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गांधीवादी विचारधारा की प्रमुख विशेषताएं बताइए gandhi thoughts characteristics in hindi
gandhi thoughts characteristics in hindi गांधीवादी विचारधारा की प्रमुख विशेषताएं बताइए ?
बोध प्रश्न 3
I) कार्ल माक्र्स के अनुसार पूंजीवादी समाज की क्या सामाजिक समस्याएं होती हैं? सात पंक्तियों में उत्तर दीजिए।
II) गांधीवादी विचारधारा की प्रमुख विशेषताएं बताइए। आठ पंक्तियों में उत्तर दीजिए।
बोध प्रश्न 3 उत्तर
I) माक्र्स के अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था की कई सीमाएं होती हैं जैसे:
ऽ अन्तर्मूत अन्तर्विरोध
ऽ मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण
ऽ अपने ही उत्पादों से मजदूरों का अलगाव
ऽ अमानवीयता, निर्धनता और असमानता
माक्र्स के अनुसार सामाजिक-आर्थिक असमानता पूंजीवादी व्यवस्था की प्रमुख समस्या है यहां बल मानव आवश्यकता पर नहीं मानव क्षमता पर होता है।
II) गांधीवादी दर्शन सत्य और अहिंसा पर आधारित नैतिक व्यवस्था कायम करने पर बल देता है। इसमें राज्य के हस्तक्षेप का अवकाश नहीं है। गांधी जी सत्ता और अर्थव्यवस्था के विकेंद्रीकरण में दृढ़ विश्वास रखते थे। सत्यग्रह अन्याय से लड़ने का उनका प्रमुख हथियार था। गांधी जी ने भारत में अस्पृश्यता और मद्यपान के खिलाफ अनवरत लड़ाई लड़ी और लोगों का लामबंद किया।
माक्र्सवादी दृष्टिकोण
माक्र्स इस सरल अभिमत से आरंभ करता है कि जीवित रहने के लिए मानव को भोजन तथा भौतिक वस्तुओं का उत्पादन करना आवश्यक है। इस क्रिया में वह अन्य व्यक्तियों से संबंध स्थापित करता है। सरल आखेट चरण से जटिल औद्योगिक चरण तक उत्पादन एक सामाजिक उद्यम है।
प्रागैतिहासिक समाजों के अलावा सभी समाज आधारभूत विरोधाभास रखते हैं जिसका अर्थ है कि वे अपने वर्तमान स्वरूप में जीवित न रहेंगे। इन प्रतिवादों में निर्धन का शोषण धनी के द्वारा सन्निहित है। उदाहरणार्थ, सामंती समाज में जमींदार कृषिदास का शोषण करते थे। पूँजीवादी समाज में पूँजीपति अपने श्रमिकों का शोषण करते हैं। यह इन दोनों वर्गों के बीच हितों का मूलभूत संघर्ष उत्पन्न करता है क्योंकि एक, दूसरे की लागत पर लाभ उठाता है।
माक्र्स के अनुसार, पूँजीवादी व्यवस्था अनेक सामाजिक समस्याओं से ग्रसित है जैसे कि:
ऽ मानव का मानव के द्वारा शोषण,
ऽ असमानता और गरीबी,
ऽ अपने द्वारा उत्पादित वस्तु से श्रमिक का अलगाव
ऽ अपमानविकीकरण।
इस प्रसंग में हम माक्र्सवादी सैद्धांतिक ढाँचे में असमता तथा निर्धनता की विशेष रूप से विवेचना करना चाहेंगे। यह दोनों समस्याएँ भारतीय समाज से विशेष रूप से संबंधित हैं।
प) असमानता
माक्र्स के अनुसार असमानता सभी समाजों में घटित होती है क्योंकि उत्पादन के साधनों का असमान वितरण है।
माक्र्सवादी परिप्रेक्ष्य में एक समाज की समता पर आधारित प्रमुख पूर्वापेक्षा है कि ‘‘हर एक को उसकी आवश्यकतानुसार‘‘ जबकि पूँजीवादी व्यवस्था में तथा प्रकार्यवादी विश्लेषण में ‘‘हर एक को उसकी क्षमता के अनुसार‘‘ पर बल दिया जाता है।
प्रकार्यवादी तथा माक्र्सवादी असमता के स्रोतों पर असहमत हैं। दोनों सहमत हैं कि असमता समाज में श्रम विभाजन से जुड़ी है। माक्र्स ने बल देकर कहा कि सामाजिक असमता अंतिम रूप से आर्थिक असमानता तथा वंचन का परिणाम है। प्रकार्यवादियों के अनुसार स्तरीकरण समाज के लिए प्रकार्यात्मक है तथा स्तरीकृत समाजों में सामाजिक असमता का होना स्वाभाविक है। सभी मानवों के गुण, योग्यता, निष्पादन तथा उपलब्धियाँ समान नहीं होती। इस प्रकार प्रकार्यवादी विश्लेषण में सामाजिक असमता भी प्रकार्यवादी दिखाई देती है।
पप) निर्धनता
पूँजीवादी समाज मे निर्धनता, माक्र्स के अनुसार, पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के द्वारा जनित असमानता के संदर्भ में ही समझी जा सकती है। उत्पादन के साधनों के जो स्वामी हैं, उन्हीं के पास धन का संकेंद्रण पाया जाता है। श्रमिक वर्ग के सदस्य केवल अपने श्रम के स्वामी हैं जिसे वे श्रमिक बाजार में मजदूरी के बदले बेचने के लिए बाध्य है।
माक्र्सवादी परिप्रेक्ष्य में, पूँजीवादी समाज में राज्य शासक वर्ग के हितों का परावर्तन करता है, इसलिए, सरकारी उपायों से निर्धनता के कठोर प्रभावों को कम करने के सिवाय बहुत थोड़ी आशा की जा सकती है।
पूँजीवादी समाजों में भी सामाजिक कल्याण एवं सुरक्षा को इसलिए अपनाया गया है ताकि निर्धन एवं सामाजिक रूप से वंचित लोगों की कठिनाइयों को कम किया जा सके। इन उपायों ने सहायतार्थी की सहायता की है परंतु उनका परिणाम धन का, धनी से निर्धन को, पुनः वितरण नहीं है। अति निर्धनता तथा कुछ ही हाथों में धन का एकत्र हो जाना पूँजीवादी व्यवस्था के अपरिहार्य परिणाम हैं। निर्धनता का हल सामाजिक सुरक्षा के उपायों में सुधार नहीं है। पूँजीवादी व्यवस्था में सामाजिक समस्याओं की तरह उसके लिए सामाजिक संरचना में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है।
सामाजिक समस्याओं का गांधीवादी दृष्टिकोण
गांधीवादी दृष्टिकोण को उचित रूप से समझने के लिए, उसके मूलभूत परिप्रेक्ष्य तथा तात्कालिक सामाजिक एवं राजनीतिक विषयों में स्पष्ट भेद करना आवश्यक है। जहाँ तक कि उसके मूलभूत परिप्रेक्ष्य का संबंध है, गांधी एक नैतिक व्यवस्था की रचना चाहते थे, जो सत्य, अहिंसा, बंधुत्व, स्वराज्य, शक्ति एवं अर्थव्यवस्था का विकेंद्रीकरण, सादगी एवं निश्चित शांतिपूर्ण साधनों द्वारा अन्याय का प्रतिरोध, जिसे सत्याग्रह कहा जाता है, पर आधारित हो।
गांधी के युग में भारतीय समाज के सामने अनेक सामाजिक समस्याएँ थीं। इनमें से कुछ बड़े और अन्य छोटे पैमाने की थीं जैसे कि स्त्रियों की निम्न स्थिति, अस्पृश्यता, निर्धनता, निरक्षरता, उपनिवेशी शिक्षा, ग्रामीण पुनर्निर्माण तथा दैनिक राजनीतिक समस्याएँ। जब गांधी भारतीय राजनीतिक पटल पर एक राजनीतिक एवं एक सामाजिक विचारक के रूप में प्रकट हुए वह इनकी गंभीरता से परिचित थे।
प) साधन एवं साध्य
सामाजिक समस्याओं का गांधीवादी दृष्टिकोण साधन तथा साध्य को एक समग्र का भाग मानता है जिसका लोकातीत संदर्भ है, माक्र्स की तरह नहीं जो साध्य पर विशेष बल देता है। गांधी एक शोषणरहित सामाजिक व्यवस्था के पक्षधर थे क्योंकि वह भली प्रकार समझते थे कि हिंसा एक शोषणपूर्ण व्यवस्था में निहित होती है। गांधी के जीवन का महत लक्ष्य भारत के लिए ‘‘स्वराज्य‘‘ की प्राप्ति था। उनका सामाजिक-राजनैतिक दर्शन सत्य, अहिंसा और साध्य-साधन की एकता पर आधारित था।
गांधी के लिए साधन उपकरण मात्र नहीं है, वे सृजनशील क्षमता से परिपूर्ण हैं। उनकी रचनात्मक साधनों की खोज ने जो एक सकारात्मक आध्यात्मिक निर्णय से निःसृत है मानव जाति को एक ऐसा नैतिक अस्त्र प्रदान किया जो सब प्रकार के उत्पीड़नों का विरोध करने के लिए है – चाहे ये उत्पीड़न सामाजिक व्यवस्था के अंदर से किए गए हों या बाहर से। गांधी ने इस नैतिक अस्त्र को ‘‘सत्याग्रह‘‘ के नाम से पुकारा है। उनके लिए केवल साध्य सही नहीं बल्कि उनके प्राप्त करने वाले साधन भी उतने ही पवित्र होने चाहिए।
पप) नवीन आर्थिक व्यवस्था
गांधी ने कहा है कि एक अहिंसात्मक समाज की रचना कारखाने की सभ्यता पर नहीं हो सकती है बल्कि उसकी रचना स्व-निर्भर गाँवों से ही हो सकती है। आज की प्रचलित हिंसा की जड़ें मुख्यतः आर्थिक कारकों में हैं तथा उसका उपचार समाज में धन के केंद्रीयकरण को हटाना है। उत्पादन व्यवस्था को आवश्यकताओं के प्रगतिशील तथा नियमित अल्पीकरण के आदर्श पर आधारित होना चाहिए न कि आवश्यकताओं के बहुलीकरण पर। अर्थव्यवस्था को जीवन केंद्रित होना चाहिए न कि वस्तुओं के विशाल उत्पादन पर। इसका अर्थ है कि सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को आवश्यकतानुकूल उत्पादन के आध्यात्मिक सिद्धांत पर चलना चाहिए न कि अधिकतमकरण सिद्धांत पर। परिणामतः इसे एक शोषणरहित अर्थव्यवस्था होना है जो सरल और सीमित औद्योगिकी पर आधारित हो। सामाजिक और आर्थिक संगठन पर विकेंद्रीकरण होना चाहिए – जिसका आधार आवश्यकतानुकूल स्वायत्तता का सिद्धांत हो । सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाओं को स्पर्धारहित तथा अर्जनशीलतारहित होना चाहिए जिसका आधार न्यासिता का सिद्धांत हो।
पपप) असमानता
गांधीवादी दृष्टिकोण यह विचार प्रस्तुत करता है कि आर्थिक समता का लक्ष्य मजदूरी की समानता है जो कि ईमानदारी से दिन भर काम करने पर एक व्यक्ति को दी जाती है, चाहे वह एक वकील, डॉक्टर, शिक्षक या मेहतर हो। समानता की इस स्थिति में पहुंचने के लिए अग्रिम उन्नतिशील प्रशिक्षण की आवश्यकता है।
अतः गांधीवादी विचारों में आर्थिक समानता का अर्थ यह नहीं है कि सभी व्यक्ति शब्दार्थ के अनुसार समान धनराशि अथवा सांसारिक वस्तुओं की समान तादाद उनके कब्जे में होगी। यह संभव है कि धनवान और निर्धन के बीच अंतर को कम किया जाए। उन थोड़े से धनवान व्यक्तियों को जिनके पास राष्ट्र की संपत्ति का बहुत बड़ा अंश एकत्रित है सामान्य रूप से नीचे की ओर समतल करना चाहिए तथा उन लाखों निर्धन, मूक व्यक्तियों के स्तर को ऊपर की ओर ले जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त हर एक को एक संतुलित आहार, रहने के लिए समुचित आवास, अपने तन को ढकने के लिए पर्याप्त कपड़ा, बच्चों को शिक्षित करने की सुविधाएँ तथा यथेष्ट चिकित्सा संबंधी सहायता निश्चित रूप से मिलनी चाहिए। अतः आर्थिक समानता का वास्तविक अर्थ है कि ‘‘हर एक को उसकी आवश्यकतानुसार सुविधाएँ प्राप्त हों‘‘। गांधी एक प्राणहीन समानता पैदा नहीं करना चाहते थे। जहाँ हर एक मानव अपनी योग्यता के अधिक से अधिक प्रयोग की संभावना में अक्षम हो जाए या अक्षम कर दिया जाए क्योंकि ऐसा समाज अपने विनाश के बीज साथ ही वहन करता है।
वे चाहते थे कि धनी अपनी संपत्ति को निर्धन की धरोहर मानकर रखें ताकि उनके लिए वह उनको छोड़ सकें। हिंसात्मक ढंग से धनी को संपत्ति से बेदखल कर देने से आर्थिक समता की स्थिति को नहीं लाया जा सकता। हिंसात्मक क्रिया से समाज को कोई लाभ नहीं होता क्योंकि उससे एक मानव के स्वाभाविक गुण नष्ट हो जाते हैं जो कि उत्पादन करने की योग्यता रखता हो तथा संपत्ति में वृद्धि कर सकता हो।
पअ) जाति व्यवस्था एवं अस्पृश्यता
अपने पहले के लेखों में गांधी वर्णाश्रम व्यवस्था के प्रति अनुकूल जान पड़ते हैं जिसमें उनका निहित अर्थ आत्म-संयम, संरक्षण तथा शक्ति की मितव्ययिता है। किसी एक वर्ण को दूसरे से अन्यायपूर्ण अपनी उच्च परिस्थिति के हक की माँग करना मानवीय प्रतिष्ठा को नकारना है, और विशेषतया समाज के उस भाग के लिए जिसे एक अनुचित ढंग से अस्पृश्य माना जाता हो। अस्पृश्यता एक अभिशाप है जो हमको प्राप्त हुई है। जब तक हिंदू अस्पृश्यता को अपने धर्म का हिस्सा मानते रहेंगे, तब तक स्वराज नहीं प्राप्त हो सकता।
अ) रचनात्मक कार्यक्रम
गांधी जी ने अंस्पश्यों को ‘‘हरिजन‘‘ नाम से संबोधित किया था। वे अस्पश्यता उन्मूलन के लिए इतने चिंतित थे कि उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की साधारण सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और केवल अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए काम करने का निश्चय किया।
अस्पृश्यता को दूर करने तथा खादी को प्रोत्साहित करने के अतिरिक्त गांधीवादी रचनात्मक कार्यक्रम में सांप्रदायिक एकता, मद्य निषेध, ग्रामीण स्वच्छता, स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य-विज्ञान, बुनियादी शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा तथा साक्षरता, स्त्रियों का उत्थान, हिंदी का प्रसार, आर्थिक समानता के लिए कार्य, आदिवासियों की सेवा तथा छात्रों, किसानों एवं श्रमिकों का सहयोग सम्मिलित है।
गांधीवादी विचारधारा में सामुदायिक व्यवस्था के उद्देश्य शोषणरहित जीवन पर निर्भर थे जो कि गांधी के द्वारा प्रदत्त ग्यारह संकल्पों से समरसता रखे थे। ये संकल्प थे – सत्य, अहिंसा, स्वाद नियंत्रण, चोरी न करना, अपरिग्रह, अभय, स्वदेशी, अस्पृश्यता हटाया जाना, श्रम, सहनशीलता करना तथा धर्मों में समानता।
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