स्वपरागण और परपरागण में अंतर क्या है पर परागण (self pollination and cross pollination difference in hindi)
- इस प्रक्रिया में किसी एक पुष्प के परागकणों का स्थानान्तरण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र (स्वयुग्मन) अथवा उसी पौधे पर उत्पन्न अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र पर (स्वजात युग्मन) होता है।
- इस प्रक्रिया में भाग लेने वाले पुष्पों के परागकोष और वर्तिकाग्रों के परिपक्व होने का समय एक ही होता है।
- बन्द पुष्पी अवस्था में स्वपरागण की प्रक्रिया ही संभव है।
- स्वपरागण के लिए बाहरी साधनों अथवा माध्यम की जरुरत नहीं होती।
- यह पौधे के लिए मितव्ययी विधि है।
- इस प्रक्रिया के द्वारा लक्षणों की शुद्धता बनी रहती है।
- स्व परागण के द्वारा व्यर्थ अथवा हानिकारक गुणों की सन्तति पौधों से हटाना संभव नहीं है।
- इस प्रक्रिया के द्वारा लक्षणों की शुद्धता को आगामी पीढियों में बनाये रखा जा सकता है क्योंकि इससे प्राप्त पौधे समयुग्मजी होते है।
- पौधे के उपयोगी लक्षणों को असिमित काल के लिए संरक्षित किया जा सकता है।
- इसमें परागण की सफलता निश्चित होती है।
- परागकणों की अधिक बर्बादी नहीं होती , अत: यह मितव्ययी विधि है।
- इस प्रक्रिया के द्वारा निर्मित बीज अच्छा नहीं समझा जाता और इससे अंकुरित पौधा भी दुर्बल होता है।
- पौधों में जीवनी क्षमता का निरंतर हास पाया जाता है।
- पौधे की उत्पादन क्षमता आगामी पीढियों में क्रमशः घटती जाती है।
- इसके द्वारा पौधे की नयी किस्मों अथवा प्रजातियों का उद्भव नहीं होता।
- हानिकारक लक्षणों को सन्तति पौधों से हटाना संभव नहीं है।
पर परागण (cross pollination)
- यहाँ परागकणों का स्थानान्तरण , उसी प्रजाति के अन्य पौधों के वर्तिकाग्र पर होता है , (पर युग्मन)
- सामान्यतया यहाँ परागकोष और वर्तिकाग्र भिन्न भिन्न समय पर परिपक्व होते है।
- परपरागण के लिए पुष्प का खुला होना अनिवार्य होना है।
- परपरागण के लिए जैविक अथवा अजैविक बाहरी माध्यम अथवा साधन की आवश्यकता होती है।
- इसमें पौधे को असंख्य परागकणों के अतिरिक्त कुछ अन्य साधनों जैसे रंग , गंध और मकरंद आदि का भी उत्पादन करना होता है अत: यह मितव्ययिता के विपरीत है।
- इस प्रक्रिया के द्वारा संकर अथवा विषम युग्मजी सन्तति उत्पन्न होती है। अत: लक्षणों की शुद्धता प्राप्त नहीं होती।
- इसके द्वारा अनुपयोगी लक्षणों को आगामी सन्तति पीढ़ी से हटाया जा सकता है।
- परपरागण की अंतिम परिणिति पर निषेचन के रूप में होती है। अत: इसके परिणामस्वरूप नवीन संयोजन और पुनर्योजन विकसित हो सकते है , जिनसे आगामी पीढियों में विभिन्नतायें प्राप्त होती है। इनमें से कुछ विभिन्नताएं उपयोगी भी सिद्ध हो सकती है। यह उपयोगी विभिन्नताएँ पौधे को अस्तित्व के लिए संघर्ष में सहायता प्रदान करती है।
- विभिन्नताएँ और पुनर्संयोजनो द्वारा पौधों की नवीन और उन्नत किस्में अथवा प्रजातियाँ भी विकसित हो सकती है।
- परपरागण के परिणामस्वरूप निर्मित सन्तति पीढियों में रोग प्रतिरोधी क्षमता अधिक होती है।
- परपरागण द्वारा उत्पन्न सन्तति पीढियों की जीवन क्षमता अधिक होती है। ये पौधे अपेक्षाकृत स्वस्थ , सबल और उत्तम गुणवत्ता और अधिक उत्पादन देने वाले होते है।
- इस विधि की सहायता से व्यर्थ अथवा हानिकारक लक्षणों को आगामी पीढियों में हटाया जा सकता है।
- इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप पौधों में प्राप्त बीजों की संख्या बहुत अधिक होती है।
- यह एक अत्यंत अपव्ययी प्रक्रिया है जिसके लिए पुष्पों को असंख्य परागकणों का निर्माण करना पड़ता है और इनमे से अनेक परागकण दूसरे पुष्पों की वर्तिकाग्र पर नहीं पहुँच पाते , अभिगमन के दौरान मार्ग में ही नष्ट हो जाते है अत: पौधे के लिए अनुपयोगी सिद्ध होते है।
- यह परागण के लिए एक सुनिश्चित विधि नहीं है , इसमें सम्भावना कारक अथवा तत्व हमेशा मौजूद होता है।
- पर परागण में सक्रीय विभिन्न माध्यमों को आकर्षित करने के लिए पुष्पों में आकर्षण , रंग , गंध और मकरंद जैसे उपादानों का प्रयोग होता है। स्वपरागण की स्थिति में इनकी कोई जरुरत नहीं होती।
- परपरागण के द्वारा किसी पादप किस्म के उपयोगी और लाभदायक गुणों को संरक्षित नहीं किया जा सकता। आने वाली पीढियों में इनके विलोपित होने की सम्भावना बनी रहती है।
- परपरागण के द्वारा आने वाली पीढियों में अनिच्छित अथवा हानिकारक गुण प्रविष्ट हो सकते है और इनके स्थायी तौर पर बने रहने की प्रबल संभवना होती है।
पक्षी परागण (ornithophily in hindi) : परपरागण की यह प्रक्रिया पक्षियों के माध्यम से संपन्न होती है। विभिन्न सामान्य प्रकार की चिड़िया और पक्षी प्रजातियाँ विभिन्न पौधों के परागण में महत्वपूर्ण योगदान देती है। परागण में भाग लेने वाली चिडियों की चोंच सामान्यत: लम्बी होती है और ये छोटी साइज़ के पक्षी होते है। जैसे फूल सुंघनी चिड़िया आदि। सेमल के पुष्प में परागण इसका एक सुन्दर उदाहरण है। सेमल के वृक्ष में बड़े और आकर्षक लाल रंग के फूल खिलते है। जिस समय इसमें फूल खिलते है , उस समय पेड़ में एक भी पत्ती नहीं होती। लाल पुष्पों से लदा हुआ वृक्ष अत्यंत सुन्दर प्रतीत होता है। इस सुन्दर पुष्प के सभी भाग माँसल और श्लेष्मा युक्त होते है। पुष्प के लाल रंग से आकर्षित होकर और इसके माँसल भागों को खाने के लिए अनेक पक्षी इस तक पहुँचते है तो साथ ही परागण क्रिया भी संपन्न हो जाती है। पक्षियों द्वारा परागण क्रिया संचालित करने का एक अन्य उपयुक्त उदाहरण बिग्नोनिया के रूप में परिलक्षित किया जा सकता है। इस पौधे के पुष्प में दलपुंज , संयुक्त रूप से मिलकर एक नलिका का निर्माण करते है। इस नलिका के आधारीय भाग में मकरंद पाया जाता है। इसकी दलपुंज नलिका इतनी बड़ी होती है कि लम्बी चोंच वाली चिड़िया अपनी चोंच नलिका के अन्दर डालती है तो बाहर निकले हुए पुंकेसरों के परागकण भी इसकी चोंच पर चिपक जाते है। यह चिड़िया जब किसी ऐसे पुष्प का मकरंद चूसती है जिसके जायांग परिपक्व होकर बाहर निकल रहे हो तो ऐसी अवस्था में चोंच पर चिपके परागकण , वर्तिका पर पहुँच जाते है तथा परागण संपन्न हो जाता है।