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Categories: sociology

हीनयान, महायान और वज्रयान क्या है | हीनयान और महायान में अंतर किस धर्म से सम्बन्धित है hinayana and mahayana in hindi

hinayana and mahayana in hindi हीनयान, महायान और वज्रयान क्या है | हीनयान और महायान में अंतर किस धर्म से सम्बन्धित है ?

 हीनयान, महायान और वज्रयान
इतिहास के लंबे दौर में बौद्ध धर्म जड़ता में डूबा नहीं रहा। भगवान बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों तथा संघ की स्थापना के बाद एशिया में भारी संख्या में प्रचारकों के फैलने के बाद बौद्ध धर्म में भारी परिवर्तन आया। नये मूल्य जुड़े जिससे सैद्धांतिक क्या संस्थागत नियमों में महत्वपूर्ण परिवर्तन आये । बाद में परस्पर विरोधी विचारधाराओं एवं विज्ञान तथा प्रविधि के प्रभाव के चलते एक धार्मिक आस्था संहति के रूप में बौद्ध धर्म में काफी बदलाव आया है। इसकी मूल प्रस्थापनाओं का जोर भगवान बुद्ध द्वारा बनाये गये रास्ते से प्रत्येक व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त करवाने पर था। हालांकि वे तरीके तपस्वी वाले नहीं थे फिर भी वे इतने आसान नहीं थे कि पुण्यात्मा अथवा अर्हत बनने के लिए उनका पालन लगातार किया जा सके। काफी पहले ही बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध के प्रति श्रद्धा से संबंधित कुछ आनुषांगिक चीजें जुड़नी शुरू हो गई थी। कुछ लोकप्रिय रुझान मसलन डमुली की पूजा आदि सामने नजर आने लगी। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण विकास ईसा पूर्व पहली शताब्दी या सन पहली शताब्दी ई. में हुआ। जैसा कि वेबर ने लिखा है कि एक निर्गुण धर्म को लोकप्रिय बनाने के दो तरीके हैं। पहला यह कि उसकी छवि मोक्षदाता की बने या दूसरा कि वह तांत्रिक प्रभाव दिखलाने वाली छवि हो । बौद्ध धर्म ने दोनों रास्ते अपनाये। पहले वह मोक्षदाता बना बाद में उसने तांत्रिक साधना को भी जोड़ लिया। इस तरह बौद्ध धर्म के भीतर तीन संप्रदाय बन गये-हीनयान, महायान और वज्रयान।

प) हीनयान: बुद्ध की मृत्यु के बाद कई बौद्ध संगतियों (धार्मिक बैठक) का आयोजन बौद्ध धर्म में आस्था तथा धार्मिक व्यवस्था के लिए किया गया। अंततः दो अलग-अलग धाराएं दिखने लगी। एक धारा (थेरावादी) विश्वास करती थी कि वह प्राचीनतम परंपरा की वाहक है तो दूसरी धारा (महायान) की मान्यता थी कि वे बुद्ध के संपूर्ण और सबसे उच्च उपदेशों के वाहक हैं। दक्षिण पूर्वी एशिया, श्रीलंका, बर्मा, थाईलैंड, लाओस, वियतनाम तथा कंबोडिया में स्थित थेरावाद अथवा हीनयान संप्रदाय बौद्ध धर्म की कई शाखाओं के अकेले प्रतिनिधि रह गये हैं। इसमें सुनिश्चित धर्मग्रंथ, समरूप परंपरागत उपदेश तथा भिक्खुओं की ओर जन-साधारण की व्यवस्थाओं में सुस्पष्ट अंतर मौजूद हैं। थेरावाद के धर्मग्रंथों पाली में रचित त्रिपिटक-विनयपिटक (अनुशासन के लिए), सत्तपिटक (सूत्र पवित्रपदेश के लिए) तथा अभिधाम पिटक (धर्म शास्त्र, ज्ञान के लिए) हैं। इस परंपरा में समुदाय के लिए आवश्यक नियम, साधना एवं अनुष्ठान की विधि तथा अर्हन्त के शिखर तक पहुँचने से संबंधित स्तरों के बारे में वर्णन है।

पप) नेपाल, सिक्किम, चीन, कोरिया तथा जापान में फैला महायान संप्रदाय भी विविध रुझानों-पंथों के जटिल मेल तथा विविध धर्म साहित्य वाला है। उनके सिद्धांत का मुख्य जोर हीनयान का विरोध करना है। जबकि चीन और जापान में प्रचलित इसके धर्म-साहित्य में बहु गूढ़ दर्शन से लेकर लोकप्रिय भक्ति और तंत्र तक शामिल है। सांस्थानिक रूप से यह तपस्वी तथा सांसारिक दोनों रूपों में पाया जाता है। इसने कई बार राज्य तथा सुसंगठित मठ की तरह भी काम किया है।

महायान संप्रदाय का आदर्श बोधिसत्य (बोध प्राप्त) रहा है जो सभी संवेदनशील प्राणियों के मोक्ष के लिए कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध है। जबकि इसके विपरीत हीनयान संप्रदाय के अर्हन्त आत्म-केन्द्रित रहे हैं। (इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका 1985ः603)

बॉक्स 2
अर्हन्त स्तर पर पहुंचने के पहले भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ तो वे बोधिसत्य कहलाये और मोक्षदाता के रूप में उनकी छवि उभरी । इसी से बोधिसत्व को मोक्षदाता के रूप में आगे भी प्रस्तुत करने की सूझ मिली होगी। बोधिसत्व में बुद्ध या अर्हन्त की संभावना थी। बुद्ध द्वारा करुणा पर जोर देने के कारण यह विचार सूझा कि यदि कई बोधिसत्वों का संपूजित ज्ञान उनकी स्थिति को बदल सकता है जो दुख की विभिन्न अवस्थाओं में डूबे हैं। ऐसा इसलिए सुझा कि यदि कोई एक बार अर्हन्त हो गया तो वह किसी दूसरे के काम का नहीं होगा। इसलिए तुरन्त अर्हन्त का स्तर पाने के बजाय इसे कुछ समय के लिए स्थगित किया जाना चाहिए लेकिन एक बोधिसत्व असंख्य जनसाधरण के लिए मोक्ष संभव कर सकता है। बौद्ध धर्म का यह रूप महायान कहलाया। महायान अर्थात (मोक्ष का) महान वाहन जो, हीनयान के विपरीत, असंख्य लोगों को मोक्ष की ओर ले जाएगा। हीनयान को छोटा वाहन कहा गया जो कम लोगों को ही मोक्ष की ओर ले जा सकेगा।

महायान और हीनयान में निम्नलिखित भेद हैं, हीनयान में देव पूजा तथा ईश्वर का कोई प्रावधान नहीं है। महायान ने इस धर्म में देव-पूजा का समावेश किया। महायान संप्रदाय में बोधिसत्व का सिद्धांत आस्तिकता का सबसे लोकप्रिय स्वरूप था। इस सिद्धांत के अनुसार, मनुष्यता के इतिहास में अनेक सत्पुरुष महात्मा बुद्ध के मार्ग में आते हैं, उन सभी को महात्मा बुद्ध बन जाने के पहले बोधिसत्व के स्तर तक पहुंचना होता है। फिर भी उनमें से अधिकांश बोधिसत्व के स्तर तक पहुंचकर रुक जाते हैं, क्योंकि वे दुख से भरे संसार के प्रति असीम करुणा से भर उठते हैं। वे महात्मा बुद्ध के स्तर तक पहुंचने की कोशिश करने के बजाए जरूरतमंद लोगों की सहायता के लिए रुक जाते हैं। इस तरह बोधिसत्व अंतःक्षेप करते हैं तथा लोगों को खतरों तथा मृत्यु से बचाते हैं। वे दुर्बल एवं असहाय की रक्षा करते हैं, बंदियों को मुक्त करते हैं, महामारी तथा अकाल का मुकाबला करते हैं, दुखी तथा निराश लोगों को सांत्वना देते हैं। इस तरह महायान संप्रदाय द्वारा बोधिसत्व की कल्पना कर बौद्ध धर्म के सिद्धांत के केन्द्र को पूरी तरह बदल दिया गया।

पपप) वजयान, मंगोलिया, तिब्बत तथा साइबेरिया के कुछ क्षेत्रों में तंत्रयान अथवा वज्रयान प्रचलित हैं। लेकिन इसे मुख्यतः तिब्बती लामवाद तथा उसके धर्म तंत्र के रूप में जाना जाता है।

बौद्ध दर्शन के तीसरे दौर में तांत्रिक आयाम जुड़ा । वज्रयान के अनुयायी विश्वास करते हैं कि मोक्ष पाने का सर्वोत्तम मार्ग है, तांत्रिक शक्ति यानी वज्र की प्राप्ति । वज का अर्थ है हीरा अथवा मेघ गर्जन जिसमें बिजली चमकती हो। हिन्दू धर्मकथाओं में वज को स्वर्ग के देवता इंद्र का अमोध अस्त्र कहा गया है। बहरहाल, बौद्ध धर्म का यह प्रकार देवियों पर केन्द्रित था और जो देवताओं के पीछे छिपी शक्ति थी। भगवान बुद्ध या बोधिसत्व संबंधी स्त्रियां उनकी मोक्ष दाता (तार) थीं। ऐसे अनुयायी जो विरक्ति तथा साधना के जरिये ऊँचे स्तर पर पहुंच जाते हैं। वे तांत्रिक साधना में सक्षम हो जाते हैं। वज्रयान संप्रदाय बंगाल, बिहार तथा तिब्बत में फैला है जहां वह आज भी जीवित है। बौद्ध तंत्र के प्रमुख मंत्र हैः ओम मणिपदमे हुम । ये तांत्रिक नुस्के तांत्रिक शक्ति प्रदान करते हैं और साधक को उच्चतम स्वर्गिक आनंद से भर देते हैं।

बौद्ध दर्शन और तत्कालीन समाज (Buddhist Philosophy and Society of that Age)
इन विचारों और उस समाज में क्या संबंध था जिसमें बौद्ध दर्शन की शुरुआत हुई थी? बौद्ध दर्शन का उस समाज पर क्या असर पड़ा? ये विचार तत्कालीन ब्राह्मणवादी विचारों से कितना साम्य रखते थे अथवा कितना अलग थे? इनमें से कुछ प्रश्नों पर हम आगे विचार

क) ब्राह्मणवाद से अलगाव (Break with Brahmanism)
यह सही है कि बौद्ध दर्शन ने उपनिषदवादी चिंतन से श्रमण परंपरा की व्यवस्था उधार ली लेकिन भगवान बुद्ध ने इन विचारों को महज पुनःप्रस्तुतीकरण नहीं किया। भगवान बुद्ध के विचारों में नयापन और व्यावहारिकता थी जिससे स्पष्ट था कि वे मनुष्यता के लिए एक स्थायी सामाजिक दर्शन गढ़ना चाहते थे। उनका चिंतन ब्राह्मणवाद से न केवल अलग था बल्कि वह ब्राह्मणवादी विचाराधारा पर प्रश्न चिह्न लगाता था और उसे अस्वीकार करता था। बाद में एक बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने इसी बात को अधिक स्पष्टता से कहा कि जो वेदों को अंतिम सत्य, वेदों को ईश्वर द्वारा रचित, पवित्र से स्थान पुण्य लाभ, जातिवाद का गर्व तथा पाप से छुटकारा लेने के लिए शरीर को भावना देने जैसी बातों को मानते हैं, वे मूर्ख हैं।

सामाजिक संस्थाओं के बारे में भगवान बुद्ध की समझ ब्राहमणवादियों से बिल्कुल अलग थी क्योंकि बौद्ध विचारधारा यह मानती थी कि सामाजिक व्यवस्था ईश्वर द्वारा नहीं, मनुष्य द्वारा निर्मित है। मानवीय सामाजिक वर्गीकरण से ही निजी संपत्ति, पारिवारिक पेशों की श्रेणियां तथा राजशाही जैसी चीजें निकली हैं।

ख) राजशाही तथा जाति से जुड़े अमों का निवारण (Demystification of Kingship and Caste)
ब्राह्मणवाद में ये दोनों संस्थाएं स्वयं ईश्वर द्वारा निर्मित समझी जाती थी। बौद्ध धर्म ने सामाजिक वर्गीकरण में फेरबदल करने की अनंत संभावनाओं को खोल दिया। बुद्ध ने परिवर्तन पर जोर देकर सामाजिक वर्गीकरण में फेरबदल को गति तथा स्वीकृति दिलवाई। उदाहरण के लिए देखें कि यदि सब कुछ निरंतर और परिवर्तनशील है तो वर्ण व्यवस्था और ईश्वर प्रदत्त राजशाही भी बदल सकती है। नये सामाजिक वर्गीकरण की अवधारणा में ही बौद्ध सामाजिक दर्शन का आधार लिखा जाता है। अपने युग की सामाजिक विडम्बनाओं को समझने के लिए, उससे रूबरू होने के लिए भगवान बुद्ध ने ऐतिहासिक शक्तियों की गति और दिशा के महत्व को पहचाना । उदाहरणार्थ, गोत्र आधारित समाजों और गण-संघों को टूटने से रोकना मुश्किल था, लेकिन भगवान बुद्ध ने अपने यहाँ उसी संघ को प्रारूप बनाया। मगर दोनों में अंतर था। बौद्ध संघ में सभी लोग जाति एवं संपत्ति के बावजूद समान थे। सभी निर्णय सर्वसम्मति से या मतदान से होते थे। वेदी प्रसाद चट्टोपाध्याय के शब्दों में संघ ‘‘लोगों की स्मृतियों, इच्छाओं का प्रतीक और कबीलाई जीवन का एक दीर्घकालिक स्वप्न था‘‘ । वस्तुतः यह एक वैकल्पिक समाज का सपना था।

हालांकि ये सद्विचार सिर्फ ‘‘भिक्कुओ‘‘ पर लागू होते थे। भिक्कू वही समन (श्रमण) होते थे जो मोक्ष के उद्देश्य से अपने परिवार तथा संपत्ति का त्याग कर चुके होते थे। संघ से बाहर की दुनिया में बौद्ध धर्म गतिशील वर्गीकरण पर जोर नहीं देता था। बौद्ध धर्म ने एक ऐसी संहिता दी जो दवा, आत्म नियंत्रण, मध्यम मार्ग, पर जोर देकर शोषण पर आधारित आर्थिक व्यवस्था के दमन पर जोर देती थी। बौद्ध नैतिकता इस बात पर बल देती थी कि संबंध पारस्परिक हों। मालिक यदि नौकरों से उचित व्यवहार करेंगे तो नौकर भी मालिक के लिए कठोर परिश्रम करेंगे। लेकिन ऐसी नैतिकता, आर्थिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं चाहती थी। उसी तरह से राजशाही को धम्म (धर्म) के अनुसार चलने की बात कही गई। इसका अर्थ यह था कि ईश्वर प्रदत राज्य पर बैठे शासक राजा बने रहेंगे।

ग) दान के जरिये अधिशेष के पुनः बँटवारे की व्यवस्था (Arrangement for Redistribution of Surplus through Dana)
बौद्ध सामाजिक दर्शन की दोहरी व्यवस्था जिसमें एक ओर संघ का परिवार था और दूसरी तरफ बाहरी जगत। इसी दोहरी व्यवस्था को ध्यान में रखकर दान अथवा भिक्षा देने को मुख्य रूप से महत्व दिया गया। दान ही संघ और बाहरी दुनिया के बीच पुल था । धर्म प्राणी जनसाधारण से मिल रहे दान से संघ का खर्च वहन होता था। दान एक ऐसा तरीका था जिसके द्वारा समाज अपने सीमांत समूहों तथा संन्यासियों का पालन करता था। ब्राह्मणवाद में यज्ञ जैसी व्यवस्था होती थी, उसकी जगह बौद्ध धर्म में दान ने ले ली। यज्ञ के जरिये यह होता था कि कोई अधिशेष ही न बचे जबकि दान अधिशेष के पुनर्वितरण को प्रभावित करता था। संक्षेप में कहें तो बौद्ध धर्म ने समाज से गैर-बरादरी के पूरे खात्में की बात नहीं सोची थी। बौद्ध आचार-संहिता के जरिये बिल्कुल नया समाज बनाने के बजाय एक सभ्य समाज बनाना चाहता था। मध्यम मार्ग के अंतर्गत वह शोषण के अतिरेक को नियंत्रित करना चाहता था । जन्म के आधार पर बनी सामाजिक श्रेणियों को बनाने वाले ब्राह्मणवादी मूल्यों पर बौद्ध धर्म ने प्रश्न चिहन लगाया। धर्मनिरपेक्ष संस्थाओं को मान्यता देने की बात उठाई। कुछ मामलों में तो इसने ब्राह्मणवाद की भयंकर आलोचना की। इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं कि भारत के दलित समूहों ने इसमें एक नये समाज का स्वप्न देखा । यह बुद्ध के युग और उसके बाद आज तक व्यावहारिक मानवतावादियों को आकृष्ट करता रहा है। इसके और अन्य कारणों के चलते बौद्ध धर्म न केवल भारत बल्कि दक्षिण, दक्षिण-पूर्वी तथा पूर्वी एशिया में लोकप्रिय हुआ। विश्व भर में आज तक बौद्ध धर्म को भारत का सबसे बड़ा योगदान माना जाता है।

 बौद्ध धर्म का उत्थान, विकास और पतन (The Growth, Development and Decline of Buddhism)
बुद्ध के युग के कुछ शताब्दियों बाद बुद्ध का दर्शन पूर्वी भारत की सीमाओं से बाहर निकल पड़ा। अपनी दार्शनिक अन्तर्वस्तु में वृद्धि के साथ-साथ नये वातावरण तथा परिवर्तनशील सामाजिक प्रक्रियाओं के साथ इसकी सृजनात्मक अन्तक्रिया से इसमें काफी बदलाव आया । राजाओं तथा दूसरे अभिजनों ने इसके विस्तार में सहयोग दिया। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी तक यह श्रीलंका और दक्षिण-पूर्वी एशिया में फैल गया था। चैथी-पाँचवीं शताब्दी (ई. सन) के आते-आते यह पूर्वी एशिया में सुस्थापित हो चुका था।

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