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गंगैकोण्ड चोलपुरम् का निर्माण किसने करवाया था गंगईकोंडा चोलपुरम मंदिर गंगाईकोंडचोलापुरम
gangaikondacholapuram temple built by in hindi गंगैकोण्ड चोलपुरम् का निर्माण किसने करवाया था गंगईकोंडा चोलपुरम मंदिर गंगाईकोंडचोलापुरम ?
प्रश्न: तंजौर तथा गंगैकोडचोलपुरम् के मंदिर चोल स्थापत्य के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करते हैं।
उत्तर:
गंगैकोण्डचोलपुरम् का बृहदीश्वर मंदिर – गंगैकोण्डचोलपुरम् के मंदिर का निर्माण राजराज के पुत्र राजेन्द्र चोल के शासन-काल में हुआ। उसने यहां बृहदीश्वर नामक भव्य शैव मंदिर का निर्माण करवाया। इसकी योजना तंजौर मंदिर के ही समान है लेकिन दोनों में कुछ विषमता भी मिलती है। यह 340 फीट लम्बा तथा 110 फीट चैड़ा है। इसका आठ मंजिला पिरामिडाकार विमान 100 वर्ग फीट के आधार पर बना है तथा 86 फीट ऊँचा है। विमान के ऊपर गोल स्तूपिका है। मंदिर का मुख्य प्रवेशद्वार पूर्व की ओर है जिसके बाद 175श् ग 95श् के आकार का महामण्डप है। मण्डप तथा गर्भगृह को जोड़ते हुए अन्तराल बनाया गया है। मण्डप एवं अंतराल की दोनों छतें सपाट हैं। अंतराल के उत्तर तथा दक्षिण की ओर दो प्रवेशद्वार बने हैं जिनसे होकर गर्भगृह में पहुँचा जाता है। मण्डप 250 पंक्तिबद्ध स्तम्भों के आधार पर बना है। मण्डप के स्तम्भ अलंकृत तथा आकर्षक हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर देवी-देवताओं की मूर्तियाँ एवं विविध प्रकार के अलंकरण उत्कीर्ण हैं जो तंजौर मंदिर की अपेक्षा अधिक सुन्दर एवं कलापूर्ण हैं।
तंजौर तथा गंगैकोडचोलपुरम् के मंदिर चोल स्थापत्य के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करते हैं। इनमें द्रविड वास्त के विमान निर्माण योजना की भव्यता, तकनीक तथा अलंकरण की पराकाष्ठा भी परिलक्षित होती है साथ ही साथ ये चोल सम्राटों की महानता एवं गौरवगाथा को आज भी सूचित कर रहे हैं।
राजेन्द्र चोल के उत्तराधिकारियों के समय में भी मंदिर निर्माण की परम्परा कायम रही। इस समय कई छोटे-छोटे मंदिरों का निर्माण किया गया। इनमें मंदिर की दीवारों पर अलंकृत चित्रकारियाँ एवं भव्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। राजराज द्वितीय तथा कुलोत्तुंग तृतीय द्वारा बनवाये गये क्रमशः श्दारासुरम् का ऐरावतेश्वर का मंदिरश् तथा श्त्रिभुवनम् का काम्पहरेश्वर का मंदिरश् अत्यन्त भव्य एवं सुन्दर है। इन मंदिरों का निर्माण भी तंजौर मंदिर की योजना पर किया गया है। ऐरावतेश्वर मंदिर का शिखर पाँच तल्ला है जिसका सबसे ऊपरी तल्ला पाषाण के स्थान पर ईंटों से बनाया गया है। विमान के सामने मण्डप तथा उसके आगे अग्रमण्डप बनाये गये हैं। ये पहियेदार रथ की भाँति है जिन्हें हाथी खींच रहे हैं। मण्डपों में अलंकत स्तम्भ लगाये गये हैं। उत्तर की ओर अम्मन् मंदिर तथा दक्षिण की ओर एक दूसरा स्तम्भयुक्त मण्डप है। मंदिर की बाहरी दीवार में बने आलों में मर्तियाँ उत्कीर्ण हैं जो बृहदीश्वर मंदिर जैसी ही हैं। मण्डप का ऊपरी भाग नटराज सभा कहा जाता है। इसमें बने आलों में ऋषि-मुनियों की शांत एवं उपदेश देती हुई मुद्रा में मूर्तियाँ उकेरी गयी हैं। कालान्तर में इस मंदिर का प्रभाव कोणार्क के सूर्य मंदिर पर पड़ा। वास्तु तथा तक्षण दोनों ही दृष्टियों से यह मंदिर उल्लेखनीय हैं। कम्पहरेश्वर. जिसे त्रिभवनेश्वर भी कहा जाता है, की योजना भी ऐरावतेश्वर मंदिर के ही समान है। इसमें मूर्तिकारी की अधिकता है। मूर्तियाँ कलात्मक दृष्टि से भी अच्छी हैं। नीलकण्ठ शास्त्री ने इसे श्मूर्तिदीर्घाश् कहा है।
तंजौर का बृहदीश्वर मंदिर – चोल स्थापत्य का चरमोत्कर्ष त्रिचनापल्ली जिले में निर्मित दो मंदिरों-तंजौर तथा गंगैकोण्डचोलपुरम् – के
निर्माण में परिलक्षित होता है। तंजौर का भव्य शैव मंदिर, जो राजराजेश्वर अथवा बृहदीश्वर नाम से प्रसिद्ध है, का निर्माण राजराज प्रथम के काल में हुआ था। भारत के मंदिरों में सबसे बड़ा तथा लम्बा यह मंदिर एक उत्कृष्ट कलाकृति है। जो दक्षिण भारतीय स्थापत्य के चरमोत्कर्ष को धोतित करता है। इसे द्रविड़ शैली का सर्वोत्तम नमूना माना जा सकता है। इसका विशाल प्रांगण 500′ x 250′ के आकार का है। इसके निर्माण में ग्रेनाइट पत्थरों का प्रयोग किया गया है। मंदिर चारों ओर से एक ऊँची दीवार पर घिरा है। मंदिर का आकर्षण गर्भगृह के ऊपर पश्चिम में बना हुआ लगभग 200 फीट ऊँचा विमान है। इसका आधार 82 वर्ग फुट है। आधार के ऊपर तेरह मंजिलों वाला पिरामिड के आकार का शिखर 190 फीट ऊँचा है। मंदिर का गर्भगृह 44 वर्ग फीट का है जिसके चतुर्दिक 9 फीट चैड़ा प्रदक्षिणापथ निर्मित है। प्रदक्षिणापथ की भीतरी दीवारों पर सुन्दर भित्तिचित्र बने हैं। गर्भगृह के भीतर एक विशाल शिवलिंग स्थापित है जिसे अब बृहदीश्वर कहा जाता है। प्रवेशद्वार पर दोनों ओर ताख में दो द्वारपालों की मूर्तियाँ बनी हैं। मंदिर के बहिर्भाग बनी हुई हैं। इस प्रकार भव्यता तथा कलात्मक सौन्दर्य की दृष्टि से यह दक्षिण भारत का सर्वश्रेष्ठ हिन्दू स्मारक है। पर्सी ब्राउन के शब्दों में श्इसका विमान न केवल द्रविड शैली की सर्वोत्तम रचना है। अपित इसे समस्त भारतीय स्थापत्य की कसौटी भी कहा जा सकता है।
परवर्ती चोल स्थापत्य कला – परवर्ती चोल कला पर चालुक्य, होयसल तथा पाण्ड्य कला का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता हैं। परिणामस्वरूप मंदिरों के विमान तथा गोपुरम् की रचना में पहले से कुछ विभिन्नता मिलती है। विमान के पास शाला प्रकार का अममन् मंदिर बनाया जाने लगा जो इस काल की नई विशेषता हैं यह वस्तुतः देवी मंदिर है। गोणा में नया अन्तर यह आया कि इनमें कई तल्ले बनने लगे तथा इनकी ऊँचाई बढ़ गयी। कभी-कभी ये विमान से भी ऊँ हो जाते थे। स्तम्भ पतले किन्तु अधिक अलंकृत बनाये जाने लगे।
चोल तक्षण कला रू स्थापत्य के साथ-साथ तक्षण-कला (ैबनसचजनतम) के क्षेत्र में भी चोल कलाकारा ने सफलता प्राप्त की। उन्होंने पत्थर तथा धात की बहसंख्यक मर्तियों का निर्माण किया। प्रारंभिक मूर्तियाँ पल्लव शैली से प्रभावित हैं किदसवीं शती से इनमें विशिष्टता दिखाई देती है। आकतियाँ इतने उभार के साथ बनाई गयी है कि व दीवाल के सहारे सजीव खडी प्रतीत होती हैं। उनके अंग-प्रत्यंग को अत्यन्त सक्षमता के साथ गढ़ा गया है कलाकारा द्वारा नामत मूर्तियों में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ ही अधिक हैं, यद्यपि छिट-पट रूप से मानव मूर्तियाँ का निर्माण ही अधिक हुआ। पाषाण मर्तियों से भी अधिक धातु (कांस्य) मूर्तियों का निर्माण हआ। इसमें देवताओं, सन्तों तथा भक्त राजाओं की मूर्तियाँ बनायी गयी। सर्वाधिक सन्दर मूर्तियाँ नटराज (शिव) की हैं जो बहुत बड़ी संख्या में मिलती हैं। ये आज भी दक्षिण क कई स्थानों पर विद्यमान हैं जिनकी पजा होती है। त्रिचनापल्ली के तिरुभरंगकलम से नटराज की एक विशाल कास्य प्रतिमा मिली है जो इस समय दिल्ली संग्रहालय में हैं। इसी जिसे के तिरुवलनकडु से शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप की एक मूर्ति मिलती है जो मद्रास संग्रहालय में सरक्षित है। इसमें नारी तथा परुष की शारीरिक विशेषताओं को उभारन म कलाकार को विशेष सफलता मिली है। इसके अतिरिक्त ब्रह्मा, विष्ण, लक्ष्मी, भूदेवी, राम-सीता, कालियानाग पर नृत्य करते हुए बालक कष्ण तथा कुछ शैव सन्तों की मूर्तियाँ भी प्राप्त होती हैं जो कलात्मक दृष्टि से भव्य एवं सुन्दर हैं। चोल कलाकारों ने धात मर्तियों के निर्माण में एक विशिष्ट विधा का प्रचलन किया है। चोल मूर्तिकला मुख्यतः वास्तु कला का सहायक थी और यही कारण है कि अधिकांश मूर्तियों का उपयोग मंदिरों को सजाने में किया गया। केवल धातु मूर्तियाँ ही स्वतंत्र रूप से निर्मित हई है। बहदीश्वर मंदिर की चैकी. भित्तिकाओं आदि पर शिव के विविध रूपों, जैसे – विष्णु अनुग्रह, भिक्षातट. वीरभद्र, दक्षिणमूर्ति, चन्द्रशेखर, वृषभारूढ, त्रिपुरान्तक आदि की मूर्तियाँ उकेरी गयी हैं। त्रिपुरान्तक मूर्ति के माध्यम से शिल्पी राजराज के पराक्रम को उद्घाटित करता हुआ जान पड़ता है। देवियों तथा विष्णु के विविध रूपों की मर्तियाँ भी यहां मिलती हैं। लौकिक, मूर्तियाँ भी बनाई गयी हैं। नृत्य की 108 मुद्राओं को नर्तकियों के माध्यम से यहां प्रदर्शित किया गया है। गंगैकोन्डचोलपुरम् स्थित बृहदीश्वर मंदिर की मूर्तियाँ यद्यपि कम हैं, फिर भी अधिक कलात्मक एवं भावपूर्ण है। शिव की श्चण्डेशानुग्रह मूर्तिश् सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इसमें भक्त चण्डेश के ऊपर शिव कृपा के दृश्य को अत्यन्त कुशलतापूर्वक गढ़ा गया है।. दारासुरम् मंदिर तो मूर्तियों का विशाल संग्रह ही है जहां नाट्यशास्त्र की समस्त मुद्राओं का अंकन किया गया है। मंदिर की चैकी पर अंकित कुछ अलंकरण इनते लोकप्रिय बने कि उनका प्रभाव जावा के बोरोबुदुर मंदिर पर पड़ा।
वास्तु तथा तक्षण के साथ-साथ चोल काल में चित्रकला का भी विकास हुआ। इस युग के कलाकारों ने मंदिरों की दीवारों पर अनेक सुन्दर चित्र बनाये हैं। अधिकांश चित्र बृहदीश्वर मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण मिलते हैं। ये अत्यन्त आकर्षक एवं कलापूर्ण हैं। चित्र प्रमुखतः पौराणिक धर्म से संबंधित हैं। यहां शिव की विविध लीलाओं से संबंधित चित्रकारियाँ प्राप्त होती हैं। एक चित्र में राक्षस का वध करती हुई दुर्गा तथा दूसरे में राजराज को सपरिवार शिव की पूजा करते हुए प्रदर्शित किया गया है।
इस प्रकार चोल राजाओं के शासन काल में राजनैतिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से तमिल देश की महती उन्नति हुई। वस्तुतः स्थानीय प्रशासन, कला, धर्म तथा साहित्य के क्षेत्र में इस समय तमिल देश जितना अधिक उत्कर्ष पर पहुंचा उतना बाद के कालों में कभी भी नहीं पहुँच सका।
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