JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Class 6

Hindi social science science maths English

Class 7

Hindi social science science maths English

Class 8

Hindi social science science maths English

Class 9

Hindi social science science Maths English

Class 10

Hindi Social science science Maths English

Class 11

Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History

chemistry business studies biology accountancy political science

Class 12

Hindi physics physical education maths english economics

chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology

Home science Geography

English medium Notes

Class 6

Hindi social science science maths English

Class 7

Hindi social science science maths English

Class 8

Hindi social science science maths English

Class 9

Hindi social science science Maths English

Class 10

Hindi Social science science Maths English

Class 11

Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics

chemistry business studies biology accountancy

Class 12

Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics

chemistry business studies biology accountancy

इंडोनेशिया देश के बारे में बताइए , जानकारी , इतिहास बताओ , शासन और राजनीति , जनसंख्या indonesia information in hindi

indonesia information in hindi history currency radhadhani kya hai ? इंडोनेशिया देश के बारे में बताइए , जानकारी , इतिहास बताओ , शासन और राजनीति , जनसंख्या ?

इंडोनेशिया में शासन और राजनीति
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
एक उपयुक्त राजनीतिक व्यवस्था की खोज: संसदीय जनतंत्र का प्रयोग (1950-51)
इंडोनेशिया में संसदीय व्यवस्था
चुनाव
सुकानों की ‘‘निर्देशात्मक जनतंत्र’’ की अवधारणा
निर्देशात्मक जनतंत्र का काल: सुकानों, सेना और पी के आई त्रिकोण का उदय
सैन्य सत्ता: नयी व्यवस्था का उदय
नवीनीकरण की प्रक्रिया और इंडोनेशिया में सैनिक शासन
सारांश
शब्दावली
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इंडोनेशिया की स्वातंत्र्योत्तर काल की राजनीति में अनेक प्रकार की गतिविधियां देखने को मिलती हैं। इस दौरान दलों का विभाजन हुआ, गुटबंदी हुई, नेताओं के बीच आपसी वैमनस्य और तनाव पैदा हुआ, संसदीय जनतंत्र को थोड़ी सफलता मिली पर अंततः यह व्यवस्था विफल रही। इस इकाई को पढ़ने के बाद आपः
ऽ इंडोनेशिया की राजनीतिक व्यवस्था और राजनीतिक जनतंत्र के प्रयोग का वर्णन कर सकेंगे,
ऽ नेतृत्व की भूमिका और जनतांत्रिक प्रक्रिया का मूल्यांकन कर सकेंगे,
ऽ इंडोनेशिया की राजनीति में वैधता की भूमिका का परीक्षण कर सकेंगे।

प्रस्तावना
इंडोनेशिया दक्षिण पूर्व एशिया का एक गणतंत्र है जिसमें मलय द्वीप समूह के द्वीप और न्यू म्यूनिया (पश्चिमी इरिआन) का पश्चिमी भाग शामिल है। इसका क्षेत्रफल 1,904,000 वर्ग किलोमीटर है और 1971 में इस देश की जनसंख्या 1,24,000,000 थी। यहां की 66 प्रतिशत जनता जावा में रहती है । कनिमंतान, सुमात्रा, पश्चिमी इरिआन, जावा और मदुरा बड़े द्वीप हैं। इंडोनेशिया में 360 जाति समुदाय मौजूद हैं। इनमें से जावावासी (5 प्रतिशत), सूडानी (लगभग 14 प्रतिशत) और मदुरावासी (लगभग 7 प्रतिशत), बड़े समुदाय हैं। यहां चीनी मूल के लोग (लगभग 2 प्रतिशत) भी काफी संख्या में रहते हैं। एक अनुमान के अनुसार यहां 87 प्रतिशत मुसलमान और 4 प्रतिशत ईसाई हैं। इसके अतिरिक्त बौद्ध, हिंदू और जीववादी भी इंडोनेशिया की जनसंख्या में शामिल हैं। भाषा इंडोनेशिया यहां की सरकारी भाषा है। इस भाषा का संबंध मलय पोलिनेसियन भाषा समुदाय से है।

इंडोनेशिया में आज जो राजनीतिक व्यवस्था कायम है, उसे नयी व्यवस्था के नाम से जाना जाता है । यह व्यवस्था सुकार्नो की ‘‘पुरानी व्यवस्था’’ की विरोधी है। इंडोनेशियाई राजनीति का मूल तथ्य यह है कि अभी भी एक उपयुक्त राजनीतिक व्यवस्था की खोज की जा रही है ताकि वहां के नेता अपने समाज को एक दिशा दे सकें, उसे आधुनिक बना सकें। स्वातंत्र्योत्तर काल की इंडोनेशियाई राजनीति के इतिहास को मुख्य रूप से तीन कालों में विभक्त किया जा सकता है संसदीय जनतंत्र का काल (1950-57), निर्देशात्मक जनतंत्र (1957-65) और जनरल सुहातों के आधीन मौजूदा दौर ।

अब जेनरल ने सेना से अवकाश ग्रहण कर लिया है और वह अपने को गैर सैनिक राष्ट्रपति कहलाना अधिक पसंद करता है और अपनी व्यवस्था को पंचशील जनतंत्र कहता है। पहले दो काल खंड के राजनीतिक प्रयास असफल रहे। सुहार्तो पिछले पच्चीस वर्षों से इस्ताना नेगरा (राष्ट्रपति भवन) पर अपना पैर जमाये हए है। निश्चित रूप से इससे देश में राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक समृद्धि आयी है । पर अब यह सत्ता वैधता खो चुकी है। सरकारी शक्ति का उपयोग साम्यवादी और अन्य राजनीतिक दलों को दबाने के लिए किया जा रहा है और सत्ता का स्वरूप काफी निरंकुश होता जा रहा है। सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं, सुहार्तो के पारिवारिक सदस्यों पर विवादास्पद मसलों में शामिल होने का भी आरोप है। राजनीतिक दृष्टि से जागरूक जनता बार-बार इस तरह की आवाज उठा रही है।

एक उपयुक्त राजनीतिक व्यवस्था की खोज रू संसदीय जनतंत्र
का प्रयोग (1950-57)
स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान स्वतंत्रता सेनानियों में राष्ट्रवाद की भावना कूट-कूट कर भरी थी और इसी भावना से लोग आपस में जुड़े हुए थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह भावना अचानक लुप्त हो गयी और विभिन्न दलों में संघर्ष होने लगा, राजनीतिक गुटबंदी बढ़ी, नेताओं के बीच मनमुटाव और द्वेष पैदा हुआ। 1950-56 के दौरान इंडोनेशिया में छह मंत्रिमंडलों की स्थापना हुई । कोई भी मंत्रिमंडल दो वर्ष से ज्यादा नहीं टिक सका । 1955 तक कोई चुनाव भी नहीं कराए गये थे, अतः सही मायनों में मंत्रिमंडल जनता की प्रतिनिधि नहीं थी। पहली चुनी हुई सरकार मार्च 1956 में ही गठित हो सकी । सुकानों और सेना ने मंत्रिमंडल के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दोनों गैर संसदीय ताकतें थीं । सुकानों ने मंत्रियों को चुनने में अपनी शक्ति का इस्तेमाल किया और सेना ने विभिन्न तरीकों से विभिन्न दलों पर दबाव डाला। इसका कारण यह था कि वैचारिक और सांगठनिक दृष्टि से राजनीतिक दल काफी दुर्बल थे। उनके पास कोई दृष्टि नहीं थी, कोई उद्देश्य नहीं था। अतः वे राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया में सहयोग करने में भी अक्षम थे। दलों के भीतर आपसी मतभेद था, सत्ता पर अधिकार जमाने के लिए कई दल आपस में संघर्षरत थे, विचारों और कार्यक्रमों की अपेक्षा व्यक्तियों का महत्व अधिक था । यही कुछ कारण हैं, जिनके कारण इंडोनेशिया में दलीय व्यवस्था नहीं चल पाई और इसके साथ ही संसदीय जनतंत्र भी ढह गया।

इंडोनेशिया में संसदीय व्यवस्था
इंडोनेशिया में संसदीय जनतंत्र की विफलता का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी रहा है कि वहां सभी मंत्रिमंडलों में विभिन्न दलों के लोग शामिल थे, कहने का तात्पर्य यह कि ज्यादातर मिली-जुली सरकारें कायम हुईं। राजनीतिक दलों में एकता और सहमति नहीं थी, इस कारण से सरकार ज्यादा दिन चल नहीं पाती थी और मंत्रिमंडल ध्वस्त हो जाता था । बार-बार मंत्रिमंडल का बनना और टूटना इसका प्रमाण है । संसद में किसी भी दल का बहुमत नहीं होता था, अतः अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए ये दल राष्ट्रपति और सेना जैसे गैर संसदीय ताकतों का इस्तेमाल करते थे। सुकानों के करिश्माई व्यक्तित्व को आम आदमी का समर्थन प्राप्त था। इस समय किसी भी प्रकार की कोई संवैधानिक सत्ता नहीं थी । सेना का राजनीतिकरण हो चुका था । स्वतंत्रता संग्राम के दौरान डचों के विरुद्ध सेना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इन सब कारणों से इंडोनेशिया में संसदीय प्रणाली का पनपना बड़ा मुश्किल था। वस्तुतः इंडोनेशिया में इतने लंबे समय तक संसदीय व्यवस्था टिक सकी, इसका कारण केवल यही था कि सुकार्नो या सेना ने इसे कोई गंभीर चुनौती नहीं दी थी। इसका मुख्य कारण यह था कि आरंभिक दिनों में आपसी हितों को लेकर सुकानों और सेना के बीच कुछ मनमुटाव था। इसी का लाभ कुछ दलों ने उठाया । पर 1956 तक आते-आते राष्ट्रपति और सेना के हित आपस में जुड़ने लगे और उन्होंने संयुक्त रूप से दलों को कमजोर करने का काम शुरू कर दिया । जब संसदीय जनतंत्र और दलीय व्यवस्था की प्रासंगिकता दांव पर लगी थी, तो भी ये दल आपसी एकजुटता न दिखा सके और गैर संसदीय ताकतों की ओर झुकते चले गये। अधिकांश मंत्रिमंडलों का पतन राष्ट्रपति या सेना की इच्छा से हुआ। संसदीय प्रणाली में राष्ट्रपति या सेना की इच्छा-अनिच्छा से मंत्रिमंडल का पतन नहीं हआ करता है। इससे संसद की अक्षमता का पता चलता है और यह भी पता चलता है कि उसमें निर्णय लेने की शक्ति नहीं थी। किसी भी समय कोई भी राजनीतिक प्रक्रिया सही ढंग से संसद से होकर न गुजर सकी । वस्तुतः गैर संसदीय ताकतें ही इसका निर्धारण करती रहीं।

चुनाव
सोचा यह गया था कि चुनाव हो जाने पर स्थिरता और राजनीतिक मजबूती आ जाएगी पर ऐसा हुआ नहीं। इसके विपरीत मतभेद तथा वैमनस्य और भी बढ़ा । स्थायित्व नहीं आ पाया, लोगों की आशाएं धूमिल हो गयीं । दलों के बीच आपसी मतभेद और बढ़ा । वैचारिक, जातीय और अन्य मतभेद भी तीखे हो गये। पंचशील बनाम इस्लामी राज्य, जावा बनाम सुमात्रा, सांत्री बनाम एबनगान, साम्यवाद बनाम गैर-साम्यवाद जैसे मुद्दे सामने आये। चुनाव के बावजूद मूल रूप से सरकार निर्माण की व्यवस्था समझौते पर ही टिकी रही। इससे एक बृहद और सुपरिभाषित नीति को लेकर आगे बढ़ना मंत्रिमंडल के लिए मुश्किल हो गया। इस प्रकार चुनाव असफल सिद्ध हुए । चुनाव के पहले की सरकार भ्रष्ट, अक्षम और राजनीतिक गतिविधियों के संचालन के अयोग्य थी। यह आशा की गयी थी कि चुनाव के बाद ऐसी सरकार आ सकेगी जो पिछली सरकार की कमियों को दूर कर सकेगी। पर चुनाव के बाद ऐसी सरकार की स्थापना नहीं हो सकी, जो इंडोनेशिया की जटिल समस्याओं (जैसे औपनिवेशिक शासन से प्राप्त समस्याएं) को सुलझा सके और राष्ट्रनिर्माण के पथ पर अग्रसर हो सके। बहुत जल्द ही इस सरकार से लोगों का मोहभंग हो गया और अंततः असैनिक शासन का अंत हो गया। संसदीय सरकार की वैधता और प्रासंगिकता पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लग गये। चुनाव के दौरान दलों की क्षेत्रीय प्रकृति उभर कर सामने आयी। 1956 में क्षेत्रीयता का यह स्तर स्पष्ट रूप से गूंजने लगा और सभी दल अपने क्षेत्रीय हितों की बात करने लगे। इससे सरकार में गंभीर मतभेद पैदा हुए। परिणामस्वरूप, 1956 के अंत में जकार्ता स्थित केंद्र सरकार का तख्ता क्षेत्रीय सेनाध्यक्षों ने उलट दिया। सरकार जिस तरह उनकी समस्याओं और मांगों को निबटा रही थी, उससे ये नाखुश थे। जैसे-जैसे केन्द्रीय सरकार और बाहरी क्षेत्रों के बीच संघर्ष बढ़ता गया वैसे-वैसे राजनीतिक दलों का ध्रुवीकरण होता चला गया। पी एन आई और पी के आई (क्रमशः राष्ट्रवादी और साम्यवादी दल) जावा में स्थित होने के कारण केंद्र सरकार का पक्ष ले रहे थे जबकि मसजूमी जैसे दलों ने जिनका मुख्य समर्थन बाहरी द्वीपों में था, अपने को क्षेत्रीय हितों से जोड़ लिया। शुरू में जावा स्थित धार्मिक विद्वानों के एक अन्य महत्वपूर्ण दल नहदतुल उलेमा ने कुछ हद तक तटस्थता दिखाई पर बाद में अन्य राजनीतिक दलों के नक्शेकदम पर चलते हुए उन्होंने केन्द्रीय सरकार को समर्थन देना शुरू कर दिया। लगभग इसी समय सुकानों ने दलों को दफना दिए जाने की वकालत. की। उसका मानना था कि ये दल केवल निजी हितों का ख्याल रखते हैं और राष्ट्र के हितों को ताक पर रख देते हैं और देश के भीतर की अस्थिरता के लिए वे ही जिम्मेवार हैं। सुकाों ने भी बाद में स्वीकार किया कि यह एक प्रकार की गीदड़ भभकी थी। स्वाभाविक रूप से दलों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। खासकर मसजूमी ने सुकानों के दलों के दफन की जमकर आलोचना की।

वस्तुतः आरंभ में सुकार्नो दलों का खात्मा नहीं चाहता था। वह खासकर लोगों को यह विश्वास दिलाना चाहता था कि दल व्यवस्था से राजनीतिक विकास की प्रक्रिया को बल नहीं मिलेगा, बल्कि इससे अवरोध ही उत्पन्न होगा। वह दल के प्रमुखों का आधार समाप्त कर दल का प्रभाव समाप्त करना चाहता था। पर उसे यह नहीं समझ में आ रहा था कि यह काम कैसे किया जाए । वह अपने विचार जनता के बीच छोड़ रहा था और उनकी प्रतिक्रिया जानने की कोशिश कर रहा था। इसके परिणामस्वरूप कई प्रतिक्रियाएं सामने आयीं। सबसे पहले उपराष्ट्रपति हट्टा ने इस्तीफा दिया और फिर मसजूमी ने मंत्रिमंडल से अपना समर्थन वापस ले लिया। हट्टा के इस्तीफा देने से अन्य क्षेत्रों और केंद्र सरकार के बीच की खाई और चैड़ी हो गयी क्योंकि हट्टा बाहरी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता था। बाहरी लोगों के बीच सरकार की वैधता समाप्त हो गयी। हट्टा का इस्तीफा गलत समय में सामने आया और यह गलत अनुमान का नतीजा था। इससे सुकार्नो और हट्टा के बीच की खाई चैड़ी हो गयी और प्रतीकात्मक द्वितंगल समाप्त हो गया। यह संघर्ष वस्तुतः केंद्र सरकार और अन्य क्षेत्रों के बीच हो रहा था।

मसजूमी सदस्यों के मंत्रिमंडल से समर्थन वापस लेने के कारण स्थिति और भी बिगड़ गयी। इससे अली सास्त्रोमिदोजो के नेतृत्व वाली प्रथम चुनी गयी सरकार को गहरा धक्का लगा। दलीय व्यवस्था और संसदीय जनतंत्र दोनों का अस्तित्व संकट में था । जनतंत्र विरोधी ताकतों ने दलों को विघटनकारी करार देने का अच्छा मौका पाया । मसजूमी द्वारा समर्थन वापस लेने से पी एन आई और एन यू दलों को मजबूरन साम्यवादियों का पक्ष लेना पड़ा। साम्यवादियों ने अन्य दलों को दरकिनार करते हुए अपनी स्थिति मजबूत कर ली। इससे भी केंद्र सरकार और बाहरी क्षेत्रों के बीच की खाई चैड़ी हुई और दोनों के बीच के संघर्ष में तेजी आई।

1956 के अंत और 1957 की शुरूआत में इंडोनेशियाई राजनीति में दो तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आयीं। एक मत सुकानों का था, जिसने इंडोनेशिया में काम कर रही पश्चिमी संसदीय व्यवस्था की सरकार का जमकर विरोध किया और इंडोनेशिया के लिए एक अलग प्रकार के जनतंत्र की मांग की जिसे निर्देश और नेतृत्व प्राप्त हो। दूसरी तरफ क्षेत्रीयता के समर्थक सुकार्नो-हट्टा द्वितंगल पुनः स्थापित करना चाहते थे। वे चाहते थे कि हट्टा को प्रधानमंत्री बनाया जाए तथा ज्यादा क्षेत्रीय स्वायत्तता प्रदान की जाए, क्षेत्रीय सेनानायकों को अधिक ताकत मिले और जकार्ता में गैर साम्यवादी सरकार की स्थापना की जाए। दोनों प्रकार की प्रतिक्रियाएं संसदीय सरकार की असफलता का परिणाम थीं और उसे कई प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था।

समाज और सरकार के बदलते स्वरूप की इस पृष्ठभूमि में सुकानों के निर्देशात्मक जनतंत्र का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। संकट की इस स्थिति में, तीन दशकों के महत्वपूर्ण नेता सुकानों ने अपनी कानसेप्सी (अवधारणा) सामने रखी। उसकी यह कानसेप्सी उस संकट की घड़ी में सामने आयी जब पूरा संवैधानिक ढांचा चरमरा रहा था और किसी न किसी आधारभूत समाधान की आवश्यकता थी । सुकानों के विचार अन्य दलों के विचारों की अपेक्षा अधिक मान्य और सुदृढ़ प्रतीत होते थे। जब राजनीतक दलों, जातीय समूहों, क्षेत्रीयता समर्थकों और धर्म समर्थकों के बीच संघर्ष चल रहा था, देश में पूरी अव्यवस्था थी और देश टूटने के कगार पर था, उसी समय सुकानों अपने समाधानों और विचारों के साथ आगे आया और अपने देश को निर्देशात्मक जनतंत्र की ओर अग्रसर किया।
बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: क) उत्तर देने के लिए नीचे दिए गये स्थान का उपयोग कीजिए।
ख) अपने उत्तर का मिलान इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से कीजिए।
1) इंडोनेशिया में राजनीतिक अस्थिरता का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।
2) इंडोनेशिया में संसदीय जनतंत्र की विफलता के प्रमुख कारक क्या है?
3) चुनावी राजनीति का महत्व बताते हुए इंडोनेशिया की जनतांत्रिक प्रक्रिया में इसके प्रभाव पर प्रकाश डालिए।

1) क) वह राष्ट्रवाद, जिसके तहत लोगों ने एकजुट होकर विदेशियों को मार भगाया था।
ख) स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान या बाद कोई ठोस राजनीतिक दल जन्म नहीं ले सका।
ग) स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक दलों में आपसी मुठभेड़ बढ़ी।
घ) चुनाव करने में आम तौर पर देर। अ) कई राजनीतिक दल।
ड़) सत्ता के लिए दलों नारा संघर्ष।
2) क) मंत्रिमंडलों का गठजोड़ स्वरूप।
ख) दलों के बीच में कोई एकता नहीं।
ग) दलों ने गैर संसदीय शक्तियों में अपनी स्वार्थ दिखलाई, जनता में नहीं।
घ) राजनीति में सेना का हस्तक्षेप।
ड़) राजनीतिक दलों पर सुकानों का अविश्वास
3) क) अभी तक चुनाव प्रजातंत्र के लिए आवश्यक था।
ख) चुनाव दलों और समाज का शोधन करता है।
ग) चुनाव से राजनीतिज्ञ ताकतों का ध्रुवीकरण होता है।
घ) चुनाव राज्य की एकबद्धता को जाहिर करता है।
ड़) चुनाव से सरकार को बैधता मिलती है।

 सुकानों की निर्देशात्मक जनतंत्र की अवधारणा
फरवरी 1957 में सुकानों ने निर्देशात्मक जनतंत्र की अपनी अवधारणा को एक ठोस स्वरूप प्रदान किया। उसने एक उच्चस्तरीय राष्ट्रीय परिषद की स्थापना का प्रस्ताव रखा । इसमें मजदूर, किसान, व्यापारी, सेना के अधिकारी आदि विभिन्न कामगार समुदायों को शामिल करने की बात की गयी । सुकानों को इस परिषद का अध्यक्ष मनोनीत किया गया था। इसमें साम्यवादियों सहित सभी दलों के लोगों का सहयोग लेना था। मुख्य रूप से पी एन आई और साम्यवादियों ने राष्ट्रपति का समर्थन किया। मार्च 1957 में पहली चुनी हुई सरकार के इस्तीफे के बाद राष्ट्रपति सुकानों का प्रस्ताव कुछ संशोधन के साथ स्वीकार कर लिया गया। सुकाों ने खुद एक गैर संसदीय ‘‘व्यावसायिक मंत्रिमंडल’’ का गठन किया, जिसके अध्यक्ष जूआण्डा बने । इस नये मंत्रिमंडल में साम्यवादियों और मसजूमियों को जगह नहीं मिली। मसजूमियों ने सुकानों के निर्देशात्मक जनतंत्र की अवधारणा का जमकर विरोध किया था। मंत्रिमंडल द्वारा सत्ता संभालने के तुरंत बाद 45 सदस्यीय राष्ट्रीय परिषद बनी, जिसमें साम्यवादियों को भी स्थान मिला। इस संकट की स्थिति का एक परिणाम यह भी हुआ कि सेनाध्यक्ष मेजर जेनरल ए. एच. नासूटियन के नेतृत्व में सेना की स्थिति मजबूत हुई। खास तौर पर तब जब 14 मार्च को पूरे राष्ट्र में मार्शल लॉ लगा दिया गया और इस प्रकार नागरिक मामलों में सेना के हस्तक्षेप को वैधता प्रदान कर दी गयी।

नये प्रधानमंत्री जुआण्डा ने जकार्ता और क्षेत्रीय राज्यों के बीच की खाई पाटने का हर संभव प्रयास किया पर आधारभूत राजनीतिक असहमति बनी रही। 1957 के अंत तक दोनों पक्ष एक-दूसरे को शंका की नजर से देखने लगे। क्षेत्रीय शक्तियों को यह अंदेशा था कि जकार्ता उनके खिलाफ सैनिक कार्यवाई की तैयारी कर रहा है, जबकि जकार्ता यह मान बैठा था कि क्षेत्रीय शक्तियां पश्चिमी देशों के साथ मिलकर उससे सत्ता छीनने के फिराक में हैं। नवंबर के अंत तक समझौते की रही-सही आशा भी तब समाप्त हो गयी, जब कुछ मुसलमान युवाओं ने सुकार्नो की हत्या का प्रयास किया। इस घटना से एक संकट की स्थिति उत्पन्न हो गयी। इसके साथ-साथ एक और घटना घटी।

संयुक्त राष्ट्र संघ में इंडोनेशिया का एक प्रस्ताव पराजित हो गया । इस प्रस्ताव के अनुसार इंडोनेशिया और नीदरलैंड को मिलकर पश्चिमी ईरान पर दावा करमा था। सुकानों ने नीदरलैंड को चेतावनी दी थी कि संयुक्त राष्ट्र में अगर यह प्रस्ताव गिरा तो गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। संयुक्त राष्ट्र के वोट के कुछ ही दिनों के भीतर आक्रामक कार्रवाई शुरू हो गयी। मजदूरों ने इंडोनेशियाई गणतंत्र के नाम पर डचों के एक स्थान पर कब्जा जमा लिया। मजदूरों ने डच जहाजरानी कंपनियों और होटलो खेतों और कारखानों, बैंकों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों और दुकानों पर देखते ही देखते कब्जा जमा लिया। इससे साबित होता है कि आंशिक रूप से ही सही इनको सरकार का समर्थन प्राप्त था। बृहद डच व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर व्यावहारिक रूप में इंडोनेशियाई लोगों का कब्जा हो गया। बाद में इनका राष्ट्रीयकरण किया गया। इस घटना के तीन महीने बाद 46,000 डच नागरिकों में से अधिकांश देश छोड़ कर चले गये।

इस विजय के तुरंत बाद क्षेत्रीय होड़ उभरने लगी। जनवरी में विभिन्न क्षेत्रीय परिषदों के नेता मध्य सुमात्रा में इकट्ठा हए । मसजूमी दल और समाजवादी दल के कई शीर्षस्थ नेताओं ने उनसे हाथ मिलाया। भूतपूर्व प्रधानमंत्री नासिर जैसे लोग भी आये जिन्हें दिसंबर में अपमानित होकर जकार्ता छोड़ना पड़ा था। 10 फरवरी को इस समूह ने एक चेतावनी दी: जुआण्डा मंत्रिमंडल पांच दिनों के भीतर इस्तीफा दे और लोकप्रिय हट्टा और जोग जकार्ता के सुल्तान के नेतृत्व में मंत्रिमंडल का गठन हो वर्ना मध्य एशिया में जुटे हुए नेता एक समानांतर सरकार बनाएंगे। 15 फरवरी को इस चेतावनी पर अमल किया गया। पल्प (मध्य सुमात्रा) में इंडोनेशियाई गणतंत्र की क्रांतिकारी सरकार (पी आर आई) का गठन हुआ। मसजूमी नेता और केंद्रीय बैंक के भूतपूर्व गवर्नर सैफुद्दीन प्रविरांगेरा को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। यह बात तुरंत साफ हो गयी कि समानांतर सरकार को मध्य सुमात्रा और उत्तरी सुलावेसी के सैन्य परिषद का समर्थन प्राप्त है। पर सेनाध्यक्षों ने समय की प्रतीक्षा करना उचित समझा । आरंभ में अमेरिकी सरकार ने विद्रोहियों से सहानुभूति दिखाई। राज्य सचिव डलेस ने अपने वक्तव्य से समर्थन का इशारा किया। अमेरिका ने हथियारों से भी विद्रोहियों की सहायता की। पर वह भी खलकर सामने नहीं आया और पी आर आर आई को औपचारिक मान्यता देने से इंकार कर दिया। इसके अतिरिक्त विद्रोही क्षेत्र में काम कर रही तेल कंपनियां भी केन्द्रीय सरकार को राजस्व देती रहीं। पर विद्रोही सरकार ज्यादा टिक नहीं पाई और उनके सैनिकों ने अप्रत्याशित रूप से बड़ी आसानी से आत्मसमर्पण कर दिया । अप्रैल के अंत तक विद्रोहियों को सेनाध्यक्षों और अमेरिका का अप्रत्यक्ष समर्थन भी समाप्त हो गया। पी आर आर आई सुमात्रा और बुलावेसी में गुरिल्ला युद्ध करती रही। पर अब उनके पास शक्ति नहीं रह गयी थी। जिस तेजी से उनका पतन हुआ, उसे देखकर आश्चर्य होता है।

 निर्देशात्मक जनतंत्र का काल रू सुकानों सेना और पी के आई
त्रिकोण का उदय
सेना और उसके समर्थकों की शक्ति में वृद्धि, इस काल का, शायद सबसे बड़ा राजनीतिक बदलाव था। डचों के छीने, गये कई उद्यमों में सेना ने अपने अधिकारियों को उच्च पदों पर आसीन करवाया। गृह युद्ध छिड़ने के साथ ही मार्शल लॉ लगा दिया गया। मेजर जनरल नासुटियन और उसके क्षेत्रीय सेनाध्यक्षों ने मार्शल लॉ का उपयोग नागरिक प्रशासन और राजनीतिक मामलों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए किया। पी आर आर आई पर विजय ने सेना की प्रतिष्ठा और भी बढ़ा दी। 1958 के उत्तरार्द्ध आते-आते स्थिति साफ हो गयी कि अब नागरिक मामलों पर सेना का अधिकार होगा। 1956 से पहले वाली नागरिक स्वतंत्रता धूमिल होती जा रही थी। इसके अलावा 1958 में फौजी तानाशाही की स्थापना की बात जोर-शोर से चली। संकट के इस काल में केवल सेना ही शक्तिशाली नहीं हुई बल्कि राष्ट्रपति सुकानों ने भी इस स्थिति का फायदा उठाया। डच परिसंपत्तियों पर कब्जा जमाने के उसके निर्णय ने उसे खब राजनीतिक फायदा पहुंचाया। उसके कट्टर दुश्मन मसजूमी के नेतागण और इंडोनेशियन सोशलिस्ट दल (पी एस आई) या तो पराजित हो गये (जहां वे पी आर आर आई के हिस्से थे) या उन्हें संगठन से हटाकर अलग-थलग कर दिया गया। इस प्रकार उनका राजनीतिक प्रभाव लगभग समाप्त हो गया। 1958 के उत्तरार्द्ध में सुकार्नो ने निर्देशात्मक जनतंत्र के लिए लोगों से अपील की। उसके अनुसार इस प्रकार के जनतंत्र से राष्ट्रीय पहचान कायम होगी। इस अपील को सेना का भी समर्थन प्राप्त हुआ। लोगों ने इसे राजनीतिक नवीनीकरण के रूप में देखा और इसकी प्रशंसा की।

इसके विपरीत पिछले आठ साल से जो दल सत्ता में थे वे अब हतोत्साहित हो चुके थे और उनका प्रभाव समाप्त हो चुका था। राष्ट्रपति द्वारा ‘‘उदारवादी जनतंत्र‘‘ को नकारे जाने से अधकचरा जनतंत्र कहे जाने से और ‘‘दल और दल, अनगिनत दलों की बीमारियों’’ आदि की चर्चा करके इसे नीचा दिखाने से इन दलों की प्रतिष्ठा समाप्त हो गयी थी। सुकानों द्वारा की गयी इस भर्त्सना का चारों तरफ जोरदार स्वागत हुआ। काफी कम नेतागण वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था के पक्ष में तर्क जुटाने में सफल रहे। 1958 का उत्तरार्द्ध आते-आते वे लोग भी भर्त्सना के कोरस में शामिल हो गये जिन्होंने संसदीय व्यवस्था से लाभ उठाया था। केवल मसजूमी नेतागण इससे बाहर रहे क्योंकि पी आर आर आई में शामिल होने के कारण उन्हें अलग-थलग कर दिया गया था । संवैधानिक जनतंत्र वैचारिक धरातल पर पराजित हो गया और इसके समर्थक दलों ने भी इसका साथ छोड़ दिया। 1955 के चुनाव में जो दल विजयी हुए थे, उनमें केवल साम्यवादी दल सक्रिय और सम्मानित रहा। पर इसकी अपनी समस्याएं थीं। मसजूमी और पी एस आई के साथ जुड़े रहने के कारण इन पर विशेष निगरानी रखी जाती थी। सेना के सत्ता में आ जाने से राजनीतिक स्वतंत्रता पर भी अंकुश लगा। अशांत और अस्तव्यस्त राजनीति की समाप्ति हुई और निरंकुश शांति का दौर शुरू हुआ। राजनैतिक स्वतंत्रता समाप्त हो गयी और सरकार के भीतर विभिन्न ताकतों के बीच छिपा संघर्ष चलने लगा।

1959 के आरंभ में सुकानों और उसके मंत्रिमंडल ने सेना का यह प्रस्ताव मान लिया कि निर्देशात्मक जनतंत्र को एक ठोस स्वरूप प्रदान किया जाए। उन्होंने घोषणा की कि 1945 के संविधान (जिसे व्यावहारिक रूप से नवंबर 1945 में और औपचारिक रूप से 1949 में त्याग दिया गया था) को आधार बनाकर राजनीतिक ढांचे के पुनर्निमाण का काम किया जाएगा। चुनी गयी संवैधानिक परिषद से बार-बार इसके अनुमोदन का अनुरोध किया गया पर इसमें सफलता नहीं मिली। इसके बाद राष्ट्रपति सुकानों ने 5 जुलाई 1958 को राष्ट्रपति के एक अध्यादेश द्वारा परिषद भंग कर दी और क्रांतिकारी संविधान की स्थापना की। 1945 के संविधान में पंचशील पर बल दिया गया था। इस्लाम का इसमें कोई स्थान नहीं था। इस प्रकार वैचारिक ढुलमुलपन भी समाप्त हुआ और इसे एक ठोस आधार प्राप्त हुआ। इसके साथ-साथ संसदीय व्यवस्था के स्थान पर राष्ट्रपति व्यवस्था कायम हुई। सुकानों पहला प्रधानमंत्री बना । जुआण्डा ने प्रधानमंत्री पद छोड़ दिया और उसे प्रथम मंत्री का पद प्राप्त हआ। सेनाध्यक्ष जेनरल नासुटियन सुरक्षा और प्रतिरक्षा मामलों के मंत्री बने, उसके पास सेना का पद भी बरकरार रहा । सेना के दस और पदाधिकारियों को 37 संदस्यीय नये समान मंत्रिमण्डल में स्थान मिला। इनमें से सात थल सेना के लिये गये थे। 1945 के संविधान परिषद “राष्ट्रीय परिषद’’ की स्थापना उसी महीने हुई। इसके साथ-साथ राष्ट्रीय नियोजन परिषद नामक उच्चस्तरीय निकाय की स्थापना हुई। इसे खासतौर पर ‘‘इंडोनेशियाई समाजवाद’’ का खाका खींचने के लिए स्थापित किया गया था।

इसके बाद तेजी से क्षेत्रीय सरकारों का पुनर्गठन किया गया और उन्हें अपेक्षाकृत अधिक केन्द्रीकृत करके उन पर केन्द्रीय सत्ता का नियंत्रण बढ़ा दिया गया । 5 जुलाई की घोषणा में यह बात स्पष्ट कर दी गयी कि यह ‘‘हमारी क्रांति की पुनः खोज’’ है और 1949 से जिस गलत रास्ते पर हम चल रहे थे उससे आज मुक्ति मिली है। स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दिया गया राष्ट्रपति का भाषण ही राज्य का राजनीतिक मेनिफेस्टो बन गया। जून 1960 में गोतोंग रोजोंग (आपसी सहायता) संसद की स्थापना हुई और राष्ट्रपति सुकानों ने चुनी गयी सभा को भंग कर दिया । इस मेनिफेस्टो के समर्थक दलों, समुदायों और व्यक्तियों को एक-दूसरे के निकट लाने के लिए और आपसी सहयोग के लिए एक राष्ट्रीय मोर्चे की स्थापना की गयी। नवंबर-दिसंबर 1960 में सर्वोच्च राज्य इकाई “पीपुल्स कन्सल्टेटिव असेंबली’’ (1945 के संविधान के तहत) की पहली बैठक संपन्न हुई। इस असेंबली ने राष्ट्रीय नियोजन परिषद द्वारा तैयार किए गए आठ वर्षीय विकास योजना को मंजूरी दे दी।

निर्देशात्मक जनतंत्र की शुरुआत के साथ राजनीतिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगना शुरू हो गया। अगस्त 1960 में मसजूमी और पी एस आई पर रोक लगा दी गयी और जनवरी 1962 में उनके अनेक राजनीतिक नेता गिरफ्तार कर लिए गये। प्रेस सेंसर सख्त कर दिया गया और पत्रकारों, शिक्षकों, छात्रों और अधिकारियों से समर्थन की आशा की जाने लगी। इसके साथ-साथ सरकार राज्य की विचारधारा के प्रचार-प्रसार और उसे लोगों द्वारा अपनाए जाने पर ज्यादा से ज्यादा समय खर्च करने लगी। आर्थिक क्षेत्र में सरकार को सफलता नहीं मिली और सभी तरफ आर्थिक अवनति के चिह्न दिखाई देने लगे । निर्यात उत्पादन में तेजी से गिरावट आई और खाद्यान्न की उपज में काफी धीमी गति से विकास हुआ। मुद्रास्फीति तेजी से बढ़ी और दाम बढ़ने से जनता में असंतोष की लहर फैलने लगी।

पर अन्य क्षेत्रों में सुकों की सरकार को सफलता हासिल हुई। 1961 में पी आर आर आई विद्रोह का अंत हो गया और देश में एकता की स्थापना हुई। नासुटियन के नेतृत्व वाली सेना ने विद्रोहियों से अपील की कि अगर वे ‘‘गणतंत्र की परिधि में लौटें’’ (‘‘आत्मसमर्पण’’ का उपयोग नहीं किया गया) तो उन्हें माफ कर दिया जाएगा। इसके फलस्वरूप एक लाख लोगों ने विद्रोह का रास्ता छोड़ दिया। इनमें दाउद ब्योरेह के आचीनी इस्लामी आंदोलन और दक्षिणी सुलवेसी में कहर मुजकर के इस्लामी विद्रोह के नेता और अन्य सदस्य भी शामिल थे। इन्होंने पहले पी आर आर आई के साथ समझौता किया था। 1961 के अंत तक जावा के बाहर के विद्रोहों से सेना मुक्त हो चुकी थी। इसके बाद 1962 के आरंभ में सेना ने पश्चिमी जावा में चल रहे तेरह वर्षीय पुराने दारूल इस्लाम विद्रोह को दबाने का काम शुरू किया। जून 1961 में सेना इसके विद्रोही नेता एस. एम. कार्लोस्वीरजी को पकड़ने में कामयाब रही और इसके बाद उसके अधिकांश अनुयायियों ने आत्मसमर्पण कर दिया। अगस्त 1962 तक पूरे देश में आंतरिक सुरक्षा कायम हो गयी थी। अगस्त 1962 में सरकार ने पश्चिमी ईरान के संबंध में नीदरलैंड सरकार से समझौता किया, जिसके तहत वह इंडोनेशिया में वापस आ गया और देश के स्वतंत्रता की प्रक्रिया संपन्न हुई। यह सरकार की एक बड़ी उपलब्धि थी।

सुकानों का निर्देशात्मक जनतंत्र तीन राजनीतिक ताकतों-खुद राष्ट्रपति सुकानों, सेना और पी के आई- के त्रिकोण पर टिकी थी। निर्देशात्मक जनतंत्र का यह त्रिकोणात्मक समझौता आपसी हितों और स्वार्थों के नाजुक बंधन से जुड़ा हुआ था। इस त्रिकोण को संतुलित रखने के लिए सहयोग संघर्ष और जोड़-तोड़ भी हुआ करता था । इन तीनों में सुकानों सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और शक्तिशाली था। विद्रोहों को दबाकर और डच संपत्तियों को अपने नियंत्रण में लेकर सेना ने अपनी प्रतिष्ठा और शक्ति बढ़ाई थी। एक तरफ नासुटिअन और सेना ने सुकानों को निर्देशात्मक जनतंत्र लागू करने में भरपूर मदद की दूसरी तरफ सुकानों देश की राजनीतिक प्रक्रिया में सेना की जरुरत से ज्यादा दखलअंदाजी पसंद नहीं करता था। उसे बराबर यह खतरा बना रहता था कि सेना कहीं सत्ता हथिया न ले । अतः सेना की शक्ति को रोकने के लिए उसने अन्य ताकतों को बढ़ावा दिया। सुकानों का कोई राजनीतिक दल नहीं था (हालांकि पी के आई अपने को सुकानों से जोड़ता था पर उसने कभी भी अपने को इस दल से नहीं जोड़ा), अतः यह भूमिका पी के आई ने निभाई। हालांकि वह कभी भी साम्यवादी नहीं रहा पर वह पी के आई के उत्कृष्ट संगठन, अनुशासन और इसके सदस्यों की कर्तव्यनिष्ठता से प्रभावित था पर वह यह कभी नहीं चाहता था कि पी के आई इतना अधिक शक्तिशाली हो जाए कि उसकी सत्ता को चुनौती देने लगे। इस कारण सुकानों पी के आई और सेना को आपस में लड़ाता रहा और इस प्रकार उसे संतुलन बनाए रखने में सहायता मिली । सेना और पी के आई दोनों अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए सुकानों का समर्थन चाहते थे। सुकानों कभी सेना को तो कभी पी के आई को अपना समर्थन देकर बागडोर अपने हाथ में रखता था। कुछ वर्षों के भीतर निर्देशात्मक जनतंत्र विफल हो गया। इसका एक प्रमुख कारण यह था कि इन तीनों ताकतों के उद्देश्यों में एकरूपता और समानता नहीं थी। संसदीय जनतंत्र के काल में शक्ति संसद में निहित नहीं थी। शक्ति या तो दल के रहनुमाओं के हाथ में थी या गैर संसदीय ताकतों के हाथ में निर्देशात्मक जनतंत्र ने इस कमी को दूर करना चाहा पर राष्ट्रपति सेना और पी के आई के अलग-अलग विरोधी हितों के कारण ऐसा संभव नहीं हो पाया। सेना ऐसे मौके की ताक में थी जब मुख्य प्रतिद्वंद्वी पर हमला किया जाए। यह मौका 1965 के अंत में आया जब तीनों ताकतों का आपसी संबंध विच्छेद हो गया। इसी समय राष्ट्रपति सुकानों की तबीयत खराब रहने लगी। इस प्रकार सेना को सत्ता पर अधिकार जमाने का मौका मिल गया।

बोष प्रश्न 2
टिप्पणी: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गये स्थान का उपयोग कीजिए।
ख) अपना उत्तर इकाई के अंत में दिये गए उत्तर से मिलाइए।
1) सुकानों की निर्देशात्मक जनतंत्र की अवधारणा को संक्षेप में समझाइए।
2) निर्देशात्मक जनतंत्र की विफलता के प्रमुख तत्व क्या थे? उल्लेख कीजिए।

बोध प्रश्न 2
1) निर्देशात्मक जनतंत्र वस्तुतः मजदूरों, किसानों, विद्वानों, राष्ट्रीय व्यापारियों, सैन्य बलों आदि पेशेवर समुदायों का एक समझौता था। यह समझौता राष्ट्रीय परिषद के रूप में सामने आया । सुकानों इस परिषद का अध्यक था। मंत्रिमंडल आपसी सहायता मंत्रिमंडल के नाम से जाना जाता था जिसमें साम्यवादियों सहित सभी दल के लोग थे। निर्देशात्मक जनतंत्र ने राजनीतिक स्वतंत्रता, बोलने की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता और लोगों के कई अन्य मूलभूत अधिकारों पर प्रतिबंध लगा दिया।

2) क) निर्देशात्मक जनतंत्र ने राष्ट्रपति सेना और साम्यवादियों (पी के आई) को मजबूत किया ।
ख) इन संस्थाओं के उद्देश्यों में कोई समानता नहीं थी। ये सभी सत्ता प्राप्त करने में उत्सुक थे।
3) निर्देशात्मक जनतंत्र ने संसदीय जनतंत्र की खामियों को दूर करने का प्रयत्न किया, पर इसमें उसे असफलता हाथ, लगी। इसके स्थान पर कई खामियां पैदा हो गयीं।
4) इंडोनेशियाई राजनीति में सेना प्रमुख शक्ति के रूप में उभरी।
5) पी के आई को सत्ता का स्वाद मिल गया था।

सैन्य सत्ता रू नयी व्यवस्था का उदय
1965 के फौजी तख्ता पलट के बाद नाटकीय ढंग से घटनाएं घटीं और इंडोनेशियाई राजनीति में एक नये काल की शुरुआत हुई। सुहातों और उसकी सेना के नेतृत्व में घटी यह घटना मानव इतिहास की एक बहुत बड़ी त्रासदी थी। सेना ने सत्ता.पर अधिकार जमाने और अपनी स्थिति सदृढ़ करने के लिए बड़े पैमाने पर संगठित रूप से नरसंहार किया और ‘‘स्थायित्व और व्यवस्था‘‘ कायम की। पश्चिमी शक्तियों और विद्वानों ने इस घटना का स्वागत किया और इसे बढ़ावा दिया क्योंकि इससे तीसरी दुनिया के देशों के शोषण का मार्ग प्रशस्त हुआ । प्रसिद्ध मानवतावादी स्वर्गीय बर्टेन्ड रसेल ने इस घटना पर बेहद अफसोस जाहिर किया और अपनी पीड़ा व्यक्त की। इस नरसंहार पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने टिप्पणी की ‘‘चार सालों में इंडोनेशिया में जितने आदमी मरे उनकी तादाद बारह सालों में वियतनाम में मरने वालों से पांच गुणा ज्यादा थी।’’ पर रसेल अपवाद थे, इंडोनेशिया की त्रासदी पश्चिमी देशों के लिए एक खुशी का अवसर था। टाइम पत्रिका ने इस नरसंहार को ‘‘पश्चिम के लिए एशिया संबंधी सर्वोत्तम समाचार‘‘ के रूप में परिभाषित किया।

1965 के सैनिक विद्रोह के तत्कालीन कारण के बारे में अभी भी रहस्य बना हुआ है और अभी भी यह तथ्य इतिहास की पर्त में दबा हुआ है कि इस घटना के लिए कौन जिम्मेदार था, जिसने सारे देश को हिला कर रख दिया। सेना की भूमिका को सही परिप्रेक्ष्य में देखने के लिए यह जानना आवश्यक है कि देश की राजनीति में इसकी स्थिति क्या थी। 30 सितंबर 1965 को पी के आई के समर्थक जावाई जूनियर सेना पदाधिकारियों का असंतोष प्रकट हुआ और लेफ्टिनेंट कर्नल उन्तुंग के नेतृत्व में सेना के एक हिस्से ने विद्रोह कर दिया। सेना प्रमुख यानी सहित सेना के छह जनरलों को मौत के घाट उतार दिया गया । नासुटिअन, जो अब प्रतिरक्षा मंत्री बन चुका था, पर भी हमला हुआ पर उसे हल्की-फुल्की चोट लगी और उसकी जान बच गयी। चीजें काफी गडगड हो गयी, पर मेजर जेनरल सुहातों ने स्थिति संभाल ली और उसने इस विद्रोह को सफलतापूर्वक दबा दिया। नासुटिअन के बाद सुहार्तो सबसे वरिष्ठ सेनाध्यक्ष के रूप में जीवित रह सका था। सेनानायकों ने आरोप लगाया कि वह पी के आई विद्रोह का मुख्य संचालक था । सुकार्नो अपने राष्ट्रीयता, धर्म और साम्यवाद के सिद्धांत की सहायता से विद्रोह पूर्व स्थिति कायम न कर सका और दलों के बीच पहले की एकजुटता कायम नहीं हो सकी। इसके अलावा सुकानों ने अंतुग विद्रोह और छह सेनाध्यक्षों की हत्या के लिए पी के आई को जिम्मेदार मानने से इंकार कर दिया । सुहार्तो और उसकी सेना ने इसका उपयोग किया और इस्लामी समुदाय से मिलकर धीरे-धीरे सुकानों की शक्ति पर अंकुश लगाना शुरू कर दिया। इस्लामी समुदाय को निर्देशात्मक जनतंत्र के आखिरी सालों में अहमियत नहीं दी गयी थी । इसके साथ-साथ सेना ने पी के आई के खिलाफ जेहाद छेड़ दिया, इसके सदस्यों को हिरासत में ले लिया और इस्लामी समुदायों तथा स्थानीय गैर साम्यवादियों को बढ़ावा देना शुरू किया ताकि साम्यवादियों को समूल नष्ट किया जा सके। नयी व्यवस्था के तहत साम्यवादी दल के समर्थकों और उससे सहानुभूति रखने वाले हजारों लोगों की हत्या की गयी। इसमें निर्दोष लोग भी मारे गये।

छात्रों ने कभी खुद के बल पर और कभी सेना के बढ़ावे पर सुकानों के पतन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। सुकानों पर दबाव डाला गया कि वह यह बताए कि विद्रोहियों से उसका संबंध क्या है।

11 मार्च 1966 को स्थिति अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गयी जब सुहार्तों ने सुकार्नाें से सत्ता हथिया ली। उसका तर्क था. कि उसने देश को राजनीतिक अस्थिरता से बचाने के लिए ऐसा किया। उसने इस तर्क का उपयोग सत्ता हथियाने के लिए किया और लेजिस्लेटिव एसेंबली के अंदर और बाहर ऐसा माहौल बनाया कि सुकार्नाें को हटाना आसान हो गया। 12 मार्च 1967 को सुहार्तो कार्यवाहक राष्ट्रपति बना और एक साल के बाद 27 मार्च 1968 को देश का राष्ट्रपति बन बैठा। उस समय तक लगभग सभी प्रमुख संस्थानों से पी के आई समर्थकों और सुकार्नाें से किसी भी प्रकार का संबंध रखने वालों को निकाल बाहर कर दिया गया।

सुकार्नो और सुहार्तो के शासन काल की कुछ समानताएं भी है। दोनों ने एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करने की कोशिश की जो ऊपर से निर्मित, संचालित, निर्देशित और आरोपित थी। दोनों ने दलों की गतिविधियों पर अंकुश लगाया और सरकार में उठने वाले विरोधी स्वरों को दबाकर प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया तथा अपने विरोधियों को कैद कर लिया । सुकार्नों ने मसजूमी पर प्रतिबंध लगाया और सुहातों ने साम्यवादियों पर अंकुश लगाया। दोनों की राजनीति की एक ही शैली थी, दोनों दो दलों को एक-दूसरे के खिलाफ भड़काते रहते थे । इसके साथ-साथ दोनों के बीच कुछ महत्वपूर्ण असमानताएं भी थीं। सुकानों की अपेक्षा सुहातों की सरकार अधिक अधिनायकवादी, कठोर और दमनात्मक थी। नयी व्यवस्था की स्थापना के क्रम में साम्यवादियों और तथाकथित साम्यवादियों को नियोजित ढंग से मारा गया और अन्य विरोधी समुदायों को दमनात्मक तरीकों से चुप कराया गया। बड़ी संख्या में लोगों को बंदी बनाया गया। लोगों को बंदी बनाना रोजमर्रा की घटना हो गयी। लोगों से पूछताछ की जाती थी, अत्याचार और दमन किया जाता था। इन सबसे सुहार्तो की नियत स्पष्ट थी। वह दमन और अत्याचार के बल पर और अपने विरोधियों को धमकाकर और चुप कराकर सत्ता हासिल करने में विश्वास रखता था।

नयी व्यवस्था की स्थापना के साथ-साथ समाज और राज्य तंत्र पर पूरी तरह सेना का नियंत्रण हो गया। संसदीय प्रजातंत्र की समाप्ति के बाद पांचवे दशक के अंत में जो गैर साम्यवादी दल इधर-उधर बिखरे पड़े थे उसे सुहाों ने धीरे-धीरे समाप्त करना शुरू कर दिया। सेनानायकों ने अधिकांश दलों को अपने पुराने पदाधिकारियों को हटाने पर मजबूर कर दिया और उन्हीं लोगों को शामिल करने की इजाजत दी जो शासन के प्रति वफादार हों। सुकानों के साथ निकट का ‘‘संबंध होने के कारण पी एन आई पर यह कहर ज्यादा टूटा। 1966 में साम्यवादियों और सुकानों के अनुयायियों पर सेना का आक्रोश ज्यादा व्यक्त हुआ और 1970 और 1980 के दशक में सभी दलों को दबाया गया। 1970 के दशक में सभी दलों को दो दलों क्रमशः पी पी पी (इस्लामिक विकास दल) और पी डी आई (इंडोनेशिया प्रजातंत्र दल) में मिला दिया गया। इसके साथ-साथ सेना प्रशासन को नागरिक जामा पहनाने के लिए राज्य समर्थित गोलकर दल का निर्माण किया गया।

राज्य के सभी कर्मचारियों को इसका सदस्य बनना था। इस प्रकार चुनावों में अन्य दो दलों पर इसकी विजय निश्चित थी।ये चुनाव बड़ी सावधानी और योजनाबद्ध ढंग से कराये गये ताकि सुहातों की नयी व्यवस्था और सुहार्तो के शासन को वैधता प्राप्त हो सके।

1970 के बाद समग्ररूप से इंडोनेशियाई समाज पर और खासकर प्रशासन तंत्र पर सेना का नियंत्रण कड़ा होने लगा। इस प्रक्रिया को सही ठहराने के लिए तर्क दिया गया कि प्रथम पंचवर्षीय योजना के लक्ष्य को पूरा करने के लिए पूर्ण रूप से प्रशिक्षित लोग ही संसाधन जुटा सकते हैं। अगर इंडोनेशिया को विकास करना है तो नागरिक और सैनिक नौकरशाही और तकनीकी विशेषज्ञों के समूह को अधिक शक्ति दी जानी चाहिए। दूसरे शब्दों में, आधुनिकीकरण और विकास के नाम पर सुहार्तो सरकार ने कुछ लोगों के हाथ में सत्ता के केंद्रीकरण को उचित ठहराने की कोशिश की। जुलाई 1971 में इस प्रक्रिया को दूसरे राष्ट्रव्यापी चुनाव (सैनिक शासन का पहला चुनाव) द्वारा आगे बढ़ाया गया। आरंभ में सुहार्तो द्वारा चुनाव कराने के फैसले को राजनीतिक दल अपनी जीत मानने लगे थे, पर उनकी आशा शीघ्र ही धूमिल हो गयी। सैनिक प्रशासन ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे किसी भी स्थिति में सत्ता छोड़ने नहीं जा रहे हैं। 460 सदस्यों के सदन में सौ सदस्य सैनिक शासन द्वारा मनोनीत होने थे। इसके अलावा सेना ने चुनावों में अपनी विजय सुनिश्चित कर ली थी। सबसे पहले उन लोगों को मताधिकार से वंचित किया गया जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 30 सितंबर 1965 की तख्ता पलट कार्यवाही में शामिल थे। पी के आई के भूतपूर्व सदस्यों, मसजूमी, पी आई तथा अन्य प्रतिबंधित संगठनों को मत देने और चुनाव में खड़े होने का भी अधिकार नहीं था। इसके अलावा सैनिक शासन ने गोलकर नाम का एक दल भी बना लिया था, जिसमें सभी प्रकार के लोग शामिल थे। इसमें कामकाजी लोग, हित समूह, मजदूर यूनियन, युवा, अनुभवी और महिलाओं का समूह भी शामिल था। इस चुनाव में मतदाताओं पर स्थानीय सैनिक कमांडरों और प्रशासनिक अधिकारियों का पूरा दबाव था । इस परिस्थिति में गोलकर 75 प्रतिशत सीटें जीतकर विजयी हुआ। सेना में कई प्रकार का पुनर्गठन कर सुहार्तो ने सेना में अपनी स्थिति मजबूत की। पहले इंडोनेशिया सत्रह क्षेत्रीय कमांड में बंटा हुआ था और प्रत्येक क्षेत्रीय कमांडर के पास सेना को आगे-पीछे करने और अन्य सैन्य गतिविधियों की पूरी छूट थी। इस व्यवस्था के कारण पिछले दिनों में ये कमांडर काफी शक्तिशाली हो गये थे और युद्ध के समय अपने आप में एक राजा होते थे। नयी व्यवस्था में सेना को मुख्य रूप से क्षेत्रीय वर्गों में विभक्त किया गया और नये सेनाध्यक्षों को सीधे प्रतिरक्षा मंत्री के नियंत्रण में रहना था। प्रतिरक्षा मंत्री सुहार्तों का अपना आदमी होता था। उसका सेना और हथियारों पर पूर्ण अधिकार होता था। सुहार्तों को यह भी निश्चित करना था कि सैनिक जिस प्रकार सामाजिक राजनीतिक कर्तव्य निभा रहे हैं, उनपर भी उसका सीधा नियंत्रण हो। इससे सरकार और विभिन्न एजेंसियों पर राष्ट्रपति को नियंत्रण बनाए रखने में सुविधा रहती थी। निर्देशात्मक जनतंत्र में थल सेना, नौ सेना और वायु सेना के कमांडरों को मंत्रिमंडल में स्थान दिया जाता था। सुहार्ताें ने यह व्यवस्था समाप्त कर सेनानायकों के पर कतर दिए। अब से सेनानायक प्रतिरक्षा मंत्रालय के तहत काम करने लगे। सेना का पुनर्गठन कर सुहार्तों ने विभिन्न सैन्य दलों के कार्य को केन्द्रीकृत कर दिया, अभी तक ये अलग-अलग कार्य कर रहे थे। केन्द्रीकृत करने के बाद उन पर नियंत्रण स्थापित करना आसान हो गया।

सुहार्तों सरकार ने सरकारी तंत्र के सैन्यकरण, प्रशासनिक परिवर्तन, प्रशासनिक सुधार आदि द्वारा समाज पर अपना नियंत्रण मजबूत किया। पहले की नौकरशाही विजातीय, टूटी-फूटी और दुराग्रही थी अब उसे नियंत्रण स्थापित करने का एक कारगर औजार बना दिया गया। जासूसी सेवा और जाल चारों तरफ फैला दिया गया, इससे भी सरकार अपने आलोचकों को डरा सकी और चुप करा सकी। डर से लोग राजनीतिक रूप से निष्क्रिय हो गये । राजनीतिक दलों की कमजोरियों के कारण सैनिक शासन ने सरकार के प्रमुख पदों (राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तरों पर) पर सैनिक अधिकारियों को पदासीन कर अपनी स्थिति मजबूत कर ली।

इंडोनेशिया समाज के हर पहलू पर अपना नियंत्रण मजबूत करने के लिए सुहार्तो सरकार ने राजनीतिक तकनीकों के अलावा आर्थिक उपलब्धियों को आधार बनाने पर जोर दिया। निर्णय प्रक्रिया में राजनीतिक रूप से शामिल होने से जनता को यह कहकर अलग कर दिया गया कि राजनीतिक प्रतियोगिता से अव्यवस्था और अस्थिरता आएगी और इससे सरकार के आर्थिक सुधार और आधुनिकीकरण के कार्यक्रम में बाधा पहुंचेगी। व्यावहारिक रूप में सब कुछ खुद करने की स्वतंत्रता से एक प्रकार की निरंकुशता सामने आयी।

सुहार्तों के करीबी लोग आर्थिक विकास के उद्देश्य और तरीके मनमाने ढंग से तय किया करते थे। सुहार्तों और उसके योजनाकार यह मानकर चले थे कि राष्ट्र के निर्माण में जनता की कोई भूमिका नहीं होती है। उनकी सहमति असहमति से कोई फर्क नहीं पड़ता है। वे यह भी मानते थे कि यदि राजनीतिक शक्तियों को बोलने का मौका दिया जाए तो वे ‘‘अनावश्यक‘‘ रूप से समाज में लाभ के वितरण और बंटवारे की बात करने लगेंगे। इस प्रक्रिया में योजनाकार यह भूल गये कि आर्थिक विकास राष्ट्रीय विकास का एक हिस्सा मात्र है। जनतंत्र, राष्ट्रीय निर्माण और सामाजिक न्याय आदि सामाजिक विकास के कुछ अन्य पहलू हैं। केवल आर्थिक पक्ष पर जोर देने से यह खतरा बराबर मंडरा रहा था कि निकट भविष्य में इंडोनेशिया में कुछ गंभीर राजनीतिक या सामाजिक संकट उठ खड़ा होगा।

इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि सुहार्तो के शासनकाल में अभूतपूर्व आर्थिक प्रगति हुई। सुहाों द्वारा राज्य सत्ता संभालने के पहले आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। मुद्रास्फीति अपनी चरम सीमा पर थी, सड़कों, रेल मार्गों और जहाजरानी सुविधाओं की स्थिति चिंताजनक थी। विदेशी कर्ज के बोझ से देश दबा हआ था। देश के अर्थशास्त्रियों, नियोजकों और तकनीकी विशेषज्ञों (जिनका पश्चिमी देशों में मान था) की सहायता से सुहार्तो सरकार ने कर्ज अदायगी को व्यवस्थित और समयबद्ध करने की कोशिश की और पश्चिम तथा जापान से लंबी अवधि के कर्ज और निवेश प्राप्त किए । परिणामस्वरूप कुछ वर्षों के भीतर सरकार मुद्रास्फीति रोकने, यातायात और संचार में सुधार लाने, उत्पादन बढ़ाने और तेल, खनिज तथा लकड़ी के निर्यात बढ़ाने में अभूतपूर्व सफलता हासिल की। पर एक बात ध्यान देने की है कि यह विदेशी अनुदान और निवेश 70 के दशक के तेल बाजार में उफान पर आधारित था । यह विकास आंतरिक संसाधन के विकास पर नहीं आधारित था और इसमें बढ़ते भ्रष्टाचार को भी रोकने की कोशिश नहीं की गयी । इसके परिणामस्वरूप सेनानायकों के एक धनी वर्ग का उदय हुआ। इन्होंने चीनी समुदाय के साथ मिलकर कई प्रकार के व्यापारिक प्रतिष्ठान खोले। चीनी सेनानायकों को व्यापार करने में सहायता प्रदान करते थे और सेनानायक स्थानीय इंडोनेशियाई लोगों से उनकी रक्षा करता था। हालांकि विकास का रस नीचे के तबके तक रिस कर पहुंचा पर अमीर और गरीब की व्यापक खाई पट नहीं सकी। सुहार्तों द्वारा स्थापित नयी व्यवस्था में अमीर और गरीब, सेना और नागरिक, शहरी और देहाती इलाकों और भूमिपतियों और सरकारी कर्मचारियों तथा कृषक समुदाय के बीच का अंतर बढ़ता चला गया। इसके कारण शहर और देहात में रहने वाले राजनीतिक रूप से जागरूक लोगों में असंतोष का भाव पैदा हुआ।

नवीनीकरण की प्रक्रिया और इंडोनेशिया में सैनिक शासन
अभी इंडोनेशिया एक नये राजनीतिक चरण से गुजर रहा है। सुहार्तों के शासन के 27 वर्ष पूरे हो गये हैं। इसके 1945 के अधिकांश समर्थक (क्रांतिकारी राष्ट्रवादी समूह जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए डचों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी) या तो अवकाश प्राप्त कर चुके थे या मर गये थे। उत्तराधिकार और व्यवस्थित ढंग से राजनीतिक बदलाव का मुद्दा महत्वपूर्ण होता जा रहा था । यह मुद्दा इतना महत्वपूर्ण हो गया था कि पिछले कुछ वर्षों से राष्ट्रपति सुहातों बार-बार 45 की पीढ़ी के अभिजातकाल में एक नये नेतृत्व के विकास की बात कर रहा था। पिछले दशक के दौरान इंडोनेशिया में यह राजनीतिक मुद्दा और गतिविधि सर्वोपरि रहा कि नयी पीढ़ी को शक्ति कैसे हस्तांतरित की जाए कि शासक वर्ग को उससे फायदा हो। इंडोनेशिया सैन्य सोपानक्रम में नयी पीढ़ी के लोग शामिल कर लिए गये हैं, अभी सत्ता का हस्तांतरण धीमी गति से किया जा रहा है और सत्ता की बागडोर अभी भी सुहातों और 1945 की पीढ़ी के उसके सहयोगियों के हाथ में है।

अभी कोई ऐसा लक्षण नहीं दीख रहा है कि राष्ट्रपति सुहार्तो अपना पद छोड़ देंगे और इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि 1993 में जब उनकी कार्य अवधि समाप्त होगी तो वे फिर चुनाव में खड़े होंगे। वर्तमान नेतृत्व जब पूरी तरह आश्वस्त हो जाएगा कि नये नेतृत्व में भी यथास्थिति बनी रहेगी तब तक वे गद्दी नहीं छोडेंगे। वस्तुतः देश में नियोजित । और व्यवस्थित ढंग से परिवर्तन की तैयारी का पहला चरण अस्सी के दशक के मध्य में ही शुरू हो चुका था और सैन्य बल का पुनर्गठन किया गया और नये लोगों को जिम्मेदारियां सौंपी गयीं, यह प्रयास 80 के दशक के उत्तरार्द्ध और 90 के दशक के आरंभ तक चलता रहा । इस प्रक्रिया को तेज करने के लिए सरकार ने प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों पर नियंत्रण कड़ा किया, इसके लिए कानून बनाया ताकि उत्तराधिकारी आसानी से सत्ता संभाल सके । यह कानून इस उद्देश्य से भी बनाया गया ताकि सरकार के मूल आदेशों का पालन हो । हाल के वर्षों में नयी व्यवस्था शासन ने उग्रवादी इस्लाम और साम्यवाद के दबाव से राजनीतिक यथास्थिति को बचाए रखने के लिए पंचशील के सिद्धांत को अपना लिया है। सुकानों ने ही मूलतः राज्य की विचारधारा के रूप में पांच सिद्धांतों को सामने रखा था। ये हैं: भगवान में विश्वास, राष्ट्रवाद, अंतर्राष्ट्रवाद, राजनीतिक और आर्थिक प्रजातंत्र । शासन को ऐसा प्रतीत हुआ है कि राजनीतिक इस्लाम उसके अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है और उसने इस्लामी राजनीतिक दलों और संस्थाओं पर रोक लगानी शुरू कर दी। सभी जन संगठनों, राजनीतिक, व्यावसायिक या सांस्कृतिक दलों को एक मात्र विचारधारा के रूप में पंचशील को स्वीकार करने पर मजबूर किया गया। इस प्रकार सरकार धार्मिक संगठनों से लेकर मजदूर संगठनों तक सभी प्रकार के संगठनों और संस्थाओं पर कड़ा नियंत्रण रखने में सफल रही।

बोध प्रश्न 3
टिप्पणी: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गये स्थान का उपयोग कीजिए।
ख) इकाई के अंत में दिये गए उत्तरों से अपना उत्तर मिलाइए।
1) इंडोनेशियाई राजनीति में सेना की भूमिका को संक्षेप में समझाइए।
2) नयी व्यवस्था और इंडोनेशिया की राजनीति में इसके प्रभाव पर प्रकाश डालिए।

बोध प्रश्नों के उत्तर

बोध प्रश्न 3
1) क) अधिनायकवादी शासन की स्थापना ।
ख) वामपंथी और जुझारू ताकतों का खात्मा ।
ग) सेना में राजनीतिज्ञों को उनकी भूमिका निभाने से रोका।
घ) नागरिक राजनीतिक संस्थाओं का उदय मुश्किल हो गया।
2) क) राजनीतिक स्थिरता।
ख) आर्थिक स्थिरता।
ग) गरीब अमीर के बीच खाई बढ़ी।
घ) विरोधी स्वर को रोकने का उपाय

 सारांश
पच्चीस वर्षों के अपने शासनकाल में सुहातों को कुछ छिटपुट चुनौतियों का सामना करना पड़ा, पर वह राजनीतिक स्थिरता स्थापित करने में सफल रहा और जनता को बहला-फुसलाकर इंडोनेशियाई समाज के निर्माण की अपनी योजना स्वीकार करवा ली। जिन लोगों ने इसे मानने के इंकार करने की कोशिश की उन्हें डराया-धमकाया गया। कहीं-कहीं असंतोष और असहमति के स्वर उठ रहे हैं । उन्हें आसानी से दबा दिया जा रहा है और वे दरकिनार कर दिए गए हैं । खासकर ‘‘50 की याचिकां‘‘ समूह के कमजोर होने और इस्लामी संगठनों से पंचशील सिद्धांत मनवा लेने के बाद सुहार्तों की सरकार को निकट भविष्य में कोई खतरा नहीं है। (50 की याचिका समूह सुहार्ता के नेतृत्व को खुलेआम चुनौती देने वाला अकेला समूह है। इसके अधिकांश सदस्य सुहातों के भूतपूर्व मित्र थे, जिन्होंने नयी व्यवस्था की स्थापना में सहायता प्रदान की थी। पर उनका विश्वास हो चला था कि जिस आदर्श के लिए नयी व्यवस्था की स्थापना की गयी थी, वह उन आदर्शों की अनदेखी कर रहा है। इसे ‘‘50 की याचिका’’ समूह नाम से इसलिए जाना जाता है क्योंकि 50 लोगों ने याचिका द्वारा सुहातों के नेतृत्व की वैधता को चुनौती दी थी।) सांस्थानिक ढांचे को इस प्रकार निर्मित किया गया कि वे यथास्थिति बनाए रखने में सहायक हो। भविष्य की अनिश्चितता से बचने के लिए स्थायित्व की जरूरत थी। हालांकि नयी व्यवस्था के तहत राजनीतिक संस्थानीकरण के लक्षण मिलते हैं, पर इस राजनीतिक व्यवस्था के टिकने के पीछे सुहार्तो की कूटनीतिक दक्षता का विशेष हाथ है। जहां व्यक्ति ही सब कुछ हो ऐसी राजनीतिक व्यवस्था में बराबर । अनिश्चितता बनी रहती है।

सुहार्ताें शासन के विरोधियों के दो प्रमुख तत्व हैं। पहला लोकप्रियतावादी स्वर है जो मुस्लिम समुदायों और कुछ प्रगतिशील लोगों का स्वर है और दूसरा परिष्कृत स्वर जो उदारवादी पेशेवर लोगों की तरफ से उठता रहता है। ये काफी प्रतिष्ठित लोग हैं। इस्लामी विपक्ष अपने रूप और अंतर्वस्तु में तीव्र साम्राज्य-विरोधी है, और बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पूंजीवादी विकास का मुखालिफ है । वह खासकर इस विचार का विरोधी है कि इंडोनेशिया को हर समय हर बात में पश्चिम की नकल करनी चाहिए। दूसरी तरफ उदारवादी आलोचक इंडोनेशियाई पूंजीवादी और आधुनीकरण के स्वरूप और गति से संतुष्ट थे, पर वे चाहते थे कि भ्रष्टाचार कम हो, एकाधिकार कम हो, भाई-भतीजावाद कम हो और सैन्य विशेषाधिकार कम हो। वे यह भी चाहते थे कि सरकार और अच्छी तरह कार्य करे।

विभिन्न इस्लामी दल और कुछ जुझारू बुद्धिजीवी अपने-अपने कारणों और नजरिए से जनवाद को हवा देने की कोशिश कर रहे थे, पर जनता में अभी सुहार्ताें से टक्कर लेने की हिम्मत नहीं प्रतीत होती है। इसलिए अभी से सुहार्तो के खिलाफ जाने की स्थित में नहीं हैं। फलतः वे इन तत्वों से दूर रहने में ही अपनी कुशलता समझते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में ऐसा नहीं लगता कि निकट भविष्य में सुहातों की सरकार को किसी प्रकार के खतरे का सामना करना पड़ेगा। अगर कोई बदलाव आएगा तो अधिक से अधिक यही होगा कि सुहातों के स्थान पर कोई अन्य सैनिक अधिकारी नेतृत्व संभालेगा । नया आने वाला व्यक्ति जनता के प्रति और राजनीतिक बदलाव के लोकप्रिय मांग के प्रति सहानुभूति भी रख सकता है या सुहातों से भी कड़ा रुख अपना सकता है। यह सब कुछ परिवर्तन के तरीके पर निर्भर करेगा। अगर नेतृत्व परिवर्तन शांतिपूर्ण ढंग से हुआ तो सुधार और जनता की भागीदार की आशा बलवती होगी। पर अगर यह परिवर्तन हिंसात्मक हुआ, तो दोनों में से कोई आशापूर्ण नहीं होगी।

शब्दावली
क्रांति: उग्र विद्रोह: पुराने सामाजिक आर्थिक ढांचे के स्थान पर नये और प्रगतिशील ढांचे की स्थापना।
अधिनायकवाद: सभी प्रकार के अधिकारों का केंद्रीकरण।
कृषक समुदाय: कृषि में संलग्न सबसे पुरानी सामाजिक इकाई।
अंतर्राष्ट्रवाद: राष्ट्रीयता या प्रजाति के बंधन से ऊपर उठते हुए सभी लोगों की समानता की बात करना।

कुछ उपयोगी पुस्तकें
क्राउच, हेराल्ड, 1976, आर्मी एंड पालिटिक्स इन इंडोनेशिया (इथाका, कार्नेल युनिवर्सिटी प्रेस)
डेहम, बर्नहार्ड, 1968, हिस्ट्री ऑफ इंडोनेशिया इन द टेंवन्टीथ सेंचुरी (लंदन)
फेथ, हरबर्ट, 1968, डिक्लाइन ऑफ कान्स्टीट्यूशनल डेमोक्रेसी इन इंडोनेशिया (इथाका)
घोषाल, बी., 1980, रोल ऑफ मिलिट्री इन इंडोनेशिया (मद्रास, सेंटर फार साउथ ईस्ट एशियन स्टडीज) घोषाल, बालादास, इंडोनेशियन पालिटिक्स, 1955-59, द एमरजेंस ऑफ गाइडेड डेमोक्रेसी
(कलकत्ता, के.पी. बागची एंड कं.)
जेनीकिन्स, डेविड, 1984, सुहार्तो जेनरलस (इथाका, कोरहेल युनिवर्सिटी प्रेस)
लेफर माइकल, 1983, इंडोनेशियास फारेन पालिसी (लंदन, ज्योर्ज एलेन और उनर्विन)
मूडी नवाज, 1987, इंडोनेशिया अंडर सुहाता (नयी दिल्ली, स्टलिंग पब्लिशर्श)

 

Sbistudy

Recent Posts

four potential in hindi 4-potential electrodynamics चतुर्विम विभव किसे कहते हैं

चतुर्विम विभव (Four-Potential) हम जानते हैं कि एक निर्देश तंत्र में विद्युत क्षेत्र इसके सापेक्ष…

2 days ago

Relativistic Electrodynamics in hindi आपेक्षिकीय विद्युतगतिकी नोट्स क्या है परिभाषा

आपेक्षिकीय विद्युतगतिकी नोट्स क्या है परिभाषा Relativistic Electrodynamics in hindi ? अध्याय : आपेक्षिकीय विद्युतगतिकी…

4 days ago

pair production in hindi formula definition युग्म उत्पादन किसे कहते हैं परिभाषा सूत्र क्या है लिखिए

युग्म उत्पादन किसे कहते हैं परिभाषा सूत्र क्या है लिखिए pair production in hindi formula…

6 days ago

THRESHOLD REACTION ENERGY in hindi देहली अभिक्रिया ऊर्जा किसे कहते हैं सूत्र क्या है परिभाषा

देहली अभिक्रिया ऊर्जा किसे कहते हैं सूत्र क्या है परिभाषा THRESHOLD REACTION ENERGY in hindi…

6 days ago

elastic collision of two particles in hindi definition formula दो कणों की अप्रत्यास्थ टक्कर क्या है

दो कणों की अप्रत्यास्थ टक्कर क्या है elastic collision of two particles in hindi definition…

6 days ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now