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Categories: sociology

गेरहार्ड लेंस्की :  सत्ताधिकार और विशेषाधिकार सिद्धांत क्या है gerhard lenski theory in hindi Power and Privilege

Power and Privilege gerhard lenski theory in hindi गेरहार्ड लैंस्की :  सत्ताधिकार और विशेषाधिकार सिद्धांत क्या है ?

 गेरहार्ड लेंस्की :  सत्ताधिकार और विशेषाधिकार सिद्धांत
इस इकाई में जिन तीन विद्वानों का हमने उल्लेख किया है उनमें गेहराई लेंस्की के कार्य में सामाजिक स्तरीकरण के विभिन्न सिद्धांतों का संश्लेषण करने का सबसे व्यवस्थित प्रयास मिलता है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक पॉवर ऐंड प्रिविलेजः ए थ्योरी ऑफ सोशल स्ट्रैटीफिकेशन के पहले अध्याय में लेंस्की स्पष्ट करते हैं कि सामाजिक स्तरीकरण के लिए एक संश्लेषित सिद्धांत की रूपरेखा बनाने के इस प्रयास में उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण तीन प्रश्नों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है। सबसे पहले, वह स्तरीकरण के परिणामों के बजाए उसके कारणों को अधिक महत्व देते हैं जबकि अधिकांश विद्वानों ने स्तरीकरण के परिणामों को महत्व दिया है। दूसरा, जैसा कि उनकी पुस्तक के शीर्षक से संकेत मिलता है, उनका मुख्य विषय प्रतिष्ठा के बजाए सत्ताधिकार और विशेषाधिकार हैं। आखिर में वह सामाजिक स्तरीकरण को मानव समाज में वितरणात्मक प्रक्रिया के तुल्य मानते हैं, जिसके जरिए दुर्लभ मूल्यों का वितरण होता है।

इतिहास की दृष्टि से देखें तो वितरण और सामाजिक असमानता का प्रश्न तभी महत्वपूर्ण हो जाता है जब समाज बेशी उत्पादन करने लगता है, यानी वह एक निश्चित जनसंख्या के जीवित रहने के लिए जरूरी से अधिक उत्पादन करने लगता है। लेंस्की के लिए मूल प्रश्न यह था कि इस स्थिति में ‘कौन कितना पाता है और क्यों पाता है‘। उनका उत्तर सरल और स्पष्ट हैः “समाज में पारितोषिकों का वितरण सत्ताधिकार (शक्ति) के वितरण का फलन हैं।‘‘ यह उत्तर संरचनात्मक प्रकार्यवादियों के प्रत्युत्तर में है जो पारितोषिकों के विभेदी वितरण को सामाजिक व्यवस्था की प्रकार्यात्मक जरूरतों के रूप में समझते हैं । लेस्की का उत्तर हालांकि बड़ा सरल सा लगता है मगर सामाजिक स्तरीकरण का जो सिद्धांत उन्होंने रखा है वह काफी गहरा और विस्तृत है। उन्होंने समाज में सत्ताधिकार और विशेषाधिकार के ढांचे को तय करने वाली वितरण प्रणाली की कार्यशैली का एक बहुआयामी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है।

बॉक्स 8.02
वितरण प्रणाली को ढांचे की रचना तीन प्रकार की इकाइयों से होती हैरू व्यक्ति, वर्ग और वर्ग व्यवस्था। इनमें हर इकाई एक-दूसरे से जुड़ी होती है और एक वितरणात्मक प्रणाली के अंदर संगठन के एक भिन्न स्तर को दर्शाती है। लेंस्की के अनुसार व्यक्ति इस प्रणाली के बुनियादी स्तर पर रहते हैं। मगर वर्गों के भीतर वे उनकी इकाई बन जाते हैं। बदले में वर्ग भी वर्ग व्यवस्था में उनकी इकाई बनते हैं।

मगर लेंस्की ने वर्ग की जो धारणा रखी है वह कार्ल मार्क्स या मैक्स वेबर की धारणा से बिल्कुल भिन्न है। मार्क्स और वेबर वर्ग को मुख्यतःआर्थिक आधार पर परिभाषित करते हैं और उसे समाज की अर्थव्यवस्था का हिस्सा मानते हैं। लेकिन लेंस्की इसे बड़े व्यापक अर्थ में प्रयोग करते हैं और इसके राजनीतिक आयामों पर अधिक जोर देते है। जैसा कि हमने ऊपर कहा है, लेंस्की की दृष्टि में स्तरीकरण समाज का एक बहुआयामी पहलू है और इसीलिए वह वर्ग की एकआयामी परिभाषा को अस्वीकार करते हैं।

मानव समाज तरह-तरह से स्तरित रहता है और स्तरीकरण की इन वैकल्पिक रीतियों में हर एक वर्ग की एक भिन्न संकल्पना का आधार बनती है। इस प्रकार वर्ग व्यक्तियों का समूह या समष्टि भर नहीं है जिनकी समाज में एक साझी आर्थिक हैसियत होती है या उत्पादन के ढांचे में एक साझा पद-स्थान होता है। उनके अनुसार, वर्गों के विभिन्न प्रकार हो सकते हैं जैसे राजनीतिक वर्ग, जातीय वर्ग, प्रतिष्ठा वर्ग इत्यादि।

लेंस्की के अनुसार वर्ग “समाज में व्यक्तियों की एक समष्टि है, जो किसी प्रकार के सत्ताधिकार, विशेषाधिकार या प्रतिष्ठा के मामले में एक समान स्थिति में खड़े होते हैं।‘‘ मगर वह साथ में यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि अगर हमें सामाजिक स्तरीकरण की व्याख्या करनी हो या ‘कौन क्या पाता है और क्यों पाता है‘ इस प्रश्न का समाधान करना है तो हमारा मुख्य सरोकार सत्ताधिकार वर्ग होना चाहिए। इसका कारण यह है कि प्रतिष्ठा और विशेषाधिकार अमूमन सत्ताधिकार के वितरण से तय होते हैं। सत्ताधिकार वर्ग से लेंस्की का मतलब उन व्यक्तियों से है जिनकी पहंच सत्ता या सत्ताधिकार के संस्थागत स्रोतों तक है या जिनके पास बल प्रयोग है। इस प्रकार उनकी वर्ग की परिभाषा में सबसे महत्वपूर्ण तत्व सत्ताधिकार है। लेकिन लेंस्की ने सत्ताधिकार और वर्ग को जिस तरह से परिभाषित किया है, उसके अनुसार व्यक्ति एक से अधिक वर्ग का सदस्य हो सकता है। उदाहरण के लिए, समकालीन भारतीय समाज में एक व्यक्ति संपत्ति स्वामित्व के मामले में मध्यम वर्ग का सदस्य, मगर वहीं वह कारखाने में नौकरी करने के कारण श्रमजीवी वर्ग का सदस्य और जाति से दलित होने के कारण वह अधीनस्थ संजातीय वर्ग का सदस्य भी हो सकता है। इन बड़ी भूमिकाओं में उसकी हर भूमिका और संपत्ति क्रम परंपरा में उसकी हैसियत, ये दोनों मिलकर उन चीजों और सुखों को प्राप्त करने के उसके अवसरों को प्रभावित करते हैं जिन्हें पाने की उसमें लालसा रहती है। इस प्रकार उसकी हर भूमिका उसे एक विशिष्ट वर्ग में रखती है। लेंस्की के अनुसार वर्ग स्थिति या हैसियत की यह बहुआयामिता व्यक्ति के प्रौद्योगिकी की दृष्टि से आदिम समाज से उन्नत समाज में आगे बढ़ने पर और अधिक प्रखर हो जाती है। वह तर्क देते हैं कि प्रत्येक असम या स्तरित व्यवस्था में द्वंद्व की सम्भावना मौजूद रहती है। प्रत्येक वर्ग के सदस्यों के साझे हित होते हैं जो अन्य वर्गों के प्रति उनमें वैमनष्य का संभावित आधार बनते हैं। एक वर्ग विशेष के सदस्यों का अपने साझे संसाधनों की रक्षा करने और उनका महत्व बढ़ाने और विरोधी वर्गों के संसाधनों के महत्व को घटाने में अपना निहित स्वार्थ होता है। लेकिन लेंस्की दावे के साथ यह नहीं कहते हैं कि वर्ग हमेशा मिल जुल कर कार्रवाई करते हैं या वे अपने साझे हितों के प्रति सजग होते हैं, वह यह भी नहीं कहते कि वे विरोधी वर्गों के प्रति हमेशा शत्रुतापूर्ण होते हैं। एक वर्गीय ढांचा संभावनाओं का संकेत देता है जिन्हें व्यक्ति फलीभूत बना सकता है, मगर उनके बारे में कुछ भी अपरिहार्य नहीं है।

बोध प्रश्न 2
1) बर्घ के सामाजिक स्तरीकरण को सिद्धांत की रूपरेखा पांच पंक्तियों में बताइए।
2) एन. लहमान के सामाजिक स्तरीकरण को व्यवस्था सिद्धांत के बारे में संक्षिप्त नोट लिखिए। अपना उत्तर लगभग पांच पंक्तियों में दीजिए।
3) लेंस्की के सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धांत में सत्ताधिकार और विशेषाधिकार का क्या स्थान है, बताइए। पांच पंक्तियों में उत्तर लिखिए।

लेंस्की के सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धांत का आखिरी घटक वर्ग व्यवस्था की अवधारणा है। उन्होंने वर्ग व्यवस्था को वर्गों की क्रम परंपरा के रूप में परिभाषित किया है जो किसी एक प्रतिमान के अनुसार श्रेणियों में बंटे होते हैं। लेकिन वर्ग व्यवस्था अकेली नहीं होती। वह तर्क देते हैं कि जब हम यह वास्तविकता जान लेते हैं कि सत्ताधिकार का आधार बहुविध है और इन्हें किसी अकेली कोटि या श्रेणी में समेट कर नहीं । रखा जा सकता, तो वर्ग क्रम परंपराओं और वर्ग व्यवस्थाओं की श्रृंखला के रूप में सोचने के लिए बाध्य हो जाते हैं।

 बोध प्रश्नों के उत्तर

बोध प्रश्न 2
1) बर्घ का स्तरीकरण सिद्धांत उदात्त संश्लेषण का प्रयास है। बर्घ के अनुसार प्रकार्यवाद और मार्क्सवाद दोनों सामाजिक यथार्थ के सिर्फ एक पहलू पर ही जोर देते हैं। उनका मानना है कि ये सिद्धांत इन बिन्दुओं पर मिलते हैं कि ये (प) साकल्यवादी हैं, (पप) दोनों के मूल में सामाजिक परिवर्तन की विकासात्मक धारणा है और (पपप) ये एक साम्य या सुंतलनवादी मॉडल पर आधारित हैं।
2) लहमान ने सामाजिक स्तरीकरण की व्याख्या के लिए सामाजिक व्यवस्था का सिद्धांत रखा था। उनके सिद्धांत में ‘क्रमिक विकास‘ का सिद्धांत और संप्रेषण का सिद्धांत दोनों का समावेश है। लहमान द्वंद्व या मतैक्य को अंतिम संकेत नहीं मानते। उनका कहना है कि समाज का विकास आमने-सामने की परस्पर प्रभावी क्रिया के फलस्वरूप एक विशाल संख्या में हुआ और इससे असम या विषम उपव्यवस्थाएं उत्पन्न हो गई जैसे, वर्ण व्यवस्था। समाज का जैसे-जैसे क्रमिक विकास होता है उसमें अधिक खुलापन आ जाता है और वह वर्ग जैसा बन जाता है।
3) लेंस्की ने अपने अध्ययनकार्य का विषय मुख्यतया (प) सामाजिक स्तरीकरण के कारणों, (पप) सत्ताधिकार और विशेषाधिकार और (पपप) वितरण प्रक्रिया को बनाया। लेंस्की कहते हैं कि जब उत्पादन बेशी होता है तो उससे वितरण का प्रश्न उठता है और इससे सामाजिक विषमता उत्पन्न होती है। वितरण प्रणाली स्वयं व्यक्तियों, वर्गों और वर्ग व्यवस्था से बनती है इसलिए लेंस्की के मत में सत्ताधिकार, विशेषाधिकार या प्रतिष्ठा ही वर्ग बनाते हैं। उनकी परिभाषा बहुआयामी है, जो हमें वर्ग पंरपरा की शंखला और वर्ग व्यवस्थाओं के बारे में सोचने के लिए विवश करती है।

प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य
जैसा कि हमें मालूम है, प्रकार्यवादी या संरचनात्मक प्रकार्यवादी सिद्धांत समाज को एक सजीव समेकित तंत्र के रूप में देखता है, जिसके विभिन्न अंग या इकाइयां उसकी अनिवार्य जरूरतों को पूरा करने का काम करती हैं। ये सिद्धांत सामाजिक स्तरीकरण को भी इसी तरह आवश्यकताओं, अपेक्षाओं के रूप में लेते हैं, सामाजिक असमानता के पैर्टन जिनकी पूर्ति समग्र समाज के लिए करते हैं। इस प्रकार सामाजिक असमानता उनके लिए सिर्फ एक अपरिहार्य वास्तविकता ही नहीं बल्कि व्यवस्था की जरूरत भी है। सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्यवादी सिद्धांतकारों में सबसे प्रमुख टैलकॉट पारसंस और किंग्सले डेविस हैं।

जैसा कि हम बता चुके हैं, प्रकार्यवादी मत का मूल प्रस्थान बिंदु यह है कि स्तरीकरण समाज की जरूरतों से उत्पन्न होता है न कि व्यक्तियों की जरूरतों और इच्छाओं से। पारसंस के अनुसार हर समाज के कुछ साझे मूल्य होते हैं जो समाज की जरूरतों, उसकी अपेक्षाओं से जन्म लेती हैं। अब चूंकि सभी समाजों की ये जरूरतें कमोबेश समान होती हैं इसलिए ये मूल्य भी पूरे विश्व में एक जैसे ही होते हैं। इन मूल्यों में कोई अंतर होता है तो सिर्फ इन की सापेक्षिक श्रेणी में । एक समाज कार्यकुशलता को स्थिरता से अधिक महत्व दे सकता है तो दूसरे समाज में कार्यकुशलता से अधिक महत्व स्थिरता को मिल सकता है। मगर हर समाज को कार्यकुशलता और स्थिरता दोनों को कुछ हद तक महत्व देना चाहिए। सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था अनिवार्यतः उस समाज की मूल्य व्यवस्था की अभिव्यक्ति है। जो पद-स्थान समाज द्वारा निर्धारित मानदंडों पर खरे उतरते हैं उन्हें उन पद-स्थानों से अधिक पारितोषिक दिया जाता है जिनका समाज की दृष्टि में महत्व कम है।

इसी प्रकार, डेविस इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि स्तरीकरण प्रत्येक मानव समाज की दो विशिष्ट साझी जरूरतों के फलस्वरूप उत्पन्न होता है। पहली, समाज में सबसे महत्वपूर्ण पद-स्थानों को सबसे योग्य व्यक्तियों से भरना चाहिए। दूसरी, समाज को महत्वपूर्ण पद-स्थानों पर आसीन लोगों को कम महत्व के पदों पर आसीन लोगों से अधिक पुरस्कार देना चाहिए। वह कहते हैं, “सामाजिक विषमता इस प्रकार अचेतन रूप से विकसित की गई युक्ति है जिससे समाज यह सुनिश्चित करता है कि सबसे म पद-स्थानों को पूरे विवेक से सबसे सुयोग्य व्यक्तियों से ही भरा जाए।‘‘

डेविस के अनुसार अत्यधिक महत्वपूर्ण पद-स्थानों से जुड़े पारितोषिकों के स्वरूप को दो महत्वपूर्ण कारक तय करते हैंः प) इन पद-स्थानों का समाज के लिए प्रकार्यात्मक महत्व, पप) इस श्रेणी के लिए सुयोग्य व्यक्तियों की सापेक्षिक दुर्लभता । उदाहरण के लिए, एक डॉक्टर प्रकार्य की दृष्टि से समाज के लिए एक मेहतर से अधिक महत्वपूर्ण है। डॉक्टर बनने के लिए जरूरी योग्यता हासिल करने के लिए लंबा प्रशिक्षण चाहिए। इस कारण समाज में डॉक्टर बड़ा दुर्लभ होता है और इसीलिए उसके लिए अधिक पारितोषिक तय किए जाते हैं। जब चूंकि सभी पद-स्थान सामाजिक महत्व के नहीं हो सकते और न ही महत्वपूर्ण पद-स्थानों के लिए सभी व्यक्ति सामाजिक रूप से योग्य हो सकते हैं, इसलिए उनमें असमानता अपरिहार्य हो जाती है। डेविस तर्क देते हैं कि यह सिर्फ अपरिहार्य ही नहीं है बल्कि यह हर व्यक्ति के लिए अनिवार्यतः लाभकारी है क्योंकि हर व्यक्ति का जीवन और कल्याण समाज के अस्तित्व और उसके कल्याण पर निर्भर करता है।

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