कुतरने वाले जानवर के नाम क्या है ? कुतर कर खाने वाले जानवर कौन कौनसे है animals nibble their food in hindi

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कुतरनेवाले प्राणी
कुतरनेवाले प्राणियों में शशक , गिलहरियां, शश , गोफर , घूसें , चूहे और कई अन्य छोटे छोटे स्तनधारी शामिल हैं । वनस्पतियां और अनाज इनका भोजन है और जहां कहीं यह उन्हें मिल सकता है विभिन्न कुतरनेवाले प्राणी वहीं अपना डेरा डालते हैं। कुतरनेवाले प्राणियों में से कुछ उपयोगी हैं और कुछ हानिकर।
गिलहरियां कुतरनेवाले उपयोगी प्राणियों में गिलहरी अव्वल है (प्राकृति १४४)। इससे कीमती फर मिलती है। गिलहरी एक बड़ा ही खबसूरत और शानदार प्राणी है। उसके लंबी झब्बेदार पूंछ होती है और लंबे कान। कानों के ऊपरी सिरों पर बालों के गुच्छे होते हैं। गिलहरी आम तौर पर शंकुल वृक्षों पर रहती है और गरमियों में उसका ललौहां रंग इन पेड़ों के तनों के रंग जैसा ही होता है। शरद में उसका निर्मोचन होता है और जाड़ों के समय उसके शरीर पर भरे रंग की विभिन्न झलकों वाली घनी फर बढ़ती है। इस प्राणी की शिशिरकालीन खाल से गरमीदेह , मुलायम और खूबसूरत फर मिलती है।
गिलहरी जंगलों में रहती है और उसके शरीर की संरचना पेड़ों पर के जीवन के लिए अच्छी तरह अनुकूल होती है। उसकी पिछली टांगें अगली टांगों से लंबी होती हैं क्योंकि वह उछलती हुई चलती है। असाधारण चपलता के साथ वह एक शाखा से दूसरी शाखा पर और कभी कभी तो एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर छलांग मारती है। उसकी झब्बेदार पूंछ अंशतः पतवार का और अंशतः पैराशूट का काम देती है। तेज नखरों वाली अंगुलियां इस प्राणी को पेड़ के तनों से चिपके रहने और पतली टहनियों को पकड़े रहने में मदद देती हैं।
गिलहरी के भोजन में चीड़ और सनोबर के बीज , देवदार और हैजल वृक्ष के काष्ठफल , ओक वृक्ष के बीज और कुकुरमुत्ते शामिल हैं। गरमियों में गिलहरी कुकुरमुत्तों को पेड़ों पर टांगकर सुखाती है और जाड़ों के लिए उनका संग्रह करती है।
गिलहरी के दांत शशक के दांतों से मिलते-जुलते होते हैं। उसके लंबे और तेज सम्मुख दंत होते हैं जिनसे वह आसानी से काष्ठफल तोड़ सकती है। भोजन को चबाने के लिए चर्वण-दंत होते हैं । कुतरनेवाले अन्य प्राणियों की तरह गिलहरी के सुग्रा-दांत नहीं होते। सम्मुख दंतों और चर्वण-दंतों के बीच कोई दांत नहीं होते। वह जगह खाली होती है।
बच्चे जनने और बुरे मौसम से बचाव करने के लिए गिलहरी पेड़ों की चोटियों के पास या उनके खोडरों में टहनियों और काइयों का घोंसला बनाती है। वह जाड़ों में सुषुप्तावस्था में नहीं रहती क्योंकि उसे तब भी भोजन मिलता है।
भारतीय धारीदार गिलहरी
भारत में जंगलों तथा बगीचों में और यहां तक कि मकानों के आसपास भी, यानी सब जगह , हमें छोटी धारीदार गिलहरी दिखाई देगी। लंबी झब्बेदार पूंछ और भूरी-काली पीठ पर की तीन सफेद-सी धारियों के कारण यह आसानी से पहचानी जा सकती है। वह पी-पी-पी की कर्कश ध्वनि से अपना अस्तित्व घोषित करती है।
धारीदार गिलहरी पेड़ों पर रहनेवाला प्राणी है। संकट की जरा-सी भी आहट पाते ही वह जमीन से भागकर जल्दी जल्दी अपने छोटे और तेज नखरों के सहारे पेड़ पर चढ़ जाती है। वह पेड़ों पर (और कभी कभी छप्परों पर) घास तथा रेशेदार पदार्थों से घोंसला बनाती है और उसमें २-४ बच्चे देती है। चूंकि वह उछलती हुई दौड़ती है इसलिए उसकी पिछली टांगें अगली टांगों से लंबी होती हैं। एक शाखा से दूसरी शाखा पर छलांग मारने में उसकी झब्बेदार पूंछ भी मदद देती है। गिलहरी विभिन्न पेड़ों के फल, कलियां और बीज खाकर रहती है।
भारत में गिलहरी मकानों के पास नजर आती है और कभी कभी तो कमरे तक में चली आती है। लोग इस अहानिकर प्राणी को प्यार करते हैं। इस कारण उसके बरताव में परिवर्तन आया है। सभी जंगली जानवरों में मनुष्य से दूर भाग जाने की सहज प्रवृत्ति होती है। पर गिलहरी में इसका स्थान एक नयी नियमित प्रतिवर्ती क्रिया ने लिया है। गिलहरी मनुष्य से डरती नहीं और चुपचाप उसे अपने पास आते देखती है। धारीदार गिलहरी को नीम-पालतू प्राणी कहा जा सकता है।
उड़न-गिलहरी भारत के जंगलों में उड़न-गिलहरी मिलती है। इसमें साधारण गिलहरी की अपेक्षा एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर छलांग मारने की अधिक अनुकूलता होती है। इसकी अगली और पिछली टांगों के बीच त्वचा की एक चैड़ी परत तनी रहती है। उछलते समय इसे फैलाकर गिलहरी एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर उड़ती-सी चली जाती है। इससे भोजन ढूंढने के काम में शीघ्रता आती है। इस गिलहरी का भोजन फल और काष्ठफल हैं। उड़नगिलहरी को शाम के समय देखा जा सकता है जब वह चुपचाप पेड़ों के बीच हवा में सरकती रहती है। दिन के समय वह खोडरों में छिपकर सो रहती है (प्राकृति १४५)।
शश गिलहरी की फर से कम कीमती फर शश (आकृति १४६ ) से मिलती है। मांस के लिए भी इस प्राणी का शिकार किया जाता है। जंगलों में सफेद शश रहते हैं। यह नाम इसलिए पड़ा कि गरमियों में उनकी फर का रंग अदरक का सा भूरा रहता है जबकि जाड़ों में वह सफेद बन जाता है। हां, कानों के सिरे हमेशा काले होते हैं। ऐसे रंग के कारण यह प्राणी बर्फ में छिपा रह सकता है।
शश बाहरी तौर पर शशक के समान ही होता है। उसके वैसा ही छोटा धड़, अग्रांगों से लंबी पिछली टांगें, लंबे कान और छोटी पूंछ होती हैं। शश चैकड़ी भरता हुआ दौड़ता है। उसके चैड़े पंजों पर घने बाल होते हैं जिससे वह भुरभुरी बर्फ पर भी आसानी से दौड़ सकता है।
सफेद शंश विविध पौधे और पेड़ों की छाले खाकर रहता है। उसके दांत गिलहरी के से ही होते हैं पर ऊपरवाले सम्मुख दंतों के पीछे शशक की तरह एक जोड़ा छोटे सम्मुख दंत होते हैं।
शश नियमित रूप से रात के समय भोजन के लिए बाहर निकलता है। दिन के समय वह किसी झाड़ी-झुरमुट में पड़ा रहता है। अपनी छिपने की जगह की ओर लौटते समय वह सीधे नहीं दौड़ता बल्कि अपने पदचिह्नों के इधर-उधर छलांगें लगाता हुआ उन्हें उलझा देता है। इससे वह भेड़ियों और लोमड़ियों जैसे अपने अनेकानेक शत्रुओं से अपने को बचाये रख सकता है।
शश को उसकी गंध से ढूंढ लेना भी मुश्किल होता है क्योंकि उसके बहुत कम स्वेद-ग्रंथियां होती हैं। ये पंजों पर होती हैं और इसी कारण कुत्ते शश को उसके पदचिह्नों के सहारे ढूंढ निकालते हैं। सुविकसित श्रवणेंद्रियों और सिर के दोनों ओर स्थित आंखों के सहारे शश समय पर अपने शत्रुओं की आहट पा सकता है।
गरमियों में दो या तीन बार शश की मादा बच्चे देती है। शशक के विपरीत शश मांद नहीं खोदते। इनके बच्चे पैदाइश के समय शशक के बच्चों से अधिक परिवर्दि्धत होते हैं। वे देख सकते हैं, उनके कान जन्म से ही सीधे खड़े होते हैं और उनकी त्वचा मोटे भूरे फर से ढंकी रहती है। नवजात शश मां का दूध (जो गाय के दूध से छः गुना गाढ़ा होता है ) आकंठ पी लेने के बाद घास के बीच किसी सूराख में छिप जाते हैं और दो-चार दिन वहीं पड़े रहते हैं। अपने रंग के कारण और गंध के अभाव के कारण वे अच्छी तरह छिपे रह सकते हैं। तीन-चार दिन बाद भूख लगने पर वे अपने आश्रय-स्थान से बाहर आते हैं और अपनी मां या दूसरी मादा को ढूंढकर फिर भरपेट दूध पी लेते हैं। आठवें या नवें दिन उनके दांत निकलते हैं और वे घास खाने लग जाते हैं।
अधिकतर दक्षिण के वनरहित प्रदेशों में भूरा शश मिलता है। भूरा शश सफद शश से बड़ा होता है और उसकी रंग-रचना भिन्न होती है। जाड़ों के प्रारंभ में केवल उसकी बगलें सफेद हो जाती हैं, पर पीठ भूरी ही बनी रहती है। जाड़ों में हल्की हिम-वर्षा वाले स्थानों में रक्षा की दृष्टि से यह रंग-रचना बड़ी काम की है।
भूरा शश कभी कभी बड़ी हानि पहुंचाता है। वह फल-बागों में पेड़ों की छाल खा जाता है।
गोफर नुकसानदेह कुतरनेवाले प्राणियों में सबसे त्रासदायी कृषिनाशक प्राणी विशेषकर रूस के दक्षिणी हिस्सों में गोफर है। उदाहरणार्थ टप्पेदार गोफर (रंगीन चित्र ३) को लो।
गोफर स्तेपियों के विशिष्ट निवासी हैं। काली मिट्टीवाले प्रदेशों में ये बहुत बड़े पैमाने पर फैले हुए हैं। गरमियों में गोफर आम तौर पर सड़क के किनारे अपनी पिछली टांगों के बल बैठे हुए नजर आते हैं। संकट की जरा-सी आशंका होते ही वे भागकर जमीन के नीचे खोदी गयी मांदों में छिप जाते हैं ।
गोफर का भोजन है पौधे। वे अनाज के दानों और खाद्यान्न की फसलों की डंडियों पर मुंह मारते हैं। जिन खेतों में गोफर बड़ी संख्या में होते हैं वहां की फसल में काफी घाटा आता है।
जाड़ों में जब खेत और स्तेपी के मैदान बर्फ की चादर ओढ़ लेते हैं और भोजन की कमी होती है तो गोफर अपनी मांदों में सुषुप्तावस्था में मग्न हो जाते हैं । मांद का द्वार वे मिट्टी से बंद कर देते हैं । उस समय उनकी जीवन प्रक्रियाएं काफी कम सक्रिय होती हैं। उनका श्वसन और हृदय-स्पंदन मंदा पड़ जाता है य शरीर का तापमान ४ सेंटीग्रेड पर पहुंच जाता है और उपापचय बहुत धीरे धीरे चलता है। सुषुप्तावस्था में मग्न गोफर इतना जड़ हो जाता है कि कहना मुश्किल होता है कि वह जिंदा है या नहीं।
सुषुप्तावस्था से जागृत होने के तीन-चार सप्ताह के अंदर मादा छरू से आठ या अधिक बच्चे देती है। बच्चे अंधे होते हैं। मां उनके लिए मांद की गहराई में घोंसला बनाती है। गोफर के बच्चे बड़ी तेजी से बड़े होते हैं और पैदाइश के एक महीने बाद ही अपना स्वतंत्र जीवन बिताने लगते हैं। वे अपने लिए नयी मांद खोद लेते हैं।
इधर काली मिट्टीवाली स्तेपियों में ठप्पेदार गोफरों की मात्रा घटने लगी है। उनके विरुद्ध कदम उठाये गये और कोलखोजों में कोई ऐसी अनजोती जमीन नहीं रही जहां ये प्राणी मांदें बना सकें और बच्चे पैदा कर सकें।
सोवियत संघ की दक्षिण-पूर्वी स्तेपियों में एक और प्राणी खेती को बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाता है। यह है छोटा गोफर। यह न केवल फसलों का बल्कि चरागाहों का भी सत्यानाश कर डालता है मवेशियों के लिए जरूरी बढ़िया घास वह चट कर जाता है। इसके अलावा गोफरों की मांदों से उखाड़ी गयी मिट्टी में उगी हुई घास मवेशियों के लिए उपयुक्त नहीं होती।
घूसें और चूहे घूसें और चूहे बड़े बदनाम अनाज-चोर हैं और सब जगह पाये जाते हैं। दोनों तथाकथित मूषक समान कुतरनेवाले प्राणियों की श्रेणी में शामिल हैं।
कत्थई घूस उसके बड़े आकार के कारण चूहे से अलग पहचानी जा सकती है। उसकी लंबी पूंछ पर शल्क होते हैं और उनके बीच छोटे छोटे बाल।
घूस फर्श के नीचे , तहखानों में और दीवारों में गुप्त-सा जीवन बिताती है। अपने तेज सम्मुख दंतों से वह लकड़ी को कुतरकर आने-जाने के लिए कई सूराख बनाती है। स्टीमरों की पेंदियों में घुसकर ये प्राणी सारे संसार में फैल जाते हैं।
घूसें तरह तरह की वनस्पतियां , अनाज और प्राणिज पदार्थ खाती हैं। गोदामों और घरों में घुसकर ये बड़ा नुकसान पहुंचाती हैं।
कत्थई घूस की पूरी जिंदगी दो-तीन वर्ष की होती है, पर यह जल्दी जल्दी बच्चे पैदा करती है। मादा साल में चार-पांच बार बड़ी संख्या में (हर समय छः से आठ) बच्चे देती है। उनके लिए वह घोंसला बनाती है। बच्चे अंधे , बालों से खाली और असहाय होते हैं। वे जल्दी बड़े होते हैं और तीन महीने के अंदर अंदर खुद बच्चे पैदा कर सकते हैं।
एक और हानिकर कुतरनेवाला प्राणी है घरेलू चूहा। यह मनुष्य को बड़ी घूस जितना ही नुकसान पहुंचाता है।
खेतों में चूहे जैसे कई कुतरनेवाले प्राणी रहते हैं। इनका एक उदाहरण है धानी चूहा। घरेलू चूहे से यह इस माने में भिन्न है कि इसकी कत्थई पीठ पर एक काली धारी होती है। भूरे धानी चूहे की पूंछ अपेक्षतया छोटी होती है।
घूसें और गोफर इसलिए भी बड़े खतरनाक हैं कि वे प्लेग जैसी भयंकर महामारी फैलाते हैं।
सूअर-घूस या बैंडीकूट साधारण चूहों और घूसों के अलावा भारत में सूअर-घूसें भी मिलती हैं। यह एक बड़ी घूस है। उसकी लंबाई ६० सेंटीमीटर तक और वजन एक किलोग्राम से अधिक हो सकता है। उसकी मोटी फर ऊपर की ओर खाकी लिये काली और नीचे की ओर भूरी-सी होती है। सूअर-घूस जमीन में रहती है और वहां लंबी लंबी सुरंगें बनाती है। पेड़ों की जड़ों को वह तहस-नहस कर देती है। वह इमारतों के नीचे भी मांदें बनाती है और मिट्टी के बांध आदि को नष्ट करके काफी नुकसान पहुंचाती है। वह वनस्पति-भोजन पर निर्वाह करती है।
वह रात में मांद से बाहर निकलती है और फलों और यहां तक कि मुर्गीबत्तखों तक को उड़ा ले जाती है। सूअर-घूस भी पिस्सुओं के जरिये प्लेग की भयंकर महामारी फैला सकती है। कुतरनेवाले अन्य प्राणियों की तरह सूअर घूस भी जल्दी जल्दी बच्चे पैदा करती है और हर बार दस से अधिक बच्चे। इस अत्यंत हानिकर प्राणी का निर्दयता से नाश करना चाहिए ।
पोरक्यूपाइन कुतरनेवाले प्राणियों में से एक और है भारतीय पोरक्यूपाइन। इसकी पीठ पर और बगलों में लंबे और तेज काटे होते हैं। पूंछ के सिरे में कांटे पोले होते हैं और सिरों पर खुलते हैं। इनकी मदद से पोरक्यूपाइन अपने शत्रुओं को डराने के लिए शोर पैदा करता है। अगर शत्रु उसका पीछा जारी रखता है तो पोरक्यूपाइन रुक जाता है और अपने कांटे पीछा करनेवाले प्राणी के शरीर में गड़ा देता है। ये कांटे इतने तेज होते हैं कि त्वचा में घुस जाते हैं। इस प्रकार ये कांटे शत्रु से बचाव का एक अच्छा साधन हैं। वे बालों का ही एक परिवर्तित रूप हैं।
पोरक्यूपाइन रात्रिचर प्राणी है। वे पहाड़ियों में बनायी गयी मांदों में दिन का समय बिताते हैं। यह इन प्राणियों का मनपसंद वासस्थान है। इसी कारण भारत में बड़े पैमाने पर फैले हुए होने पर भी पोरक्यूपाइन विरले ही दिखाई पड़ते हैं। सूर्यास्त के बाद वे भोजन की खोज में निकलते हैं। कुतरनेवाले अन्य प्राणियों की तरह पोरक्यूपाइन भी विभिन्न वनस्पति भोजन पर निर्वाह करते हैं। खेतों और बगीचों में लगाये गये पौधों को नष्ट करके वे गहरा नुकसान पहुंचाते हैं।
पोरक्यूपाइन हर बार दो-चार बच्चे देता है। पैदाइश के समय बच्चों के शरीर पर छोटे और मुलायम कांटों की परत होती है।
कुतरनेवाले प्राणियों के विरुद्ध उपाय
हानिकारक कुतरनेवाले प्राणियों के विरुद्ध जोरदार लड़ाई की जा रही है। उन्हें तरह तरह के फंदों, जालों और मूसादानियों में पकड़ा जाता है, मांदों ही में नष्ट कर दिया जाता है, जहरीले चारे की मदद से ( उदाहरणार्थ, जहरीली जई खिलाकर) मार डाला जाता है।
इनके विनाश का बायोलोजिकल तरीका भी अपनाया जाता है। यह है इन प्राणियों के प्राकृतिक शत्रुओं की रक्षा। इनमें शिकारभक्षी पक्षी , साही , गंधबिलाव इत्यादि शामिल हैं। इस तरीके का महत्त्व इस बात से स्पष्ट है कि स्तेपियों के गंधबिलाव का एक एक परिवार सालाना ८०० गोफरों का नाश करता है। वह गरमियों और जाड़ों में उनकी मांदों में घुसकर यह काम करता है।
कुतरनेवाले प्राणियों की रोक-थाम संबंधी कार्रवाइयां बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें से कुछ यों हैं – गोदामों में इस प्रकार माल व्यवस्थित रखना कि कुतरनेवाले प्राणी वहां पहुंच न पायें , समय पर और सावधानी से फसल की कटाई।
कुतरनेवाले प्राणियों का वर्गीकरण
गिलहरियों, शशों , गोफरों , घूसों और चूहों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि उनमें कई समान लक्षण हैं। ये सभी प्राणी वनस्पति-भोजन खाते हैं। उनके दांतों की संरचना एक-सी होती है – सम्मुख दंत जबड़ों में गहरे गड़े रहते हैं य कुतरते समय वे तेज होते हैं और बराबर बड़े होते रहते हैं, चर्वण-दंतों में चैड़ी चबानेवाली सतह होती है य सुप्रा-दांतों का अभाव रहता है। अन्य समान लक्षण भी देखे जा सकते हैं – अपेक्षतया छोटा आकार , शीघ्रता से जनन । इन सभी कारणों से गिलहरियों , शशों , गोफरों , घूसों और चूहों तथा उन्हीं के जैसे लक्षणों वाले अन्य प्राणियों को कुतरनेवाले प्राणियों की श्रेणी में रखा जाता है।
इसी प्रकार कई समान लक्षणों के कारण छडूंदर और साही को कीटभक्षी स्तनधारियों और विभिन्न चमगादड़ों को काइराप्टेरा की श्रेणी में गिना जाता है।
एक श्रेणी में शामिल प्राणियों के सभी लक्षण समान नहीं होते। इस प्रकार कुतरनेवाले अन्य प्राणियों से शश और शशक न केवल बाह्य स्वरूप की दृष्टि से पर इस लिए भी भिन्न हैं कि इनके ऊपरवाले जबड़े के बड़े सम्मुख दंतों के पीछे एक जोड़ा छोटे सम्मुख दंत भी होते हैं। इन प्राणियों के बड़े सम्मुख दंतों पर आगे और पीछे दोनों ओर इनैमल की परत होती है। कुतरनेवाले अन्य प्राणियों के दांतों पर सिर्फ आगे की ओर इनैमल होता है। शशों और शशकों को शश कुल में रखा जाता है इसके कुछ अन्य लक्षणात्मक कारण भी हैं। गिलहरियों और गोफरों से गिलहरी कुल बनता है।
चूहों और घूसों को उनकी परस्पर समानता और शश तथा शशकों से भिन्नता के कारण मूषक कुल में रखा जाता है।
दूसरी ओर एक ही कुल के प्राणियों में भी भिन्नता होती है। उदाहरणार्थ , शशक मांद में घोंसले बनाता है और उसके बच्चे पैदाइश के समय अंधे होते हैं य तो शश मांद नहीं बनाता और पैदाइश के समय उसके बच्चों के दृष्टि होती है और फर भी। इस कारण कुलों को जातियों में विभक्त किया जाता है। शश कुल में दो जातियां हैं- शशक जाति और शश जाति।
शशों के प्रकार हैं – सफेद शश और भूरा शश। सफेद शश जंगलों में रहता है, जाड़ों के शुरू में उसके सफेद फर निकलती है, उसके पंजे चैड़े और अधिक बालदार होते हैं जोकि भुरभुरी बर्फ पर चलने के लिए अनुकूल हैं। भूरा शश सफेद शश से बड़ा होता है, वन्य-स्तेपियों और स्तेपियों में रहता है और जाड़ों के समय उसका रंग अंशतः बदलता है। ये शश विभिन्न प्रकारों में आते हैं। एक को कहते हैं सफेद शश प्रकार और दूसरे को भूरा शश प्रकार।
प्राणी के हर प्रकार का दोहरा नाम होता है (सफेद शश, भूरा शश)। नाम का दूसरा शब्द प्राणी की जाति सूचित करता है जबकि पहला शब्द – प्रकार। ऐसे दोहरे नामों की प्रणाली १८ वीं शताब्दी में विख्यात स्वीडिश वैज्ञानिक लिन्नेय (१७०७-१७७८) ने शुरू की।
कुतरनेवाले प्राणियों के अन्य कुल भी जातियों और प्रकारों में विभाजित किये जाते हैं। उदाहरणार्थ मूषक कुल घूस जाति और चूहा जाति में बंटा हुआ है। घूस जाति भूरी घूस और काली घूस इन दो प्रकारों में और चूहा जाति घरेलू चूहा और धानी चूहा इन दो प्रकारों में विभाजित है। गोफर जाति के भी दो प्रकार हैंठप्पेदार गोफर और छोटा गोफर।
प्रत्येक प्रकार में ऐसे प्राणी आते हैं जो सभी लक्षणों में अधिक से अधिक समानता रखते हैं।
प्रश्न – १. किन लक्षणों से यह सूचित होता है कि गिलहरी की संरचना पेड़ पर के जीवन के अनुकूल है ? २. भारतीय धारीदार गिलहरी और साधारण गिलहरी के बरताव में क्या फर्क है और उसका कारण क्या है ? ३. पोरक्यूपाइन के कांटे क्या काम देते हैं ? ४. सफेद शश का शरीर जाड़ों में सफेद फर से ढंकता है इसका क्या महत्त्व है ? ५. जाड़ों में गोफर सुषुप्तावस्था में क्यों रहते हैं जब कि गिलहरी सक्रिय रहती है ? ६. कुतरनेवाले प्राणियों के खिलाफ कौनसे कदम उठाये जाते हैं ? ७. हमने कुतरनेवाले जिन प्राणियों का अध्ययन किया उनका विभाजन किन कुलों, जातियों और प्रकारों में किया जाता है ?
व्यावहारिक अभ्यास – ‘कुतरनेवाले प्राणियों के वर्गीकरण‘ की सारणी स्मरण से अपनी कापी में लिखो।

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