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Categories: इतिहास

हर्यक वंश का संस्थापक कौन था Haryanka dynasty founder in hindi हर्यक वंश का इतिहास

हर्यक वंश का इतिहास हर्यक वंश का संस्थापक कौन था Haryanka dynasty founder in hindi ?

उत्तर : हर्यक वंश की स्थापना 544 ई. पू. में सम्राट बिम्बिसार के द्वारा की गयी थी अर्थात हर्यक वंश के संस्थापक सम्राट बिम्बिसार को कहते हैं |

प्रश्न: शैशुनाक एवं हर्यक वंश कालीन मूर्तिकला
उत्तर: शैशुनाक एवं हर्यक वंश की उपलब्ध प्रतिमाओं में से सबसे प्राचीन प्रतिमा अजातशत्रु की है। यह महात्मा बुद्ध कासमकालीन था। यह मूर्ति
मथुरा के परखम नामक गांव में मिली थी। अतः इसे परखम का यक्ष के नाम से भी जाना जाता है। महाकवि भास के प्रतिमा नाटक से ज्ञात होता है कि उस समय मृत व्यक्तियों (राजाओं) की मूर्तियां बनाकर एक देवकुल (देवल) में रखी जाती थी और उनकी पूजा होती थी। यह प्रथा सम्भवतः महाभारत काल से चली आते हुए गुप्त काल तक प्रचलित रही। अन्य मूर्तियाँ अजातशत्रु के पोते अजउदयी (जिसने पाटलीपुत्र बसाया था मृत्यु 467 ई.पू.) तथा उसके बेटे श्नंदिवर्धन (मृत्यु 418 ई.पू.) की पटना के समीप प्राप्त हुई थी और अब कलकत्ता संग्रहालय में सुरक्षित है।
शैली ये तीनों मूर्तियां एक ही शैली की बनी हुई हैं व मानव के वास्तविक आकार से भी अधिक बड़ी हैं। ये आरम्भ की आद्य-कला का ठेठ नमूना कही जा सकती हैं। इनकी शैली में वास्तविकता का पुट है जिनकी कला अत्यधिक विकसित शैली की. कही जायेगी। इनमें अतीत के संरक्षण व आदिम मानव प्रवृत्ति पूर्णतया विद्यमान है। विद्वानों ने इन्हें यक्ष मूर्तियाँ ‘ माना है। ये मूर्तियाँ कठिन, रूढ़, जीवनहीन, सीधी-समक्ष और अत्यन्त सम्मित रचना है और इनमें किसी भी प्रकार की कोई गति नहीं प्रतीत होती है। शरीर के अंग समान अनुपात में है। वक्ष मजबूत है और धड़ पुरुषोचित है। कन्धे चैड़े व मजबूत हैं।
श्पटना के यक्षश् की मूर्ति भी जीवन शून्य है, परन्तु कुछ अच्छे ढंग से तराशी गई है। इसी शैली से संबंधित इस युग की तीन अन्य मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं जो निम्न प्रकार से है-
ं(1) स्त्री मूर्ति – यह प्रतिमा मथुरा में मनसा देवी के नाम से पूजी जाती है।
(2) स्त्री मूर्ति – ग्वालियर राज्य के बेसनगर प्रान्त से प्राप्त हुई है।
(3) पुरुष मूर्ति – यह मूर्ति मथुरा के बरोदा नामक ग्राम से प्राप्त हुई है।

प्रश्न: उत्तर वैदिक काल से लेकर पूर्व मध्यकाल तक के उन शिल्पशास्त्रीय ग्रंथों का उल्लेख कीजिए। जिनसे उस समय की शिल्पकला पर प्रकाश पड़ता है?
उत्तर: उत्तर वैदिक साहित्य से ज्ञात होता है कि उस काल में विविध विधाओं के साथ-साथ श्नाट्यश् एवं श्वास्तुशास्त्रोंश् का विकास भी किया गया
था। अनेक शिल्पकलाओं ने भी प्रगति की। हस्तिनापुर से ईंट निर्मित प्राचीर के अवशेष प्राप्त हुए थे। अतिरंजीखेड़ा में भूरे रंग के चित्रित मृद्भाण्ड स्तर से कुलाल के आवा (भट्टे) के अवशेष मिले हैं। जातकों में अठारह प्रकार के शिल्पों का उल्लेख मिलता है। सूत्र साहित्य में कला के विषय में उपयोगी सूचनायें मिलती हैं। आश्वलयन एवं सांखायन गृह्यसूत्र दोनों के ही तीन अध्यायों में भवन निर्माण संबंधी नियमों का प्रतिपादन करते हैं। शुल्व सूत्रों में यज्ञ की वेदी के निर्माणार्थ सूक्ष्म नाप व नियमों के निर्देश प्राप्त होते हैं।
आश्वलायन गृह्यसूत्र में मिट्टी, पत्थर और काष्ठ से निर्मित बर्तनों का उल्लेख मिलता है। बौधायन के अनुसार राजा कुम्हारों से यज्ञ में उपयोगार्थ विविध बर्तन बनवाते थे। जातकों में अनेक शिल्पकारों के ग्रामों का उल्लेख हुआ है। वाराणसी के निकट श्कुम्भकार ग्रामश् में कुम्भकार ही बसे हुए थे। इसी प्रकार विभिन्न शिल्पकारों की वीथियों का भी उल्लेख जातकों में हुआ है। जैसे – दन्तकार वीथि (हाथीदाँत का काम करने वाले कारीगरों की गली), रजकवीथि और तन्त विततट्ठान (जुलाहों की गली)।
महासुदस्सन सुत्त के अनुसार चक्रवर्ती महासुदस्सन के राजप्रासाद की ऊँचाई 3 पुरुष (लगभग 18 फुट) थी। प्रासाद में .84,000 स्तम्भों की पंक्तियां थी। यह राजप्रासाद सोपान सूचियों, उष्णीश, कोठे, स्वर्ण एवं रजत के बने पलंगों से सुसज्जित था। इसी प्रकार महाउम्मग्ग जातक में गंगा के तट पर स्थित एक नगर एवं प्रासाद का उल्लेख मिलता है। यह राजप्रासाद रक्षा प्राचीर से घिर हुआ था जिसमें 60 छोटे व 80 बड़े द्वार थे।
कला संबंधी उल्लेखों की दृष्टि से अग्निपुराण, स्कन्धपुराण, हरिवंशपुराण, मत्स्यपुराण, श्विष्णुधर्मोत्तर पुराण, गरुड़ पुराण एवं पद्मपुराण का विशेष महत्व है। अग्निपुराण के लगभग एक दर्जन अध्याय मात्र मूर्तिकला पर प्रकाश डालते हैं। अग्निपुराण में एक हजार शिल्पों की चर्चा मिलती है जो उस समय जीविकोपार्जन के साधन थे। स्कन्धपुराण में वास्तु और प्रतिमा निर्माण के परस्पर निकट संबंध की चर्चा मिलती है। इसमें नगर निर्माण, रथ निर्माण, रथपति निर्देश, विवाह मण्डप आदि विषयों पर विषय चर्चा की गई है। मत्स्य पुराण के अंतर्गत श्मयश् नामक असुर शिल्पी द्वारा विनिर्मित त्रिपुर भवन का सविस्तार वर्णन है। शिल्पशास्त्र के प्रवर्तक अठारह आचार्यों की सूची दी गई हैं। भवन निर्माण के उपयोगी अंग के रूप में स्तम्भों का उल्लेख होने के साथ ही प्रलोनक, वृत्त, वज्र, रूचक और द्विवज्र नामक स्तम्भों के पांच प्रकारों का भी जिक्र मिलता है। स्थापत्य कला एवं मूर्ति विज्ञान पर महत्वपूर्ण सूचना देने वाला एक अन्य स्रोत गरुड़ पुराण भी है। इसम उद्यान भवन, दुर्ग, भवन निर्माण तथा मूर्ति विज्ञान का 45 से 48 अध्यायों तक विस्तार से विवेचन हुआ है। पद्म पुराण क सृष्टि खण्ड के अनुसार भगवान शंकर के क्रीड़ा गृह की दीवारों पर मयूरों एवं राजहंसों के चित्र बने हुए थे।
प्राचीन शिल्प ग्रंथों में विशेष रूप से कलाओं पर चर्चा की गई है। ऐसे ग्रंथों को श्शिल्प शास्त्रश् कहा जाता है। इस विशिष्ट साहित्य में मानसार, युक्तिकल्पतरु, समरांगणसूत्रधार, श्शिल्परत्न, श्शिवतत्वरत्नाकर, काश्यपशिल्प , मयमत, प्रतिमामान लक्षण, साधनमाला, श्निष्पन्नयोगावलि, विष्णुधर्मोत्तरपुराण का तृतीय खण्ड, श्मानसोल्लास, अभिलषितार्थ चिंतामणि, अपराजितपृच्छा, एवं ईशान-शिवगुरुदेवपद्धति आदि ग्रंथों की गणना की जा सकती है। मानसार वास्तुकला के साथ-साथ चित्रकला की उत्पत्ति एवं चित्रकर्म की प्रविधियों पर भी प्रकाश डालता है। मानसार में 32 प्रकार की कलाओं की चर्चा की गई है तथा 18वें अध्याय में नागर, द्राविड़ तथा बेसर प्रासादों का उल्लेख मिलता है। मानसार में भू-देवी, सरस्वती व गौरी के प्रतिमा लक्षणों के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है। यथा – गौरी श्वेत वर्ण, दो भुजाधारी, दो नेत्रवाली तथा आसन पर स्थित करण्डमुकुट तथा केशबन्ध से युक्त होनी चाहिये।
भोजकृत श्समरांगणसूत्रधारश् 11वीं शती का एक महत्वपूर्ण शिल्प ग्रंथ है। जिसके अंतर्गत मंदिर वास्तु के साथ-सा चित्रकला संबंधी उपयोगी सूचनाएं प्राप्त होती हैं। इसमें 20 प्रकार के प्रासाद (मंदिर व विमान आदि) गिनाए गये है। ३० ग्रंथ के 57वें तथा 59वें अध्यायों में उक्त 20 प्रकार के मंदिरों के सूक्ष्म लक्षणों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। छः भूमियां होती हैं। विमान छन्द एवं नन्दन भी इसी वर्ग में आते हैं।
श्अपराजितपृच्छाश् नामक ग्रंथ में निम्नलिखित चैदह प्रकार के मंदिर गिनाए गये हैं- नागर, द्राविड़, लातिन, वराट, विमान, सांधार, नागर, मिश्रक, भूमिज, पुष्पक, वलभी, सिंहावलोकन, दारज तथा नपुंसक।
श्विष्णधर्मोत्तरपुराणश् (7वीं शती) के तृतीय खण्ड में 101 प्रकार के प्रासादों (मंदिरों) का उल्लेख मिलता है। प्रत्यक सामान्य प्रासाद के तीन समान भागों-जगती (वसुधा), कटि (दीवार) तथा मंजरी (कट, शृंग, तल्प, वलभी तथा शिखर) का उल्लेख भी मिलता है।
एक अन्य शिल्प ग्रंथ श्ईशान शिव गुरुदेव पद्धतिश् में मंदिर वास्त की तीन प्रमख शैलियों – नागर, द्राविड़ तथा बसर का उल्लेख मिलता है। यह ग्रंथ भी 10वीं-11वीं शती ई. का है। इस ग्रंथ में कहा गया है कि ब्रह्मा तथा ऋषि परम्परा के पश्चात् महान् स्थपति मय ने विमान व्याख्या स्वरूप विशेष रूप से 20 मुख्य प्रासादों का वर्णन किया।
श्शिल्परत्नश् में विमान शिल्प से संबंधित सूचनाएं प्राप्त होती हैं। इसके अनसार श्नागर प्रासाद आधार से शिखर तक वर्गाकार होता है। श्द्राविड़श् प्रासाद का शरीर वर्गाकार व गुम्बदीय भांग षटभजी अथवा अष्टभुजी होता है। कामिकागम में नागर, वाराट तथा कलिंग मंदिरों का उल्लेख किया गया है। वाराट मंदिरों की सात मंजिलें. उनकी ग्रीवा, शिखा एवं नापिका की चर्चा भी इसके अंतर्गत की गई है। कामिकागम के अनुसार नागर मंदिर के मुख्य आठ अंग हैं – मूल (नाव), मसरक (आधारपीठ), जंघा (भित्ति), कपोत (कार्निस), शिखर (गल), अमलसार, कुम्भ तथा शूल।
वहच्छिल्पशास्त्र नामक मध्यकालीन वास्तुशास्त्र में मंदिरों की प्रभेदक दो तालिकाएं दी गई हैं- प्रथम तालिका में नागर, द्राविड, मिश्रक, लतिना, साधार, भूमि, नागर, पुष्पक विमान तथा द्वितीय तालिका में – नागर, द्राविड़, विराट, भूमि, लतिक, साधार तथा मिश्रक की गणना की गई है।

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