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घराना किसे कहते है , इतिहास में घराना की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब gharana in hindi definition
gharana in hindi definition घराना किसे कहते है , इतिहास में घराना की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब ?
घराना शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, घर + आना = घराना। उस्ताद अलाउद्दीन खां साहब प्रायः घराने की व्याख्या इसी प्रकार किया करते थे, जिस प्रकार एक लड़की विवाह के पूर्व अपनी पैतृक संस्कृति में पलती है और उसे आत्मसात् कर लेती है, विवाहोपरांत ससुराल की संस्कृति में वही कन्या अपने को ढाल लेती है। इस प्रकार वह दोनों घरों की संस्कृति या आचार-विचारों का प्रतिनिधित्व करने लगती है। हिन्दू संस्कृति की ‘रोटी, बेटी और चोटी’ की तर्ज पर संगीताों द्वारा तीन शब्द सूत्रवत प्रयोग किए जाते हैं ‘बंदिश, बढ़त और वर्तावा। गुरुकुल में रहकर शिष्य अपने गुरु के गुणों को ग्रहण कर लेता है। यह परंपरा वेद और उपनिषदकालीन प्रथाओं से मेल खाती है। जब ‘गोत्र’ प्रथा का एवं ब्राह्मणों में ‘शाखा’ का प्रारंभ हुआ था।
घरानों का जन्म अपने आप होता है। गायक या वादक उन्हें जागबूझकर नहीं बनाते। संगीताों की सृजनात्मक अभिव्यक्ति से ही किसी विशेष शैली का जन्म होता है। स्वरों के व्यवस्थित और कलात्मक संगठन को ही हम शैली कहते हैं, जिसे एक विशेष तकनीक निर्धारित करती है। किसी घराने की विशेषता उसकी शैली में होती है और वह उसी नाम से जागा जाता है।
सच तो यह है कि जिसे ‘घराना’ कहते हैं, वह हिंदुस्तानी संगीत की निराली विशेषता है। यदि ये घराने न होते तो हमारे संगीत की पैतृक सम्पदा सुरक्षित न रहती। घरानों के माध्यम से एक तरह से संगीताों के एक विशेष वग्र का सामुदायिक विकास भी होता है। यथार्थ में हम घरानों को एक तरह का जातीय समूह ही मानेंगे। प्रत्येक घराने की अपनी विशेषता अथवा विशिष्टता होती है। उसका एक मुख्य गुरु, संरक्षक अथवा माग्रदर्शक होता है, जो उस घराने की शिक्षा का आयोजन करता है।
कोई भी घराना क्यों न हो, वह अपनी शैली से जागा जाता है। गायन की शैली को हम ‘गायकी’ के नाम से पुकारते हैं और इसी तरह वादन की शैली को हम ‘बाज’ कहकर पुकारते हैं। आमतौर पर ये शब्द घरानेदार और व्यावसायिक संगीतों के संगीत पर ही लागू होते हैं।
घराने बड़े भी हैं और छोटे भी, प्रसिद्ध भी और मामूली भी। किंतु जब भी हम संगीत की चर्चा करेंगे, घरानों की चर्चा करना आवश्यक ही नहीं अपितु अपरिहार्य हो जाती है।
टप्पा गायन वस्तुतः ठुमरी का ही भाईबंद है। इसमें गले से राग स्वरूप कायम रखते हुए दानेदार तानों की हरकत करना बड़े कठिन अभ्यास की मांग करता है। इसके आविष्कारक पंजाब के एक शोरी मियां कहे जाते हैं। इसकी चाल ख्याल और ठुमरी से भिन्न होती है। क्रमशः टप्पा गायन रस से अधिक कौतूहल की वस्तु बन गया। इसके शब्द भी अक्सर ऐसी पंजाबी भाषा में होते हैं, जिनका तालमेल बिठाना कठिन होता है। ‘ऐ मियां जागे वाले’ टप्पा की एक ऐसी ही लोकप्रिय बंदिश है। टप्पा गायन के लिए कुछ छोटे राग ही नियत किए गए हैं, जैसे भैरवी, खमाज, काफी आदि। शब्द की संपूर्ण समाप्ति और स्वरों में उनके अस्तित्व को विलीन करके गायन शैली का जो एक उपभेद पैदा हुआ, उसे तराना के नाम से जागा गया। वादन की तरह इसमें भी ‘दिर दिर दिर दिर’ ताना ना ना तों नों’ आदि स्वर ही प्रयुक्त होते हैं। मध्य और द्रुत लय में तराना की शैली आज भी अनेक गायकों में लोकप्रिय है। इसमें कंठ संगीत से ही गायक अतिद्रुत लय में बाज-अंग का रस उत्पन्न करने में सक्षम हो जाता है। तराना की इसी विशिष्टता ने उसे अब भी संगीत की महफिलों में जीवित रखा है।
भारतीय संगीत की यह शास्त्रीय धारा कई रूपों में अपने को जिस तरह अभिव्यक्त करती रही, उसके आदि स्रोत अनेक क्षेत्रीय लोक गायनों में देखे जा सकते हैं। कुछ ऐसे लोक गायनों ने जहां शास्त्रीय संगीत में अपनी जगह बना ली, जैसे ध्रुपद धमार में होली के (होरी) गीत या चैती या दादरा उसी प्रकार शास्त्रीय गायन भी लोक जीवन में पैठ करता गया। मंदिरों में (विशेष रूप से वैष्णव मंदिरों में) देवोपासना के लिए जहां विशुद्ध ध्रुपद का गायन होता था, उसके स्थान पर भक्तिरस परक हवेली संगीत ने भी शास्त्रीय संगीत का मूल आधार बना, रखा। ब्रज में अष्टछाप के कवियों ने ऐसी रचनाओं से हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि तो की ही अपने समाज गायन से शास्त्रीय संगीत में एक अनूठा अध्याय भी जोड़ा। इसमें निर्गुण संतों का योगदान महत्वपूर्ण रहा है।
कबीर जब कहते हैं कि ‘राग में स्तुति ऐसी बसै-जैसे जल बिच मीना रे’ तब हम शब्द और संगीत के सेतु की गहरी पहचान पाते हैं। भक्तिकालीन संतों ने भारतीय शास्त्रीय संगीत पर गहरी छाप छोड़ी है। कई राग उनके नाम पर बने जैसे सूरदासी मल्हार, मीरा की मल्हार इत्यादि। उसी प्रकार सिखों ने ‘सबद’ गाया। सूफियों की सोहबत ने कव्वालियों को प्रचलित किया। हिन्दी में ब्रजभाषा और अवधी की बोलियों में लिखे हुए पद ही नहीं, फारसी और उर्दू में लिखी गई मशहूर शायरों की रचनाएं भी गजलों के रूप में गईं। मिर्जा गालिब, बहादुर शाह जफर, मीर तकी मीर, जौक आदि चंद कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्होंने गजल को नई ऊंचाई तक पहुंचाया। इसके प्रसार में उत्तर भारत की तवायफों का काफी हाथ रहा जिनकी शास्त्रोक्त संगीत में शिक्षा-दीक्षा हुआ करती थी। भजनों व पदों का गायन यद्यपि आधुनिक संगीत जगत में सीमित हो गया है, किंतु गजल गायकों की एक लम्बी जमात तैयार हो गई है। ये गायक शास्त्रीय संगीत की बंदिशों के ढंग पर ही गजलों में स्वर विस्तार करते हैं।
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