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गंगैकोंडचोलपुरम का शिव मंदिर किसने बनवाया था , gangaikonda cholapuram was built by in hindi

gangaikonda cholapuram was built by in hindi गंगैकोंडचोलपुरम का शिव मंदिर किसने बनवाया था चोल शासक जिसने चिदंबरम के प्रसिद्ध नटराज मंदिर का निर्माण किया ?

गंगैकोण्डचोलपुरम (11°12‘ उत्तर, 79°27‘ पूर्व)
कुंभकोणम के उत्तर-पूर्व में, गंगैकोण्डचोलपुरम तमिलनाडु के त्रिचनापल्ली जिले में स्थित है। गंगैकोण्डचोलपुरम प्राचीन काल में चोल वंश के शक्तिशाली शासक राजेंद्र (1012-1044) की राजधानी था। गंगैकोण्डचोलपुरम का अर्थ है- ‘गंगो पर विजय प्राप्त करने वाले चोलों की नगरी। यहां पर 11वीं शताब्दी का एक मंदिर एवं 5 कि.मी. लंबा जलाशय मौजूद है। यहां राजेंद्र द्वारा एक भव्य एवं विशाल मंदिर निर्मित करवाया गया, जो उसके पिता राजराजा द्वारा तंजौर में निर्मित बृहदेश्वर मंदिर से समानता रखता है। इस मंदिर की दीवारों पर अलंकृत चित्रकारियां एवं भव्य मूर्तियां मिलती हैं। मंदिर के सामने ईंट एवं गारे से बनी नंदी की एक विशाल मूर्ति है।
1030 ई. में निर्मित यह मंदिर बृहदेश्वर मंदिर से काफी मिलता-जुलता है। यद्यपि इसका आकार तंजावुर के मंदिर की तुलना में छोटा है।
मंदिर मंडप तथा गर्भगृह, जो कि पश्चिम से पूर्व की ओर है तथा इस तक जाने की सीढ़ियां हैं, के मामले में तंजौर मंदिर की आभा लिए हुए है। गर्भगृह के ऊपर पिरामिड के समान आठ टॉवर हैं।
भगवान शिव का मंदिर के भीतर प्रस्तुतीकरण अपने भक्तों को आशीर्वाद देते हुए है, विशेषतया चंडीकेश्वर जो कि शिव की कृपा से राजेंद्र को प्राप्त होने वाली विजयों का उल्लेख करता है। यह चोल शिल्पकला का उत्कृष्ट नमूना है, जिसमें शिव द्वारा चंडिकेश्वर को आशीर्वाद देते हुए दिखाया गया है, जिसने शिव भक्ति में अड़चन डालने के कारण अपने पिता के पैर काट दिए थे।

गंजाम (19.38° उत्तर, 85.07° पूर्व)
गंजाम महानदी के दक्षिण में ओडिशा के तटीय क्षेत्र में छत्रपुर के समीप स्थित है। प्राचीनकाल में गंजाम पर कई शासकों ने शासन किया, जिनमें, मगध, मौर्य एवं गुप्त शासक प्रमुख हैं। 6वीं एवं 7वीं शताब्दी में, गुप्तवंश के पतनोपरांत गंजाम गौड़ शासकों के अधीन हो गया। माधवराव द्वितीय के 619 ई. के एक लेख के अनुसार गंजाम पर हर्षवर्धन के एक सामंत का शासन था। एक अन्य अभिलेखीय प्रमाण के अनुसार 643 ई. में हर्ष ने अपना अंतिम सैन्य अभियान गंजाम के विरुद्ध ही किया था। इसके कुछ वर्षों पश्चात ही हर्षवर्धन की मृत्यु हो गई थी। गंजाम उन प्रमुख साम्राज्यों में से एक है, जिनका उल्लेख चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में किया है। इतिहासकारों के अनुसार, हर्ष ने गंजाम की स्वतंत्रता को समाप्त कर इस पर अधिकार कर लिया था। ऐसा प्रतीत होता है कि गंजाम के विरुद्ध हर्ष के सैन्य अभियान का मुख्य प्रयोजन अपने अग्रज राज्यवर्धन की हत्या का बदला लेना था। राज्यवर्धन की गौड़ नरेश शशांक ने हत्या कर दी थी। ऐसा भी प्रतीत होता है कि 8वीं शताब्दी में गंजाम पर पाल शासकों ने अधिकार कर लिया था।

गंगोत्री (30.98° उत्तर, 78.93° पूर्व)
हिमालय की गोद में स्थित गंगोत्री नामक स्थल का ऐतिहासिक एवं पौराणिक महत्व है। ऐसा माना जाता है कि जीवन रेखा गंगा ने इसी स्थान पर सबसे पहले स्वर्ग से उतरकर पृथ्वी को स्पर्श किया था। हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार, स्वर्ग में रहने वाली देवी गंगा ने सागर के पुत्रों को पापों से मुक्त करने के लिए सरिता का स्वरूप धारण कर लिया था एवं पृथ्वी पर आ गई थी। स्वर्ग में देवताओं ने कई वर्षों तक विचार-विमर्श के उपरांत गंगा को पृथ्वी पर भेजने का निश्चय किया था। गंगा की देवी के रूप में आज भी पूजा की जाती है। गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने 18वीं सदी में प्रसिद्ध गंगोत्री मंदिर का निर्माण करवाया। कालांतर में जयपुर के महाराजा ने इसका जीर्णाेद्धार करवाया।
नवंबर तक गंगोत्री बर्फ से ढक जाती है, इसलिए श्रद्धालु इससे 25 किलोमीटर पहले ही मुखम नामक स्थान पर अपनी पूजा-अर्चना संपन्न करते हैं।
गंगा नदी का उद्गम स्थल गोमुख, 18 कि. मी. ऊपर पहाड़ियों में स्थित है। यह स्थान भी श्रद्धालुओं के लिए विशेष महत्व रखता है। गोमुख का रास्ता कठिन है, अनेक तीर्थयात्री गंगा के स्रोत तक श्रद्धांजलि अर्पित करने जाते हैं। यह उत्तराखण्ड में स्थित है।

एलिफैन्टा (18.96° उत्तर, 72.93° पूर्व)
मुंबई से लगभग 10 किलोमीटर दूर अरब सागर में एलिफैन्टा एक छोटा-सा द्वीप है। चालुक्य एवं राष्ट्रकूट शासकों के प्रभावाधीन रहा यह स्थान अपने गुहा मंदिरों विशेषकर भगवान शिव की मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध है। इनमें त्रिमूर्ति शिव की प्रतिमाएं सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। इसमें भगवान शिव को ‘नटराज‘ एवं ‘योगीश्वर‘ के रूप में दिखाया गया है। मंदिर के स्तंभ एवं दीवारें शिव की विभिन्न मुद्राओं एवं अवतारों के चित्रों से युक्त एवं सुसज्जित हैं। शिव की तीन धड़ों वाली ‘महेशमूर्ति‘ अत्यंत प्रभावोत्पादक एवं आकर्षक है। यह एलिफैंटा की सभी मूर्तियों में सबसे मुख्य स्थान रखती है। इसमें भगवान को तीन रूपों-सृष्टि का निर्माता, संचालक एवं संहारक-में दर्शाया गया है।
छठी शताब्दी ईस्वी में यह द्वीप ‘घरापुरीश् यानि दुर्गों का नगर के नाम से जाना जाता है। हाथियों की कई मूर्तियों के कारण (जो कि अब विक्टोरिया गार्डन में हैं) इस स्थान का नाम पुर्तगालियों ने ‘एलीफैंटा‘ रखा। यहां शिव की अर्द्ध-नारीश्वर एवं गंगाधर रूप में भी मूर्तियां हैं।
गुफा में प्रवेश के लिए तीन द्वार हैं, जो छज्जों से युक्त हैं। 1996 में ऐलिफैन्टा को विश्व धरोहर घोषित कर दिया गया है।

एलिचपुर/अचलपुर (21°15‘ उत्तर, 77°30‘ पूर्व)
एलिचपुर देवगिरी के यादव शासकों का एक सीमांत स्थल था। 1296 ई. में, अलाउद्दीन खिलजी से परास्त होने के उपरांत देवगिरी के राजा रामचंद्र देव ने एलिचपुर की आय को दिल्ली सल्तनत को भेजने का वायदा किया था। अलाउद्दीन की सेना से पराजित होने के उपरांत गुजरात के भगोड़े शासक कर्णदेव ने एलिचपुर में ही शरण ली थी। बाद में 1307 में मलिक काफूर ने कर्णदेव को पुनः परास्त किया। दिल्ली सल्तनत के पतन से पहले तक एलिचपुर तुगलक शासकों के अधीन रहा। दिल्ली सल्तनत के पतनोपरांत यह बहमनी शासकों द्वारा हस्तगत कर लिया गया। बहमनी साम्राज्य के विघटन के पश्चात यह बरार के इमादशाही शासनकाल में एक प्रमुख शहर बन गया।
सोलहवीं शताब्दी के मध्य, अहमदनगर की चांदबीबी ने मुगलों के समक्ष बरार का समर्पण कर दिया तथा यह मुगलों के अधीन हो गया। मुगलों ने यहां शाहपुर नाम से एक नया शहर बसाया तथा उसे अपना सैन्य मुख्यालय बनाया। इसके बाद यह मराठा साम्राज्य के अंतर्गत आ गया तथा अंत में इसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने साम्राज्य में मिला लिया।

एलौरा (20°01‘ उत्तर, 75°10‘ पूर्व)
महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद जिले में स्थित एलौरा नामक स्थान अपने गुहा-मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। (अब इसे यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में सम्मिलित कर लिया गया है।) एलौरा में कुल 34 गुफाएं हैं, जिनका समय 350-800 ईस्वी के मध्य माना जाता है। इन 34 गुफाओं में से 12 बौद्ध गुफाएं हैं, 17 गुफाएं हिन्दू धर्म से संबंधित हैं तथा 5 की विषय-वस्तु जैन धर्म से संबद्ध है। गुफा संख्या 6 एवं 10 में बौद्ध तथा हिन्दू दोनों धर्मों से संबंधित प्रतिरूप दृष्टव्य हैं। बाद में गुफा संख्या 10 को ‘विश्वकर्मा, भारतीय शिल्पकारों के संरक्षक संत, का गुहा मंदिर‘ नाम दे दिया गया। स्तूप में अवस्थित आसन धारण किए हुए बुद्ध सहित विश्वकर्मा गुफा चैत्य एवं विहार दोनों है।
एलौरा में 17 गुहा मंदिर प्राप्त होते हैं, इनमें गुहा 16 में ‘कैलाश मंदिर‘ सर्वाधिक प्रसिद्ध है। यह शिल्पकला का एक उत्कृष्ट नमूना है, यह पूरी संरचना एक ही चट्टान को काट कर बनाई गई है तथा इस कार्य को पूर्ण होने में एक शताब्दी का समय लगा। ये सभी राष्ट्रकूट शासकों (7-8वीं शताब्दी) के समय में निर्मित हैं। कैलाश मंदिर प्राचीन वस्तु एवं तक्षण कला का एक अत्युत्कृष्ट नमूना है। इसका निर्माण राष्ट्रकूट शासक कृष्ण प्रथम (756-793 ई.) ने करवाया था। दूमर लेन गुफाएं, एलिफेंटा के प्रसिद्ध गुफा मंदिरों से साम्यता रखती है तथा भगवान शिव को समर्पित हैं। जैन मंदिरों में ‘इन्द्रसभा मंदिर‘ सबसे प्रमुख हैं, जिसमें जैन तीर्थंकरों की कई सुंदर मूर्तियां हैं। यह मंदिर फ्रास्को पेंटिंग के लिए भी प्रसिद्ध है। इसकी विषय-वस्तु ब्राह्मण एवं जैन हैं।

एरण (24°5‘ उत्तर, 78°9‘ पूर्व)
गुप्त एवं हूण अभिलेखों में ‘एरिकेण‘ के रूप में उल्लिखित एरण वर्तमान समय में मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित है। पुरातात्विक उत्खनन इसके पाषाणकालीन स्थल होने का संकेत देते हैं। यह 300 ई.पू. के लगभग एक महत्वपूर्ण स्थल के रूप में उभरा। सीसे का एक टुकड़ा, जिस पर ब्राह्मी लिपि में दंतकथा के साथ एक पासे की छाप में रानो दोगुत्सा-राजा इंद्रगुप्त लिखा है-विशेषतया दिलचस्प है। गुप्त राजाओं के काल में यह एक महत्वपूर्ण नगर था। यहां से कई गुप्तकालीन लेख तथा सिक्के प्राप्त हुए हैं। यहां से कई आहत सिक्के तथा रामगुप्त, नागों एवं भारतीय सशानियन शासकों के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। इनके अतिरिक्त यहीं से पहली बार रामगुप्त की सिंह एवं गरुड़ प्रकार की मुद्राएं सर्वप्रथम प्राप्त की गई हैं। यहां से गज-लक्ष्मी की आकृतियुक्त एक मुहर भी पायी गई है, जिसमें गुप्त शासकों से संबंधित कुछ अन्य जानकारियां भी हैं। इसी मुहर में इस स्थान का नाम ऐरिकेण उल्लिखित है।
भारत में सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य ऐरण से ही प्राप्त हुआ है। यहां भानुगुप्तकालीन (510 ई.) एक लेख मिला है, जिसमें उसके एक सामंत गोपराज का उल्लेख है। गोपराज हूणों के विरुद्ध युद्ध में मारा गया था तथा उसकी पत्नी सती हो गई थी। हूण शासक तोरभाण के समय का भी एक लेख यहां से प्राप्त हुआ है।
एरण से प्रारंभिक मंदिर स्थापत्य के प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं। इसमें उथले बरामदे के साथ समतल छत वाले चैकोर मंदिर प्रमुख हैं। यह विशाल शूकर के लिए भी प्रसिद्ध है, जोकि भगवान विष्णु का पशुरूपी अवतार है।
फतेहपुर सीकरी (27.09° उत्तर, 77.66° पूर्व) आगरा से लगभग 37 किमी. दूर फतेहपुर सीकरी 16वीं शताब्दी के मध्य में उस समय अस्तित्व में आया, जब अकबर ने यहां भारतीय-इस्लामिक शैली पर एक नए शहर की स्थापना की। 1568 में अकबर अत्यंत शक्तिशाली शासक के रूप में शासन कर रहा था, किंतु उसके कोई पुत्र नहीं था। सीकरी नामक ग्राम में रहने वाले सूफी संत शेख सलीम चिश्ती ने अकबर को तीन पुत्रों की प्राप्ति का आशीर्वाद दिया। इसके शीघ्र पश्चात ही सलीम का जन्म हुआ, जो आगे चलकर जहांगीर के नाम से मुगल साम्राज्य का शासक बना। शेख सलीम चिश्ती के इसी आशीर्वाद से प्रभावित होकर अकबर ने यहां अपना शाही निवास बनाने का निश्चय किया तथा इसे एक नए शहर के रूप में विकसित कर इसे आगरा के साथ संयुक्त राजधानी बनाया। अपनी विभिन्न विजयों की याद में उसने इस स्थान का नाम ‘फतेहपुर सीकरी‘ रखा।
अकबर ने फतेहपुर सीकरी में पूर्ण सुनियोजित ढंग से कई भवनों एवं इमारतों का निर्माण करवाया। शोधों से यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि यह शहर पूर्ण गणितीय सिद्धांतों के आधार पर विकसित किया गया था। जामा मस्जिद नामक प्रसिद्ध इमारत से शहर की स्थापत्य रचना का प्रारंभ होता है। इसके अतिरिक्त दीवान-ए-खास, दीवान-ए-आम, पंचमहल, मरियम यहां विश्व प्रसिद्ध बुलंद दरवाजा एवं शेख सलीम चिश्ती की दरगाह भी है।
फतेहपुर सीकरी विश्व धरोहर सूची में सम्मिलित है। यहां की समस्त इमारतें लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित हैं तथा उनमें हिन्दू एवं इस्लामिक स्थापत्य शैली का सुंदर समन्वय परिलक्षित होता है। इन बलुआ पत्थरों पर सुंदर नक्काशी की गई है।
यद्यपि स्थापना के 14 वर्षों पश्चात फतेहपुर सीकरी को छोड़ दिया गया। अनुमान है कि पानी की कम उपलब्धता इसका मुख्य कारण था।
गंधार (33.75° उत्तर, 72.82° पूर्व)
गंधार पेशावर के समीप पाकिस्तान में स्थित है। छठी शताब्दी ई.पू. में गंधार सोलह महाजनपदों में से एक प्रमुख जनपद था। पुष्कलावती एवं तक्षशिला इसकी दो राजधानियां थीं। गांधी का शासक पुप्पुसती, मगध नरेश बिम्बिसार का मित्र था। तक्षशिला, शिक्षा का प्रमुख केंद्र था, जहां दूर-दूर से विद्यार्थी ज्ञानोपार्जन हेतु आते है।
कुषाण काल में, गंधार बौद्ध कला एवं संस्कृति के महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में विकसित हुआ। इस कला पर यूनानी कला का गहरा प्रभाव था, जो इस कला में निर्मित बुद्ध की विभिन्न मूर्तियों में परिलक्षित होता है। बुद्ध की विभिन्न भाव-भंगिमाओं, रूपों, शारीरिक बनावट एवं केश विन्यास इत्यादि में यह प्रभाव देखा जा सकता है। नीली गचकारी का प्रयोग इस कला की एक अन्य विशेषता है।
प्रसिद्ध सिल्क मार्ग में स्थित होने की वजह से गंधार प्रमुख व्यापारिक केंद्र के रूप में भी विकसित हुआ।
शहबाजगढ़ी, गंधार का एक अन्य प्रसिद्ध स्थल है। यहां से बौद्ध मठों, चतुर्भुज जलाशय एवं गोलाकार स्तूप के ध्वंसावशेष पाए गए हैं। यहां से मौर्य शासक अशोक का एक अभिलेख भी मिला पहलव शासक गोंडोफर्नीज का तख्ते-बाही अभिलेख भी गंधार से ही मिला है।

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