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मेवाड़ का इतिहास (history of mewar in hindi) , mewar ka itihas , raja maharaja , मेवाड़ का मानचित्र
राजस्थान में राजपूतो के सभी वंशो में मेवाड़ का गुहिल वंश / गहलोत वंश / सिसोदिया वंश सबसे प्राचीन (566 – 1947 ई.) है।
उदयपुर के महाराणा को “हिन्दुआ सूरज” कहते है।
उदयपुर के राज्य चिन्ह में अंकित पंक्तियाँ “जो दृढ राखै धर्म को , तिहीं राखै करतार” है जो मेवाड़ के शासको की धर्मपरायणता को स्पष्ट करती है।
(1) बप्पा रावल या बापा रावल (bappa rawal) : यह “हारित” ऋषि का शिष्य था , 734 ई. में हारित ऋषि के आशीर्वाद से “मान मौर्य” को हराकर बप्पा रावल चित्तोड़ पर अधिकार कर लेता है।
इन्होने ” नागदा ” (उदयपुर) को राजधानी बनाया।
इन्होने नागदा में ‘एक लिंगजी ‘ का मन्दिर बनवाया।
मेवाड़ के राजा खुद को एकलिंगजी का दीवान मानते थे। बप्पा रावल ने अपने शासन काल में 115 ग्रेन के सोने के सिक्के चलवाए थे।
एक बार गजनी (अफगानिस्तान) के शासक सलीम ने चित्तोड़ पर आक्रमण किया तो बप्पा रावल उसे हराते हुए गजनी (अफगानिस्तान) तक चला गया और उसे गद्दी से हटाकर गजनी (अफगानिस्तान) का राजा अपने भांजे को बनाकर आया।
बप्पा रावल के नाम के कारण ही आज भी पाकिस्तान के एक शहर (जगह) का नाम “रावलपिंडी” है , इस शहर का नामकरण उनके नाम के कारण ही हुआ था।
मराठी भाषा के लेखक और इतिहासकार सी.वी. वैध (Chintaman Vinayak Vaidya) ने बप्पा रावल की तुलना चार्ल्स मार्टेल से की है।
बप्पा रावल की उपाधियाँ (titles of bappa rawal)
इनकी मुख्य रूप से तीन उपाधि है जो निम्न है –
1. हिन्दू राजा
2. राज गुरु
3. चक्कवै
नोट : बप्पा रावल का वास्तविक नाम “काल भोज” था।
2. अल्लट या आलू रावल (Rawal Allat) : इन्होने आहड़ (उदयपुर) को चित्तोड़ की या मेवाड़ की दूसरी राजधानी बनाया।
इसके बाद इन्होने आहड में “वराह” नामक मन्दिर बनवाया है यह वराह मन्दिर भगवान विष्णु का मंदिर है।
अलल्ट ने मेवाड़ में नौकरशाही की व्यवस्था की स्थापना की , अर्थात मेवाड़ में सबसे पहले नौकरशाही व्यवस्था को इन्होने ही शुरू किया था।
अल्लट ने ‘हूण’ राजकुमारी “हरिया देवी ” से विवाह किया था
3. जैत्र सिंह (jetra singh) (1213-1250) : इनके शासन काल में भुताला का युद्ध हुआ था।
भुताला का युद्ध जेत्र सिंह और इल्तुतमिश के मध्य हुआ था और यह युद्ध लगभग 1234 ई. में हुआ था।
इस भुताला युद्ध में जैत्र सिंह की जीत हुई थी।
लेकिन जब इल्तुतमिश की सेना युद्ध में हारकर लौट रही थी तो उन्होंने रास्ते में नागदा को लूट ले गए थे और इसके कारण जैत्र सिंह ने चित्तोड़ को मेवाड़ की नयी राजधानी बनायी।
भुताला युद्ध की जानकारी जयसिंह सूरी की पुस्तक “हम्मीर मद मर्दन” से मिलती है , इस पुस्तक में इस युद्ध की जानकारी उपलब्ध है।
जैत्र के शासन काल मध्यकालीन मेवाड़ का स्वर्ण काल था।
4. रतन सिंह (1302-1303) (Ratnasimha) :
पिता : समर सिंह
रतन सिंह का छोटा भाई कुम्भकरण नेपाल चला गया था और नेपाल जाकर वहां गुहिल वंश की राणा शाखा का शासन स्थापित करता है।
1303 ई. में अल्लाउदीन खिलजी ने चित्तोड़ पर आक्रमण किया।
अल्लाउदीन खिलजी द्वारा चित्तोड़ पर आक्रमण के प्रमुख कारण निम्न थे –
- चित्तोड़ का प्रभाव या शक्ति निरंतर बढ़ रही थी।
- अल्लाउदीन खिलजी की साम्राज्यवादी निति थी अर्थात वह अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था।
- चित्तोड़ व्यापारिक दृष्टी से और युद्ध की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण था।
- अल्लाउदीन खिलजी के लिए चित्तोड़ को जीतना प्रतिष्ठा का सवाल था।
- अल्लाउदीन खिलजी , रानी पद्मिनी की सुन्दरता से काफी प्रभावित था।
6. राणा लाखा (लक्ष सिंह) (Lakha Singh) (1382-1421) : राणा लाखा के पिता का नाम “महाराणा क्षेत्र सिंह ” था। राणा लाखा के शासन काल में मेवाड़ के “जावर (उदयपुर )” नामक स्थान पर चांदी की खान प्राप्त हुई।
इन्ही के शासनकाल में एक बंजारे ने पिछोला झील का निर्माण करवाया।
पिछोला झील के पास ही एक ” नटनी का चबूतरा” बना हुआ है।
“कुम्भा हाडा” नकली बूंदी की रक्षा करते हुए मारा गया था।
राणा लाखा के बड़े बेटे का नाम चुंडा था।
वही दूसरी तरफ उस समय मारवाड़ के राजा का नाम भी चुंडा था जिसकी राजकुमारी ” हंसाबाई ” की शादी राणा लाखा से कर दी गयी।
इस समय लाखा के बेटे चुंडा ने यह प्रतिज्ञा ली कि वह मेवाड़ का अगला राजा नहीं बनेगा बल्कि हंसाबाई का बड़ा बेटा ही मेवाड़ का अगला राजा बनेगा।
और यही कारण है कि चुंडा को “मेवाड़ का भीष्म” भी कहा जाता है।
चुंडा के इस त्याग के कारण निम्न कुछ विशेष अधिकार दिए गए –
- मेवाड़ के 16 प्रथम श्रेणी के ठिकानों में से 4 ठिकाने चुंडा को दिए गए और इन चार ठिकानों में सलूम्बर (उदयपुर) भी शामिल था।
- सलुम्बर का सामंत मेवाड़ की सेना का सेनापति होगा।
- सलुम्बर का सामन्त मेवाड़ के राजा का राजतिलक करेगा।
- राणा (राजा) की अनुपस्थिति में राजधानी को सलुम्बर का सामंत ही संभालेगा।
- मेवाड़ के सभी प्रकार के कागजो पर राजा के अतिरिक्त सलुम्बर के सामंत के भी हस्ताक्षर लिए जायेंगे।
आंवल-बाँवल की संधि : यह संधि 1453 में राणा कुम्भा और जोधा के मध्य हुई थी। इस संधि के फलस्वरूप ही जोधा को मंडोर वापस दे दिया गया था और “सोजत (पाली)” नामक स्थान को मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा बनाया गया था।
तथा इसी संधि के फलस्वरूप कुम्भा के बेटे “रायमल” की शादी जोधा की बेटी “श्रृंगार कंवर” से की गयी थी।
सारंगपुर का युद्ध : यह युद्ध 1437 ई. में हुआ था , यह युद्ध राणा कुम्भा और महमूद खिलजी के मध्य हुआ था , महमूद खिलजी , मालवा का शासक था।
सारंगपुर युद्ध का कारण : महमूद खिलजी ने राणा कुम्भा के पिता मोकल सिंह के हत्यारों को शरण दी थी।
कुम्भा ने सारंगपुर युद्ध जीत लिया और इसी जीत की याद में राणा कुम्भा ने चित्तोड़ में “विजय स्तम्भ” का निर्माण करवाया।
चाम्पानेर की संधि : यह संधि 1456 में महमूद खिलजी और कुतुबद्दीन शाह के मध्य गयी। महमूद खिलजी मालवा का शासक था और कुतुबुद्दीन शाह गुजरात का शासक था।
संधि का कारण : इस संधि का उद्देश्य कुम्भा को हराना था। अर्थात इस संधि के बाद महमूद खिलजी और कुतुबद्दीन शाह सम्मिलित रूप से होकर कुम्भा को हराना चाहते थे।
बदनौर का युद्ध : यह युद्ध 1457 ई. में हुआ था। यह युद्ध कुम्भा और महमूद खिलजी और कुतुबद्दीन शाह की सम्मिलित सेना के मध्य हुआ था।
कुम्भा ने इस युद्ध में महमूद खिलजी और कुतुबद्दीन शाह की सम्मिलित सेना को हरा दिया।
कुम्भा ने सिरोही के “सहसमल देवड़ा” को भी युद्ध में हराया।
नागौर के दो भाइयो “शम्स खान” और “मुजाहिद खान” के आपसी युद्ध में कुम्भा ने “शम्स खान” का साथ दिया था और मुजाहिद खान को हराया था।
कुम्भा की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ (Cultural achievements of Maharana Kumbha)
- कीर्ति स्तम्भ
- विष्णु ध्वज
- गरुड़ ध्वज
- मूर्तियों का अजायबघर
- भारतीय मूर्तिकला का विश्व कोष
कवि राजा श्यामल दास जी ने एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था “वीर विनोद” , इस वीर विनोद नामक पुस्तक में बताया गया है कि मेवाड़ के 84 किलो में से 32 किले कुम्भा ने बनवाए है।
इन किलो में से कुछ महत्वपूर्ण किले निम्न है –
1. कुम्भलगढ़ (राजसमन्द) : इस किले के वास्तुकार “मंडन” थे।
कुम्भलगढ़ की प्रशस्ति के लेखक ‘महेश’ थे। और इस कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में राणा कुम्भा को “धर्म” और “पवित्रता ” का प्रतिक बताया गया है।
कुम्भलगढ़ को मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी कहते है। कुम्भलगढ़ को मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा प्रहरी भी कहते है। कुम्भलगढ़ के सबसे उपरी स्थान को “कटारगढ़” कहते है और यह कटारगढ़ राणा कुम्भा का निजी आवास था कटारगढ़ को मेवाड़ की आँख भी कहा जाता है क्योंकि कटारगढ़ से सम्पूर्ण मेवाड़ दिखता था।
(2) भोमट दुर्ग : भीलो पर नियंत्रण के लिए कुम्भा ने इस किले का निर्माण करवाया था इसलिए इसे भोमट दुर्ग नाम दिया गया था।
(3) मचान दुर्ग : यह सिरोही में बनाया गया , यह दुर्ग या किला मेर जाति पर नियंत्रण के लिए बनाया गया था इसलिए इसे मचान दुर्ग नाम दिया गया।
(4) बसन्तगढ़ : इस दुर्ग को बासंती दुर्ग भी कहते है। यह किला सिरोही में बनाया गया था।
(5) अचलगढ़ : यह सिरोही में बनाया गया। 1453 ई. में कुम्भा ने इस किले का पुनर्निमाण करवाया था।
राणा कुम्भा ने तीन स्थानों पर ‘कुम्भ स्वामी मन्दिर’ का निर्माण करवाया था ये तीन स्थान निम्न है –
- चित्तोडगढ
- कुम्भलगढ़
- अचलगढ़
राणा कुम्भा के शासनकाल में साहित्य
- कामरा रतिसार : यह पुस्तक सात भाग में है।
- सुधा प्रबंध
- संगीत राज : यह पुस्तक 5 भाग में है। (पाठ्य रत्न कोष , नृत्य रत्नकोष , गीत रत्नकोष , रस रत्नकोष और वाद्य रत्नकोष)
- संगीत सुधा
- संगीत मीमांशा
- इन्होने चंडीशतक पर टिका लिखी।
- जयदेव की “गीत गोविन्द” पुस्तक पर “रसिक प्रिय” नामक टिका लिखी।
- सारंगधर की “संगीत रत्नाकर” पुस्तक पर टिका लिखी।
राणा कुम्भा के दरबारी विद्वान
2. मेहाजी : इन्होने “तीर्थ माला ” नामक पुस्तक की रचना की थी।
3. मण्डन : इन्होने जिन पुस्तकों की रचना की उनमे से निम्न पांच पुस्तके प्रमुख है जो निम्न है –
- वास्तुसार
- देवमूर्ती प्रकरण
- राजवल्लभ
- रूप मंडन
- कोदंड मंडन
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