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हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained

hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?

राव हम्मीर देव रणथम्भौर (1282 ई. (1301 ई.)

पृष्ठभूमि रणथम्भौर जयपुर के दक्षिण-पूर्व में सवाईमाधोपुर से 5 कि० मी० दूर स्थित है यहां का विशाल दुर्ग पहाड़ियों के मध्य घने जंगल में एक ऊँचे पठार पर बना हुआ है सैनिक तथा सामरिक दृष्टि से राज्य की सुरक्षा के लिए इस दुर्ग का अत्यधिक महत्व रहा है तेरहवीं शताब्दी में यहाँ चौहान वंश का शासन था, जिसकी स्थापना पृथ्वीराज चौहान तृतीय के पुत्र गोविन्द ने की थी उसके उत्तराधिकारी क्रमशः वाल्हण प्रल्हादन और वीरनारायण थे वीर रायण ने इल्तुतमिश की सेना को कड़ी टक्कर दी थी। इसके उत्तराधिकारी वागभट्ट ने भी तुर्कों से बने राज्य को सुरक्षित रखने में सफलता प्राप्त की थी। नासिरूद्दीन ने यहाँ सैनिक अभियान किया लेकिन चौहान वीरों के शौर्य एवं अदम्य साहस के कारण वह रणथम्भौर पर अधिकार नहीं कर सका। तत्पश्चात् वागभट्ट का पुत्र जेनसिंह रणथम्भौर का शासक बना जिसने परमार, कप एवं मुसलमानों को युद्धों में सफल नहीं होने दिया तथा अपने वंश की प्रतिष्ठा को बनाये रखा।

जैत्रसिंह के बाद उसका पुत्र हम्मीर देव 1282 ई. में रणथम्भीर का शासक बना। राव हम्मीर देव के साथ रणथम्भौर के इतिहास का एक नया अध्याय प्रारंभ होता है यह रणथम्भौर के चौहान वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं महत्त्वपूर्ण शासक था। इसके शासनकाल के विषय में नयचन्द्र सूरि द्वारा रचित ‘हम्मीर महाकाव्य और सुर्जनचरित्र जोधराज रचित हम्मीर रासो, चन्द्रशेखर द्वारा रचित हम्मीर हठ आदि ग्रंथों से ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है मुस्लिम इतिहासकार अमीर खुसरो और बरनी द्वारा रचित ग्रंथों में भी रणथम्भौर सम्बन्धी विवरण उपलब्ध होता है।

साम्राज्य विस्तार हम्मीर देव ने शासन ग्रहण करने के पश्चात् दिग्विजय अभियान का सम्पादन करके रणथम्भौर के राज्य की सीमा का विस्तार किया उसने सर्वप्रथम भीमरस के शासक अर्जुन को परास्त किया और माण्डलगढ़ से कर वसूल किया यहाँ से उसने दक्षिण की ओर कूच किया। परमार शासक भोज को परास्त किया तदनन्तर वह उत्तर की ओर चितौड़, आयू वर्धनपुर (काठियावाड़), पुष्कर, चम्पा होता हुआ रणथम्भौर लौटा। इस अभियान में त्रिभुवनगिरी के शासक ने भी उसकी अधीनता स्वीकार की थी। इस दिग्विजय के अन्तर्गत वे राज्य भी सम्मिलित थे, जिनसे केवल कर ही लिया जाता था।

दिग्विजय अभियान के बाद भी समय-समय पर वह अपनी सेना को निकटवर्ती क्षेत्रों में भेजता रहता था, जिनमें मालवा मुख्य था, जहाँ से हाथी एवं धन प्राप्त होते थे। दिग्विजय के उपरान्त उसने कोटि यज्ञ किया, जिससे उसकी प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि हुई। में शिवपुर जिला ग्वालियर में) बलवन (कोटा में), शाकम्भरी आदि सम्मिलित थे।

 तुर्की का प्रतिरोध

जलालुद्दीन खलजी को शिकस्त  = हम्मीर देव की सैनिक विजयों से दिल्ली के सुल्तानप उन्होंने चौहानों की शक्ति पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए 1290 ई. में झॉइन के दुर्ग पर कर दिया, जिस पर सुल्तान जलालुद्दीन खलजी ने सफलतापूर्वक अधिकार कर लिया। तत्पश्चा सुल्तान रणथम्भौर की ओर बढ़ा और उसने दुर्ग पर अधिकार करने के लिए अनेक प्रकार से आक्रम लेकिन हम्मीरदेव के नेतृत्व में चौहान वीरों ने सुल्तान को इतनी हानि पहुँचायी कि उसे विवश दिल्ली लौट जाना पड़ा। झॉइन के दुर्ग पर चौहान वीरों ने सुल्तान के लौटते ही उसके द्वारा ! सैनिकों को मार कर उस पर पुनः अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।

असफल सुल्तान ने तुर्की सेना के साथ 1292 ई. में पुनः रणथम्भौर पर अधिकार करने क प्रस्थान किया, लेकिन चौहान वीरों के आगे तुर्की सेना को कोई सफलता नहीं मिली और उसे नि अपमानित होकर पुनः वापस लौटना पड़ा।

हम्मीरदेव और अलाउद्दीन खलजी  = जलालुद्दीन की हत्या करके 1206 ई. में अलाउद्दीन दिल्ली का सुल्तान बना वह सम्पूर्ण भारत को अपने शासन के अन्तर्गत लाने की आकांक्षा रखत हम्मीर के नेतृत्व में रणथम्भौर के चौहानों ने अपनी शक्ति को काफी सुदृढ बना लिया और राजस् विस्तृत भू-भाग पर अपना शासन स्थापित कर लिया था। अलाउद्दीन खलजी दिल्ली के निकट की शक्ति को बढ़ते हुए नहीं देख सकता था, इसलिए संघर्ष होना अवश्यंभावी था। दूसरा मह कारण यह था, कि 1299 ई. में अलाउद्दीन खलजी के दो सेनानायक गुजरात में लूट-पाट करके सारा धन लेकर वापस लौट रहे थे मार्ग में लू के माल के बंटवारे को लेकर कुछ सेनानायकों ने कर दिया तथा वे विद्रोही सेनानायक हम्मीरदेव के पास शरण में चले गये। सुल्तान अलाउद्दीन की से विद्रोहियों को सौंप देने की मांग को हम्मीर देव ने ठुकरा दिया. इसलिए संघर्ष होना निश्चित हो

‘हम्मीर हठ में चन्द्रशेखर के अनुसार अलाउद्दीन के सेनानायक मीर मुहम्मदशाह का सुल्ता बेगम से प्रेम सम्बन्ध स्थापित हो गया था, तथा दोनों ने मिलकर अलाउदीन को समाप्त करने की द बनायी, परन्तु समय से पूर्व ही योजना का सुल्तान को पता चल गया। उसने सेनानायक को बंदी बना प्रयास किया लेकिन वह भागकर हम्मीर देव की शरण में चला गया।

इस प्रकार अलाउद्दीन खलजी जिन्हें दण्डित करना चाहता था, वे हम्मीर के दरबार में शरण कर अपने आपको सुरक्षित अनुभव कर रहे थे, जो सुल्तान के लिए अपमान एवं वेदना स्वरूप

उपरोक्त कारणों से 1299 ई. में अलाउद्दीन ने उलुगख एवं नुसरत खाँ को विशाल सेना रणथम्भौर पर आक्रमण करने का आदेश दिया। दोनों की संयुक्त सेना ने झौईन की ओर से रण पर आक्रमण किया। झइन रणथम्भौर पर पहुँचने का एक मात्र प्रवेश द्वार था। इस पर आसानी सेना ने अधिकार कर लिया तथा जी भर कर नगर को लूटा हम्मीर इस समय मुनिव्रत में व्यस्त अतः उसने अपने दो सेनानायकों भीमसिंह एवं धर्मसिंह को सेना सहित ‘झइन भेजा राजपूत से तुर्की सेना पर जबरदस्त आक्रमण करके उसे पीछे भागने को मजबूर कर दिया, उसके द्वारा जो लूट मचाकर धन एकत्र किया गया था, वह भी राजपूत सेना ने छीन लिया तथा अपने साथ उसे वह रणथम्भौर की ओर लौट चली शत्रु जो खदेड़ दिया गया था, पुनः संगठित होकर हिन्दुवाट घाटी में सेना पर टूट पड़ा। इस प्रकार तुर्की सेना ने लौटते हुए राजपूत सैनिकों पर अचानक आक्रमण इसमें भीमसिंह वीरगति को प्राप्त हुए तथा धर्मसिंह तुर्की सेना से छीन कर लाया लूट का माल रणथम्भौर पहुँच गये।

जिनको आपने शरण आसपधने वचन पर दृढ़ था हर मंत्र भार दिया। इन्च दे रखी है. सौंप दो, हमारी सेनाएँ वापस दिल्ली लौट जायेगी लेकिन उसने शरणागतों को सौंपने अथवा राज्य से निर्वासित करने से स्पष्ट

उत्पश्चात् तुर्की सेना ने रणथम्भौर पर घेरा डाल दिया। उलुगखी ने दुर्ग के कुछ दूर अपना शिवि लगाय दुर्ग के चारों तरफ पाशिब और गरमच बनवाये, जिनसे दुर्ग रक्षकों पर पत्थरों की बौछार की जाने उगी। उधर हम्मीर ने दुर्ग की रक्षा की तैयारियों पूरी करती थी राजपूत सैनिक दुर्ग की प्राचीरों से मुक्षिम सेना पर निरंतर पत्थरों की वर्षा करते रहे राजपूत सैनिकों द्वारा किया गया आक्रमण तुर्की केए भारी संकट उत्पन्न कर रहा था। इसमें सेना नायक नुसरत खाँ बुरी तरह घायल हुआ और अंततः गया। राजपूत सेना ने तुर्की सेना पर भीषण धावा बोल दिया और उलुगखों को अपने प्राण बचाने के लिए भागना पड़ा, तथा उसकी सेना भी बिखर गयी।

इसके बाद उसने दिल्ली सुलतान के पास अपनी रक्षा के लिए और सेना भेजने तथा सेनापति नुसरत खी की मौत का समाचार निजवाया।

अलाउद्दीन का घेरा उलुगखी, अलाउदीन का छोटा भाई था उसका समाचार मिलते ही वह स्वयं एक विशाल सेना के साथ दिल्ली से रणथम्भौर आया रणथम्भौर दुर्ग के सामने एक ऊँची पहाड़ी पर स्वयं ने एक मोर्चा संभाला तथा सैनिकों को दुर्ग तथा सामने की पहाड़ी के मध्य स्थित खाई को पाटने का आदेश दिया हम्मीर देव सैनिक मामलों का विशेषज्ञ था उसने तुर्कों द्वारा दुर्ग के निकट पहुँचने के लिए किये जा रहे प्रयासों को किसी भी प्रकार से सफल नहीं होने देने का निश्चय किया और राजपूत सैनिक मुस्लिम सेना पर टूट पड़े। इस आक्रमण में खाई को पाटने में लगे हजारों मुस्लिम सैनिक मारे गये मुस्लिम सेना में तबाही मच गई और वे राजपूत शक्ति से इतने अधिक घबरा गये कि सैनिक शिविरों को छोड़ छोड़ कर युद्ध भूमि से चोरी-छिपके अपने प्राण बचाने के लिए पलायन करने लगे। सुलतान अलाउद्दीन खिलजी को युद्ध भूमि में आदेश निकालना पड़ा कि शिविर से जाने वाले सैनिकों को दण्डित किया जायेगा।

इस प्रकार तुर्की सेना पर राजपूत सैनिकों के प्रहार भीषण से भीषण होते जा रहे थे। एक वर्ष से भी अधिक समय हो चुका था, लेकिन राजपूतों के कड़े प्रतिरोध के कारण अलाउद्दीन को कोई सफलता नहीं मिल रही थी, बल्कि उसके लिए यह रणथम्भौर अभियान संकटपूर्ण स्थिति में पहुँच गया था उसके विरूद्ध दिल्ली में विद्रोह होने लगे थे।

अलाउद्दीन द्वारा छल-कपट नीति का प्रयोग अलाउद्दीन खलजी सैनिक शक्ति के आधार पर रणथम्भौर पर विजय प्राप्त करने की आशा छोड़ चुका था उसने छल-कपट तथा जालसाजी द्वारा और राजपूतों को दुर्बल कर, विजय प्राप्त करने के प्रयास प्रारम्भ कर दिये। उसने राव हम्मीर को संदेश भिजवाया कि वह अपने सेनापति को संधिवार्ता हेतु शिविर में भेजे हम्मीर ने जब सेनापति रतिपाल को भेजा. तो अलाउद्दीन ने उसे रणथम्भौर का दुर्ग देने का प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया। इसी तरह सुल्तान ने एक अन्य सेनापति रणमल को भी अपनी ओर मिला लिया।

इसके पश्चात् भी अलाउद्दीन, दुर्ग के पास आसानी से नहीं पहुँच पाया। राजपूत सैनिक उन्हें कड़ी टक्कर दे रहे थे किले में रसद सामग्री भी समाप्त हो गयी थी जो शेष बची थी. उसे अलाउद्दीन ने हड्डियों का पूरा मिलवा कर अपवित्र करवा दिया था। जल स्रोतों में गायों का रक्त मिलवा दिया था। ऐसी स्थिति पूरा में राजपूत सैनिकों के लिए दुर्ग में भूखे-प्यासे बंद रहना आत्महत्या करने के समान था। अतः राजपूत सैनिकों ने केसरिया वस्त्र धारण किये और दुर्ग का फाटक खोलकर शत्रु से भीषण युद्ध करना प्रारंभ किया। दोनों पक्षों में यह आमने-सामने का युद्ध था। एक ओर दुर्ग में समायी हुई भूखी प्यासी राजपूत सेना थी तो दूसरी ओर दिल्ली के सुल्तान की कई गुना बड़ी विशाल सेना, जिसके पास पर्याप्त संसाधन एवं रसद थी। इस प्रकार अल्प संख्यक राजपूत युद्ध में टिक नहीं सके। हम्मीर वीरता कि लड़ता हुआ /- वीरगति को प्राप्त हुआ हम्मीरदेव की रानी देवी के नेतृत्व में राजपूत गनाओं ने जहर की में प्रवेश किया। हम्मीर के परिवार का कोई भी सदस्य जीवित नहीं बचा। 11 जुलाई 1901 5. रणथम्भौर पर अलाउदीन का अधिकार हो गया।

मूल्यांकन हम्मीर के साथ रणथम्भौर में चौहानों के शासन का अन्त हो गया हम्मीर अपने समान ब्राह्मणों का पोषक एवं धर्म सहिष्णु था वह विद्वानी कलाकारों का आश्रयदाता था तथा मान दर्शन साहित्य एवं कला का संरक्षक था। वह शूरवीर योद्धा तथा रणनिपुण सेनानायक था। स का नेतृत्व करने की अद्भुत क्षमता थी। हम्मीर देव की सैनिक कुशलता का प्रमाण यही है कि जान खलजी रणथम्भौर पर अधिकार नहीं कर सका, उसने इसके लिए बार-बार प्रयास किये लेकिन राजपूतों से शिकस्त खाकर उसे खाली हाथ वापस लौट जाना पड़ा। उसके पश्चात् अलाउद्दीन की सेना दो वर्ष तक रणथम्भौर का घेरा डाले पड़ी रही, फिर भी उसे तनिक भी सफलता नहीं मिल अंत मे खलजी की सफलता, सैनिक आधार पर प्राप्त की गयी सफलता नहीं थी बल्कि छल-प्रपंच अर्जित विजय थी। राजा हम्मीर देव ने 17 युद्ध किये थे, जिनमें से वह 16 गुद्धों में विजयी रहा है। यह उसकी सैनिक योग्यता का स्पष्ट प्रमाण है।

हम्मीरदेव की शक्ति तथा वचन का पालन करने में दृढ़ता, जैसे गुण उस समय सर्वात इसीलिए दिल्ली के सुल्तान से भयभीत अपने प्राणों की रक्षा के लिए कई सेनानायक हम्मीर की शर में आ चुके थे। यह भारतीय परम्परानुसार शरणानेत की रक्षा करने के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने तत्पर था इसीलिए राव हम्मीरदेव अपने तत्व एवं कृतित्व से इतिहास में सदैव स्मरणीय रहा है।

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