JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Categories: indian

गिफ्ट ऑफ मोनोथिस्ट नामक पुस्तक / ग्रंथ किसके द्वारा लिखा गया था , gift of monotheists was written by in hindi

gift of monotheists was written by in hindi गिफ्ट ऑफ मोनोथिस्ट नामक पुस्तक / ग्रंथ किसके द्वारा लिखा गया था ? लेखक का नाम बताइए ?

प्रश्न: राजा राममोहन राय के द्वारा कौन-कौनसे प्रसिद्ध ग्रंथ लिखे गए नाम लिखिए ?
ऽ तुहफात-उल-मुबाहिदीन (एकेश्वरवादियों को उपहार) (1809) – मूर्ति पूजा के विरूद्ध लेख था।
ऽ गिफ्ट ऑफ मोनोथिस्ट (Gift of monotheists)
ऽ मंजातुल अदयान – विभिन्न धर्मो पर फारसी में चर्चा थी।
ऽ चंद्रिका (1822) – सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों का विरोध।
ऽ हिन्दू उत्तराधिकारी नियम (1822): ‘‘हिन्दू उत्तराधिकार कानून के अनुसार स्त्रियों के अधिकार और इनके आधुनिक अतिक्रमण से संबंधित टिप्पणियाँ‘‘ जो 1822 में प्रकाशित हुआ।

प्रश्न: 19वीं शताब्दी के सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन के कारणों की विवेचना कीजिए। 
उत्तर:
1. ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत के राजनीतिक एकीकरण के तहत भारतीयों को एक दूसरे के निकट लाना।
2. पाश्चात्य शिक्षा एवं साहित्य का प्रभाव।
3. भारतीयों को अपनी सामाजिक-धार्मिक दुर्बलताओं का ज्ञान होना तथा उन्हें दूर करने की लालसा।
4. तत्कालीन भारतीय समाज एवं धर्म की विकृत स्थिति।
5. ईसाइयों का प्रभाव व अपने धर्म को सुरक्षित रखने की आवश्यकता। (ईसाई मिशनरीज गतिविधि)
6. ब्रिटिश शासन द्वारा समाज सुधार के कार्य एवं शिक्षित भारतीयों को प्रेरणा।
7. भारतविदों व प्राच्यविदों द्वारा भारत के गौरवपूर्ण अतीत को उजागर करना। (इण्डोलॉजी एप्रोच)
8. राष्ट्रवादी प्रेस की महत्त्वपूर्ण भूमिका।
9. राष्ट्रवादी साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका।
10. महान् सुधारकों का योगदान। (जिसे राममोहन राय, दयानन्द, विवेकानन्द, सर सैयद अहमदखान आदि के कार्यों से समझा जा सकता है।)
विस्तार –
1. इण्डोलॉजिस्ट एप्रोच की नकारात्मक अवधारणा की प्रतिक्रिया के रूप में सामाजिक, सांस्कृतिक उपनिवेशवाद विरोधी चेतना की अभिव्यक्ति के सन्दर्भ में इसे समझे जाने की आवश्यकता है। अर्थात् राष्ट्रीय अन्तः वस्तु का परिचायक है।
2. यह एक अर्थ में औपनिवेशिक व भारतीयों के बीच वैचारिक संघर्ष का प्रतीक है।
3. जो औपनिवेशिक वैचारिक या विचारधारात्मक प्रभुत्व के प्रति भारतीय प्रत्युत्तर का परिचायक है।
4. भारतीय प्रत्युत्तर एक सुरक्षात्मक दृष्टिकोण को दर्शाता है। जिसमें भारतीय संस्कृति को सुरक्षा प्रदान करने का दृष्टिकोण समाहित है।
5. औपनिवेशिक शासन में औपनिवेशिक संस्कृति का प्रसार और उसका एक चुनौती के रूप में उभरना। भारतीय प्रत्युत्तर वस्तुतः उस चुनौती के प्रति प्रत्युत्तर था।
6. प्रगतिशील विचारों से विवेचक दृष्टि का विकास और सामाजिक कुरीतियों, बुराइयों की पहचान तथा इन्हें समाप्त करने का दृष्टिकोण जो कि समाज व सामाजिक जीवन के सशक्तिकरण के दृष्टिकोण को दर्शाता है। इसका ठोस अभिव्यक्ति सामाजिक सुधारों में दिखाई दी।
7. औपनिवेशिक शासन ने सामाजिक सुधारों को जन्म नहीं दिया बल्कि ये तो परिस्थितियों के परिणाम के रूप में सामने आये।
8. भारत के सन्दर्भ में धर्म, सामाजिक जीवन के एक अभिन्न अंग के रूप में होना। धार्मिक आधारों पर गुण-दोष, अच्छाई-बुराई, पाप-पुण्य इत्यादि का निर्धारण। इस सन्दर्भ में भारतीय सामाजिक जीवन बहुत सीमाओं तक धार्मिक आदों व मूल्यों से प्रेरित था। अतः सामाजिक सुधार के लिए धार्मिक सुधार की पहली शर्त के रूप में उभरना। इसलिए यह आन्दोलन सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन के रूप में उभरा जो वस्तुतः सामाजिक सुधारों पर ही केन्द्रित था।
9. सुधारों का उद्भव शहरी मध्यम वर्गीय आकांक्षाओं के प्रतीक के रूप में या उनकी सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति – के रूप में उभरा।
10. इस प्रकार सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन उपनिवेशवादी विरोधी चेतना की प्रथम अभिव्यक्ति था। इसके बाद यह विरोध राजनीतिक क्षेत्र में देखा जा सकता है।

प्रश्न: 18वीं और 19वीं शताब्दी के छुटपुट हिंदू सुधार आंदोलनों ने किस सीमा तक सामाजिक सधार में योगदान दिया? विवेचना कीजिए। 
उत्तर: 18वीं और 19वीं शताब्दियों में भारत के विभिन्न स्थानों पर कई धार्मिक आंदोलन हुए। वास्तव में ये धार्मिक आंदोलन नहीं थे बल्कि धार्मिक संगठन थे जिनका कुछ निश्चित लक्ष्य था। समाज पर न तो इनका कोई महत्वपूर्ण और न ही गहरा प्रभाव पड़ा। इन धार्मिक संस्थाओं के संस्थापकों ने न तो कोइ उल्लेखनीय सिद्धांत प्रतिपादित किया और न ही कोई बड़ा आध्यात्मिक योगदान किया। फिर भी इनकी कुछ अच्छाइयां थीं। इनमें से अधिकांश संप्रदाय हिंदुओं की छोटी जाति के लोगों में बने, जिनमें धार्मिक पुनरूत्थान की बड़ी आवश्यकता थी। संस्थापकों के प्रवचन और उनके अनयायियों का विश्वास मुख्यतः ईश्वर भक्ति पर केन्दित था। कुछ तो सुधारवादी दृष्टिकोण के थे जिन्होंने मूर्ति पजा और बहत सारे देवी-देवताओं की पूजा की प्रवृत्ति समाप्त करने का प्रयत्न किया। लगभग सभी संप्रदाय दूसरों के प्रति उदारवादी और सहिष्णुता की भावना रखते थे। इनमें से कुछ ने तो सभी जातियों और संप्रदायों तथा धर्मों के लोगों को अपने में शामिल कर लिया।
चरणदासी संप्रदाय: प्लासी की लड़ाई (1757 ई.) के समय, एक व्यक्ति चरणदासी ने एक संप्रदाय की स्थापना की जिसका नाम चरणदासी था। ‘यह विष्णु भक्ति पर आधारित संप्रदाय था और राधा तथा कृष्ण में अत्यंत श्रद्धा रखता था। संप्रदाय के गुरू चरणदास थे और उनके शिष्यों ने उनका अत्यंत श्रद्धापूर्वक सम्मान किया। गुरू बिना गति नहीं।‘ अर्थात गुरू का बिना परमात्मा नहीं मिल सकता। यह विश्वास सभी ओर व्याप्त था। इसलिए गुरू को भी देवतुलय माना जाता था। गुरू चरणदास ने सभी संप्रदायों के लोगों को अपने संप्रदाय में शामिल होने की अनुमति दे रखी थी और उन्होंने मानवीय समानता को प्रोत्साहन दिया। इसी भावना से उन्होंने आदेश दिया कि उनके बाद कोई भी गुरू किसी भी जाति का हो सकता है। अनुयायियों को शिक्षा दी जाती थी कि झूठ मत बोलों, चोरी मत करो, अभिमानी मत बनो, हिंसा से दूर रहो, किसी से घृणा न करो आदि। इन कड़े धार्मिक निर्देशों से सदस्यों का नैतिक स्तर ऊंचा उठाने में सहायता मिली। चरणदासी संप्रदाय का केंद्र दिल्ली था।
स्वामी नारायण संप्रदाय: स्वामीनारायण नामक एक और संप्रदारय 19 वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में गुजरात में बहुत प्रचलित था। इसके संस्थापक स्वामी सेहजानंद 1780 ई. में अवध में जन्मे थे, लेकिन बाद में वे गुजरात में जाकर बस गए। वे राधा और कृष्ण के अनन्य भक्त बन गए और उन्होंने भक्ति मार्ग का उपदेश दिया। बहुत से लोग उनके शिष्य बने और उन्हें एक देवता मानते थे।
पटलूदासी संप्रदाय: 18वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों और 19वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में अवध और उसके आसपास राम भक्तों का एक संप्रदाय ख्याति प्रापत हुआ। इसके संस्थापक पलटूदास थे, जिनके सम्मान में उनके शिष्ये ने संप्रदाय का नाम पलटूदासी रख दिया। वे लोग एक दूसरे का अभिवादन ‘सत्यराम‘ कह कर करते थे। यानी राम ही सत्य है।
अप्पापंथी संप्रदाय: राम भक्तों का एक ऐसा ही संप्रदाय अवध के निकट अस्तित्व में आया, जिसका नाम था अप्पापंथी। इसके संस्थपक मुन्नादास, राम के भक्त थे और वे जात के सुनार थे। बलरामी संप्रदाय रू 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में एक बहुत ही निम्न जाति के व्यक्ति बलराम ने एक संप्रदाय की स्थापना की, जो उनके नाम से बलरामी संप्रदाय बना। बलराम नड़िया के रहने वाले थे। नीच जात के होने के बावजूद उनकी धार्मिक प्रवृत्ति और अनन्य भक्ति के कारण बहुत से लोग उनके शिष्य बने और उन्हें देवतुल्य मानने लगे। यहां तक कि शिष्यों ने उन्हें भगवान का अवतार मानकर उनकी पूजा शुरू कर दी।
सतनामी संप्रदाय: 18वीं शताब्दी के अंत में अवध के जगजीवनदास ने एक संप्रदाय की स्थापना की, जिसका नाम था। सतनामी संप्रदाय या सच्चे नाम में विश्वास रखने वालों का संप्रदाय। इसके सदस्य उत्तर भारत के काफी व्यापक क्षेत्र से आए थे। संप्रदाय दो भागों में बंटा हुआ था। गृहस्थियों का और दूसरा सन्यासियों का। गृहस्थी अपनी जाति में रहते थे लेकिन संन्यासियों की कोई जाति नहीं होती थी।
19वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में घासीदास सतनामियों के गुरू बने। वे मध्ययुग के सतनामी संप्रदाय को पुनरूज्जीवित करना चाहते थे और उनका उपदेश था कि केवल ईवर ही सत्य है जिसकी अभिव्यक्ति उसके नाम से होती है अर्थात सतनाम। हिंदूओं की मूर्तियां सच्चे देवता नहीं हैं। भगवान के समक्ष सभी जन समान हैं और इसलिए जैसा कि अन्य जातें करती हैं मनुष्य और मनुष्य के बीच में कोई अंतर नहीं है।
वे धार्मिक निषेधों के माध्यम से इन बुराइयों को खत्म करके नैतिक सुधार करना चाहते थे। उन्होंने शराबखोरी, धूम्रपान और मांस खाने की मनाही की। छत्तीसगढ़ के चमारों में सतनामी आंदोलन से काफी धार्मिक और सामाजिक चेतना आई।
कमिज संप्रदाय: 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में बंगाल में एक और धार्मिक संप्रदाय कर्ताभज के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसकी प्रेरणा के स्रोत थे औलेचंद, जो पिछली शताब्दी के थे और जिनकी मृत्यु नडिया में हुई। उनके शिष्य उन्हें चैतन्य की भांति ईश्वर के दूत मानते थे। वे अपने धार्मिक चमत्कारों और ऋषि सिद्धियों के लिए विख्यात थे। चैतन्य की भांति उन्होंने भी विश्व बंधुत्व और सहिष्णुता का उपदेश दिया। उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को ही अपना शिष्य बनाया और जातपात के विरूद्ध प्रचार किया। औलेचंद ने अपने अनुयायियों के लिए एक आचार सहिंता निर्दिष्ट की। उन्होंने निर्देश दियाः जीवहत्या मत करो, चोरी न करो, झूठ मत बोलो। रामशरण इस संप्रदाय के दूसरे गुरू बने। कर्ताभज संप्रदाय के सदस्य टोला और रथयात्रा जैसे समारोह करते थे, जिनमें हिंदू और मुसलमान दोनों ही सम्मिलित होते थे। इस संप्रदाय के गुरू हालांकि नीच जात के होते थे फिर भी ब्राह्मणों ने भी उनके सामने श्रद्धा से शीश झुकाया।

 

Sbistudy

Recent Posts

मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi

malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…

4 weeks ago

कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए

राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…

4 weeks ago

हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained

hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…

4 weeks ago

तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second

Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…

4 weeks ago

चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi

chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…

1 month ago

भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi

first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…

1 month ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now