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Categories: sociology

ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत क्या है | ऐतिहासिक भौतिकवाद का सिद्धान्त किसे कहते है historical materialism theory was presented by in hindi

historical materialism theory was presented by in hindi ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत क्या है | ऐतिहासिक भौतिकवाद का सिद्धान्त किसे कहते है ?

सिद्धांत
यहाँ हमने समाज के बारे में मार्क्स के विचारों को सरल शब्दों में प्रस्तुत किया है। उसका विचार दर्शन अनिवार्यतरू उस समय के पूंजीवादी समाज की व्याख्या करने में प्रयुक्त हुआ है। उसने पूंजीवादी समाज की परस्पर विरोधी प्रकृति को दर्शाया है। आइये हम देखें कि मार्क्स ने इस कार्य को कैसे किया। यहाँ हमने मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत की विस्तार से विवेचना की है।

ऐतिहासिक भौतिकवाद से सिद्धांत की सुस्पष्ट व्याख्या मार्क्स द्वारा लिखित पुस्तक ए कंट्रीब्यूशन टु द क्रिटीक ऑफ पॉलिटिकल इकॉनॉमी (1859) के आमुख में दी गई है। इसमें उसने बताया कि समाज का वास्तविक आधार समाज की आर्थिक संरचना है तथा आर्थिक संरचना समाज में पाए जाने वाले उत्पादन के संबंधों से बनती है। समाज की वैधानिक और राजनैतिक अधिसंरचना (ेनचमतेजतनबजनतम) उत्पादन के संबंधों पर आधारित होती है। मार्क्स ने यह भी कहा कि उत्पादन के संबंध समाज में पाई जाने वाली उत्पादन की शक्तियों के चरण को प्रतिबिम्बित करते हैं।
इस व्याख्या के अन्तर्गत आपका परिचय उत्पादन के संबंध, उत्पादन के साधनों की शक्तियां तथा अधिसंरचना जैसे शब्दों से हुआ। आपको हम यह बता दें कि मार्क्सवादी विचारधारा में इन शब्दों का विशेष अर्थ है। जैसे-जैसे इस खंड की अन्य इकाइयों का अध्ययन किया जाएगा, आपको इनके बारे में विस्तृत रूप से जानकारी मिलेगी। साथ में इस संदर्भ में इस इकाई की शब्दावली भी देखिये।

इस इकाई में आपको पहले मार्क्स के विचारों के केन्द्र बिन्दु को समझना आवश्यक है। यह केन्द्र बिन्दु है कि मार्क्स के अनुसार सामाजिक, राजनैतिक और बौद्धिक जीवन की प्रक्रिया सामान्य रूप से भौतिक उत्पादन पर आधारित होती है। इस तर्क के आधार पर मार्क्स ने इतिहास का सम्पूर्ण दृष्टिकोण देने का प्रयास किया है।

उसके अनुसार समाज की उत्पादक शक्तियों में होने वाले नये विकास समाज के वर्तमान उत्पादन के संबंधों के साथ टकराव की स्थिति के बारे में जागरूक हो जाते हैं तो इसका हल चाहते हैं और मार्क्स के अनुसार इतिहास का ऐसा युग क्रांति का युग कहलाता है। क्रांति के कारण संघर्ष का समाधान हो जाता है। अर्थात् उत्पादन की नई शक्तियां जड़ें जमा लेती हैं और नये उत्पादन संबंधों को जन्म देती हैं। अतः यह स्पष्ट है कि नई उत्पादक शक्तियों का विकास ही मानवीय इतिहास का मार्ग प्रशस्त करता है। समाज में उत्पादक शक्तियों का प्रयोग जीवन की भौतिक आवश्यकताओं और दशाओं (बवदकजपवदे) के उत्पादन में होता है। अतरू यह कहा जा सकता है कि मार्क्स के अनुसार मानव इतिहास भौतिक उत्पादन की नई शक्तियों के विकास और परिणामों का एक लेखा-जोखा है। और यही कारण है कि इतिहास के बारे में मार्क्स के इस दृष्टिकोण को ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा गया। संक्षेप में यही ऐतिहासिक भौतिकवाद का सिद्धांत है।

इस सिद्धांत की विस्तृत विवेचना करने से पूर्व यह आवश्यक है कि हम आपको बतायें कि मार्क्सवाद के विभिन्न अनुयायी इस सिद्धांत की अलग-अलग व्याख्यायें प्रदान करते हैं। परन्तु हमने यहाँ पर ऐतिहासिक भौतिकवाद की प्रायः सभी द्वारा मान्य व्याख्या को ही समझने की कोशिश की है। यहाँ यह बात ध्यान रखने योग्य है कि इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा सामाजिक संगठन के विभिन्न स्वरूपों की व्याख्या हेतु कोई चालू मसाला या फार्मूला वाला सूत्र नहीं है। इसे पहले मार्क्स के विचार-दर्शन के संदर्भ में ही समझना चाहिये। मार्क्सवादी ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत को समझने के लिये हमने जिन शब्दों का प्रयोग किया, आइये अब उनकी व्याख्या करें। पहला है सामाजिक संबंध ।

 व्यक्तियों से परे सामाजिक संबंध
मार्क्स के अनुसार यह एक सामान्य सिद्धांत है कि जीवनोपयोगी भौतिक आवश्यकताओं का उत्पादन (जो कि समाज की मौलिक आवश्यकता होती है) व्यक्तियों को कुछ ऐसे निश्चित संबंधों से जोड़ता है जो कि उनकी इच्छाओं से स्वतंत्र होते हैं। यह मार्क्स द्वारा दिया समाज के सिद्धांत का मूल विचार है। उसने इस बात पर बल दिया कि कुछ ऐसे सामाजिक संबंध होते हैं जो लोगों की निजी इच्छाओं और प्राथमिकताओं से स्वतंत्र होते हैं तथा उन पर दबाव डालते हैं। उसने आगे स्पष्ट किया कि हमारी ऐतिहासिक प्रक्रिया की समझ इस बात पर निर्भर करती है कि हम सामाजिक संबंधों के बारे में कितने जागरूक हैं।

 अधोसंरचना (infrastructure) तथा अधिसंरचना (superstructure)
मार्क्स के अनुसार, प्रत्येक समाज में अधोसंरचना (infrastructure) तथा अधिसंरचना (superstructure) होती है। जब सामाजिक संबंध भौतिक दशाओं के संदर्भ में परिभाषित किये जाते हैं तो उसे मार्क्स ने अधोसंरचना कहा है। किसी भी समाज की भौतिक दशाओं में परिवर्तन से उसके सामाजिक संबंधों में भी परिवर्तन होता है। उत्पादन की शक्तियां और संबंध अधोसंरचना के अंतर्गत आते हैं। अधिसंरचना में वैधानिक, शैक्षणिक तथा राजनैतिक संस्थायें, मूल्य, चिन्तन के संस्कृतिपरक तरीके, धर्म, विचारधारायें और दर्शनशास्त्र आते हैं। उदाहरणतरू राज्य संस्थाओं व उपकरणों का वह समूह है जो प्रभुत्वशील वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है और यह समाज की अधिसंरचना का भाग होता है।

 उत्पादन की शक्तियां और संबंध
मार्क्स के अनुसार उत्पादन की शक्तियां समाज की उत्पादन क्षमता को दिखाती हैं। उत्पादन की यह क्षमता वस्तुतः वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान, प्रौद्योगिक उपकरण, श्रम शक्ति से तय होती है। उत्पादन के संबंध उत्पादन प्रक्रिया से पैदा होते हैं। इसमें अनिवार्यतरू उत्पादन के साधनों के स्वामित्व से उपजे संबंध भी शामिल होते हैं। परंतु, उत्पादन के संबंधों को पूरी तरह से सम्पत्ति के संबंधों के माध्यम से ही नहीं पहचाना जाना चाहिये। मार्क्स का कहना है कि कालांतर में समाज एक अवस्था से दूसरी अवस्था में बदल जाता है। इस बदलाव की प्रक्रिया को समझाने के लिए मार्क्स ने ऐतिहासिक चरणों की संकल्पना की।

 सामाजिक वर्गो के संदर्भ में सामाजिक परिवर्तन
मार्क्स ने प्रमुख सामाजिक वर्गों के गठन की चर्चा करते हुये समाज की अधोसंरचना (पदतिंेजतनबजनतम) के महत्व पर प्रकाश डाला। उसने वर्ग संघर्ष में आंतरिक द्वन्द्व से उपजने वाले सामाजिक परिवर्तन के विचार को विकसित किया। मार्क्स के अनुसार सामाजिक परिवर्तन का एक नियमित विन्यास होता है। मोटे रूप से मार्क्स ने समाज के मुख्य प्रकारों का ऐतिहासिक क्रम बताया है। इस क्रम में पहले ‘‘आदिम साम्यवाद‘‘ वाला सरल समाज आता है व बाद में आधुनिक पूंजीवादी जटिल समाज आता है। उसने महान ऐतिहासिक परिवर्तनों की व्याख्या की है। उसके अनुसार अधोसंरचनात्मक परिवर्तनों के संदर्भ में समाज के पुराने स्वरूप नष्ट हो जाते हैं और नये स्वरूप सृजित होते हैं। इस प्रक्रिया को मार्क्स ने सतत चलने वाली एक सामान्य प्रक्रिया माना है। उत्पादन की शक्तियां और संबंधों के मध्य विरोधाभास के प्रत्येक काल को मार्क्स ने क्रांति का युग माना है।

 उत्पादन की शक्तियां और संबंधों के मध्य वाद-संवाद प्रक्रियापरक संबंध
क्रांति युग में, यदि समाज का एक वर्ग उत्पादन के पुराने संबंधों से जुड़ा होता है और ये संबंध उत्पादन की शक्तियों के विकास में रुकावट डालते हैं तो, दूसरी ओर. दसरा परिवर्तन चाहता है। यह वर्ग उत्पादन के नये संबंधों के लिये प्रयास करता है। उत्पादन के नये संबंध उत्पादन की शक्ति के विकास में बाधा नहीं पहुंचाते। ये इन शक्तियों की अधिकाधिक प्रगति को प्रोत्साहित करते हैं। वर्ग संघर्ष पर मार्क्स के विचारों की यह भाववाचक (ंइेजतंबज) अभिव्यक्ति है।

 क्रांति तथा समाजों का इतिहास
उत्पादन की शक्तियों और संबंधों के मध्य वाद-संवाद प्रक्रियापरक संबंध से क्रांति के सिद्धांत का निर्माण होता है। मार्क्स के ऐतिहासिक दृष्टिकोण के अनुसार क्रांतियाँ राजनैतिक दुर्घटनायें अथवा संयोग नहीं है। वे ऐतिहासिक आंदोलनों की सामाजिक अभिव्यक्तियां हैं। क्रांतियाँ समाजों की ऐतिहासिक प्रगति की अनिवार्य अभिव्यक्तियां है। क्रांतियाँ तभी घटित होती हैं, जब कि उनके लिए परिपक्व दशायें उत्पन्न हों। मार्क्स (1859ः आमुख) ने लिखा है, ‘‘जब तक कि सभी संभव उत्पादन की शक्तियां पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो जाती तब तक कोई भी सामाजिक व्यवस्था लुप्त नहीं होती तथा जब तक प्राचीन समाज के गर्भ में नये उत्पादन के संबंधों के लिये भौतिक दशायें परिपक्व नहीं हो जाती तब तक उत्पादन के नये उच्चतर संबंध नहीं उभर पाते।‘‘

इसी बात को एक उदाहरण के माध्यम से अधिक बेहतर रूप से समझाया जा सकता है। सामन्तवादी समाज में उत्पादन के पूंजीवादी संबंध विकसित हुये और जब ये उत्पादन के संबंध परिपक्व अवस्था में पहुंच गये तो यूरोप में फ्रांसीसी क्रांति हुई। यहाँ मार्क्स ने पूंजीवाद से समाजवाद की ओर ले जाने वाली परिवर्तन की एक अन्य प्रक्रिया की भी चर्चा की अर्थात् पूंजीवादी समाजों में समाजवादी उत्पादन के संबंध विकसित होने लगे। इस प्रकार मार्क्स ने समाज की ऐतिहासिक गतिमानता की व्याख्या की।

 यथार्थ तथा चेतना
पैसा कि हमने पहले बताया है मार्क्स ने अधोसंरचना और अधिसंरचना के बीच अंतर किया है। इसके साथ-साथ उसने सामाजिक यथार्थ (ेवबपंस तमंसपजल) और चेतना (बवदेबपवनेदमेे) में भी भेद किया है। मार्क्स के अनुसार यथार्थ मानवीय चेतना से नहीं बनता। अपितु सामाजिक यथार्थ से मानवीय चेतना बनती है। मार्क्स का यह विचार एक पूर्ण अवधारणा के रूप में विकसित होता है। इसमें मानवीय चेतना की व्याख्या सामाजिक संबंधों के सन्दर्भ में ही की जा सकती है।

उत्पादन की शक्तियों और संबंधों के अतिरिक्त मार्क्स ने उत्पादन के तरीकों की भी चर्चा की है। इनके आधार पर मार्क्स ने मानव इतिहास की अवस्थाओं की व्याख्या एशियाटिक, प्राचीन, सामन्तवादी तथा पूंजीवादी-चार उत्पादन के तरीकों के संदर्भ में की है। उसके अनुसार पश्चिमी समाज का इतिहास हमें प्राचीन सामन्तवादी तथा पूंजीवादी उत्पादन के तरीकों के बारे में बताता है। प्राचीन (ंदबपमदज) उत्पादन के तरीके की विशिष्टता है दासत्व। सामन्तवादी उत्पादन के तरीके की विशेषता है भूमिहीन किसान । पूंजीवादी उत्पादन के तरीके की विशेषता है श्रम से आजीविका अर्जित करना। ये मानव श्रम के शोषण के तीन स्पष्ट तरीके हैं। दूसरी ओर, एशियाटिक उत्पादन का तरीका पश्चिमी समाज के इतिहास की अवस्था नहीं है। इसकी विशिष्टता है कि इसमें सर्वसामान्य लोग राज्य अथवा राज्य प्रशासन तंत्र के अधीन होते हैं।
सोचिए और करिए 1
भौतिकवाद, उत्पादन, क्रांति तथा चेतना के लिये आपकी मातृभाषा में क्या शब्द हैं ? इन शब्दों की व्याख्या करने के लिये आप अपने सामाजिक जीवन से उदाहरण दीजिये।

 ऐतिहासिक भौतिकवाद आर्थिक निर्धारणवाद नहीं है
यह संभव है कि आप मार्क्स को आर्थिक निर्धारणवादी अथवा इस विचार का प्रतिपादक मान लें कि केवल आर्थिक दशायें ही समाज के विकास को निश्चित करती हैं। परन्तु यहाँ पर यह स्पष्ट किया जाएगा कि ऐतिहासिक भौतिकवाद आर्थिक निर्धारणवाद नहीं है। मार्क्स ने यह माना कि संस्कृति के बिना किसी भी प्रकार का उत्पादन संभव नहीं है। उसके अनुसार उत्पादन के तरीकों में उत्पादन के सामाजिक संबंध भी शामिल होते हैं। ये संबंध आधिपत्य और अधीनता के होते हैं। जीवन तथा जीवन के भौतिक साधनों के उत्पादन को कामगार लोगों की संस्कृति, प्रतिमानों तथा रीति-रिवाजों को समझे बिना नहीं समझा जा सकता है। कामगार लोग वे हैं, जिन पर शासक शासन करते हैं। कामगार वर्ग की संस्कृति की समझ हमें उत्पादन के तरीकों की समझ में सहायता देती है। आइए यहाँ वर्ग की अवधारणा को संक्षेप में समझें।

वर्ग एक वह श्रेणी है, जिसमें व्यक्तियों के कालांतर में बन गए संबंधों का वर्णन किया जाता है। इसी श्रेणी में वे तरीके भी आते हैं जिनसे लोग इन संबंधों के प्रति जागरूक हो जाते हैं। वर्ग में उन तरीकों का भी वर्णन होता है, जिनसे लोग आपस में बंट जाते हैं या जुड़ते हैं, संघर्ष में शामिल होते हैं, संस्थायें निर्मित करते हैं व वर्ग के अनुरूप मूल्यों का संरक्षण करते हैं। वर्ग एक आर्थिक और सांस्कृतिक संरचना है। वर्ग को विशुद्ध रूप से आर्थिक श्रेणी में रखना असंभव है।
सोचिए और करिए 2
क्या आपके विचार में भारतीय समाज के अध्ययन के लिए कार्ल मार्क्स के विचार उपयोगी हैं? अपने सकारात्मक नकारात्मक उत्तर के लिये कम से कम दो कारण बताइये। अपने उत्तर की तुलना अध्ययन केंद्र के अन्य विद्यार्थियों के उत्तरों से कीजिए।

 समाजशास्त्रीय सिद्धांत में ऐतिहासिक भौतिकवाद का योगदान
ऐतिहासिक भौतिकवाद का सिद्धांत आधुनिक समाजशास्त्र के गठन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हीगल, सेन्ट सीमों तथा एडम फर्ग्यसन जैसे विविध चिंतकों की कृतियों में मार्क्स के विचार की छवि देखने को मिलती है। इन सभी ने मार्क्स को अत्यधिक प्रभावित किया। उसने समाज की प्रकृति की अवधारणा और इसके अध्ययन के समुचित तरीकों पर विस्तृत प्रकाश डाला। यह काम उसने अपने पूर्ववर्ती विद्वानों की अपेक्षा अधिक सटीक और आनुभाविक तरीके से किया। प्रत्येक समाज की संरचना को समझने के लिये उसने एक पूर्ण रूप से नया तत्व दिया। यह तत्व सामाजिक वर्गों के बीच पाए जाने वाले संबंधों से निकला था। ये संबंध मार्क्स के अनुसार उत्पादन के तरीकों द्वारा निश्चित होते थे। ऐतिहासिक भौतिकवाद के इस लक्षण के कारण इसे बाद के समाजशास्त्रियों ने व्यापक रूप से स्वीकार किया क्योंकि सामाजिक परिवर्तन के कारणों का सही एवं यथार्थवादी अनुसंधान करने के लिये इसने एक अच्छी शुरुआत की संभावना दी।

इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक भौतिकवाद ने समाजशास्त्र में अन्वेषण की एक नयी पद्धति, नई अवधारणायें, तथा अनेक नई परिकल्पनायें प्रारंभ की जो कि समाज के विशिष्ट स्वरूपों के उदय, विकास एवं विनाश की व्याख्या करती हैं। इन सभी ने उन्नीसवीं शताब्दी के बाद के दशकों में समाजशास्त्रियों की लेखनी पर गहन प्रभाव डाला। अरस्तु के समय से चली आ रही समाज के बारे में ज्ञान की विरासत को ऐतिहासिक भौतिकवाद ने आलोचनात्मक ढंग से संश्लिष्ट किया। मार्क्स का लक्ष्य था मानवीय विकास की दशाओं को समझना। अपनी इस समझ के आधार पर वह एक बेहतर समाज की स्थापना करना चाहता था। उसके अनुसार इस समाज में होंगे – तर्कसंगत नियोजन, सहकारी उत्पादन, समानता पर आधारित वितरण और सामाजिक-राजनैतिक शोषण से मुक्ति। अंततः वर्तमान सामाजिक यथार्थ को समझने के लिये ऐतिहासिक भौतिकवाद न केवल एक पद्धति प्रदान करता है, अपितु यह अन्य पद्धतियों के अस्तित्व को समझने के लिये भी एक पद्धति है। यह सामाजिक विज्ञानों की पद्धति और लक्ष्यों का निरंतर आलोचक है।

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