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हिंदू धर्म किसे कहते हैं ? हिंदू धर्म कितना पुराना है किसने शुरुआत की थी परिभाषा क्या है hindu religion in hindi

hindu religion in hindi हिंदू धर्म किसे कहते हैं ? हिंदू धर्म कितना पुराना है किसने शुरुआत की थी परिभाषा क्या है ?

हिंदू धर्म
मूल रूप से ‘हिंदू’ शब्द न तो धर्म का प्रतीक था और न ही किसी विचारधारा का। इसके पीछे भौगोलिक परिस्थितियां थीं। प्राचीन ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व क्षेत्र को ‘हिंद’ कहा और इस क्षेत्र में रहने वाले ‘हिंदू’ कहलाए। कालांतर में हिंदू शब्द धर्म और संस्कृति से जुड़कर रूढ़ हो गया और उस समय प्रचलित धर्म को ‘हिंदू धर्म’ की संज्ञा दी गई।
हिंदू धर्म को समस्त ऊर्जा वेदों से मिलती है। वेदों की संख्या चार मानी गई है ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। सबसे प्राचीन ऋग्वेद है, जिसके कुछ भागों की रचना 1000 ई.पू. से पहले हुई थी। शेष वैदिक साहित्य की रचना बाद में हुई। आर्यों के जीवन और संस्थाओं के ऐतिहासिक पुनर्निर्माण का आधार यही साहित्य है। ऋग्वेद में 1028 सूक्त हैं, जिनमें आर्य देवताओं की स्तुतियां हैं और उनकी रचना पुरोहितों के विभिन्न परिवारों द्वारा की गई थी। अग्नि, वायु, वरुण, इंद्र, मित्र, सोम, उषा एवं अन्य देवताओं की स्तुति इसमें की गई है। सामवेद में ऋचाओं की संगीतमय प्रस्तुति है। यजुर्वेद उन तमाम कर्मकाण्डों का विवरण देता है, जिन्हें पुरोहित करवाता था। सबसे बाद में लिखे गए अथर्ववेद में मंत्र-तंत्र, जादू टोने इत्यादि से सम्बंधित सूक्त हैं। हर वेद की टीकाएं लिखी गई, जिन्हें ब्राह्मण कहा गया। ब्राह्मणों की अनुक्रमणिकाएं अरण्यकोष और उपनिषद के रूप में जागी जाती हैं। अरण्यक वन में की जागे वाली तपस्या हेतु गुप्त माग्र बताते हैं। उपनिषद (वेदांत) अस्तित्व एवं वास्तविकता का दर्शन है।
प्रसिद्ध जर्मन विद्वान शोपनहायर के अनुसार, ‘‘उपनिषद मनुष्य के धार्मिक अभिज्ञान का सबसे बहुमूल्य वर्णन है। इन सुंदर रचनाओं ने मुझे यहूदी कर्मकाण्डों और बंधनों से मुक्त कर दिया। सारी पृथ्वी में उपनिषदों से बढ़कर सुंदर और उन्नत बनाने वाला कोई दूसरा ग्रंथ नहीं है। मुझे अपने जीवन में इससे बहुत संतोष मिला है और इसी से मुझे मृत्यु में भी संतोष मिलेगा।’’ शोपनहायर आधुनिक समय के एक सौम्य और महान दार्शनिक तत्ववेत्ता थे। यह स्पष्ट है कि वह इन ग्रंथों को दूसरे ग्रंथों से, यहां तक कि ईसाई ग्रंथों से भी ऊपर रखते हैं।
प्रारंभिक वैदिक धर्म में मूर्तियों या मंदिरों का कोई स्थान नहीं था। वेदों की मूल शिक्षा एकेश्वर के विश्वास को प्रकट करती है और बार-बार वेदों में इसका जिक्र आता है, ‘‘कोई सच्चा नहीं है, सिवाय इस ईश्वर के, जो सब पर छाया है, कुल सृष्टि का स्वामी है, जिसने सृष्टि का निर्माण किया है।’’ अर्थात् ‘एकमेवाद्वितीयम्’। इस काल में खुले स्थानों में यज्ञ किए जाते थे और हवन के माध्यम से मांस, मदिरा (सोम), दूध, घी इत्यादि का चढ़ावा चढ़ाया जाता था।
कालक्रम में अनेक कर्मकाण्ड एवं रीतियां इस धर्म से जुड़ीं। उस अदृश्य शक्ति के प्रतीकों या मूर्तियों की पूजा धीरे-धीरे प्रारंभ हुई। बहुधा हिंदू धर्म को जीवन शैली से जोड़ा जाता है। इसमें अनेकानेक देवताओं का स्थान है, उनकी पूजा की जाती है। लेकिन इसका बुनियादी रूप कर्म और सांसारिक सिद्धांतों से जुड़ा है। जैसा कि उपनिषद की मान्यता है कि मृत्यु के बाद प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा जीवन में अच्छे और बुरे आचरण के अनुसार स्वग्र या नरक में जाती है और कुछ समय रुकने के बाद श्रेष्ठ या निकृष्ट जीव, मनुष्य या पशु के रूप में पुगर्जन्म लेती है। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। किंतु जब मनुष्य चरम सत्ता की प्राप्ति के द्वारा, सांसारिक सीमाओं से अपने आपको मुक्त करता है, तब वह कर्म और संसार के दुश्चक्र को तोड़ता है और मोक्ष प्राप्त करता है।
उपनिषदों के अनुसार जीवन में चार अवस्थाएं होती हैं, जिन्हें हम आश्रम के नाम से भी जागते हैं ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम। जीवन की तीर्थ यात्रा पर निकले मनुष्य को ज्ञान, सम्पत्ति, प्रेम और सेवा, इन सभी मूलों को एक के बाद एक क्रमबद्ध रूप से प्राप्त करना पड़ता है। किंतु ये सभी अवस्थाएं अंतरिम अवस्थाएं होती हैं, जिनसे होकर गुजरते हुए भी ध्यान तो अंतिम लक्ष्य पर ही केंद्रित होना चाहिए। यही गंतव्य एकात्मकता की प्राप्ति है, यानी मोक्ष है।
कर्म और सांसारिक सिद्धांतों का भी उपनिषद की शिक्षा में महत्वपूर्ण स्थान है। कर्म नैतिकता के संसार का एक आधारभूत नियम है। मनुष्य द्वारा किया गया हर अच्छा या बुरा कार्य उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। चेतन अवस्था में किए गए कार्य अचेतन रूप से आदतें बन जाती हैं और मनुष्य के चरित्र का हिस्सा हो जाती हैं। प्रतिक्रियास्वरूप चरित्र, कार्य और उसके परिणामों को निर्धारित करता है। यह एक दुश्चक्र है और इसी में हमारा ध्यान लगा रहता है। इससे निकलने का एक ही माग्र है कि त्याग, बलिदान और सेवा भाव के माध्यम से व्यक्तिगत सोच से ऊपर उठकर सार्वभौमिक सोच तक पहुंचा जाए। इस स्तर पर मनुष्य कर्म की बाध्यकारी शक्ति से मुक्त हो जाता है।
वैदिक हिंदू युग की अनमोल विरासत उपनिषदों में दिया गया एकात्मकता का भाव है, जिसे हम सामान्य तौर पर वेदांत दर्शन के नाम से भी जागते हैं। तथापि, जीवन के चारों आश्रम और कर्म व संसार की अवधारणाएं हिंदुओं के धार्मिक विश्वास का न केवल महत्वपूर्ण अंग बन गई हैं, बल्कि भारतीय साहित्य और काव्य में भी अंगीभूत हो गई हैं। वेदांत से आगे चलते हुए मानव मन ने सत्य और वास्तविकता की खोज में स्वयं को लगाया। अनुशीलन एवं हेतुवाद के नए माग्र तलाशे। चिंतकों ने अलौकिक समस्याओं पर नए सिरे से विवेचना की और हिंदुओं के षड्दर्शन की व्यवस्था सामने आई। इन छह दर्शनों में चार-सांख्य, न्याय, योग एवं वैशेषिक अपनी रचना में किसी अन्य से प्रभावरहित थे, जबकि पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा पर वेदों का प्रभाव था।
उपनिषदों की भांति सांख्य दर्शन भी ब्राह्मणों द्वारा प्रवर्तित कर्मकाण्डों और बलि प्रथा को अस्वीकार करता है और मन की शांति व मोक्ष के लिए अन्य माग्र देखता है। वह शरीर और आत्मा को वास्तविक मानता है। दार्शनिक विचारों में कपिल मुनि के इस सांख्य दर्शन का महत्वपूर्ण स्थान है, किंतु जीवन पद्धति के रूप में वह अधिक विकसित न हो सका, क्योंकि मोक्ष के लिएऐसा माग्र नहीं बताया गया, जिसे आम आदमी समझ सके। यह कमी बाद में पातंजलि के योग दर्शन द्वारा पूरी की गई।
सैद्धांतिक रूप से पातंजलि योग का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, किंतु वह सांख्य दर्शन का व्यावहारिक परिणाम है। इसका उद्देश्य यह है कि मनुष्य की आत्मा प्रकृति के बंधन से मुक्त हो और सत्य की अनुभूति एवं मन की परम शांति प्राप्त करे। इसे ही योग कहा गया है। न्याय और वैशेषिक भी पूर्ण अनासक्ति एवं शांति की ही बात कहते हैं। किंतु ज्ञान का अर्थ अंतर्बोध नहीं बल्कि अवलोकन पर आधारित विज्ञान सम्मत ज्ञान, तर्क और प्रयोग है।
हिंदू दर्शन की बाकी की दो शाखाएं पूर्व-मीमांसा तथा उत्तर-मीमांसा उपरोक्त चारों से भिन्न हैं। इनका प्रेरणा स्रोत वेद है। पूर्व मीमांसा कहती है कि वेद ईश्वर प्रदत्त हैं, इसलिए उनके निर्देशों का पालन करना चाहिए। किंतु उनका संबंध वेदों के धर्म विज्ञान या नीतिशास्त्र से नहीं बल्कि केवल कर्मकाण्डों, धर्मानुष्ठानों, यज्ञ, भजन से सम्बंधित श्लोकों से है। यह एकतरफा झुकाव संभवतः उस समय के धर्म दर्शन के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी, जिसने सभी आडम्बरों का बहिष्कार किया था। दूसरी तरफ, उत्तर मीमांसा ने एकात्मकता के सिद्धांत पर बल दिया है। ये दोनों मीमांसाएं एक ऐसे धर्म दर्शन का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिसका उद्देश्य बौद्ध धर्म और जैन धर्म के विरुद्ध नैतिक हिंदू धर्म का समर्थन करना था।
इस काल की एक अन्य बड़ी उपलब्धि थी भगवद्गीता। युद्धक्षेत्र में अर्जुन को मोह हो आया था और वह युद्ध से इंकार कर रहा था। तब उसके सारथी बने श्रीकृष्ण ने उसे उपदेश दिया था। इन्हीं का संकलन भगवद्गीता में है। यह केवल उपनिषद् पर टीका नहीं, वरन् आंशिक रूप से उसकी पूर्ति करती है। उपनिषदों में धर्म के सैद्धांतिक पहलुओं पर बल दिया गया है, अर्थात् ब्रह्म की प्रकृति और आत्मा तथा उसकी पहचान पर। गीता में व्यावहारिक पहलू यानी, ब्रह्म की अनुभूति एवं मोक्ष की प्राप्ति के माग्र के बारे में बताया गया है। मोक्ष प्राप्ति के तीन माग्र हैं तप एवं अनुशीलन द्वारा ज्ञान का माग्र, आस्था एवं भक्ति का माग्र और कर्म का माग्र। गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि उपनिषदों में वर्णित आत्मा और ब्रह्म की अनुभूति केवल अमूर्त विचार नहीं हैं, बल्कि प्रेम का भक्ति के साथ, अन्वेषक का अन्वेषण के साथ आध्यात्मिक सम्मिलन है और कर्तव्य भाव से किया गया कर्म अवरोध न होकर ध्येय की प्राप्ति का प्रभावकारी माध्यम है। एक हिन्दू अपनी आत्मा को ज्ञान के प्रकाश में साधना के द्वारा मुक्ति दिलाना चाहता है। हिन्दू धर्म सत्य को सबसे महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ गुण समझता है। उसके निकट सूर्य का प्रकाश, हवा का झोंका, वर्षा की बूंदें और ईश्वर सबके लिए हैं और सबके हैं। भगवद्गीता दुनिया को यही शिक्षा देती है ‘‘जो कोई भी मेरे पास किसी रास्ते से चलकर आता है, मैं उसके पास उसी रास्ते से पहुंचता हूं। बहुत से लोग भिन्न-भिन्न रास्तों से मेरे पास पहुंचने के प्रयास में लगे हैं और वे सब रास्ते मेरे हैं।’’
बीते हुए काल में रूढ़िवादी हिंदू धर्म के प्रतिद्वंद्वी के रूप में दो धार्मिक आंदोलन चले और कुछ समय तक वे काफी लोकप्रिय रहे। किंतु ईसा पूर्व की दूसरी शताब्दी तक आते-आते उनका प्रभाव कम पड़ने लगा। दूसरी ओर हिंदू विचारकों ने सत्य की खोज में चिंतन के नए उपादानों पर कार्य किया ताकि धार्मिक आस्थाओं और व्यवहार में इस तरह से सुधार लाया जा सके कि सभी वग्र आकर्षित हों। परिणामतः नई राष्ट्रीय संस्कृति की नींव पड़ी। इसमें प्राचीन देवताओं पर नई आस्था का प्रगढ़ रूप प्रदर्शित किया गया। अवतारों की बात हुई। प्रचलित कहानियों को पुराणों के नाम से संग्रहित किया गया। अधिकांश पुराण विष्णु के नाम से हैं और कुछ ब्रह्म या शिव के नाम से भी हैं। ऐसी जटिलताएं प्रारंभिक समय से हिंदुओं को ज्ञात थी। इतिहास पुराण का अथर्ववेद में समावेश है और कुछ के द्वारा वह वैदिक साहित्य का एक अंग माना जाता है, किंतु अधिकांश पुराण अपने वर्तमान स्वरूप में पांचवीं और उसके बाद की शताब्दियों में संकलित किए गए। सामान्य जनों में पुराणों की लोकप्रियता वेदों से अधिक थी। इस तरह प्राचीन हिंदुओं से अंतर स्थापित करने हेतु नए हिंदुत्व को पौराणिक हिंदू धर्म कहा जा सकता है। कुल 18 पुराणों में से कुछ इस प्रकार हैं मत्स्य, मार्कण्डेय, नारदीय, गरुड़, कूर्म, स्कंद, वायु, विष्णु, अग्नि इत्यादि। वेद व्यास ने महाभारत की रचना की।
पाणिनी की अष्टाध्यायी में वासुदेव के उपासकों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें पौराणिक परम्परा में सत्तवत जाति का प्रमुख बताया गया है। छान्दोगयोपनिषद् में भी महर्षि अंगिरस के शिष्य के रूप में कृष्ण का वर्णन है। जिन लोगों ने अपने इष्टदेव के रूप में सिर्फ वासुदेव की ही पूजा की, उन्हें भागवत के नाम से जागा गया।
भारतीय इतिहास का मध्य काल देश के एक नए सांस्कृतिक जीवन का साक्षी रहा। इस समय एक नई समन्वित परम्परा का क्रमिक विकास हुआ, जिसे हिंद-इस्लामी संस्कृति की संज्ञा दी गई। इस समन्वित परंपरा के उदाहरण विभिन्न क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं। धार्मिक जीवन में यह, भक्ति आंदोलन और सूफी मत के रूप में सामने आया।
भक्ति आंदोलन का संबंध मुख्यतः हिन्दू धर्म से था और इसमें हिंदू धर्म एवं समाज सुधार के साथ-साथ हिंदू-मुस्लिम सहिष्णुता को बढ़ाने का प्रयास किया गया। इस आंदोलन को प्रभावित करने वाले तत्वों के संबंध में मतभेद तो अवश्य है, किंतु इतना स्पष्ट है कि दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद उत्तर भारत में इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच सम्पर्क प्रारंभ हुआ। परिणामस्वरूप विचारों और परंपराओं का आदान-प्रदान हुआ। इस्लाम में एकेश्वरवाद एवं बंधुत्व और समानता के विचारों पर बहुत बल दिया गया था। भक्ति आंदोलन में भी सर्वशक्तिमान ईश्वर की आराधना और ऊंच-नीच के बीच भेदभाव की समाप्ति की बात कही गई।
कई विद्वान एवं इतिहासकार मानते हैं कि भक्ति का सिद्धांत हिंदू धर्म में प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। हिंदू धर्म में आत्मा की मुक्ति के लिए तीन माग्र बताए गए थे ज्ञान माग्र, कर्म माग्र और भक्ति माग्र। भक्ति के विचार उपनिषदों एवं वेदों में मिल जाते हैं। मध्यकाल में इस सिद्धांत को आंदोलन का रूप देने का श्रेय दक्षिण भारत के अलवार और नयनार संतों को दिया जा सकता है, जिन्होंने सातवीं से लेकर बारहवीं शताब्दी के बीच इस विचार को लोकप्रिय बनाया तथा आत्मा की मुक्ति के लिए ईश्वर के प्रति पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति की भावना पर बल दिया।
भक्ति के सिद्धांत को तमिलभाषी क्षेत्र से महाराष्ट्र की ओर लाने वाले रामानुज थे। इनका समय 12वीं सदी का माना जाता है। रामानुज ने शंकराचार्य के अद्वैतवाद के सिद्धांत को भिन्न रूप में पेश किया और उसे विशिष्टाद्वैत का नाम दिया। इसमें परमात्मा को दया एवं अनुकम्पा का स्रोत माना गया है और समाज के दलित वर्गें को अर्थात् शूद्रों व अछूतों को भी मुक्ति का संदेश दिया गया। परंतु रामानुज ने उच्च एवं निम्न जाति के भेद को माना। उन्होंने उच्च जातियों के लिए भक्ति का सिद्धांत प्रस्तुत किया तो निम्न जाति के लिए प्रपत्ति का सिद्धांत भी प्रतिपादित किया। इनके समकालीन संत थे माधव एवं निम्बार्क। माधव ने द्वैतवाद चलाया था। रामानुज के शिष्यों में नामदेव ने महाराष्ट्र और रामानंद ने उत्तरी भारत के क्षेत्रों में भक्ति आंदोलन को व्यापक रूप प्रदान किया। नामदेव से लेकर 17वीं सदी में तुकाराम तक महाराष्ट्र में संतों की एक शृंखला मिलती है, जिसमें भक्ति भावना का प्रचार और ऊंच-नीच के भेदभाव का विरोध किया गया। तुकाराम ने पंढरपुर स्थित विठोबा के मंदिर को केंद्र बनाया तथा उन्हें कृष्ण के रूप में पूजने का विचार प्रस्तुत किया। तुकाराम के विचार उनके भजनों में देखे जा सकते हैं, जिन्हें सामूहिक रूप में ‘अभंग’ कहते हैं।
बाद में इन संतों के दो संप्रदाय सामने आए रूढ़िवादी अर्थात् सगुण सम्प्रदाय व उदारवादी अर्थात् निर्गुण सम्प्रदाय। रूढ़िवादी सम्प्रदाय के प्रमुख संत तुलसीदास थे, जिन्होंने रामचरितमानस की रचना की। निर्गुण सम्प्रदाय के प्रमुख संतों में कबीरदास और गुरुनानक आते हैं। कबीर बनारस के निवासी थे और इन पर रामानंद के विचारों का प्रभाव था। इन्हें सूफी मत ने भी प्रभावित किया। कबीर इस्लाम और हिंदू दोनों धर्मों के गुणों के प्रशंसक थे, पर निरर्थक कर्मकाण्डों के सख्त विरोधी थे। वे तीर्थ, व्रत एवं पूजा के वैसे ही विरोधी थे, जैसे रोजा और नमाज के। इनके उपदेश ‘बीजक’ में संकलित हैं। इनके अनुयायी कबीरपंथी कहलाए।
कृष्ण भक्ति सम्प्रदाय का विकास पश्चिम भारतए राजस्थान और पूर्वी भारत में विशेष रूप से हुआ। इसमें वल्लभाचार्य, मीराबाई और चैतन्य का विशेष योगदान रहा। वल्लभाचार्य का कार्यक्षेत्र गुजरात और पश्चिम भारत था। मीराबाई मेवाड़ के राजघराने में पैदा हुईं और इनका विवाह जयपुर घराने में हुआ, किंतु इन्होंने राजसी जीवन त्यागकर साधु-संतों की संगत की और कई भजनों की रचना की। चैतन्य महाप्रभु पश्चिम बंगाल में हुए। इन्होंने ईश्वर के भजन और संकीर्तन के साथ प्रेम एवं दया पर बल दिया। ये भी कृष्ण भक्त थे। आगरा के जन्मांध कवि सूरदास ने भी सखा रूप में कृष्ण की उपासना की। इस प्रकार हम पाते हैं कि हिंदू धर्म अनेक कालों में अनेक नई विचारधाराओं तथा मान्यताओं से प्रेरित व प्रभावित होता हुआ अपने वर्तमान रूप में सामने आया, जिसमें अनेक विसंगतियां, विकृतियां और विपथन की प्रवृत्ति घर कर गई हैं।
हिंदू धर्म के वर्तमान स्वरूप से पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी के राज में कई आयाम जुड़े। यूं तो इस राज के पहले बहुत-सी कुरीतियां विद्यमान थीं, किंतु पाश्चात्य सभ्यता, समाज और धर्मों के सम्पर्क में आने से वे कुरीतियां और उग्र हो उठीं। विशेष तौर पर इस उग्रता को उन्होंने अधिक महसूस किया, जिन्हें आधुनिक शिक्षा और पाश्चात्य ज्ञान, विज्ञान तथा दर्शन को समझने का अवसर मिला था। इन लोगों ने हिंदू सामाजिक रचनाए धर्म, रीति-रिवाज तथा परंपराओं को तर्क के तराजू में तौलना शुरू किया। परिणामस्वरूप, सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलनों का जन्म हुआ, जिनमें ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज और थियोसोफिकल सोसाइटी प्रमुख थे। दूसरी ओर आर्य समाज का जन्म हुआ। वास्तव में आर्य समाज को दोहरी भूमिका निभानी थी एक तरफ हिंदू धर्म से कुरीतियों तथा झूठे विश्वासों को समाप्त करना और दूसरी तरफ ईसाई पादरी प्रचारकों से हिंदू धर्म की रक्षा करना एवं हिंदुओं को ईसाई बनने से रोकना।

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