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Categories: history

मेवाड़ का इतिहास (history of mewar in hindi) , mewar ka itihas , raja maharaja , मेवाड़ का मानचित्र

मेवाड़ का मानचित्र , मेवाड़ का इतिहास (history of mewar in hindi) , mewar ka itihas , raja maharaja :-
मेवाड़ का इतिहास (history of mewar) : मेवाड़ भारत देश के राजस्थान राज्य में है।  राजस्थान राज्य का मानचित्र देखे तो मेवाड़ राजस्थान के दक्षिण में केन्द्रीय स्थान पर स्थित है। अर्थात मेवाड़ राजस्थान के दक्षिण-केन्द्रीय भाग में स्थित है। मेवाड़ में वर्तमान समय के भीलवाड़ा , चित्तोडगढ , राजसमन्द और उदयपुर जिले मुख्य रूप से शामिल है।
राजस्थान में राजपूतो के सभी वंशो में मेवाड़ का गुहिल वंश / गहलोत वंश / सिसोदिया वंश सबसे प्राचीन (566 – 1947 ई.) है।
उदयपुर के महाराणा को “हिन्दुआ सूरज” कहते है।
उदयपुर के राज्य चिन्ह में अंकित पंक्तियाँ “जो दृढ राखै धर्म को , तिहीं राखै करतार” है जो मेवाड़ के शासको की धर्मपरायणता को स्पष्ट करती है।
मेवाड़ के प्राचीन नाम : मेवाड को मुख्य रूप से तीन प्राचीन नामों से जाना जाता है –
1. मेदपाट
2. प्राग्वाट
3. शिवीजनपद
राजस्थान राज्य में मेवाड़ का मानचित्र –
इस राजस्थान के मानचित्र (map) में जिस भाग को नीला करके दिखाया गया है वह हिस्सा मेवाड़ को दर्शाता है इसमें देख सकते है कि इसमें मुख्य रूप से भीलवाड़ा , राजसमन्द , चित्तोडगढ और उदयपुर शामिल है और यह राजस्थान के दक्षिण-मध्य में स्थित है।
मेवाड़ पर गुहिल वंश का शासन था।
गुहिल एक राजवंश था और इस गुहिल वंश की स्थापना गुहिल द्वारा 566 ई. में की गयी थी। गुहिल मेवाड़ एक बहुत ही अधिक शक्तिशाली राजवंश था जिसके संस्थापक गुहिल (गुहिलादित्य) ने 566 ईस्वी में की थी। अर्थात गुहिलादित्य द्वारा 566 ई. में मेवाड़ राज्य पर गुहिल वंश की नींव रखी।
गुहिल के पिता का नाम “शिलादित्य” और गुहिल की माता का नाम “पुष्पावती” था।
शिलादित्य गुजरात के “वल्लभी” नामक स्थान के राजा थे।
“मुहता नैणसी” नाम के एक मारवाड़ में दीवान हुआ करते थे जिनकी एक कृति है “नैणसी री ख्यात” है , इसे पता चलता है कि गुहिल वंश की कुल 24 शाखाएं थी। “मुहता नैणसी” ने राजस्थान का अध्ययन करने के बाद अपनी इन कृतियों को लिखा था।
गुहिल वंश की इन 24 शाखाओ में से मेवाड़ , प्रताप और बागड़ शाखाओ को प्रमुख शाखाएं बताया गया है।
इन तीन प्रमुख शाखाओ में से भी मेवाड़ शाखा को सबसे अधिक प्रमुख शाखा बताया गया है।
गुहिलादित्य के बाद 734 ई. में “बप्पा रावल” को गुहिल वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाने लगा।
गुहिल ‘सूर्यवंशी हिन्दू’ राजा थे।
(1) बप्पा रावल या बापा रावल (bappa rawal) : यह “हारित” ऋषि का शिष्य था , 734 ई. में हारित ऋषि के आशीर्वाद से “मान मौर्य” को हराकर बप्पा रावल चित्तोड़ पर अधिकार कर लेता है।
इन्होने ” नागदा ” (उदयपुर) को राजधानी बनाया।
इन्होने नागदा में ‘एक लिंगजी ‘ का मन्दिर बनवाया।
मेवाड़ के राजा खुद को एकलिंगजी का दीवान मानते थे।  बप्पा रावल ने अपने शासन काल में 115 ग्रेन के सोने के सिक्के चलवाए थे।
एक बार गजनी (अफगानिस्तान) के शासक सलीम ने चित्तोड़ पर आक्रमण किया तो बप्पा रावल उसे हराते हुए गजनी (अफगानिस्तान) तक चला गया और उसे गद्दी से हटाकर गजनी (अफगानिस्तान) का राजा अपने भांजे को बनाकर आया।
बप्पा रावल के नाम के कारण ही आज भी पाकिस्तान के एक शहर (जगह) का नाम “रावलपिंडी” है , इस शहर का नामकरण उनके नाम के कारण ही हुआ था।
मराठी भाषा के लेखक और इतिहासकार सी.वी. वैध (Chintaman Vinayak Vaidya) ने बप्पा रावल की तुलना चार्ल्स मार्टेल से की है।
बप्पा रावल की उपाधियाँ (titles of bappa rawal)
इनकी मुख्य रूप से तीन उपाधि है जो निम्न है –
1. हिन्दू राजा
2. राज गुरु
3. चक्कवै
नोट : बप्पा रावल का वास्तविक नाम “काल भोज” था।
2. अल्लट या आलू रावल (Rawal Allat) : इन्होने आहड़ (उदयपुर) को चित्तोड़ की या मेवाड़ की दूसरी राजधानी बनाया।
इसके बाद इन्होने आहड में “वराह” नामक मन्दिर बनवाया है यह वराह मन्दिर भगवान विष्णु का मंदिर है।
अलल्ट ने मेवाड़ में नौकरशाही की व्यवस्था की स्थापना की , अर्थात मेवाड़ में सबसे पहले नौकरशाही व्यवस्था को इन्होने ही शुरू किया था।
अल्लट ने ‘हूण’ राजकुमारी “हरिया देवी  ” से विवाह किया था
3. जैत्र सिंह (jetra singh) (1213-1250) : इनके शासन काल में भुताला का युद्ध हुआ था।
भुताला का युद्ध जेत्र सिंह और इल्तुतमिश के मध्य हुआ था और यह युद्ध लगभग 1234 ई. में हुआ था।
इस भुताला युद्ध में जैत्र सिंह की जीत हुई थी।
लेकिन जब इल्तुतमिश की सेना युद्ध में हारकर लौट रही थी तो उन्होंने रास्ते में नागदा को लूट ले गए थे और इसके कारण जैत्र सिंह ने चित्तोड़ को मेवाड़ की नयी राजधानी बनायी।
भुताला युद्ध की जानकारी जयसिंह सूरी की पुस्तक “हम्मीर मद मर्दन” से मिलती है , इस पुस्तक में इस युद्ध की जानकारी उपलब्ध है।
जैत्र के शासन काल मध्यकालीन मेवाड़ का स्वर्ण काल था।
4. रतन सिंह (1302-1303) (Ratnasimha) :
पिता : समर सिंह
रतन सिंह का छोटा भाई कुम्भकरण नेपाल चला गया था और नेपाल जाकर वहां गुहिल वंश की राणा शाखा का शासन स्थापित करता है।
1303 ई. में अल्लाउदीन खिलजी ने चित्तोड़ पर आक्रमण किया।
अल्लाउदीन खिलजी द्वारा चित्तोड़ पर आक्रमण के प्रमुख कारण निम्न थे –
  • चित्तोड़ का प्रभाव या शक्ति निरंतर बढ़ रही थी।
  • अल्लाउदीन खिलजी की साम्राज्यवादी निति थी अर्थात वह अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था।
  • चित्तोड़ व्यापारिक दृष्टी से और युद्ध की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण था।
  • अल्लाउदीन खिलजी के लिए चित्तोड़ को जीतना प्रतिष्ठा का सवाल था।
  • अल्लाउदीन खिलजी ,  रानी पद्मिनी की सुन्दरता से काफी प्रभावित था।
रानी पद्मिनी या पद्मावती : वह सिंहल द्वीप (श्रीलंका) की राजकुमारी थी।
उनके पिता का नाम “गन्धर्व सेन” था और उनकी माता का नाम “चम्पावती” था।
राघव चेतन ने अल्लाउदीन खिलजी को पद्मिनी की सुन्दरता के बारे में बताया था।
1303 में जब अल्लाउदीन खिलजी ने चित्तोड़ पर आक्रमण किया तो चित्तोड़ में पहला साका हुआ , साका में स्त्रियाँ जौहर करती है और पुरुष केसरियां करते है।
इस साका में रानी पद्मिनी ने 1600 अन्य महिलाओ के साथ जौहर किया और दूसरी तरफ रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया किया गया।
रतन सिंह के सेनापति “गौरा” और बादल थे।
अल्लाउदीन खिलजी ने चित्तोड़ पर अधिकार कर लिया और अधिकार करने के बाद अल्लाउदीन खिलजी ने गुस्से में 30000 लोगो का नरसंहार करवा दिया।
अल्लाउदीन खिलजी ने चित्तोड़ अपने बेटे “खिज्र खान” को सौप दिया और चित्तोड़ का नाम बदलकर अपने बेटे के नाम पर नाम “खिज्राबाद” कर दिया।
खिज्र खान ने ‘गंभीरी नदी’ पर एक पुल का निर्माण करवाया।
खिज्र खान ने चित्तोड़ में एक मकबरे का भी निर्माण करवाया और इस मकबरे पर एक फ़ारसी भाषा में अभिलेख लिखवाया इस अभिलेख में अल्लाउदीन खिलजी को “संसार का रक्षक” और “इश्वर की छाया ” बताया गया है।
बाद में चित्तोड़ का किला “मालदेव सोनगरा” को सौंप दिया गया , मालदेव सोनगरा को “मुंछाला मालदेव” के नाम से भी जाना जाता है।
अमीर खुसरो ने एक किताब लिखी “खजाइन उल फुतूह” या जिसका दूसरा नाम “तारीख ए अलाई” है , इस पुस्तक में वर्णन है कि अल्लाउदीन खिलजी ने राजस्थान में कब और कहा आक्रमण किये अर्थात अल्लाउदीन खिलजी द्वारा राजस्थान के आक्रमणों की जानकारी इस पुस्तक में उपलब्ध है।
हेमरत्न सूरी ने एक पुस्तक लिखी जिसका नाम “गौरा बादल री चौपाई” है , इसमें रतन सिंह के सेनापति गोरा और बादल की बहादुरी के बारे में वर्णन है।
मलिक मुहम्मद जायसी ने 1540 ई. में “पद्मावत” नामक पुस्तक लिखी , यह अवधि भाषा में लिखी गयी है इसमें रानी पद्मावती (पद्मावत) की सुन्दरता के बारे में वर्णन है।
“मुहनौत मैणसी” और जेम्स टॉड ने पद्मावत कहानी को स्वीकार कर दिया था लेकिन “सूर्यमनल मिसण” ने इस कहानी को अस्वीकार कर दिया।
5. हम्मीर सिंह (1326-64) (Hammir Singh) : हम्मीर , बनवीर सोनगरा को हराकर चित्तोड़ पर अपना पुनः अधिकार कर लेता है , हम्मीर सिसोदा (राजसमन्द) गाँव का था इसलिए यहाँ से गुहिल वंश की सिसोदियाँ शाखा के शासन का प्रारंभ हुआ , हम्मीर ने राणा उपाधि का प्रयोग किया।
[रावल उपाधि का प्रयोग करने वाला अन्त्तिम राजा रतन सिंह था। ]
चूँकि हम्मीर ने चित्तोड़ पर पुनः गुहिल वंश का शासन स्थापित किया इसलिए हम्मीर को निम्न उपाधि मिली –
हम्मीर को “मेवाड़ का उद्धारक” कहा जाता है।
कुम्भलगढ़ की प्रशस्ति में हम्मीर को “विषम घाटी का पंचानन” कहा गया है।
राणा कुम्भा की रसिक प्रिया नामक पुस्तक में हम्मीर को “वीर राजा” बताया गया है।
हम्मीर ने चित्तोड़ में “बरवडी माता” के मंदिर का निर्माण करवाया , बरवडी माता को अन्नपूर्ण माता भी कहते है।  बरवडी माता मेवाड़ के गुहिल वंश की इष्ट देवी है और “बाण माता” मेवाड़ के गुहिल वंश की कुल देवी है।
नोट : सिसोदा गाँव की स्थापना “राहप” ने की थी।

6. राणा लाखा (लक्ष सिंह) (Lakha Singh) (1382-1421) : राणा लाखा के पिता का नाम “महाराणा क्षेत्र सिंह ” था। राणा लाखा के शासन काल में मेवाड़ के “जावर (उदयपुर )” नामक स्थान पर चांदी की खान प्राप्त हुई।
इन्ही के शासनकाल में एक बंजारे ने पिछोला झील का निर्माण करवाया।
पिछोला झील के पास ही एक ” नटनी का चबूतरा” बना हुआ है।
“कुम्भा हाडा” नकली बूंदी की रक्षा करते हुए मारा गया था।
राणा लाखा के बड़े बेटे का नाम चुंडा था।
वही दूसरी तरफ उस समय मारवाड़ के राजा का नाम भी चुंडा था जिसकी राजकुमारी ” हंसाबाई ” की शादी राणा लाखा से कर दी गयी।
इस समय लाखा के बेटे चुंडा ने यह प्रतिज्ञा ली कि वह मेवाड़ का अगला राजा नहीं बनेगा बल्कि हंसाबाई का बड़ा बेटा ही मेवाड़ का अगला राजा बनेगा।
और यही कारण है कि चुंडा को “मेवाड़ का भीष्म”  भी कहा जाता है।
चुंडा के इस त्याग के कारण निम्न कुछ विशेष अधिकार दिए गए –

  • मेवाड़ के 16 प्रथम श्रेणी के ठिकानों में से 4 ठिकाने चुंडा को दिए गए और इन चार ठिकानों में सलूम्बर (उदयपुर) भी शामिल था।
  • सलुम्बर का सामंत मेवाड़ की सेना का सेनापति होगा।
  • सलुम्बर का सामन्त मेवाड़ के राजा का राजतिलक करेगा।
  • राणा (राजा) की अनुपस्थिति में राजधानी को सलुम्बर का सामंत ही संभालेगा।
  • मेवाड़ के सभी प्रकार के कागजो पर राजा के अतिरिक्त सलुम्बर के सामंत के भी हस्ताक्षर लिए जायेंगे।
नोट : युद्ध में सेना का जो भाग आगे लड़ता है उसे “हरावल” कहा जाता है जबकि सेना का जो भाग युद्ध में पीछे की तरफ लड़ता है उसे “चंदावल” कहते है।
7. राणा मोकल (1421-1433) (Mokal Singh) : इनके पिता का नाम ‘राणा लाखा’ था और माता का नाम “हंसाबाई” था। इनके दादा का नाम “क्षेत्र सिंह” था।
इनके पहले संरक्षण “चुंडा” थे जो राणा लाखा के बड़े बेटे थे।
बाद में इनके दुसरे संरक्षक “रणमल” थे जो इनके मामा और हंसाबाई के भाई थे।
हंसाबाई का राणा लाखा के बड़े बेटे “चुंडा” पर विश्वास में कमी होने के कारण चुंडा ने मेवाड़ छोड़ दिया और मालवा जाकर रहने लगे।
उस समय मालवा का सुल्तान “होशंगशाह” था।
मोकल द्वारा किये मुख्य कार्य : मोकल ने एक लिंगजी मंदिर का परकोटा (चारदिवारी) बनवाया।
चित्तोड़ में स्थित समद्धेश्वर मंदिर का पुनर्निमाण करवाया।
नोट : पहले समद्धेश्वर मंदिर को “त्रिभुवन नारायण मंदिर” कहा जाता था कालांतर में इसे समद्धेश्वर मंदिर कहा जाने लगा , इस मंदिर का निर्माण “भोज परमार” ने करवाया था।
1433 ई. में गुजरात के शासक “अहमदशाह” ने मेवाड़ पर आक्रमण किया , उस समय “मेरा” , “चाचा” और “महपा परमार” इन तीनो ने मिलकर जिलवाडा (राजसमन्द) में राणा मोकल की हत्या कर दी , ये तीनो मोकल की सेना के व्यक्ति बताये जाते है।
8. राणा कुम्भा (1433-1468) (Rana Kumbha) : इनके पिता का नाम “राणा मोकल ” था और इनकी माता का नाम “सौभाग्यवती” थी। इनकी दादी “हंसाबाई” थी।
इनके संरक्षक “रणमल” थे।  रणमल “हंसाबाई” के भाई थे।
रणमल की सहायता से राणा कुम्भा ने अपने पिता के हत्यारों से बदला लिया।
मेवाड़ के दरबार में रणमल शक्ति का गलत फायदा उठाते हुए रणमल ने सिसोदिया के नेता और चुंडा के छोटे भाई राघवदेव को की हत्या करवा दी।
रणमल को “भारमली” की सहायता से मार दिया गया था क्योंकि रणमल राणा कुम्भा को मारकर खुद राजा बनना चाहता था।
रणमल का बेटा “जोधा” भाग गया और उसने बीकानेर के पास ‘काहुनी’ नामक गाँव में शरण ली।
चुंडा ने राठोड़ो की राजधानी मंडोर (जोधपुर) पर अधिकार कर लिया।
आंवल-बाँवल की संधि : यह संधि 1453 में राणा कुम्भा और जोधा के मध्य हुई थी।  इस संधि के फलस्वरूप ही जोधा को मंडोर वापस दे दिया गया था और “सोजत (पाली)” नामक स्थान को मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा बनाया गया था।
तथा इसी संधि के फलस्वरूप कुम्भा के बेटे “रायमल” की शादी जोधा की बेटी “श्रृंगार कंवर” से की गयी थी।
सारंगपुर का युद्ध : यह युद्ध 1437 ई. में हुआ था , यह युद्ध राणा कुम्भा और महमूद खिलजी के मध्य हुआ था , महमूद खिलजी , मालवा का शासक था।
सारंगपुर युद्ध का कारण : महमूद खिलजी ने राणा कुम्भा के पिता मोकल सिंह के हत्यारों को शरण दी थी।
कुम्भा ने सारंगपुर युद्ध जीत लिया और इसी जीत की याद में राणा कुम्भा ने चित्तोड़ में “विजय स्तम्भ” का निर्माण करवाया।
चाम्पानेर की संधि : यह संधि 1456 में महमूद खिलजी और कुतुबद्दीन शाह के मध्य  गयी।  महमूद खिलजी मालवा का शासक था और कुतुबुद्दीन शाह गुजरात का शासक था।
संधि का कारण : इस संधि का उद्देश्य कुम्भा को हराना था।  अर्थात इस संधि के बाद महमूद खिलजी और कुतुबद्दीन शाह सम्मिलित रूप से होकर कुम्भा को हराना चाहते थे।
बदनौर का युद्ध : यह युद्ध 1457 ई. में हुआ था।  यह युद्ध कुम्भा और महमूद खिलजी और कुतुबद्दीन शाह की सम्मिलित सेना के मध्य हुआ था।
कुम्भा ने इस युद्ध में महमूद खिलजी और कुतुबद्दीन शाह की सम्मिलित सेना को हरा दिया।
कुम्भा ने सिरोही के “सहसमल देवड़ा” को भी युद्ध में हराया।
नागौर के दो भाइयो “शम्स खान” और “मुजाहिद खान” के आपसी युद्ध में कुम्भा ने “शम्स खान” का साथ दिया था और मुजाहिद खान को हराया था।

कुम्भा की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ (Cultural achievements of Maharana Kumbha)

स्थापत्य कला : राणा कुम्भा को राजस्थान की स्थापत्य कला का जनक कहा जाता है।
कुम्भा ने राजस्थान के चित्तोड़ में विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया।
विजय स्तम्भ के अन्य नाम : विजय स्तम्भ को निम्न अन्य नामो से जाना जाता है –
  • कीर्ति स्तम्भ
  • विष्णु ध्वज
  • गरुड़ ध्वज
  • मूर्तियों का अजायबघर
  • भारतीय मूर्तिकला का विश्व कोष
विजय स्तम्भ : यह एक 9 मंजिला इमारत है , विजय स्तम्भ की लम्बाई या ऊंचाई 122 फीट और चौड़ाई 30 फिट है। इसकी आठवी मंजिल में कोई मूर्ति नहीं है और विजय स्तम्भ की तीसरी मंजिल में 9 बार अरबी भाषा में “अल्लाह” लिखा हुआ है।
विजय स्तम्भ के वास्तुकार :इसके वास्तुकार “जैता” , पूंजा , पोमा और नापा थे।
विजय स्तम्भ या कीर्ति स्तम्भ की प्रशस्ति के लेखक : इसकी प्रशस्ति के लेखक “महेश” और “अत्रि” थे।
मेवाड़ महाराणा स्वरूप सिंह ने विजय स्तम्भ का पुननिर्माण करवाया था।
इतिहासकार जेम्स टॉड ने विजय स्तम्भ की तुलना कुतुबमीनार से की थी।
फग्युर्सन ने विजय स्तम्भ (कीर्ति स्तम्भ) की तुलना “टार्जन टावर” के साथ की थी।
विजय स्तम्भ राजस्थान की वह पहली इमारत है जिस पर डाक स्टाम्प जारी किया गया था।
विजय स्तम्भ को और भी अन्य कई जगह प्रतिक चिन्ह के रूप में काम में लिया जाता है जैसे –
प्रतिक चिन्ह : राजस्थान पुलिस , राजस्थान माध्यम शिक्षा बोर्ड , अभिनव भारत।  आदि पर इसका प्रतिक चिन्ह होता है।
अभिनव भारत वीर सावरकर का संगठन था।
नोट : जैन कीर्ति स्तम्भ : यह भी चित्तोडगढ में ही स्थित है।  यह चित्तोड़ में स्थित 7 मंजिला इमारत है।  इसका निर्माण 12 वीं शताब्दी में जैन व्यापारी “जीजा शाह बहोरवाल ” (भगेरवाल जैन) ने करवाया था। यह जैन कीर्ति स्तम्भ भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) को समर्पित है। और यही कारण है कि इसे आदिनाथ स्तम्भ भी कहा जाता है।
नोट : विजय स्तम्भ (कीर्ति स्तम्भ) और जैन कीर्ति स्तम्भ दोनों अलग अलग ईमारत है।
कवि राजा श्यामल दास जी ने एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था “वीर विनोद” , इस वीर विनोद नामक पुस्तक में बताया गया है कि मेवाड़ के 84 किलो में से 32 किले कुम्भा ने बनवाए है।
इन किलो में से कुछ महत्वपूर्ण किले निम्न है –
1. कुम्भलगढ़ (राजसमन्द) : इस किले के वास्तुकार “मंडन” थे।
कुम्भलगढ़ की प्रशस्ति के लेखक ‘महेश’ थे। और इस कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में राणा कुम्भा को “धर्म” और “पवित्रता ” का प्रतिक बताया गया है।
कुम्भलगढ़ को मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी कहते है। कुम्भलगढ़ को मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा प्रहरी भी कहते है। कुम्भलगढ़ के सबसे उपरी स्थान को “कटारगढ़” कहते है और यह कटारगढ़ राणा कुम्भा का निजी आवास था कटारगढ़ को मेवाड़ की आँख भी कहा जाता है क्योंकि कटारगढ़ से सम्पूर्ण मेवाड़ दिखता था।
(2) भोमट दुर्ग : भीलो पर नियंत्रण के लिए कुम्भा ने इस किले का निर्माण करवाया था इसलिए इसे भोमट दुर्ग नाम दिया गया था।
(3) मचान दुर्ग : यह सिरोही में बनाया गया , यह दुर्ग या किला मेर जाति पर नियंत्रण के लिए बनाया गया था इसलिए इसे मचान दुर्ग नाम दिया गया।
(4) बसन्तगढ़ : इस दुर्ग को बासंती दुर्ग भी कहते है।  यह किला सिरोही में बनाया गया था।
(5) अचलगढ़ : यह सिरोही में बनाया गया।  1453 ई. में कुम्भा ने इस किले का पुनर्निमाण करवाया था।
राणा कुम्भा ने तीन स्थानों पर ‘कुम्भ स्वामी मन्दिर’ का निर्माण करवाया था ये तीन स्थान निम्न है –
  • चित्तोडगढ
  • कुम्भलगढ़
  • अचलगढ़
यह कुम्भस्वामी मन्दिर भगवान विष्णु का मंदिर है।
श्रृंगार चंवरी मंदिर (शांतिनाथ जैन मन्दिर) : इस मंदिर का निर्माण कुंभा के कोषाध्यक्ष ‘वेल्का भंडारी’ ने करवाया था , यह जैनों के मन्दिर है।
रणकपुर जैन मन्दिर : यह पाली में स्थित है।  इन मंदिरो का निर्माण 1439 ई. में “धरणक शाह” नामक जैन व्यापारी ने करवया था।  रणकपुर जैन मंदिर में सबसे मुख्य मन्दिर “चौमुखा मन्दिर” है।
चौमुखा मन्दिर में जैन भगवान “आदिनाथ” की मूर्ति है। और इस मन्दिर में 1444 स्तम्भ है और यही कारण है कि इस चौमुखा मन्दिर को स्तम्भों का अजायबघर कहा जाता है।  चौमुखा मन्दिर के वास्तुकार “देपाक” थे।

राणा कुम्भा के शासनकाल में साहित्य

राणा कुम्भा खुद एक संगीतज्ञ था और राणा कुम्भा “वीणा” वाद्य यन्त्र बजाया करते थे।
राणा कुम्भा के संगीत गुरु “सारंग व्यास” थे।
राणा कुम्भा का संगीत में इतना तीव्र ज्ञान था कि इन्होने संगीत पर 5 किताबे लिखी जो निम्न है –
  • कामरा रतिसार : यह पुस्तक सात भाग में है।
  • सुधा प्रबंध
  • संगीत राज : यह पुस्तक 5 भाग में है। (पाठ्य रत्न कोष , नृत्य रत्नकोष , गीत रत्नकोष , रस रत्नकोष और वाद्य रत्नकोष)
  • संगीत सुधा
  • संगीत मीमांशा
कुम्भा द्वारा रचित टीकाएँ : कुम्भा ने निम्न टिकाओ की रचना की –
  • इन्होने चंडीशतक पर टिका लिखी।
  • जयदेव की “गीत गोविन्द” पुस्तक पर “रसिक प्रिय” नामक टिका लिखी।
  • सारंगधर की “संगीत रत्नाकर” पुस्तक पर टिका लिखी।
राणा कुम्भा ने मेवाड़ी भाषा में 4 नाटक भी लिखे थे इसके साथ ही कुम्भा को मराठी और कन्नड़ भाषा का भी ज्ञान था।

राणा कुम्भा के दरबारी विद्वान

राणा कुम्भा के प्रमुख दरबारी विद्वान निम्न है –
1. कान्हा व्यास : कान्हा व्यास ने “एकलिंग महात्म्य” नामक पुस्तक लिखी और इस पुस्तक का प्रथम भाग राणा कुम्भा ने लिखा था , इसके प्रथम भाग का नाम ‘राज वर्णन’ है जिसकी रचना कुम्भा द्वारा की गयी थी।
2. मेहाजी : इन्होने “तीर्थ माला ” नामक पुस्तक की रचना की थी।
3. मण्डन : इन्होने जिन पुस्तकों की रचना की उनमे से निम्न पांच पुस्तके प्रमुख है जो निम्न है –
  • वास्तुसार
  • देवमूर्ती प्रकरण
  • राजवल्लभ
  • रूप मंडन
  • कोदंड मंडन
इनकी पुस्तके मूल रूप से वास्तु कला से सम्बन्धित है , इनकी पुस्तक रूपमंडन का विषय “मूर्ति कला” है तथा कोदंड मण्डन पुस्तक में धनुष निर्माण की जानकारी प्राप्त होती है।
4. नाथा : यह मण्डन का भाई था और इन्होने “वास्तु मंजरी” नामक पुस्तक लिखी थी यह भी मूल रूप से वास्तुकला विषय पर रचित पुस्तक है।
5. गोविन्द : ये मण्डन के बेटे थे और
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