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हिमानीकृत स्थलाकृतियाँ क्या होती है ? Glaciated Landforms in hindi types हिम क्षेत्र (Snow field)

हिम क्षेत्र (Snow field) हिमानीकृत स्थलाकृतियाँ क्या होती है ? Glaciated Landforms in hindi types ? 

हिमानीकृत स्थलाकृतियाँ
(Glaciated Landforms)
भूपृष्ठ पर स्थलरूपाों के निर्माण में हिमानी भी एक महत्वपूर्ण कारक है। उच्च पर्वतीय क्षेत्रों व हिमाच्छादित उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में हिमानी के कार्य महत्वपर्ण होते हैं। हिमानी या हिमनद प्राकृतिक बर्फ की विशाल राशि होती है जो गुरुत्वाकर्षण के कारण व भार की अधिकता से ढालों पर सरकने लगती है। बर्फ का जमाव निरन्तर प्राकृतिक हिमपात से होता रहता है। ठंडे प्रदेशों में जहाँ हमेशा तापमान कम रहता है वहाँ जल हिम कणों में पारवर्तित हो जाता है। हिमानी भपष्ठ पर प्रवाहित जल का ठोस रूपा है। वारसेस्टर के अनुसार ‘‘हिमनद या हिमामनी हिम की ऐसी राशि है जो धरातल पर इसके संचयन के स्थान से धीरे-धीरे खिसकती रहती है’’।
हिम क्षेत्र (Snow field) स्थायी हिम हिम का एक ऐसा प्रदेश होता है जहाँ वाष्पीकरण व हिम पिघलने के पश्चात् भी प्रचुर मात्रा में हिम शेष रह जाती है तथा क्षेत्र हमेशा हिम से आच्छादित रहता है। ऐसे क्षेत्र अण्टार्कटिका व ग्रीनलैण्ड में देखे जा सकते है। लगभग 30,000 वर्ष पूर्व प्लीस्टोसीन युग में तापमान के कम हो जाने से हिमयुग का अवतरण हआ था. जिसके फलस्वरूपा सम्पर्ण पृथ्वी पर हिम चादर का आवरण छा गया था। ऐसा अनुमान है कि पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास में तीन हिमयुग आ चुके हैं। अन्तिम युग प्लीस्टोसीन हिमयुग था। इस समय हिमनदियों द्वारा धरातल में जो अपरदन किया गया वो अब देखा जा सकता है। हिमनदियाँ बहुत मंद गति से अपना कार्य करती हैं व इनके द्वारा किये गये परिवर्तन हिम की परत से ढ़ंके रहते है। हिम के पिघलने पर ये सतह पर दिखाई पड़ते हैं। वर्तमान में स्थायी व अस्थायी हिम क्षेत्र धरातल पर, पर्वतों पर एवं उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में मिलते हैं। हिम क्षेत्र की निचली सीमा रेखा (Snow Line) कहलाती है। इसके ऊपर हिम कभी नहीं पिघलती। यह हर जगह अलग-अलग ऊँचाई पर प्राप्त होती है। विषवुत रेखा पर हिम रेखा समुद्र तल से 5500 मीटर (या किलिमंजारो) हिमालय पर्वत पर 4500 मीटर, आल्पस में 3000 मीटर व ग्रीनलैण्ड के मॉ. फेरल पर 650 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इन्हीं क्षेत्रों में हिमनद का विकास होता है व हिमानी के कार्य देखने को मिलते हैं।
हिमरेखा की ऊँचाई कई तत्वों के प्रभाव के कारण हर स्थान पर अलग-अलग पायी जाती हैः-
(1) अक्षांस या तापमान :- निम्न अक्षांशों में औसत तापमान अधिक पाया जाता है व उच्च अक्षांशों में औसत तापमान बहुत कम होता है। इसीलिये ग्रीनलैण्ड में हिम रेखा 650 मीटर पर मिलती है व विषुवत रेखा पर 5000 मीटर से भी ऊपर है।
(2) वायु की दिशा :- वायु की दिशा भी हिमरेखा की ऊँचाई को प्रभावित करती है। पर्वतों के जिस हिस्से पर दक्षिणी हवाओं का प्रभाव पड़ता है वहाँ हिमरेखा अधिक ऊँचाई पर मिलती है व जिस हिस्से पर उत्तरी ठंडी हवायें प्रभावित करती हैं वहाँ हिम आवरण नीचे तक पाया जाता है।
(3) हिम की मात्रा :- जिन क्षेत्रों में हिमपात अधिक होता है, वहाँ हिम रेखा नीची पायी जाती है। जहाँ हिमपात की मात्रा कम होती है, हिम रेखा ऊँची हो जाती है।
(4) भूमि का ढाल :- हिम रेखा का ऊँचा-नीचा होना भूमि के ढाल पर भी निर्भर करता है। ढाल की तीव्रता से संचित हिम काफी नीचे तक सरक आता है और पिघल जाता है, अतः हिम रेखा ऊंची हो जाती है। मंद ढाल में हिम का संचय अधिक होता है और यह धीरे-धीरे नीचे सरकता है, इस कारण हिमरेखा नीची पायी जाती है।
हिम क्षेत्रों व उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में हिम-आवरण जब अत्यधिक मोटा हो जाता है, तब भार की अधिकता एवं गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से ढालों पर हिम सरकने या बहने लगती है, तब इसे हिमानी या हिमनद कहा जाता है। इसकी गति बहुत मंद होती है। प्रति सप्ताह कुछ से.मी. से प्रतिमाह 15-20 मीटर तक की गति पायी जाती है।
सर्वप्रथम प्रो. अगासिम ने अपने परीक्षणों के आधार पर बताया था कि हिमनद के विभिन्न भागों में गति भिन्न-भिन्न पायी जाती है व प्रतिवर्ष 50 से 400 मीटर तक ये आगे बढ़ जाती है। हिमानी के बहाव पर धरातल के ढाल एवं बर्फ की मोटाई का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त तापमान परिवर्तन, धरातल की बनावट, कुल हिमोह की मात्रा आदि कई कारण हिमनदी की गति को तय करते हैं। अपने आकार ब गति के आधार पर हिमनदियों को निम्न वर्गों में बाँटा जा सकता हैः-
(1) घाटी हिमानी (Valley Glacier) – ऊँचे पर्वतीय भागों में जहाँ विशाल हिम क्षेत्र पाये जाते है वहाँ बर्फ फिसलकर घाटी में धीरे-धीरे सरकने लगती है। इसकी लम्बाई प्रायः 2 से 10 कि मा. तक पायी जाती है। हिमालय, कुनलुन, पामीर, आल्पस पर्वतों पर ऐसी हिमानी देखी जा सकती है। ये पर्वतीय घाटियों में सीमित रहती है व घाटी का आकार ले लेती है। भारत में गंगोत्री मिलाप, केदारनाथ, हिमालय की हिमनदियों है।
(2) पर्वतपदीय हिमानी (Piedmont Glacier) -उच्च अक्षांशों में जहाँ हिम रेखा बहुत नीची होती है, वहाँ घाटी हिमानी पर्वतों पर फिसलती हुई नीचे तक पहुँच जाती है व परस्पर मिल जाती है, तब इन्हें पर्वतपदीय हिमानी कहा जाता है। एलास्का की बेरिंग व मालस्पिना आयरलैण्ड की वेटानाजोकुल एवं ग्रीनलैण्ड की प्रेडिकेशाव पर्वतपदीय हिमानी का उदाहरण है।
(3) महाद्वीपीय हिमानी (Continental Glacier) – उच्च अक्षांशों में हिम आवरण विशाल क्षेत्र में पाया जाता है, जैसे आर्कटिक, ग्रीनलैण्ड आदि देशों में। यहाँ हिम आवरण भी अधिक मोटा पाया जाता है तथा हमेशा हिमपात भी होता रहता है। हिम की परत की मोटाई 1000 मीटर से भी ज्यादा हो जाती है। इस प्रकार के विस्तृत हिम परत को महाद्वीपीय हिमानी कहते है।
(4) हिमचादर या हिम टोप (Ice cap) – महाद्वीपीय हिमानी से अधिक विस्तृत क्षेत्र वाले हिम आवरण हिम टोप कहलाते है। इन क्षेत्रों से हिम आवरण स्थायी व हिम बहुत पुराना होता है। पर्वतीय चोटियों व अन्टार्कटिका में ये देखे जा सकते हैं तथा इनमें गति नहीं पायी जाती।
हिमानी का स्वरूप एवं अपरदन कार्य
उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो चुका है कि हिमानी का स्वरूपा नदियों से पूर्णतः भिन्न होता है। यह बहुत ही मंद गति से ढ़ालों पर सरकती है। हिम का मोटा निक्षेप होता है, जिसका भार व ढाल हिमानी की गति का कारण बनता है। पर्वतीय ढालों के ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर यह लुढ़कना शुरू करती है तब इसकी सतह पर दरारे पड़ जाती है। हिम के कण स्थूल व कठोर होते हैं, इस कारण अमें लोच या परस्पर संबद्धता नहीं पायी जाती है। हिम के सरकने से खिंचाव पड़ता है, जिससे गहरी दरारें पड़ जाती हैं. इन्हें हिमविटर या बर्गचण्ड (Bergschrund) कहा जाता है। हिमनदियों के चिकने सपाट जल पर ये नहीं पाये जाते। ढाल में परिवर्तन व किनारों की रगड़ से ये बनते हैं। हिमनद के आगे बढ़ने पर ये दरारें भर जाती हैं, पर ऊपर इनके निशान रह रह जाते हैं। हिमनद के आगे सरकने पर अपरदन व परिवहन क्रिया होती है। स्थिर अवस्था में हिमनदियाँ भूमि का संरक्षण प्रदान करती हैं। अन्य अपरदनकारी तत्वों की तरह हिमनद भी तीनों कार्य करती हैं, अपरदन, परिवहन व निक्षेपण।
हिमानी द्वारा अपरदन तीन प्रकार से होता हैः-
(1) उत्पादन (Plucking)- हिमानी की तली में अपक्षय के कारण बने चट्टानों के बड़े-बड़े टुकड़े गतिशील हिम के साथ फंसकर आगे बढ़ जाते हैं, इस क्रिया को उत्पादन कहते है।
(2) अपघर्षण (Abrasion)- हिम के साथ आगे सरकने वाली शिलाखण्ड घाटी के पाश्र्व व तली को घिसकर व खरोचकर गहरा करते हैं। दिन में स्वयं अपरदन की क्षमता नहीं होता हो।
(3) सन्निघर्षण (Atrition)- हिमनद के साथ बहने वाला चट्टानी पदार्थ स्वयं आपस में टकराया घिसता रहता है व टूटता रहता है, इसे सन्निघर्षण कहा जाता है।
उपरोक्त विधियों से हिमनद अपनी घाटी में परिवर्तन लाती है व भू-रूपों का निर्माण करती है। हिम के अपरदन पर कई तत्वों का प्रभाव पड़ता हैः-
(1) हिमनद में चट्टान चूर्ण कितनी मात्रा में है इससे हिमनद की अपरदन शक्ति तय होती है। हिम में खुद अपरदन करने की क्षमता नहीं पायी जाती। अपक्षय से जो चट्टान के टकडे दरारों से तली में पहँच जाते हैं व उत्पादन से प्राप्त चट्टानों से यह अपरदन करती है। जिस हिमनद में चट्टान चूर्ण बहुत कम होता है वे अपरदन भी बहुत कम कर पाती है।
(2) धरातल का ढाल एवं संरचना हिमनदियों के अपरदन की मात्रा व स्वरूप निर्धारित करती है। कठोर शैलें हिमानी के बहाव में अवरोध डालती हैं जबकि कोमल शैल आसानी से अपरदित हो जाती है।
(3) हिमनद की गति जितनी अधिक होती है उतना अपरदन होता है। स्थिर हिमानी भूमि संरक्षण का कार्य करती है।

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