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इंडोनेशिया के स्वतंत्रता संग्राम पर निबंध पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए। independence movements in indonesia in hindi
independence movements in indonesia in hindi इंडोनेशिया के स्वतंत्रता संग्राम पर निबंध पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए।
प्रश्न: इण्डोनेशिया के स्वतंत्रता संग्राम पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए।
उत्तर:
1. इण्डोनेशिया 18वीं-20वीं शताब्दी तक हॉलैण्ड का उपनिवेश रहा।
2. भौगोलिक दृष्टि से यहाँ 300 से अधिक द्वीप हैं। इनमें मलक्का, जावा, सुमात्रा, बाली, धोसिया, पापुआ-न्यूगिनी आदि प्रमुख हैं।
3. इंडोनेशिया में राष्ट्रवादी आंदोलन का प्रारम्भ 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ। 1908 में कुछ इसवादिन कट्टपथियों ने राजनीतिक सुधारों के स्विस ष्शिरनत-ए-इस्लामष् नामक दल का गठन किया पर इस दल की अनेक सामाए था। इस कारण यह दल अत्यधिक लोकप्रिय नहीं रहा।
राष्ट्रीय आंदोलन का प्रारम्भ मुख्यतः सुकाों के नेतृत्व में हुआ। 1927 में सकारें राष्ट्रवादी पार्टी के प्रतिनिधि की हैसियत से ब्रुसेल्स गए जहाँ उपनिवेशों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन हो रहा था। जहाँ नेहरू आदि नेताओं के द्वारा अपने राष्ट्रवादी आंदोलन में स्वयं में विस्तृत चर्चा हुई। पर इस समय आंदोलन तीव्र गति नहीं पकड़ पाया। द्वितीय विश्वयुद्ध इण्डोनेशिया के राष्ट्रीय आंदोलन में एक मोड़ बिन्दु सिद्ध हुआ। युद्ध के समय जर्मनी ने हॉलैण्ड पर अधिकार किया। दूसरी ओर जापान ने इसका लाभ उठाकर इण्डोनेशिया पर अधिकार किया। जापान की सरकार ने इण्डोनेशिया में स्थानीय लोगो को उच्च पदो पर नियुक्त किया और डच विरोध आंदोलन को समर्थन दिया। जापान ने इण्डोनेशिया में राष्ट्रवादी आंदोलन को भी समर्थन दिया।
15 अगस्त 1945 द्वितीय विश्वयुद्ध औपचारिक रूप से समाप्त हुआ। 17 अगस्त 1945 इण्डोनेशिया ने अपनी स्वतंत्रता की घोषण कर दी। डॉ. अहमद सुकार्णो इण्डोनेशिया के राष्ट्रपति बने। मु. हट्टा उपराष्ट्रपति बने। इण्डोनेशिया का शासन संचालन करने हेतु 185 सदस्यों की शासन परिषद का गठन किया गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध (1942-45) के बीच यहाँ जापान का अधिकार बना रहा। इस कारण राष्ट्रवादी. आंदोलन अरिबस इंडोनेशियाई स्तर पर नहीं चल पाया। पर द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात् डचों द्वारा इण्डोनेशिया पर पुनः अधिकार कर लिया गया। डचों की पुनर्स्थापना के उपरांत सुका) व डचों के बीच सीधा संघर्ष हुआ। डचों ने सुकाणा एवं राष्ट्रवादी पार्टी को मान्यता देने से इंकार कर दिया। अन्ततः 25 मार्च 1947 को ष्लिंगजात (सिंगापत) समझौताष् हुआ। इसके तहत नीदरलैण्ड एवं इण्डोनेशिया के संघ बनाये जाने की योजना रखी। साथ ही जिन प्रदेशों पर सुकाणों एवं राष्ट्रवादियों का अधिकार था उन्हें इंडिपेंडेंट इंडोनेशिया रिपब्लिक के रूप में मान्यता दे दी गई। किन्तु इस समझौते से दोनों ही पक्ष असंतुष्ट थे। इस कारण राष्ट्रवादियों ने पुनः आंदोलन प्रारम्भ किया। डच सरकार ने दमनात्मक नीति अपनाई। इस कारण दोनों पक्षों के बीच समझौता नहीं हो पाया।
इसी बीच पं. नेहरू द्वारा इंडोनेशिया का प्रश्न यू.एन.ओ. में उठाया गया। साथ ही दिल्ली में एक सम्मेलन किया जिसे ष्नई दिल्ली का प्रस्तावष् कहा जाता है। जिसमें युद्ध समाप्त करने एवं इंडोनेशिया की स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित किया। डचों ने अन्ततः युद्ध समाप्ति की घोषणा की। हेग में इंडोनेशिया के प्रश्न पर गोलमेज वार्ता प्रारंभ हुई। अन्ततः 27 दिसम्बर 1949 को इंडोनेशियो स्वतंत्र घोषित किया गया। 1950 में यह एक गणतंत्र बना तथा सुकार्गों प्रथम राष्ट्रपति बने।
प्रश्न: इण्डो-चाइना में फ्रांसीसी उपनिवेश की स्थापना किस प्रकार हुई ?
उत्तर: द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् स्वतंत्र होने वाले राष्ट्रों में इण्डो-चीन का प्रमुख स्थान माना जाता है। द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व इण्डो-चीन पाँच राजनैतिक व प्रशासनिक खण्डो (भागों) में विभक्त था। कोचीन-चीन (Cochin-China), टोनकिन (Tonkin). अन्नान (Annan), कम्बोडिया (Combodia) व लाओस। कोचिन चीन फ्रांस के सीधे नियंत्रण में था परत टोनकिन, अन्नान, कम्बोडिया व लाओस फ्रांस के संरक्षित राज्य थे।
इण्डो-चीन का क्षेत्रफल 2,86,000 मील था। 1941 में इसकी जनसंख्या 2 करोड़, 40 लाख थी। इनमें 5 लाख चीनी और 42 हजार यूरोपीयं विशेषकर फ्रांसिसी थे। जनसंख्या का अधिकतम घनत्व उत्तर में लाल नदी घाटी व दक्षिण में मीकांग (Mekong) डेल्टा या मीकोंग नदी घाटी था। इण्डो-चीन में दो प्रमुख नगर थे। उत्तर में हनोय (Hanoi) व दक्षिण में साइगोन (Saigon)। इण्डो-चीन में चाय, कॉफी और रबड़ की पैदावार की जाती थी। यहां अपार खनिज संपदा थी जिसके अंतर्गत लोहा, कोयला, जस्ता, टिन, टंस्टन, क्रोमियन, आदि खनिज उपलब्ध थे।
16वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सर्वप्रथम इण्डो-चीन पहुंचने वाले पुर्तगाली थे। इनके पश्चात् डच, स्पेनिश, ब्रिटिश व कुछ समय पश्चात् फ्रांसिसी भी इण्डो-चीन पहुँचे। परंतु प्रारम्भ से ही फ्रांसिसी इस क्षेत्र में सक्रिय रहे। 17वीं शताब्दी के अंत में और 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में बड़ी संख्या में फ्रांसीसी व्यापारी और कैथोलिक पादरी इण्डो-चीन पहुँचे। प्रारम्भ से ही फ्रांसीसी कोचीन-चाइना व अन्नाम क्षेत्र में सक्रिय रहे। 1747 में फ्रांस ने अन्नाम के साथ राजनयिक संबंध किये। इसके अनुसार फ्रांसिसियों को व्यापार करने व धर्म प्रचार करने की अनुमति दे दी गई। 1787 में फ्रांस ने कोचीन-चीन के साथ एक संधि की। इस संधि का श्रेय फ्रांसीसी पादरी पिग्नु-डी-बेहाइन (Pignean-de-Behaine) को दिया जाता है। वह एक धर्म प्रचारक, कूटनीतिज्ञ व एक साहसी योद्धा था। इस संधि के पश्चात् कोचीन-चीन में होने वाले विद्रोह के समय फ्रांस का सहयोग प्राप्त किया गया। इस प्रकार फ्रांसिसियों का कोचीन-चीन पर राजनैतिक प्रभाव स्थापित हुआ और वे निर्भीक होकर धर्म-प्रचार का कार्य करने लगे।
19 शताब्दी के प्रारम्भ में अन्नाम व कोचीन-चीन में फ्रांसिसी पादरियों की गतिविधियां बढ़ी। इसके परिणामस्वरूप द क्षेत्र में इसाई विरोधी आंदोलन हुए। कई स्थानों पर हिंसक वारदातें हुई। फ्रांस की सरकार ने इसका कड़ा विरोध किया। इण्डो-चीन के स्थानीय शासको ने फ्रांसिसी व अन्य यूरोपीय दूतों के आगमन पर प्रतिबंध-लागू किया। फ्रांस के समान नेपोलियन-III ने इण्डो-चीन में फ्रांसिसी-पादरियों के साथ अच्छा व्यवहार करने का प्रस्ताव भेजा। फ्रांस के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस कारण से 1858 में नेपोलियन-प्प्प् ने स्पेन के साथ मिलकर एक नौसैनिक बेड़ा इण्डो-चीन भेजा। फ्रांस व स्पेन ने सामूहिक रूप से इण्डो-चीन में स्थानीय शासकों को एक संधि करने पर मजबूर किया। 5 जून, 1862 में फ्रांस ऽ ने अन्नाम के साथ एक समझौता किया जिसे साइगोन की संधि (Treaty of Saigon) कहते हैं। इस संधि के अनुसार –
(1) टोरेन (Tourane), बालात (Balat), क्यूआंग-आन (Kuang-Aan) तीन बंदरगाह फ्रांस व स्पेन के लिए खोल दिये गये।
(2) अन्नाम पर 40 लाख डॉलर युद्ध का हर्जाना लगाया गया।
(3) कोचीन-चीन के एक बड़े भाग पर फ्रांस का राजनैतिक प्रभुत्व स्थापित किया गया।
(4) इसाई मिशनरियों को धर्म प्रचार की अनुमति दे दी गई।
अगले वर्ष (1863) फ्रांस ने कम्बोडिया को अपना संरक्षित राज्य बनाया। इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण कोचीन-चीन पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। 1873. में फ्रांस ने अपनी सेना टोनकिन भेजी और अगले वर्ष (1874) में इसे भी अपना संरक्षित राज्य बना लिया। 1884 में फ्रांस ने अन्नाम के साथ एक और समझौता किया. जिसके अनुसार अन्नाम ने फ्रांस की संरक्षणता स्वीकार कर ली। अन्नाम राजनैतिक दृष्टि से चीन के मांचू वंश के अधीन था परंतु मांचू वंश के लिए अन्नाम पर अपना प्रभुत्व कायम रखना कठिन था। दूसरी ओर अन्नाम की विदेश नीति पर फ्रांसीसी नियंत्रण भी स्वीकार कर लिया गया। 1893 में फ्रांस ने मेकांग नदी के पूर्वी क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित कर लिया। यह क्षेत्र लाओस का राज्य था। जिसे फ्रांस ने थाईलैण्ड से लिया। इस प्रकार इण्डो-चीन फ्रांसिसी साम्राज्य का अंग बना।
इण्डो-चीन की शासन व्यवस्था
कोचीन-चीन प्रत्यक्ष रूप से फ्रांस के अधीन था। यहां का शासन संचालन के लिए गर्वनर जनरल नियुक्त किये गये। शासन संचालन के लिए एक सिविल सेवा परिषद का गठन किया गया जिसके अधिकांश अधिकारी फ्रांसीसी थे। फ्रांस ने ‘Chamber of Deputies’ नामक सदन में कोचीन चीन को सीमित प्रतिनिधित्व प्राप्त था। परंतु इस प्रतिनिधि का चुनाव केवल फ्रांसिसियों के द्वारा किया जाना था।
शेष स्थानों पर स्थानीय शासकों का शासन था। यहां की देशी रियासतों में फ्रांसीसी रेजीडेंड नियुक्त किया जाता था। फ्रांस ने फ्रांसिसी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया। फ्रांस ने इण्डो-चीन में समाज व संस्कृति पर भी फ्रांसीसी सभ्यता व संस्कृति को थोपने का प्रयास किया। फ्रांस के ईसाई मिशनरियों ने इण्डो-चीन में बड़े पर इसाई धर्म का प्रचार किया। 1920 मे इण्डोचीन में इसाईयो की संख्या 1 लाख 30 हजार हो गई जो जनसंख्या का लगभग 5ः था। फ्रांसिसी उद्योगपतियों ने इण्डो-चीन में बड़े उद्योग स्थापित करने के लिए धन निवेश किया। इस प्रकार लोहा, कोयला, व अन्य बड़े उद्योग स्थापित किये गये। इसके अतिरिक्त चावल और मछली पालन के व्यापार पर चीनी व्यापारियों का नियंत्रण रहा।
प्रश्न: इण्डोचाइना का स्वतंत्रता संग्राम का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर: 1. इण्डो चाइना 19वीं-20वीं शताब्दी में फ्रांस का उपनिवेश रहा।
2. भौगोलिक दृष्टि से इसमें अनेक द्वीप हैं जिनमें तोन्किन, अनाम, कोचीन-चायना, कम्बोडिया और लाओस प्रमुख हैं।
3. इण्डो चायना में राष्ट्रीयता का उदय 20वीं शताब्दी के आरम्भ से ही माना जाता है।
4. जापान द्वारा रूस को पराजित कर दिया तो वहाँ भी राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई।
5. फ्रांस द्वारा 1908 में हनोई विश्वविद्यालय बंद कर दिये जाने के कारण अनेक बुद्धिजीवी निराश हुए लेकिन वे रूसों
व मोंटेस्क्यू के राजदर्शन से प्रभावित थे।
6. प्रथम विश्व युद्ध में फ्रांस द्वारा बुरी तरह शोषण से भी उनमें अपने देश के लिए कुछ कर गुजरने की भावना उत्पन्न हुई।
7. साथ ही चीनी राष्ट्रवादी आंदोलन से भी वे प्रभावित हुए। जिन बुद्धिजीवियों के इनका नेतृत्व किया वे फ्रांसीसी उदारवाद
परम्परा में शिक्षित थे।
किन्तु राष्टीय आंदोलन द्वितीय विश्वयुद्ध तक तीव्र गति नहीं पकड़ सका। इसका सबसे बड़ा कारण था हिन्द-चीन की जनता में एकरूपता (सजातीयता) नहीं थी। राष्ट्रीयता का नेतृत्व अनाम कर रहा था। लेकिन कम्बोडिया व लाओस में .अनामी राष्ट्रीयता प्रवेश नहीं कर पायी, इसके अतिरिक्त अनामी राष्ट्रीयता विभिन्न उद्देश्यों वाली राजनीतिक पार्टियों में . विभक्त हो गई थी। फामप्यून्हाऊ तोन्किन पार्टी स्वतंत्रता की बजाय संवैधानिक सुधार चाहती थी, कम्यूनिस्ट पार्टी सबसे प्रमुख थी अनामी पार्टी जोन्गएन-आई-को के नेतृत्व में जिसकी केन्टन व मास्कों में आस्था थी।
द्वितीय विश्व युद्ध इण्डोचाइना लिए एक वरदान साबित हुआ। 1940-45 के बीच यहाँ जापान का अधिकार बना रहा। इण्डोचाइना की राष्ट्रीयता की भावना फ्रांस से मक्त हो जाने के कारण और उग्र हो गयी। जापान इस देश का चीन के विरुद्ध प्रयोग करना चाहता था। इसलिए 1940 में फ्रांसीसी गवर्नर जनरल से देकू से एक समझौता कर लिया। 1945 में जापान के हट जाने से राष्टवादी देशभक्तों ने राष्टीय स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और अपने को फ्रासांसा आधिपत्य स पर्ण रूप से मक्त कर लिया। सम्राट बाओदाई ने अपना पद त्याग दिया और 2 सितम्बर 1945 को वियतनाम रिपब्लिक का शासन सम्पूर्ण अनाम पर वैद्य रूप से स्थापित हो गया। फ्रांस ने एक फ्रांसीसी फेडरेशन बनाकर इण्डोचाइना को उसमें सम्मिलित करना चाहता था लेकिन राष्ट्रवादी नेता तो पूर्ण स्वतंत्रता चाहते थे।
1946 अन्त में मित्र राष्ट्रों (ब्रिटेन व चायना) की सहायता से फ्रांस ने इण्डोसैगोन पर अधिकार कर लिया तथा उत्तरी इण्डोनेशिया के लिए चायना में प्रवेश पा लिया और राष्ट्रवादियों से भयंकर संघर्ष हुआ। अन्ततः फ्रांस एव वियतनाम सरकार के बीच मार्च 1946 को श्श्हनोई समझौताश्श् हुआ। इसके तहत फ्रांस एवं इण्डोचाइना के संघ बनाए जाने का योजना रखी। साथ ही जिन प्रदेशों पर वियतनाम रिपब्लिक का अधिकार था उन्हें वियतनाम रिपब्लिक के रूप में मान्यता दे दी तथा हनोई एवं सैगोन पर फ्रांस का अधिकार हो गया तथा बीच का सारा भाग वियतनाम सरकार के शासन के अन्तर्गत था। किन्तु इस समझौते से दोनों पक्ष असंतुष्ट थे इस कारण फ्रांस एवं राष्ट्रवादियों में संघर्ष पुनः प्रारम्भ हो गया। हो-ची-मिन्ह व उसके साथियों ने छापामार युद्ध का आश्रय लिया।
फ्रांस ने हो-ची-मिन्ह के विरुद्ध 1948 में निर्वासित सम्राट बारदोई से समझौता कर इण्डोचाइना उसके सुपुर्द कर दिया तथा हो-ची-मिन्ह के विरुद्ध 1 लाख सैनिक दिए। सोवियत रूस व चीन ने हो-ची-मिन्ह की सरकार को मान्यता दे दी थी तो दूसरी ओर अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के बारदोई की सरकार को मान्यता दे दी। इस प्रकार इण्डोचाइना में पूँजीवादी एवं साम्यवादी प्रवृत्तियों के बीच संघर्ष आरम्भ हुआ। यद्यपि इण्डोचाइना को स्वतंत्रता प्राप्त हो गयी थी किंतु वह विदेशियों के चंगुल में फंस गया था।
प्रश्न: समझाइए कि फिलीपीन्स में अमेरिकी साम्राज्यवाद, इण्डोनेशिया और इण्डो-चाइना में यूरोपीय साम्राज्यवाद से किन बातों में भिन्न था ?
उत्तर: प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका द्वारा सीमित मात्रा में ही विश्व राजनीति में दखल दिया गया परन्तु द्वितीय युद्ध के पश्चात् वह
विश्व राजनीति में इतनी तेजी से सक्रिय हुआ कि उसका प्रतिरोध करने वाला अन्य कोई राष्ट्र न बचा। सोवियत रूस के विघटन के बाद यह स्थिति तो और गम्भीर हो गई और विश्व व्यवस्था एक ध्रुवीयता की ओर बढ़ी।
विश्व के विकसित राष्ट्रों के विकास के पीछे उपनिवेशवाद का अस्त्र काम कर रहा था। ब्रिटेन, फ्रांस तथा अन्य यूरोपीय राष्ट्रों द्वारा सम्पूर्ण विश्व में अपना उपनिवेश स्थापित किया गया था तथा उनके शोषण से अपना विकास किया जा रहा था। यूरोपीय राष्ट्रों तथा पूर्वी एशियाई राष्ट्रों जैसे इण्डोनेशिया, इण्डो चाइना, भारत आदि राष्ट्रों पर अपना उपनिवेश स्थापित कर उनका हर तरह से शोषण किया गया।इन यूरोपीय राष्ट्रों द्वारा अपने उपनिवेशों के संसाधनों पर कब्जा कर लिया गया। उनकी विदेश नीति, रक्षा नीति, आदि पर अधिकार करके अपने हितों की पूर्ति की जाती थी। वहां ईसाइयत का प्रचार कर अपनी धार्मिक मान्यताएँ इन राष्ट्रों पर थोप दी जाती थीं। इन राष्ट्रों के बाजार के रूप में परिणत कर उनका अनौद्योगीकरण किया गया और स्वयं का औद्योगीकरण किया गया। जब उपनिवेशवाद के खिलाफ आवाज मुखर हुई तो उनका यह वर्चस्व जाता रहा।
दूसरी तरफ अमेरिका द्वारा पूर्वी एशियाई राष्ट्रों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने हेतु यूरोपीय राष्ट्रों से भिन्न नीतियों का अनुसरण किया गया। अब वाणिज्यवाद के नये चरण की शुरूआत हुई तथा उपनिवेशवाद, जो कि आर्थिक क्रिया कलापों पर आधारित शोषणकारी व्यवस्था थी, का आविर्भाव हुआ। अमेरिका द्वारा फिलीपींस में ऐसी ही नीति का अनसरण किया गया। उसके बैंकिंग व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, व्यापार वाणिज्य पर अपना वर्चस्व कायम किया गया तथा गृह मामलों में दखल देकर आर्थिक नीतियों को अपने हितों के अनुरूप किया गया।
यह अमेरिकी साम्राज्यवाद का नया हथकण्डा था। इससे राष्ट्र के नागरिकों को आभास भी नहीं होता था कि उनका शोषण हो रहा है जिससे विद्रोह की सम्भावना भी कम हो जाती थी।
कहने का तात्पर्य यह है कि अमेरिका द्वारा अपने हितों की पूर्ति हेतु आर्थिक सहायता, सैनिक सहायता तथा अन्य लालचपूर्ण कार्यों के द्वारा इन देशों की नीतियों को स्वार्थ साधन हेतु प्रयोग किया गया। जिससे वह विश्व शक्ति बन सका तथा अपनी दादागीरी का प्रभाव समस्त विश्व के राष्ट्रों पर डालने में सक्षम हो सका।
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