूप में बदला जा सकता है। फोन से डिजिटल कंप्यूटर आंकड़े भेजने के लिए एक मॉडम की जरूरत होती है जो एनालाग सूचना को डिजिटल में बदलती है। मॉडम टेलीफोन व्यवथा में वार्तालाप को डिजिटल के रूप में बदल दिया जाता है और उस वार्तालाप को तार या प्रकाशीय तंतुओं द्वारा प्रसारित किया जाता है।

डिजिटल प्रणाली की तरफ विश्वव्यापी प्रवाह ने एकीकृत सेवा डिजिटल नेटवर्क की स्थापना हेतु प्रेरित किया जो कि अंततः पहले के अलग संचार नेटवर्क को नवीन क्षमता वाली प्रणाली में सम्मिलित करेगा। जिसमें टेलीफोन, टेलीग्राफ, टेलीटेक्स, फैक्स, आंकड़े तथा वीडियों को शामिल कर दिया जायेगा।

इन नवीन संचार प्रौद्योगिकी, प्रमुख रूप से उपग्रह और डिजिटल नेटवर्क ने संचार के क्षेत्र में क्रांति पैदा कर दी है। संचार क्रांति ने अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में बहुत सारे मुद्दे एवं गति पैदा कर दी है। दूरी और भूमि की सीमाओं को इस उपग्रह के युग ने अर्थहीन बना दिया है। अब वे दिन दूर नहीं हैं जब संचार का संजाल पूरे विश्व में बिछ जाएगा और राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सीमांकन के कार्यों का कोई मूल्य नहीं रहेगा। इसके साथ ही इस व्यवस्था का प्रभाव अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पड़ेगा। इन अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों को ध्यान में रखते हुए हम अगले अध्यायों में दो महत्वपूर्ण मुद्दों यानि की राष्ट्री संप्रभुसत्ता और सूचना प्रवाह की समीक्षा करेंगे। ये दोनों मुद्दे भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक दूसरे से संबंधित हैं। इन दोनों मुद्दों पर उत्तर के विकसित राष्ट्र और दक्षिण के नये उदित विकासशील राष्ट्रों के दृष्टिकोणों में भिन्नता है और इसका प्रमुख कारण दोनों के हितों का अलग होना है।

संचार प्रौद्योगिकी से संबंधित मुद्दे
संचार और राष्ट्रीय संप्रभुसत्ता
नई संचार प्रौद्योगिकी ने संप्रभुत्ता की अवधारणा के लिए बहुत सारी समस्याएं खड़ी कर दी हैं। संप्रभुत्ता का पारम्परिक अर्थ यह होता है कि कोई देश अपनी सीमाओं को दुश्मन की फौजों से सुरक्षित रखें, अपने देश में मौजूदा सम्पत्ति और तमाम संसाधनों को सुरक्षित रख सके तथा इसके साथ ही वह देश किसी दूसरे देश के हस्तक्षेप के बिना राजनीतिक सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था को अबाध रूप से स्थापित करने में समर्थ हो। इसी संप्रभुता की अवधारणा के आधार पर सूचना संप्रभुता का सिद्धांत स्थापित होता है। इसलिए वे राष्ट्र संप्रभुता के संपूर्ण अधिकार का प्रयोग करते हैं और संचार और सूचना को अपने क्षेत्र में क्षेत्रीय अखंडता के लिए महत्वपूर्ण साधन के रूप में लेते हैं और उस पर नियंत्रण रखते हैं द्य तथापि संदेश या समाचार निर्माण, उसका प्रचार प्रसार तथा उसकी प्राप्ति से संबंधित संचार और सूचना प्रौद्योगिकी राष्ट्रीय सीमाओं की बाधाओं की चिन्ता नहीं करती है। वे तो निर्बाध रूप से सीमाओं को तोड़ कर एक देश से दूसरे देश में पहुँच जाती है। यही प्रक्रिया नई संचार प्रौद्योगिकी से जुड़े मुद्दों को बढ़ावा देती है जो राष्ट्रीय संप्रभुत्ता सूचनाओं के प्रसार पर नियंत्रण रखती है। राष्ट्रीय संचार सुविधाओं के विकास आदि में अपनी दखल देते हैं वह संप्रभुत्ता के लिए भयानक सिद्ध हो सकती है। आइए अब हम उपग्रह प्रौद्योगिकी के कारण पैदा हुए मुद्दों पर चर्चा करें।

हम यहाँ पर संप्रभुत्ता के संबंध में दो उदाहरणों को ध्यान में रख कर अपने तर्कों द्वारा समीक्षा करेंगे जो हमारे लिए बहुत लाभकारी सिद्ध होगी। ये उदाहरण हैंरू सीधा प्रसारण उपग्रह और दूरवर्ती नियंत्रण संवेदी उपग्रह। 1960 के दशक के आरंभ में ही सीधे प्रसारण उपग्रह का आविष्कार हुआ था तब ही से राष्ट्रीय संप्रभुत्ता का मुद्दा उठता रहा है। अंतरिक्ष में लगा हुआ एक उपग्रह पृथ्वी की सतह का तीसरा हिस्सा आसानी से अपने कार्य क्षेत्र में समेट लेता है। इसे दूसरे शब्दों में इस तरह से कह सकते हैं कि चाहे इच्छा हो या न हो उपग्रह के सिगनल दूसरे राष्ट्रों के क्षेत्रों में अपनी विकिरणों को अवश्य ही फैला देता है और उनके क्षेत्रों में वहाँ की प्रत्येक होने वाली गतिविधियों के चित्र स्वर, आंकड़े यहां तक कि पदचिन्हनों को लेने में भी सक्षम होता है। वास्तव में इसके पदचिन्हों (सिगनल द्वारा भौगोलिक क्षेत्रों को शामिल करने का साधन) को कभी भी निश्चित क्षेत्र में स्थापित नहीं किया जा सकता है। उपग्रह का क्षेत्र हमेशा ही सीमाओं की परिधि से बाहर होता है।

कुछ इस तरह का तर्क दिया जा सकता है कि अनावश्यक सिगनलों से बचने के लिए किसी भी देश को इसका विरोध करना चाहिए। इसके साथ ही ऐसा भी है कि उपग्रह के माध्यम से सीधे दूरदर्शन प्रसारण जब एक देश से दूसरे देश में किया जाता है तो इसकी सहमति उस देश से ही ली जाती है जो प्रसारण कर रहा है साथ ही जो प्रसारण प्राप्त कर रहा है उसकी सहमति भी आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं करते हैं तो किसी भी देश की संप्रभुसत्ता का उल्लंघन होता है साथ ही उस देश की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय संस्कृति को हानि होती है। दूसरी ओर यह भी कहा जाता है कि उपग्रह के सीधे प्रसारण को रोकने के लिए कानून बनाने का अर्थ है सूचना की स्वतंत्रता को नष्ट करना व उसे डराना धमकाना है। इस विचार के मानने वालों में अमरीका सबसे आगे है।

उपग्रह प्रौद्योगिकी ने भी बाह्य आकाश के अधिक प्रवेश के संबंध में अनेक विवाद पैदा किए हैं। जबकि वायुमंडल कानून इस बात की इजाजत देता है कि कोई भी राष्ट्र अपने वायुमंडल में संप्रभुसत्ता रखता है जबकि आकाशीय विधि के सिद्धांत किसी भी देश को बाह्य आकाश के प्रयोग की छूट देता है जिसमें चन्द्रमा तथा अन्य खगोलीय पिंडों के प्रयोग करने की अनुमति शामिल है। यह प्रयोग बिना किसी संप्रभुसत्ता का दावा किए और राष्ट्रीय विनियोग के बिना समानता के अधिकार पर खुला प्रयोग किया जा सकता है। बाह्य आकाश कानून और वायुमंडल कानून दोनों ही व्यासीय आधार पर सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप से एक दूसरे का अंतर्विरोध लिए है। इसके अलावा अभी तक इस मुद्दे का संतोषजनक समाधान नहीं निकल पाया है कि कहाँ पर एक देश का वायुमंडल समाप्त होता है और कहाँ से बाह्य आकाश आरंभ होता है। वायुमंडल और बाह्य आकाश से संबंधित मुद्दों को बहुत ही स्पष्ट रूप में वैन कारमैन लाइन में उजागर किया है। इसमें कहा है कि राष्ट्र अपने परम्परागत बिंदु तक संप्रभुसत्ता का दावा कर सकते हैं जो उनके देश की सीमाओं में वायुमंडल और भूमंडल आता है इस लाइन के पश्चात एक राष्ट्र की वायुमंडल पर संप्रभुसत्ता वहाँ पर लागू नहीं होती है जहाँ पर उसकी सीमा नहीं है अर्थात वहाँ पर यह समाप्त हो जाती है।

यह परिभाषा भी विवादरहित नहीं है, ज्यामिति के हिसाब से संचार उपग्रहों को आदर्श रूप में भूमध रेखा के ऊपर 36,000 कि.मी. की दूरी पर स्थापित किया जाता है। इसलिए जो देश भूमध्य रेखा के आस पास होते हैं उन्हें उपग्रहों के सिगनलों को प्राप्त करने में बहुत ही आसानी होती है क्योंकि वे देश मौसम की पतली परत से इसका बहुत ही आसानी से लाभ उठा सकते हैं इसका मुख्य कारण यह है कि सिगनल बिन्दु उन देशों के नजदीक पड़ते हैं। परन्तु यह भी एक वास्तविकता है जिओ–स्टेशनरी आरबिट (ळैव्) की संख्या सीमित है और उपग्रहों को अंतरिक्ष में एक दूसरे के नजदीक संख्या में स्थापित नहीं कर सकते हैं दूसरी ओर उन बहुत सारे देशों और निगमों की संख्या में अत्याधिक वृद्धि हो रही है जो उपग्रह स्थापित करने के बेहद इच्छुक है। सन 1976 में बोगोटा घोषणा के बाद नौदेशों ने भूमध्य रेखा को अपना कर उसमें उपग्रह स्थापित किए थे उन देशों का दावा है कि जिओ स्टेशनरी आरबिट भूमध्य रेखा पर उन देशों का स्थित होने के कारण उनका प्राकृतिक संसाधन है इसलिए इस क्षेत्र में उनकी संप्रभुसत्ता का अधिकार बनता है। इन नौ देशों का कहना है कि जी एस ओ में कोई भी देश किसी तरह की कोई वस्तु अथवा उपग्रह उनकी अनुमति के बिना स्थापित नहीं कर सकते हैं। साथ ही उन देशों को यह भी भय है कि जी एस ओ की संख्या सीमित है और उन्हें यह उस समय उपलब्ध नहीं होते हैं जब उनको इसके प्रयोग की आवश्यकता पड़ती है। इस स्थिति को और अधिक विवाद में डालने वाले दो बड़े देश हैं अमरीका और पूर्व सोवियत संघ जो दोनों ही विश्व में सबसे अधिक भाड़े पर उपग्रहों को उपलब्ध कराते हैं और जिनका इस क्षेत्र में एकछत्र शासन है।

आज वास्तव में जी एस ओ पर संप्रभुसत्ता के अधिकार के सवाल पर चार प्रमुख स्थितियां बनी हुई। हैं। पहली स्थिति का प्रणेता है संयुक्त राज्य अमरीका। इनका कहना है कि जी एस ओ के प्रयोग के लिए समय निर्धारित करने के लिए “पहले आओ, पहले पाओ‘‘ का सिद्धांत सुझाते हैं। दूसरे सिद्धसंत के निर्माता है पूर्व सोवियत संघ । सोवियत संघ का मानना है कि उनके ‘‘वेन कारमैन सिद्धांत‘‘ में वायुमंडल और बाह्य आकाश की सीमाओं को साफ साफ अंकित किया हुआ है जो समुद्र की तल से एक खास ऊंचाई पर उपग्रहों को स्थापित करने और उससे संबंधित देश की संप्रभुसत्ता को निर्धारित किया हुआ है। इस तरह से वायुमंडल के नीचे आने वाली सीमाएं संप्रभु की संपत्ति मानी जायेंगी और इसके बाद की सीमाएं बाह्य आकाशीय क्षेत्र माना जाएगा जिसमें प्रवेश करना सबके लिए खुला होगा।

इस संबंध में तीसरे दृष्टिकोण को मानने वाले विकासशील देश हैं। विकासशील देशों की मांग है कि अंतरिक्ष स्थिति और फ्रिक्विन्सिज दोनों को सार्वभौमिक रूप से प्राथमिकता के आधार पर आबंटित किया जाना चाहिए। ये देश इस सिद्धांत के पक्ष में है कि एक अंतर्राष्ट्रीय समाज मान्य संस्था के तहत संगठन स्थापित किया जाए तथा उसके अंतर्गत सबको जी एस ओ का प्रयोग करने का समान अधिकार मिलना चाहिए। चैथा और अंतिम दृष्टिकोण उन देशों का है जो भूमध्य रेखा । पर स्थिति है। ये देश विकासशील देशों के इस सिद्धांत का समर्थन तो करते हैं कि जी एस ओ के प्रयोग के लिए पूर्व आवंटित किया जाए किंतु साथ ही उनका दावा है कि उन देशों की भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए उनकी संप्रभुसता को मध्य नजर रखते हुए उन्हें इसके प्रयोग के लिए प्राथमिकता का अधिकार दिया जाए।

संप्रभुसता के सवाल को भूमि प्रेक्षण उपग्रह अथवा दूर से नियंत्रित संवेदी उपग्रहों के वर्ग के प्रयोग के लिए भी उठाया गया था। यह उपग्रह खोज करने, माप, उपाय तथा द्रव्यों या पदार्थों का पता लगाने व उनके विश्लेषण का कार्य करते हैं। यह उपग्रह अंतरिक्ष से सीधे पृथ्वी के ऊपर और उसके अंतस्थल में एक मेदिए की तरह कार्य करते हैं। इसमें तनिक भी शंका नहीं है कि इन उपग्रहों के माध्यम से एकत्रित किए गए आंकड़े से जागरूक देश अर्ध जागरूक देशों पर । राजनीतिक और आर्थिक शक्तियां स्थापित करते हैं। इन उपग्रहों से तेल के भंडारों, फसल अच्छी है या खराब और खनिजों के भंडारों का पता लगाया जाता है जो किसी भी सरकार तथा निगमों के लिए अपनी घरेलू योजना बनाने और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेहतर तरीके से सौदेबाजी के लिए अत्याधिक सहायक और लाभदायक सिद्ध होते हैं। इसके साथ ही अंतर्राष्ट्रीय कानून राष्ट्रीय सरकारों को अपने प्राकृतिक संसाधनों पर संप्रभुसत्ता को स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है। परन्तु यहाँ पर यह मुद्दा साफ तौर पर हमारे सामने उठता है कि क्या वास्तव में इन राष्ट्रों का इन। संसाधनों की सूचना पर पूर्णरूप से संप्रभुत्ता प्राप्त है। यह एक अध्ययन का विषय है कि अमरीका का लैंडसेट फ्रांस का स्पॉट भारत का आर्ड्स उपग्रह अथवा अन्य दूसरे व्यापारिक दूर सनिसंत्रिक संवेदी उपग्रह जो एशिया या अफ्रिमा के कुछ क्षेत्रों में उपलब्ध महत्वपूर्ण खनिज पदार्थों और तेल के भण्डारों का गुप्त रूप से पता लगाते हैं, यह उपग्रह जो सूचना एकत्रित करते हैं वे किसके लिए करते हैं और इनका उपयोग किस के विरूद्ध कौन करता है। आश्चर्य का विषय तो तब बनता है जब किसी देश के मौजूदा प्राकृतिक संसाधनों का और उन सूचनाओं का जो उसे पता ही नहीं होती है कि उसके पास साधनों का कितना भंडार उपलब्ध है जबकि जिस देश के या निजी निगम के यह खोजी उपग्रह कार्य करते हैं तथा जिन्हें इन संसाधनों का प्रयोग करना है वे उस देश से कहीं अधिक जानते हैं जिसके पास वास्तव में ये भण्डार मौजूद हैं। इसलिए कुछ विकासशील देश जिनमें ब्राजील सबसे आगे है वह देर नियंत्रित संवेदन तकनीकी अथवा अन्य उन्नत संवेदन तकनीकों के प्रयोग के नितांत विरूद्ध हैं तथा उसका कहना है कि इन तकनीकों का तब तक प्रयोग न किया जाए जब तक संबंधित राष्ट्र अपनी सहमति प्रकट न कर दें। इन उपग्रहों की प्रणाली से प्राप्त किए गए विस्तृत आर्थिक आंकड़े कम्पनियों को उपलब्ध कराए जाते हैं जिन्होंने उन राष्ट्रों का दोहन करना है और मजे की बात यह है कि जिनसे संबंधित यह आंकड़े होते हैं उन स्थानीय राष्ट्रों के प्राधिकारियों के पास उपलब्ध ही नहीं होते हैं। इन देशों का यह भय बन गया है कि दूर नियंत्रित संवेदी उपग्रहों द्वारा प्राप्त किए गए आंकड़े और असीमित उपलब्ध उपग्रहों की संख्या कम करने के लिए कोई नीति कारगर सिद्ध नहीं हो रही है। इसके साथ ही यह भय भी समा गया है कि अधिकतर राष्ट्रों के पास ऐसे सक्षम और दक्ष कार्मिक भी मौजूद नहीं है जो
दूरनियंत्रित संवेदित उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों का दोहन कर सके. उनकी व्याख्या कर सके चाहे उन्हें आंकड़े ही क्यों न उपलब्ध करा दिए जाए। वास्तव में यह तथ्य भी एक भयंकर स्थिति को दर्शाते हैं।

इस विवाद का अंतिम समाधन सन 1986 में सामने आया जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने बाह्य आकाशीय क्षेत्र से संबंधित पृथ्वी के दूर नियंत्रित संवेदी उपग्रह से संबंधित नियमों का निर्माण किया। यह नियम दूर नियंत्रित संवेदन उपग्रहों के मार्गदर्शक एवं आचरण के संबंध में पहला कदम था जिसे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से मान्यता प्राप्त हुई। इस समझौते के बाद संवेदी राष्ट्रों ले अपनी इस मांग को त्याग दिया कि आंकड़े प्रसारित करने से पूर्व सहमति लेना आवश्यक है। परन्तु यह सिद्धांत इस बात की गारन्टी देता है कि कोई भी जागरूक राष्ट्र इन सभी आंकड़ों को प्राप्त कर सकता है। दरअसल हाल के कुछ वर्षों से दूर नियंत्रित संवेदन उपग्रहों से जुड़े वाद विवाद को पुनः जीवित कर दिया है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय समाचार एजेंसियों और व्यापारिक नेटवर्कों द्वारा इन सुविधाओं का इस्तेमाल और उनके प्रयोग का मुद्दा उठ खड़ा हुआ है। जब से अंतरिक्ष युग का आरंभ हुआ है तब से दो अंतरिक्ष महाशक्तियां संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ संवेदी तकनीकों पर आधारित उपग्रहों का भरपूर उपयोग करते आ रहे हैं। इसके साथ ही वे इन साधनों के माध्यम से एक दूसरे के विरूद्ध सैनिक हथियारों की होड़, उनको स्थापित करना तथा एक दूसरे की गुप्त गतिविधियों एवं कार्यकलापों की निगरानी करना शामिल है। वे इन उपग्रहों के माध्यम से यह भी पता रखते हैं कि सैन्य शस्त्र नियंत्रत समझौते का कितना पालन हो रहा है। 1980 के दशक के आरंभ में उच्चतम वर्गीकृत उपग्रहों द्वारा एकाधिकार प्राप्त सरकार नाभिकीय और मिसाइल जैसे भयंकर हथियारों की होड़ की गतिविधियों की निगरानी में जुटी थी उसी समय जब अंतर्राष्ट्रीय समाचार एजेंसियों तथा व्यापारिक नेटवर्क द्वारा दूर नियंत्रित संवेदी उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों तथा व्यापारिक नेटवर्क द्वारा दूर नियंत्रित संवेदी उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों का प्रयोग करने लगे और इस से संबंधित सरकारों का एकाधिकार समाप्त हो गया। इसलिए 1980 के दशक के आरंभ में ही यू एस के एक दूरदर्शन के दर्शक ने लैडसैट पर केरनाबाई 1 का चित्र देखा यह नाभिकीय बम का चित्र था जो भयंकर दुर्घटना ग्रस्त होने वाला था। याद रहे इसकी सूचना सोवियत संघ से पहले प्राप्त हुई थी जिससे एक भयंकर दुर्घटना होने से बची। इसके साथ ही एक और उदाहरण को देखिए। ए बी सी नामक समाचार एजेंसी द्वारा लैडसैट पर चित्र देखे जा रहे थे। अचानक देखा कि ईरान अपने यहाँ चीन में बनी ‘‘सिल्कवर्म‘‘ नामक मिसाइल स्थापित कर रहा है। इस रहस्य का पर्दापाश उपर्युक्त ए बी सी एजेंसी ही ने किया था। इस तरह से हम देखते हैं कि ये सब अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक प्रक्रिया भविष्य की परम्पराओं को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण साधन तो है ही साथ में अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए भी आबद्ध है।

बोध प्रश्न 1
टिप्पणी क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए रिक्त स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से अपने उत्तर की तुलना किजिए।
1) संचार के कुछ गैर तकनीकी साधन हैं:
क)………………………… ख) …………………………….ग)
2) बोगोटा घोषणा के अनुसार
3) जीओ स्टेशनरी आर्बिट पर संप्रभुता के संबंध में विभिन्न राज्यों की क्या स्थिति है ?

बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) संचार के कुछ गैर प्रौद्योगिकी माध्यम हैं, भाषा, पर्यटन, अंतर्राष्ट्रीय संगठन।
2) भूमध्य रेखा पर रहने वाले 9 देशों ने सन 1976 में एक सामूहिक घोषणा की थी और कहा था कि ज्यामिति स्थित कक्ष भूमध्यीय राज्यों का प्राकृतिक संसाधन है तथा वह उनकी सम्प्रभुता का विषय है। इन देशों ने अपना कड़ा विरोध प्रकट करते हुए कहा कोई भी उपग्रह उनके जी एस ओ में बिना अनुमति के स्थापित न किया जाए।
3) उपभाग 23.4.1 को देखें।

 संचार में असमानताएं
आज विश्व में एक व्यापक संचार क्रांति आने के बावजूद इसका लाभ सब लोगों को समान रूप से नहीं मिल रहा है। वास्तव में जिस तेजी से संचार प्रौद्योगिकी का विस्तार हुआ है उससे अधिक तीव्र गति से असमानताएं बढ़ी हैं। इस संचार के माध्यम से एक और ढेर सारी सूचनाओं का संचय हुआ है वहीं पर दूसरी और इन सूचनाओं का बेहद अभाव है। ये असमानताएं देशों के मध्य ही नहीं अपितु लिंग, अर्थात् स्त्री-पुरूष के बीच भी है। ये असमानताएं ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों के बीच भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं यह दुनिया के गरीब राष्ट्रों व सम्पन्न राष्ट्रों के बीच भी है। वजह, राष्ट्रों के मध्य आर्थिक असमानताएं परिणामस्वरूप दोनों के बीच खाई बढ़ी जिससे दोनों दुनिया में कोई भी संचार से प्राप्त सूचनाओं का अंतर कर सकता है। धनी देशों के पास व्यापक एवं उत्कृष्ट सूचना होती है तथा निर्धन देशों के पास अपेक्षाकृत काफी कम सूचनाएं होती हैं जो देश धनी हैं साधन सम्पन्न है वे तुरन्त ठीक ठीक सूचनाएं समय पर प्राप्त कर लेते हैं जो अभावग्रस्त एवम् निर्धन देश है उन्हें सूचनाएं देर से और बासी होकर मिलती हैं जिनका उस समय तक कोई महत्व नहीं रह जाता है। दरअसल तथ्य यह है कि श्रेष्ठ सूचनाओं का जो भंडार है वह तो केवल धनी राष्ट्रों के पास मौजूद है और उनका वास्तविक भोग वहाँ के धनी और श्रेष्ठ जन अथवा उच्च वर्ग कर रहा है जो उन राष्ट्रों के नागरिक हैं। अतः सूचनाओं एवं संचार की सभी सुविधाएं धनी राष्ट्रों और वहाँ के उच्च वर्गों के समूहों के आस पास ही घूम रही हैं। वे ही इसका जम कर इस्तेमाल कर रहे हैं। अन्य निर्धन देश इनकी मेहरबानी पर जिन्दा हैं।

एक शताब्दी से भी अधिक समय से उत्तरी एटलांटिक समाचार एजेंसियों ने पूरे विश्व को अपने प्रभाव क्षेत्र में लाकर राष्ट्रों को धनी निर्धन देशों में विभाजित किया हुआ है। इन एजेंसियों ने विश्व के मार्गों, समुद्री मार्गों, समुद्रपार केबलस, टेलीग्राम, तथा रेडियो के माध्यम से भी सूचना दी जाती है वे सब सूचनाएं औपनिवेशिक मार्गों के माध्यम से जाती है अर्थात् ये सूचनाएं इन चार एजेंसियों के रहमोकरम पर निर्भर है तथा इनकी बेहद आलोचनाएं भी होती रहती हैं कि यह लोग सूचनाओं को अपने ढ़ग से तोड़ मरोड़ कर विश्व के लोगों के समक्ष रखते हैं जिनमें तथ्य कम और स्वार्थ अधिक शामिल होता है।

ये चार अंतर्राष्ट्रीय सूचना एजेंसियों – एसोसिएट प्रेस (ए पी) युनाइटिड प्रेस इंटरनेशनल (यू पी आई), एजेंस फ्रांस प्रेस (ए एफ पी) तथा राइटर है जो अधिकांश समाचार-सूचनाओं को विश्व के कोने-कोने में प्रसारित करती है। जैसा कि हम आज भी देखते हैं कि उपग्रहों, दूरदर्शन, प्रकाशकीय सूत्रों एवं कंप्यूटर संचार की अधिकतम सूचनाएं लगातार इन्हीं उत्तरी एटलांटिक एजेंसियों के पास मौजूद होती हैं और इन्हीं के माध्यम से पूरी दुनिया में प्रसारित होती है। सिनेमा एवं दूरदर्शन के कार्यक्रम बड़े निर्यातक देशों से शेष दूनिया में एक ही दिशा में प्रवाहित होते हैं।

संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) का 1945 के आरंभ से ही मुख्य उद्देश्य यह रहा है कि शिक्षा और अनुसंधान के माध्यम से सभी राष्ट्रों में आपसी समझ पैदा करके शांति स्थापित की जाए और अपने राष्ट्र सदस्यों को संचार के ढांचागत मूल आधारिक साधनों को उपलब्ध करा कर उनका ध्यान इस ओर आकर्षित किया जाए।

सन 1952 के आरंभ में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने इस संदर्भ में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये थे:

‘‘यह बहुत आवश्यक हो गया है कि विकासशील देशों में रहने वाले लोगों के लोकमत के समुचित विकास के लिए स्वतंत्र घरेलू सूचना उद्यमों को लगाने के लिए सुविधाएं और सहायता दी जाए ताकि वे भी अपनी राष्ट्रीय संस्कृति और अंतर्राष्ट्रीय समझ में अपना सहयोग दे सकें और सूचना प्रसारित करके कार्य में उनकी भागीदारी हो इस संबंध में अब ठोस और प्रत्यक्ष कार्यक्रमों तथा कार्य योजना बनाने का समय आ गया है।‘‘

इस संदर्भ में यूनेस्को ने 1960 के दशक में मौजूदा संचार प्रौद्योगिकियों का विश्वव्यापी सर्वेक्षण किया था। जिसमें उसने अपने निष्कर्ष में कहा था कि विकसित और विकासशील देशों की संचार प्रौद्योगिकियों में जमीन आसमान का अंतर है। इस अंतर को समाप्त करने के लिए यह बहुत आवश्यक हो गया है कि विकाशील देशों को दी जाने वाली सूचनाएं और संचार के साधन एक तरफा न हों। उन्हें तोड़ मरोड़कर दी जाने वाली सूचनाएं बन्द हों और उसके स्थान पर स्वतंत्र रूप से वास्तविक और तथ्यपरक सूचनाएं दी जाएं ताकि विकास का वास्तविक ढांचा बनाया जा सके और उनका सहयोग भी लिया जा सके।

1970 के दशक में नए उदित राष्ट्र एक मंच पर एकत्रित हुए और उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय सूचना व्यवस्था की पुनः संरचना की बलपूर्वक मांग उठाई। इसके साथ ही गुट निरपेक्ष आंदोलन के देशों ने एशिया, अफ्रिका और लेटिन अमरीका में मुक्ति आंदोलन चलाए जिसमें इन्हें काफी सफलता मिली है। यह संगठन दुनिया के दो तिहाई हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है। जिसने जोर देकर मांग की है कि विश्व में एक नई अंतर्राष्ट्रीय सूचना व्यवस्था की स्थापना हो जो विश्व के मानव के लिए. हितकारी हो तथा उसे जो भी संचार और सूचनाएं प्राप्त हों वे निष्पक्ष और स्वतंत्र हों ताकि वे भी विश्व शांति और परस्पर समझ बढ़ाने में अपना सहयोग दे सकें और संचार संबंधी असमानताएं भी समाप्त हो जाएं।

नई अंतर्राष्ट्रीय सूचना व्यवस्था
नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर छिड़ी बहस के संदर्भ में नई सूचना व्यवस्था की मांग उठी है। यह याद रहे गुट निरपेक्ष आंदोलन ने नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था (एन आई ई ओ) की अवधारणा को विकसित किया है क्योंकि निर्गुट आंदोलन की विशेष भूमिका रही है। इस आंदोलन का मानना है उत्तर और दक्षिण के बीच एक रवाई है जिसका मूल कारण इन देशों का आर्थिक ढांचा है। अतः इस आर्थिक ढांचे को समान करना होगा। यह विकसित देशों के सकारात्मक सहयोग व विकासशील देशों की संगठित मांग करने से ही संभव होगा। बिना सहयोग के इन देशों में समानता का आ पाना अधिक काल्पनिक लगता है।

इसी माध्यम से लोगों के न केवल पूंजीगत और प्रौद्योगिकी की ओर विकास मूलक कार्य होंगे अपितु समानता और स्वतंत्रता के मूल्यों में भी वृद्धि होगी। इसलिए नीओ (एन आई इ ओ) की मांग है कि उत्तरी और दक्षिणी औद्योगिक राष्ट्रों के साथ अच्छे व्यापारिक संबंध स्थापित करके उद्योगों को बढ़ाया जाए जिसमें यह शर्त शामिल हो कि पुंजी, श्रम प्रौद्योगिकी जैसे उत्पादन सम्पतियों पर स्थानीय लोगों का अधिक नियंत्रण हो। निर्गुट आंदोलन ने यह भी अपनी मांग रखी है कि औद्योगीकृत राष्ट्रों द्वारा विकासशील देशों में अधिक से अधिक निवेश करें और विश्व की अर्थव्यवस्था से जुड़ी संस्थाओं में विकासशील देशों की अत्याधिक भागीदारी को निश्चित किया जाए। इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ ने विशेष चर्चा का विषय बनाया था तथा काफी बहस के बाद निष्कर्ष के रूप में सन् 1974 में एक नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की घोषणा की थी।

नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्थ की चर्चा में यह स्पष्ट किया गया था कि नई सूचना व्यवस्था की मांग बाद की है, पहले उन मूल्यों को शामिल करना है जिन पर अभी तक ध्यान नहीं दिया गया है और वे हैं आर्थिक सम्पन्नता से संबंधित मुद्दे । इसलिए गुट निरपेक्ष राष्ट्रों ने कहा कि बिना अर्थव्यवस्था ठीक किए अन्य सब कार्य व्यर्थ है। जहाँ तक संचार व्यवस्था का प्रश्न है यह बाद का मुद्दा है पहले आर्थिक क्रियाकलाप महत्वपूर्ण है क्योंकि अर्थव्यवस्था वह इंजन है जिससे संचार को आगे ले जाना है।

1973 में गुट निरपेक्ष आंदोलन की अल्जीरिया में एक बैठक हुई जिसमें इस संगठन ने मांग की थी कि मौजूदा संचार माध्यमों को पुर्नगठित किया जाए क्योंकि यह पुराने हैं और ये औपनिवेशिक व्यवस्था के पक्षधर हैं। इसके बाद में नई सूचना व्यवस्था पर अनेक बार बहुत जोरशोर से चर्चा हुई जो नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के साथ चलती रही। 1976 में नई दिल्ली में सूचना के विऔपनिवेशीकरण पर घोषणा की गई जिसमें सूचना के संतुलित प्रसारण के सारगर्भित निष्कर्ष पर केस रखा गया जो निम्न प्रकार है:
ऽ वर्तमान में जो भौगोलिक सूचना प्रसार होता है वह अत्याधिक अपर्याप्त और असंतुलित है। संचार सूचना के साधन थोड़े से देशों के संकेन्द्रित हो गए है। अधिकतर देश सूचनाओं को तोड़ मरोड़ कर प्रसारित करते हैं। जिससे सूचना पाने वाला देश अल्प या अधूरी सूचना प्राप्त कर पाता है।
ऽ निर्भरता और आधिपत्य के युग की औपनिवेशिक स्थिति अब तक बनी हुई है। कुछ थोड़े से लोगों के हाथों में निर्णय लेने की शक्ति है जो यह निर्णय करते है कि शेष दुनिया को क्या जानना चाहिए और कितना जानना चाहिए।
ऽ शेष कार्य सूचनाओं को प्रसारित करने का है वह भी वर्तमान में कुछ एजेंसियों के हाथों में है और वे भी विकसित देशों में है। विश्व के बाकी लोग एक दूसरे को इन संचार माध्यमों से देखते रहते हैं और वह भी इन्हीं सूचना एजेंसियों के माध्यम से।
ऽ जिस तरह से राजनीतिक और आर्थिक निर्भरता औपनिवेशिक युग की मजबूरी है उसी तरह से सूचना के क्षेत्र में भी बनी हुई है जिसके कारण राजनीतिक और आर्थिक विकास की उपलब्धियां कम हुई हैं या यूं कहें कि इनके चलते विकास ठप्प हो गया है।
ऽ इस स्थिति में कुछेक लोगों के हाथों में सूचना के साधन है जिन पर उनका आधिपत्य और . एकाधिकार है। सूचना देने की स्वतंत्रता उन लोगों के पास है जो सूचना को प्रचारित करते हैं। वास्तव में ये ही लोग शेष विश्व के सूचना प्राप्त करने के अधिकारों का हनन करते हैं।

इसलिए सूचनाएं उद्देश्यपरक और तथ्यपरक रूप में दी जानी चाहिए। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि गुट निरपेक्ष आंदोलन ने मात्र आलोचना करके ही नहीं छोड़ दिया था उसने विश्व की सूचना प्रचार प्रसार में असंतुलन को समाप्त करने के उद्देश्य से कुछ प्रत्यक्ष कार्य आरंभ किए हैं। 1975 में नॉन अलाइनड न्यूज एजेंसी पूल की स्थापना करके सूचना उपलब्ध कराना आरंभ कर दिया जो सामान्यतः पश्चिमी न्यूज सर्विसिज में नहीं थी। 1977 में गुट निरपेक्ष आंदोलन ने गुट निरपेक्ष देशों के प्रसारण संगठन की स्थापना कर दी जो सदस्य देशों में समाचार उपलब्ध कराता है और बाहर समाचार प्रसारित करता है।

कोलम्बों सम्मेलन की बैठक में गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने स्पष्ट रूप से पहली बार कहा कि “सूचना और जन संचार के क्षेत्र में नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था उसी तरह से विस्तृत और महत्वपूर्ण है जिस तरह से नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था है।‘‘ गुट निरपेक्ष आंदोलन के विस्तृत प्रयासों के परिणाम स्वरूप जिसमें सूचनाओं के औपनिवेशीकरण को समाप्त करने का लक्ष्य रखा गया है। इस संदर्भ में सन 1978 में यूनेस्को ने संचार समस्याओं के अध्ययन के लिए अंतर्राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की। यह आयोग, मैकब्रिडे कमीशन के नाम से प्रसिद्ध है। इसके अध्यक्ष सीन मैक ब्रिडे नियुक्त किए गए थे। आयोग ने 1980 की महासभा में ‘‘अनेक स्वर एक विश्व‘‘ डंदल अवपबमए वदम ूवतसक नामक शीर्षक से अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। मैक ब्रिडे आयोग ने अपनी रिपोर्ट में एक नई विश्व सूचना और संचार व्यवस्था (छॅप्ब्व्) की स्थापना के लिए सशक्त सिफारिश की और संचार के लोकतांत्रिकरण पर विशेष बल दिया। इस रिपोर्ट में कहा कि संचार में व्यापारवाद को कम किया जाए तथा मीडिया की भूमिका पर जोर देते हुए कहा कि वे शोषित लोगों की स्वतंत्रता के लिए काम करें और उन्हें सत्य एवं निष्पक्ष सूचना उपलब्ध करायें। आयोग ने यूनेस्को की भूमिका के कार्यान्वयन के लिए विशेष रूचि लेते हुए ठोस कदम उठाए।

तथापि अंतर्राष्ट्रीय सूचना व्यवस्था स्थापित करने की आयोग की सिफारिशों का पश्चिमी देशों की सरकारों द्वारा कड़ा विरोध व्यक्त किया। इन देशों की प्रेस तथा प्रकाशकों ने समहों में संगठित होकर नई सूचना व्यवस्था का इस आधार पर विरोध भी किया कि इस प्रकार सूचना व्यवस्था पर सरकारों का नियंत्रण हो जायेगा जिससे जो स्वतंत्रता बनी हुई है वह नष्ट हो जायेगी। इन लोगों में विशेष कर इस अनुच्छेद का जम कर विरोध किया जिसमें यह कहा गया है कि “राज्य अपने अधिकार क्षेत्र में सभी जनमाध्यमों के अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में होने वाली गतिविधियों अथवा कार्यकलापों के लिए पूर्ण रूप से जिम्मेदार होंगे।‘‘ संयुक्त राज्य अमरीका इस बात पर अप्रसन्न था कि यूनेस्को ने अपने कार्यक्रमों को विकासशील राष्ट्रों के राष्ट्रीय संचार के विकास में जो एक निजी क्षेत्र है प्रभाव डालने और उसके कार्यक्रमों में भागीदारी तक सीमित कर दिया है। और अंत में संयुक्त राज्य अमरीका ने सन 1984 में यूनेस्को से अपना समर्थन यह कह कर वापस ले लिया था कि वे कार्यक्रम सूचना और स्वतंत्र बाजार व्यवस्था के लिए खतरनाक साबित होंगे। उन्होंने यह भी दावा किया कि भविष्य में यूनेस्को के संचालन में रूस का हस्तक्षेप हो जाएगा और प्रेस की स्वतंत्रता रू खतरे में पड़ जायेगी। इसके ठीक एक वर्ष के बाद ब्रिटेन ने भी यूनेस्को से अपना नाम वापस ले लिया।

संयुक्त राज्य अमरीका के द्वारा सूचना और संचार के मुद्दे से अपना समर्थन वापस लेने के परिणामस्वरूप यूनेस्को ने अपना ध्यान हटा लिया। इसके बावजूद भी सूचना संबंधी अनेक विस्तृत वाद विवाद हुआ तथा उन्होंने संयुक्त राज्य अमरीका के इस कार्य को अवैध घोषित कर दिया। यानि की व्यापक रूप से अमान्य करार दिया। 1985 के महासम्मेलन ने इस मुद्दे को स्वीकार करने की मुद्रा में घोषणा की कि नई विश्व सूचना और संचार व्यवस्था की स्थापना को “विकास और सतत् प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए।‘‘ आगे आने वाले वर्षों में नई सूचना व्यवस्था के सभी महत्वपूर्ण मुददों को जैसे कि सार्वभौमिक समाचार प्रसार, सूचना का अधिकार अथवा राष्ट्रीय संचार नीतियों को बहुत ही सहजता से पीछे धकेल दिया गया।

वर्तमान सूचना और संचार व्यवस्था
आज नई सूचना व्यवस्था ने अपना रूप निर्धारित कर लिया है किंतु यह गुट निरपेक्ष राष्ट्रों के विचारों पर आधारित नहीं है। वास्तव में यह दक्षिण के विकसित देशों की एक व्यवस्था है जो हमारे सामने मौजूद है। यह व्यवस्था पूर्व इलेक्ट्रॉनिक युग की है जिसे बाद में विकसित देशों ने उत्तर उद्योग या सूचना युग की व्यवस्था है। यह वास्तव में उत्पादन गतिविधियों के स्थान पर आर्थिक गति को उन्नत करने के लिए एक नवीनीकरण करने का प्रयास है। अर्थ व्यवस्था पर उद्योग कर्ताओं का अधिकार है तथा अपने उत्पादनों को विकासशील देशों की ओर मोड़ने के लिए किया है जहाँ पर श्रम सस्ता है। उत्तर और दक्षिण के देशों में अब और अधिक अंतर हो गया है। इस तथ्य को निम्नलिखित वर्णन स्पष्ट करते हैं:

ऽ विश्वभर में प्रतिदिन 8500 से अधिक समाचार पत्र प्रकाशित होते हैं जिनकी 5750 लाख से ज्यादा प्रजियां वितरित होती हैं। इस समूचे समाचारपत्रों के उत्पादन में 70 प्रतिशत हिस्सा विकसित देशों का है जो एक रिकार्ड उत्पादन माना जा सकता है। यद्यपि विकासशील देशों की कुल जनसंख्या विश्वजनसंख्या का तीन चैथाई है तथा विश्व के दैनिक समाचार पत्रों के 1/2 भाग इन के यहाँ से प्रकाशित होता है। वे केवल विश्व के समाचार पत्रों के 30 प्रतिशत उत्पादन को ही संभाल पाते हैं। इनमें 60 ऐसे देश भी मौजूद हैं जिनके पास सामान्य रूचि का एक भी समाचार पत्र नहीं है या फिर यह भी कह सकते हैं कि कई देशों में सिर्फ एक समाचार पत्र ही प्रकाशित होता है। यह भयंकर स्थिति विकासशील देशों की हमारे समक्ष मौजूद है।
ऽ विश्वभर में पुस्तक उत्पादन या प्रकाशन का कार्य एक नाटकीय ढ़ग से बढ़ा है। परन्तु छः लाख से भी अधिक पुस्तकों के प्रकाशन और नियति का काम विकसित देशों के ही हाथों से होता है जबकि विकासशील देश लगभग दो लाख पुस्तकें ही प्रकाशित कर पाते हैं। इसके साथ ही वैज्ञानिक तकनीकी तथा शैक्षिक विषयों से संबंधित पुस्तकों की मांग में बेहद वृद्धि हुई है जबकि विकासशील देशों के पास मुद्रण कागज की कमी होने के कारण वे अपने यहाँ की मांग भी पूरी नहीं कर पाते हैं। इसलिए ये देश पश्चिम के विकसित देशों से उपर्युक्त विषयों की पुस्तकों का आयात करते हैं। तथापि विकासशील देशों द्वारा पुस्तकों के रूप में निर्यात बहुत ही कम है जो विकसित देशों को भेजा जाता है। अनिवार्य रूप से यह पुस्तक प्रसार दो समूहों के मध्य एक तरफा ही कहा जायेगा। इसीलिए ही तो कुछ बहुराष्ट्रीय निगमों का ध्यान विकासशील देशों में पुस्तक उत्पादन के संबंध में केन्द्रित है। जहाँ तक पुस्तक निर्यात का मुद्दा है विश्वभर में सबसे अधिक पुस्तक निर्यात संयुक्त राज्य अमरीका, ग्रेट ब्रिटेन तथा जर्मनी द्वारा की जाती हैं।
ऽ सिनेमा से संबंधित जब फिल्मों का मुद्दा उठता है तो विकासशील देश फिल्मों का उत्पादन विकसित देशों से थोड़ा अधिक करते हैं। फिल्म निर्माण के मामले में भारत विश्वभर में सबसे आगे हैं। यहाँ सबसे अधिक फिल्म उत्पादन होता है। परन्तु एक और तथ्य हमारे सामने है कि संयुक्त राज्य अमरीका फिल्मों का कोई बड़ा उत्पादक तो नहीं है किंतु फिर वह फिल्मों का कोई बड़ा निर्यातक अवश्यक है। याद रहे कि विश्वभर में फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन तथा जर्मनी विश्व की 80 से 90 प्रतिशत निर्यातित फिल्मों का कारोबार करते हैं।
ऽ रेडियो और दूरदर्शन के सुनने एवं देखने वालों के वितरण में भी बहुत असमानताएं हैं। इनके ग्राहकों की सबसे अधिक संख्या भी विकसित देशों में ही देखने को मिलती है। एक आकंड़ा सर्वेक्षण के अनुसार 1000 की संख्या पर 1006 तथा 485 थी जबकि 1988 में विकासशील देशों में इनकी संख्या 173 एवं 44 ही बनती हैं। इन आंकड़ों में उस संख्या को दर्शाया नहीं गया है जो विकसित देशों में मुल रूप से बने रेडियो कार्यक्रमों के सैकड़ों ट्रांसमीटरों के संकेतकों को पकड़ते हैं। या फिर संयुक्त राज्य अमरीका या इससे कुछ काम यूरोप एवं जापान में बने कार्यक्रमों को आयात कर इन पर निर्भर रहते हैं।
ऽ आज ज्यामित समकालीन कक्ष में लगभग 200 संचार उपग्रह काम कर रहे हैं। इन उपग्रहों में 90 प्रतिशत से अधिक संचार उपग्रह विकसित देशों ने स्थापित किए हुए हैं। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि इनमें संयुक्त राज्य अमरीका और राष्ट्रकुल के स्वतंत्र राज्यों सहित अपने घरेलू और विश्वव्यापी सैनिक संचार उपग्रह को बहुत बड़ी संख्यामें आकाशीय कक्ष में स्थापित किए हुए हैं। जबकि दुनिया की कुल 15 प्रतिशत जनसंख्या ही 50 प्रतिशत से अधिक उपग्रहों का उपभोग कर पाती है।
ऽ 1980 के दशक के अंत तक, विकसित देशों के पास टेलीफोन की 3500 लाख लाइनें काम कर रही थी जबकि इसकी तुलना में विकासशील देशों के पास केवल 600 लाख टेलीफोन की लाइने मौजूद थी। इस असंतुलन के अनेकों उदाहरण कई क्षेत्रों में दिखाई देते हैं। दस ऐसे विकसित देश हैं जहाँ पर विश्व की कुल जनसंख्या का 20 प्रतिशत ही निवास करता है किन्तु उनके पास तीन चैथाई टेलीफोन की लाइने काम करती हैं। संयुक्त राज्य अमरीका के पास टेलीफोन लाइनों की संख्या पूरे एशिया के बराबर हैं। इसके साथ ही सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों के पास टेलीफोन की प्रौद्योगिकी. बहुत ही पुरानी है जिससे उसमें खर्चा भी अधिक होता है और सेवा भी घटिया किस्म की प्राप्त होती है।
ऽ विश्व के 90 प्रतिशत कंप्यूटर केवल 15 विकसित देशों के पास है, ये देश आर्थिक रूप से बहुत सम्पन्न हैं। जहाँ तक अंतर्राष्ट्रीय कंप्यूटर संचार व्यवस्था का प्रश्न है केवल दुनिया के एक सौ से कुछ ही अधिक विकसित देशों के पास है। इस व्यवस्था को लागू करने के लिए इसकी तीन पूर्व शर्ते हैं, जो इस प्रकार हैं: बिजली की आपूर्ति विश्वसनीय एवं सार्वभौमिक हो। आपूर्ति के समय किसी तरह की बाधा नहीं आनी चाहिए। टेलीफोन लाइन बिना शोर शराबे के हो और किसी तरह की रूकावट न हो। और इन यंत्रों के रखरखाव की संपूर्ण देखभाल श्रेष्ठ तरीके की हो तथा उनकी समय समय पर अच्छे तकनीशियनों द्वारा सर्विस हो।

हम देखते हैं कि ये सब सुविधाएं विश्व के अधिकतर देशों के पास आज भी उपलब्ध नहीं हैं।

दक्षिण के राष्ट्रों ने 1980 के दशक में संचार व्यवस्था में बहुत सारे सुधार किए हैं इसके बावजूद भी उत्तर और दक्षिण के बीच के राष्ट्रों में असमानताएं बढ़ती जा रही हैं। हालांकि सुनने और सूचना प्रसार के क्षेत्र में विकासशील देशों ने काफी प्रगति की है फिर भी आज दोनों क्षेत्रों में विकसित और विकासशील देशों में पहले से अधिक असंतुलन दिखाई देता है। इसके अतिरिक्त दक्षिण को शामिल करने अथवा उसकी तुलना में कुछ पराराष्ट्रीय जन माध्यम में सुधारों के साथ प्रगति हुई है किंतु इन देशों की छवि उनकी दृष्टि में अभी भी विकृत बनी हुई है।

संचार और सूचना के क्षेत्र में वर्तमान प्रौद्योगिकीय विकास के पीछे मुख्य रूप से बाजार अथवा व्यापारिक ताकतों के हाथों में है वे ही लोग अपने लाभ के लिए इसे संचालित करते हैं तथा इच्छानुसार जहाँ लाभ अधिक मिले उस क्षेत्र में अपना विकास करते हैं। संचार साधन इन थोड़े से लोगों की कठपुतली बना हुआ है। इसके चलते हुए 1970 के दशक में अमरीका में इन व्यापारिक हितों ने सांस्थानिक और सरकारी नियंत्रण को कमजोर कर दिया था जिसमें व्यापारियों की बहुत बड़ी भूमिका रही थी।

हमारे सामने उदाहरण है कि 1980 के दशक में यूरोपिय राष्ट्रों ने सूचना उत्पादन और उसे प्रसारण में निजी क्षेत्रों की भागीदारी की अनुमति देकर अपनी संचार और सूचना व्यवस्था के स्तर को गिरा लिया था व निजी क्षेत्र के कारण इनकी सेवाएं अनियमित हो गई थी। क्योंकि यह बात अब सभी जानते हैं कि इन बाजार की शक्तिसों के पास अपनी राजनीतिक ताकते होती हैं तथा बहुत से देशों में ये वहाँ की सरकारी नीतियों की पूरक होती हैं तथा उनके अनुपालन में अपना प्रभाव बनाए रखती हैं। इसलिए इलेक्ट्रॉनिक सूचना उद्योग राष्ट्रों की आर्थिक स्थिति को बनाने और बिगाड़ने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। हम पिछले अध्याय में पढ़ चुके हैं कि नई सूचना व्यवस्था की मांग करने पर किस तरह से इन बाजार की ताकतों ने अपनी भूमिका निभाकर उस मांग को निरस्त कर दिया था। यह बाजार और आर्थिक ताकते अपना हस्तक्षेप हमेशा कायम रखती हैं। इस तरह से विश्वव्यापी संचार और सूचना नेटवर्क के उदगम से दक्षिण के राष्ट्रों पर अपना दबाव बनाया हुआ है तथा वहाँ की आर्थिक स्थिति और सूचना क्षेत्र को नष्ट करने में भरसक प्रयास जारी हैं।

आंशिक रूप से विश्व के लोगों के पास संचार की सुविधा पहुँचने तथा संचार के विकास के परिणामस्वरूप और कुछ हद तक बाजार की शक्तियों के दबाव के कारण एक ओर गलत दृष्टिकोण पनप रहा है कि संचार माध्यम को पर-राष्ट्रीयकरण कर दिया जाना चाहिए। क्योंकि कुछ शोले से लोग आनी चैकटी बना कर सचना और संचार के पत्तार पसार परं कालित होने का प्रयास कर रहे हैं। यदि इन लोगों की इच्छा पूरी होने दी जाए और इस शताब्दी के अंत तक यही प्रवृत्ति चलती रही तो यह संभावना सचाई में बदल जाएगी कि दर्जन से भी कम ऐसे निगम दानव बैठे हैं जो विश्व के महत्वपूर्ण समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, पुस्तकों, प्रसारण स्टेशनों, चलचित्रों तथा वीडियो केसेटों पर अपना पंजा जमा लेंगे तथा अपना नियंत्रण कायम कर लेंगे। ये निगमें अपने जातीय प्रभावों को अन्य दृष्टिकोणों, विचारों, संस्कृतियों तथा वाणिज्य जबरन हावी होंगे उन्हें प्रभावित करके प्रदूषित करेंगे। यह भयंकर जोखिम सूचना के इन अधिकार का हनन कर देगा जो निष्पक्ष सूचना की मांग करते हैं तथा उन नागरिकों के अधिकारों को भी नष्ट कर देगा जो अन्य स्रोतों या साधनों को अपनाना चाहते हैं साथ ही सूचना और संचार के माध्यमों को भी सीमित कर देगा जो आज के युग के लिए भयंकर साबित होगा।

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर संचार प्रौद्योगिकी का प्रभाव
संचार क्रांति का प्रभाव विषय आज के युग में महत्वपूर्ण बन गया है। यह वास्तव में संचार उपग्रहों, डिजिटल तथा कंप्यूटर व्यवस्था के प्रसार के कारण हाल के दिनों में यह समझा जा रहा है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर इसका गहरा दबाव बना है। जबकि नई संचार प्रौद्योगिकी के एकदम ठीक प्रभाव की घोषणा करना तो जटिल कार्य है किंतु एक बात तो बिल्कुल निश्चित है कि समान आधार तीव्रता से परिवर्तित हो रहे है। आजकल सभी समाज सूक्ष्मदर्शी बन गए हैं। इस तरह से प्रमुख प्रौद्योगिकियों के कारण राष्ट्रीय सरकारें राष्ट्रीय संचार व्यवस्था पर अपना नियंत्रण खोती जा रही है। उपग्रहों ने परम्परागत भौगोलिक सीमाओं को तथा दूरी के मानकों को व्यर्थ कर दिया है। केबल ने स्थानीय वितरण व्यवस्था को बहुगुणात्मक बना दिया है और दूरी से आने वाले सिगनलों को आत्मसात करके उन्हें प्रस्तुत कर रहा है और वहीं पर कंप्यूटर प्रक्रिया तथा सूचना प्रसारण का कार्य एक दूसरे के लिए सहायक सिद्ध हो रहे हैं। इस तरह से राष्ट्र संदेश उत्पादन, प्रसारण प्रसार और प्राप्त करने पर अपना नियंत्रण खो चुके हैं। साथ ही संचार प्रौद्योगिकियों और उसकी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप पराराष्ट्रीय चरित्र का निर्माण हो रहा है तथा राष्ट्र नए खतरों का सामना कर रहे हैं जैसे कि बाधाओं और तकनीकि असफलताओं का उदाहरण दिया जा सकता है।

एक नवीन भूमंडलीय समुदाय का उदय हुआ है जो गैर राज्य कार्यकर्ता हैं जैसे कि परा राष्ट्रीय निगम और गैर सरकारी संगठन अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इन कार्यकर्ताओं और निगमों को उत्कृष्ठ बनाने में संचार क्रांति ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह अपने पूर्व की संरचना से अलग हो गए है। गैर सरकारी संगठनों के अधिकार क्षेत्र में असीमित वृद्धि हुई है। अब इसके अंतर्गत चाहे पर्यावरण, निरस्त्रीकरण, मानव अधिकार, उपभोक्ता अधिकार आदि कोई भी क्षेत्र क्यों न हो उसकी वहाँ पहुँच बन गई है। यहाँ तक कि अब इस के कार्यकर्ताओ को संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य विश्व मंचों ने भी मान्यता प्रदान कर दी है। जिसके कारण इनकी क्षमता और अपने कार्यों और दृष्टिकोण को प्रसारित करने की शक्ति में वृद्धि हुई है। कुछ ऐसे साक्ष्य उपलब्ध है जिनसे यह सिद्ध होता है कि अनुभवहीन भूमंडलीय नागरिक समुदाय पैदा हो गए हैं जो हमारे समाज में सामुहिक हिस्सा भी हैं किंतु उनके पास न तो बाजार का अनुभव है और न ही वे सरकारी तंत्र के बारे में जानते हैं किंतु ऐसे समुदाय संगठनों की मानों बाढ़ ही आ गई है। यह सब आप बहुत ही अच्छी तरह से एन जी ओ आंदोलन के विश्वव्यापी प्रभाव और उसकी बढ़ती हुई महत्ता में देख सकते हैं।

संचार प्रौद्योगिकी विश्व जनमत तैयार करने में अपना महत्वपूर्ण सहयोग देता है तथा दूसरा उदाहरण है भूमंडलीय नागरिक समाज के निर्माण में अपना योगदान करता है। वैसे यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि विश्व मत दो प्रकार का होता है जैसे कि अल्प विकास, भूखमरी, सामाजिक असामान्यताएं तथा ऊर्जा संकट तथा दूसरी समस्या भूमंडलीय क्षेत्र से संबंधित होती है। जैसे कि विकास, पर्यावरण निरस्त्रीकरण तथा मानव अधिकार आदि। राजनीतिक नेतागण अब केवल परम्परागत घरेलू तथा विदेशी जनमत पर ही ध्यान नहीं देते हैं बल्कि विश्व द्वारा दिए गए जनमत को भी बड़ी व्यग्रता से सुनते हैं और उस पर अमल करने का प्रयास करते हैं। इलेक्ट्रॉनिक युग से पहले राजनीतिक नेता यह विश्वास करते थे कि वे अपने देश और विदेशी जनमत पर काबू पा सकते हैं। उस पर नियंत्रण रख सकते हैं। इसके साथ ही समाचार माध्यम भी सम्पादकीय रूप में या फिर मत संबंधी सामग्री विदेश से बहुत कम ही देते थे। परन्तु आज संचार प्रौद्योगिकी में तीव्रता से वृद्धि और विकास होने के कारण संवेदित नमूना तकनीकों से अब संभव हो गया है कि सरकारें समाचार माध्यम से संक्षिप्त सार के रूप में ले सकते हैं कि विदेशी लोग उनके संबंध में क्या सोचते हैं और उनका क्या मत है। आजकल तो सरकारें भी प्रायः अपने कार्यों को विभिन्न साधनों से अपने देश के लोगों और विदेश के लोगों के लिए प्रदर्शित करते रहते हैं।

बोध प्रश्न 2
टिप्पणी क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए रिक्त स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से अपने उत्तर की तुलना किजिए।
1) सूचना प्रसार-प्रचार में गुट निरपेक्ष देशों की क्या स्थिति है ?
2) मैकब्रिडे आयोग की प्रमुख सिफारिशें क्या थी ?
3) यूनिसको से संयुक्त राज्य अमरीका ने तुरन्त कौन सा समर्थन वापस लिया था ?

बोध प्रश्नों के उत्तर

बोध प्रश्न 2
1) उपभाग 23.4.2 को देखें।
2) मैकब्रिडे आयोग ने जोर देकर सिफारिश की थी कि नई विश्व सूचना और संचार व्यवस्था (एन डब्ल्यू आई सी ओ) की स्थापना की जाये …………. उसमें से कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशें इस प्रकार हैं। 1) विकासशील देश अपनी संचार व्यवस्था के आवश्यक तंत्रोंध्साधनों को स्थापित करने के लिए उपाय करे। 2) नए प्रसार के लिए नेटवर्क की स्थापना करे। 3) बाहरी निर्भरता से छुटकारा पाने के लिए प्रसारण सामग्री का राष्ट्रीय उत्पाद करने के लिए इन देशों को आर्थिक सहायता प्रदान की जाए। 4) सभी विकास परियोजनाओं में विशेषकर संचार घटकों के लिए समुचित वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाये। 5) इलेक्ट्रोमेग्नेटिक स्पेक्टर्म तथा जी एस ओ कक्ष मानव की सामुहिक सम्पत्ति माना जाए और इन देशों को अधिक से अधिक इनका हिस्सा मिलना चाहिए। 6) माध्यम को मालिकाना हक बनाने वालों के विरूद्ध विशेष ध्यान दिया जाए ताकि वे इन संसाधनों पर किसी तरह के प्रतिबंध या अवरूद्ध करने के प्रयास को रोका जा सके। 7) संचार में केन्द्रीयकरण की प्रक्रिया पर प्रतिबंध लगाने के लिए प्रभावकारी कानूनी उपाय किए जायें यानि की इन संबंधों में अंतर्राष्ट्रीय अधिनियम पारित किए जायें। 8) प्रत्येक समाज की सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित या संरक्षण देने के लिए उचित स्थिति और वातावरण तैयार करने के लिए ठोस कदम उठाए जायें।
3) उपभाग 23.4.2 देखें।

अंतर्राष्ट्रीरय प्रसार के चेनल और प्रकार। प्रौद्योगिकीय और मानव के नवीन मूलक साधनों को सम्पूरकता, अंतसंबंधित तथा स्वीकारात्मक सिद्धांतों के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।

सारांश
हमने इस इकाई में अनेक प्रौद्योगिकियों के आर्विभाव, एवं संचार और सूचना क्षेत्रों में हुए नाटकीय विकास के संबंध में अध्ययन किया। हमने यह भी देखा कि यहाँ संचार और दूर नियंत्रित संवेदी उपग्रह तथा डिजिटल व्यवस्था की स्थापना हो चुकी है। यह दुर्भाग्य ही समझा जाएगा कि संचार प्रौद्योगिकी से मानव जाति को समान रूप से लाभ नहीं मिला। बल्कि इसके चलते जिनके पास सूचनाएं हैं और जिनके पास सूचनाओं की कमी या सूचनाएं नहीं हैं उनके बीच व्यापक और लगातार असमानताएं बढ़ती जा रही हैं। यह अंतर एक देश से दूसरे देश में व्यापक रूप से फैला हुआ है यहाँ तक कि लिंगभेद भी बराबर बना हुआ है। वे इस अंतर को नगरों और ग्रामीण क्षेत्रों में भी बनाए हुए हैं। यह असंतुलन अमीर देशों और निर्धन देशों के बीच बना हुआ है। वास्तव में तथ्य यह है कि वास्तविक सूचनाओं का भंडार केवल विशिष्ट राष्ट्रों के लिए और जो उन राष्ट्रों में रहने वाले समृद्ध और विशिष्ट वर्गों के लिए ही उपलब्ध हैं।

1970 के दशक के मध्य से विकासशील राष्ट्र एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संचार व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं जो अधिक संतुलित, गैर औपनिवेशिक एवं लोकतांत्रिक समाचार एवं सूचनाएं उपलब्ध कराने में समर्थ हो। किंतु इन राष्ट्रों के व्यापारिक हित एवं बाजार की ताकतें, साथ ही उन राष्ट्रों का जो भूमंडलीय अर्थव्यवस्था पर अपना वर्चस्व एवं नियंत्रण बनाए रखना चाहते हैं उनके कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है।

अब तो इन प्रौद्योगिकियों के अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ने वाले प्रभाव को भी समझा जा रहा है। इसके साथ ही हमने यह भी जान लिया है कि इन संचार प्रौद्योगिकियों ने जिसके समक्ष भौगोलिक दूरियां व्यर्थ हैं राष्ट्रीय संप्रभुता को भी खतरा पैदा कर दिया है। इस तरह से विश्वव्यापी संचार क्रांति के परिणामस्वरूप भूमंडलीय नागरिक समाजों की स्थापना भी हो चुकी है। यह सब संचार प्रौद्योगिकी क्रांति का ही करिश्मा कहा जायेगा।

कुछ उपयोगी पुस्तकें
गोविन्द नारायण श्रीवास्तव (1989), नाम (एन ए एम) एंड दि न्यू इंटरनेशनल इनफोरमेशन एंड
कम्यूनिकेशन आर्डर, इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ नान अलाइन्ड स्टडीज, नई दिल्ली।
हॉवर्ड एच फ्रेडरिक (1993), ग्लोबल कम्यूनिकेशन एंड इंटरनेशनल रिलेशन्स, वाइसवर्थ पब्लिशिंग
कंपनी, कैलीफोरनिया।
साईमन सेरफेटी (संपा) (1990), दि मीडिया एंड फॉरेन पालिसी, सेंट मारटीन प्रेस, न्यूयार्क ।
हमीद मौलाना (1986), ग्लोबल इनफोरमेशन एंड वर्ल्ड कम्यूनिकेशन: न्यू फंटीयर्स इन
इंटरनेशनल रिलेशन्स, लोंगमैन्स, लन्दन ।

Sbistudy

Recent Posts

द्वितीय कोटि के अवकल समीकरण तथा विशिष्ट फलन क्या हैं differential equations of second order and special functions in hindi

अध्याय - द्वितीय कोटि के अवकल समीकरण तथा विशिष्ट फलन (Differential Equations of Second Order…

22 hours ago

four potential in hindi 4-potential electrodynamics चतुर्विम विभव किसे कहते हैं

चतुर्विम विभव (Four-Potential) हम जानते हैं कि एक निर्देश तंत्र में विद्युत क्षेत्र इसके सापेक्ष…

4 days ago

Relativistic Electrodynamics in hindi आपेक्षिकीय विद्युतगतिकी नोट्स क्या है परिभाषा

आपेक्षिकीय विद्युतगतिकी नोट्स क्या है परिभाषा Relativistic Electrodynamics in hindi ? अध्याय : आपेक्षिकीय विद्युतगतिकी…

6 days ago

pair production in hindi formula definition युग्म उत्पादन किसे कहते हैं परिभाषा सूत्र क्या है लिखिए

युग्म उत्पादन किसे कहते हैं परिभाषा सूत्र क्या है लिखिए pair production in hindi formula…

1 week ago

THRESHOLD REACTION ENERGY in hindi देहली अभिक्रिया ऊर्जा किसे कहते हैं सूत्र क्या है परिभाषा

देहली अभिक्रिया ऊर्जा किसे कहते हैं सूत्र क्या है परिभाषा THRESHOLD REACTION ENERGY in hindi…

1 week ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now