हिंदी माध्यम नोट्स
मूल्य बोध : भारतीय संस्कृति और मूल्य बोध क्या है ? भारतीय संस्कृति धार्मिक सहिष्णुुता की परिचायक Indian culture and values
Indian culture and values in hindi मूल्य बोध : भारतीय संस्कृति और मूल्य बोध क्या है ? भारतीय संस्कृति धार्मिक सहिष्णुुता की परिचायक ?
भारतीय संस्कृति एवं मूल्ूल्य बोध
भारतीय संस्कृति और मूल्य बोध के परस्पर सह-अस्तित्व पर विचार करना बेहद दुरूह है। कारण यह है कि ‘‘संस्कृति’’ एक अमूर्त अवधारणा है और अपनी अमूर्त व्यापकता में इसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। संस्कृति न आर्थिक, न भौतिक और न आध्यात्मिक होती है, वह एक समग्र प्रक्रिया है। दरअसल, संस्कृति चित्त की खेती है। खेती की तरह चित्त को जोतना-बोना-निराना-सींचना- रखवाली करना, खर-पतवार निकाल कर फेंकना, उसे निरंतर मांजने-संवारते रहना पड़ता है। भारतीय संस्कृति में मानव और प्रकृति दो नहीं हैं, दोनों एक ही हैं। दोनों में अद्वैत है पारस्परिकता का अभेद भाव।
भारतीय संस्कृति की एक नहीं अनेक छवियां हैं, इन छवियों में निरंतर परिवर्तन होते रहे और बाहर की संस्कृतियों का हस्तक्षेप भी कम नहीं रहा। ‘‘भारतीयता’’ की अवधारणा बदलती रही और जिसमें कई मूल्य लुप्त होते गए। भारतीय संस्कृति का उच्चतम मूल्यों से निकट का संबंध है। आध्यात्मिक और भौतिक, नैतिक और सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्यों का आदर्श माॅडल।
भारतीय संस्कृति की मूल्य-बोधी दो धाराओं परस्पर संघर्ष और सहयोग की शक्ति लेकर एक साथ प्रवाहित हुई। द्रविड़ संस्कृति और आर्यों की वैदिक-संस्कृति।
भारतीय संस्कृति में हूण हों, कुषाण हों, कोल-किरात-निषाद हों, सूफी हों, मुसलमान हों कोई भी हों ‘‘अन्य नहीं हैं’’। भारतीय संस्कृति किसी को पराया नहीं रहने देती है, उसका आधार हिंसा और अलगाव नहीं है प्रेम, अहिंसा और बंधुता है। पुरातत्वीय खोजों ने सिंधु घाटी सभ्यता और द्रविड़ संस्कृति में व्यावसायिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के अंतः सूत्रों के संकेत दिए हैं। उत्तर और दक्षिण भारत में आदान-प्रदान के संकेत तमिल के संगम साहित्य में मिलते हैं।
भारतीय संस्कृति और मूल्य-चेतना पर विचार करते हुए हमारे सामने समस्या रहती है कि हम अपनी संस्कृति को ऐतिहासिक खंडों में विभाजित करके देखें क्या? वैदिक-संस्कृति, पौराणिक-आरण्यक संस्कृति, बौद्ध-जैन संस्कृति, रामायण, महाभारत काल की संस्कृति, सूफी और इस्लाम संस्कृति या फिर आध्यात्मिक और भौतिक संस्कृति?
भारतीय संस्कृति में यूरोपीय संस्कृति से संघर्ष और टकराहट का प्रश्न अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। पुर्तगाली, फ्रांसीसी, और अंग्रेज व्यापारियों ने आधुनिक नवजागरण, भाषा-साहित्य के क्षेत्र में सांस्कृतिक प्रभाव छोड़ा। सबसे बड़ी क्रांति शिक्षा में हुई।
प्रश्न उठता है कि भारतीय संस्कृति का असली संकट क्या है? भारत के पश्चिमीकरण या भारतीय स्रोतों के सूखने का संकट? इस समय हमारा देश संस्कृति के सभी क्षेत्रों में एक अभूतपूर्व अराजकता से पिट गया है चाहे वह साहित्य का क्षेत्र हो या कलाओं का क्षेत्र हो, राजनीति-धर्म-अध्यात्म का क्षेत्र हो। सभी क्षेत्रों की रचनात्मकता, अनुवादजीवी, नकलची और पस्त संवेदना वाली परोपजीवी मानसिकता का शिकार है। राजनीतिक नेतृत्व की पतनशीलता और चरित्रहीनता ने नैतिक संवेदना के पवित्रता-जनित विवेक को पश्चिम के हाथों गिरवी रख दिया है और पश्चिमवाद की खुराक पर पलता देश सांस्कृतिक स्मृति-भ्रंश की प्रक्रिया को तेज करने में सक्रिय है। विचारधाराओं का अंत राजनीति में अवसरवाद, जातिवाद और गुंडातंत्र को पाल रहा है। ऐसा पागलपन इन राजनीतिक शक्तियों में पनपा है कि मूल्यों के अंधेपन को ही पहना-ओढ़ा जा रहा है। चिंतन की सृजनात्मकता के नाम पर बंजर अकर्म.यता का आलम है। पश्चिमवाद, पूंजीवाद, सांस्कृतिक नव-साम्राज्यवाद के पीछे घूंघट काढ़े वधू की तरह क्या चल पड़े कि सोचना ही बंद कर दिया, अनुकरणीय बन गए।
एक समय था जब उन्नींसवीं शताब्दी में यूरोपीय भाषाविदों और दार्शनिकों ने भारतीय संस्कृति के अतीत को सराहते हुए उसके वर्तमान को खारिज कर दिया था। लेकिन उस समय भी मैक्समूलर जैसे भारतविदों को यह बोध था कि भारतीय संस्कृति संस्कृत भाषा-साहित्य-मिथक-दर्शन, प्रकृति चेतना में जीवित रही है। संस्कृत से उद्भुत भाषाओं में संवाद का सातत्य है। इस संवाद के सातत्य को जब तक खत्म नहीं किया जाएगा तब तक भारतीय सांस्कृतिक अस्मिता को उसके मूल से नष्ट नहीं किया जा सकता। अन्य सभ्यता-संस्कृतियों की तरह भारतीय संस्कृति म्यूजियम की चीज नहीं रहीं, कभी नहीं रही। उसका प्रवाह जातीय स्मृतियों में या चिंतन परम्पराओं में गतिशील रहा। यह गतिशीलता धूल में तब ध्वस्त हुई जब यूरोपीय मनीषियों की प्रत्ययात्मक क्षमता से प्रभावित होकर भारतीय लोग अपनी भाषा-अस्मिता का अवमूल्यन कर बैठे।
भारतीय संस्कृति धार्मिक सहिष्णुुता की परिचायक
आधुनिक युग में राजनीति, धर्म एवं संस्कृति के उन पहलुओं को आधार बना रही है जो धार्मिक एवं सांस्कृतिक निरक्षरता से ओत-प्रोत हैं। जिस प्रकार अक्षर ज्ञान के बिना मानव दूसरों के अनुभवों, विचारों से अनभिज्ञ रहता है उसी प्रकार यदि सांस्कृतिक साक्षरता नहीं है तो वह न केवल जड़ शून्य है, वह कूपमंडूक भी है और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ जैसे सिद्धांत के प्रति संज्ञाहीन है।
हिंदू धार्मिक एवं बुद्धि जैविक चिन्तन की मुख्य धारा के स्रोत संस्कृत साहित्य में विद्यमान हैं। इस साहित्य में म्लेच्छ अथवा पराकिया जैसे शब्दों का शाब्दिक अर्थ या ‘वह जो स्थानीय नहीं है’। मुसलमान शब्द की अनुपस्थिति इस तथ्य की परिचायक थी कि इस काल के साहित्य में इस्लाम धर्म पर अथवा मुसलमान पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की गई थी।
भारतीय संस्कृति में हिंदू व मुसलमान दोनों की सहभागिता एवं योगदान अभूतपूर्व है। जिस प्रकार दो संस्कृतियों के मध्य आदान-प्रदान हुआ, उसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में भी दो भिन्न धर्मों के अनुयायियों के अंतर्नुभवों के उदाहरण कम नहीं हैं। यही वे अनुभव थे, जिन्होंने सूफी एवं भक्ति परम्पराओं को जन्म दिया। भारत ही विश्व का एकमात्र देश है जहां ये दो विभिन्न परम्पराएं एक-दूसरे में इस प्रकार समा जाती हैं जिस तरह गंगा एवं यमुना की धारा में सरस्वती।
यही भारतीय संस्कृति है जिसने कला जगत में सितार, शहनाई का परिचय विश्व संस्कृति से कराया और भारतीय व्यंजनों का चलन यूरोप और अमेरिका के घरों में बढ़ने लगा। किसी भी क्षेत्र की संस्कृति की परिपक्वता वहां के निवासियों की भावनाओं से प्रेरित होती है, जो अपनी परम्पराओं से जुड़े रहते हैं।
हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन इत्यादि धर्मों के अनुयायी शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की धुरी पर भारतीय संस्कृति को न केवल गतिमान बना, रखे हैं, अपितु इसको सुदृढ़ एवं व्यापक बनाने के प्रयासों में तल्लीन हैं और यही भारत की आध्यात्मिक आत्मा है।
इस देश में लोग चाहे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के मानने वाले ही क्यों न हों किसी भी जाति के प्रतिनिधि क्यों न हों, किसी भी समाज के सदस्य क्यों न हों सभी मिश्रित संस्कृति के साझेदार हैं क्योंकि हिंदू शब्द सम्प्रदाय धर्म अथवा जातिवादी नहीं अपितु राष्ट्रवादी है।
भारत राष्ट्र का बल यही संस्कृति है जिसका उदाहरण उन देशों में दिया जाता है जहां अनेकता में एकता खोजने का प्रयास किया जा रहा है, जहां राष्ट्र की सांस्कृतिक नीति को गढ़ने की प्रक्रिया अनवरत चल रही है ताकि बढ़ते हुए संकीर्णतावाद, धर्मांधता, कट्टरवादिता, धार्मिक उन्माद एवं आतंकवाद संबंधी गतिविधियों पर अंकुश लगाया जा सके।
Recent Posts
मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi
malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…
कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए
राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…
हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained
hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…
तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second
Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…
चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi
chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…
भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi
first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…