हिंदी माध्यम नोट्स
11 मौलिक कर्तव्य कौन-कौन से हैं | fundamental duties in hindi भारतीय संविधान में वर्णित कोई 3 मौलिक कर्तव्य लिखिए
fundamental duties in hindi 11 मौलिक कर्तव्य कौन-कौन से हैं | भारतीय संविधान में वर्णित कोई 3 मौलिक कर्तव्य लिखिए ?
भारत का संविधान
भाग 4क
नागरिकों के मूल कर्तव्य
अनुच्छेद 51 क
मूल कर्तव्य – भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह –
(क) संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे;
(ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे;
(ग) भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण बनाए रखे;
(घ) देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे;
(ड़) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभावों से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो महिलाओं के सम्मान के विरुद्ध हों;
(च) हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्तव समझे और उसका परिरक्षण करे;
(छ) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणिमाव के प्रति दयाभाव रखे;
(ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे;
(झ) सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे;
(ञ) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत्प्रयास करे, जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊचाइयों को छू सके; और
(ट) यदि माता – पिता या संरक्षक है, छह वर्ष से चैदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य का शिक्षा के अवसर प्रदान करे।
पहला अध्याय
आठवीं सदी के बाद एशिया और यूरोप में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों के फलस्वरूप न केवल एशिया और यूरोप के संबंधों में बदलाव आया, बल्कि लोगों के चिंतन और जीवन पद्धति पर भी इनका दूरगामी प्रभाव पड़ा। इन परिवर्तनों, का परोक्ष प्रभाव भारत पर भी पड़ा, क्योंकि पुराने रोम साम्राज्य के साथ भारत का बडे पैमाने पर व्यापार चलता था।
अरब संसार
इस्लाम के उदय ने परस्पर संघर्षरत अरब कबीलों को शक्तिशाली साम्राज्य के सूत्र में बाँध दिया था। प्रारंभिक खलीफों द्वारा स्थापित अरब साम्राज्य में अरब देश (अरेबिया) के अलावा सीरिया, ईराक, ईरान, मिश्र, उत्तरं अफ्रीका और स्पेत भी शामिल थे। अरब कबीलों के बीच आंतरिक कलह और गृहयुद्ध के बाद आठवीं सदी के मध्य में अब्बासियों ने बगदाद में खलीफा का पद प्राप्त करने में कामयाबी हासिल की। अब्बासियों का दावा था कि वे उसी कबीले के थे जिसमें हजरत मुहम्मद का जन्म हुआ था और इसलिए वे पाक हैं। कोई 150 वर्षों तक अब्बासी साम्राज्य अपने समय के एक सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में फलता-फूलता रहा। उसके चरमोत्कर्ष के दिनों में इस क्षेत्र की सभ्यता के सभी महत्वपूर्ण केन्द्र जैसे उत्तर अफ्रीका, मिश्र, सीरिया, ईरान और ईराक उसमें शामिल थे। पश्चिम एशिया और उत्तर अफ्रीका के सबसे अधिक उपजाऊ देशों के अलावा भूमध्य क्षेत्र को भारत और चीन से जोड़ने वाले महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों पर भी अब्बासियों का नियंत्रण था। इन व्यापारिक मार्गों को अब्बासियों ने जो सुरक्षा प्रदान की वह इस क्षेत्र के लोगों की संपन्नता और समृद्धि का तथा अब्बासी दरबार की शानोशौकत का एक महत्वपूर्ण आधार थी। अरब लोग बहुत कुशल और चतुर व्यापारी थे और वे शीघ्र ही इस काल के विश्व के सर्वाधिक उद्यमी और संपन्न व्यापारियों तथा समुद्री गति विधियों में प्रवीण लोगों की पंक्ति में शामिल हो गए। अनेक नगरों का उदय हुआ जिनकी सरकारी और खानगी इमारतों की भव्यता देखते ही बनती थी। इस काल में अरब नगरों के जीवन-स्तर तथा सांस्कृतिक परिवेश का दुनिया में कोई सानी नहीं था। इस काल के सबसे विख्यात खलीफे अल-मैमून और हारून-उल-रशीद थे। उनके दरबार और राजमहल की भव्यता और ज्ञान-विज्ञान में निष्णात लोगों को उनके द्वारा दिए गए संरक्षण अनेक कथा-कहानियों के विषय बने।
आरंभिक काल में अरबों ने अपने जीते हुए प्राचीन सभ्यता वाले देशों के ज्ञान-विज्ञान और प्रशासनिक कौशल को ग्रहण करने की उल्लेखनीय क्षमता का परिचय दिया। गैर-मुसलमानों की सेवाओं का लाभ लेने में उन्होंने कोई संकोच नहीं किया। उदाहरण के लिए उन्होंने प्रशासन के संचालन के लिए ईसाइयों और यहूदियों तथा गैर-अरबों, खासकर ईरानियों की सेवा का उपयोग किया। उनके ईरानी अधिकारियों में कई जरथुस्त्री और बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। अब्बासी खलीफे कट्टर मुसलमान थे, फिर भी उन्होंने हर तरह के ज्ञान-विज्ञान के लिए अपने दरवाजे खोल दिए थे, बशर्ते कि उस ज्ञान-विज्ञान का इस्लाम के मूलभूत सिद्धांतों से कोई विरोध न हो। खलीफा अल-मैमून ने यूनानी, बैजंतिआई, मिस्त्र, ईरानी और भारतीय – इन विभिन्न सभ्यताओं के ज्ञान-विज्ञान का अरबी भाषा में अनुवाद करने के लिए बगदाद में बैत-उल-हिकमत (ज्ञान गृह) की स्थापना की। खलीफों के उदाहरण का अनुकरण व्यक्तिगत तौर पर उनके अमीर-उमरों ने भी किया। कुछ समय में विभिन्न देशों की सभी वैज्ञानिक कृतियाँ अरबी में उपलब्ध हो गई। हाल में यूरोपीय विद्वानों के एक समर्पित समूह के द्वारा किए गए निष्ठापूर्ण अनुसंधान कार्यों के फलस्वरूप हमें इस संबंध में काफी जानकारी हासिल हो गई है कि अरबों को यूनानी विज्ञान और दर्शन ने किस प्रकार प्रभावित किया। अब हमें अरब संसार पर चीनी विज्ञान और दर्शन के प्रभाव के विषय में भी जानकारी मिलने लगी है । चीन द्वारा आविष्कृत कंपस (दिशा-सूचक यंत्र) कागज, छपाई, बारूद और यहाँ तक कि अदना-सी ठेला गाड़ी भी इस काल में अरब संसार से होकर ही यूरोप पहुंची। प्रसिद्ध वेनिशियाई यात्री मार्को पोलो ने चीन की यात्रा ही इस उद्देश्य से की थी कि इन चीजों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करे और चीन के साथ यूरोप के व्यापार पर अरबों के एकाधिकार को समाप्त कर सके।
दुर्भाग्यवश इस काल में अरब संसार के साथ भारत के आर्थिक एवं सांस्कृतिक संबंधों के विषय में और अरब दुनिया को भारतीय विज्ञान की देन के बारे में हमारी जानकारी बहुत सीमित है। आठवीं सदी में अरबों की सिंध विजय के फलस्वरूप अरब संसार और बाकी के भारत के बीच घनिष्ठ सांस्कृतिक संबंध स्थापित नहीं हो पाए। आधुनिक गणित का आधार दशमलव प्रणाली का ज्ञान, जिसका विकास भारत में पाँचवीं सदी में हुआ था, इसी काल में अरबों तक पहुंची। नवीं सदी में अरब गणितज्ञ अलख्वारिज्मी ने इसे अरब संसार में लोकप्रिय बनाया। बारहवीं सदी में अबेलार्ड नामक एक ईसाई मठवासी के माध्यम से यह ज्ञान यूरोप में पहुँचा जहाँ वह अरब अंक-पद्धति के रूप में विख्यात हुआ। खगोल-विज्ञान तथा गणित से संबंधित कई भारतीय कृतियाँ भी अरबी में अनूदित की गई। इन्हीं में से एक थी ‘सूर्य सिद्धांत’ नामक प्रसिद्ध खगोल वैज्ञानिक कृति, जिसे आर्यभट्ट ने संशोधित किया था। चिकित्सा शास्त्र से संबंधित चरक और सुश्रुत की रचनाओं का भी अनुवाद किया गया। भारतीय व्यापारियों और सौदागरों का ईराक तथा ईरान के बाजारों से सौदागरी करना जारी रहा। भारतीय चिकित्सकों तथा सिद्धहस्त शिल्पियों का बगदाद के दरबार ने खुले दिल से स्वागत किया और उन्हें अपने यहाँ जगह दी। ‘पंचतंत्र’ जैसी संस्कृत की कई साहित्यिक कृतियों का अरबी में अनुवाद किया गया। पश्चिमी दुनिया में पहुंच कर ‘पंचतंत्र’ ने ही ईसप की कथाओं के आधार का काम किया। अब अरब संसार पर भारतीय विज्ञान के प्रभाव के संबंध में विस्तृत अनुसंधान-कार्य चल रहा है।
दसवीं सदी का आरंभ होते-होते अरब लोग ऐसी अवस्था में पहुंच चुके थे जब वे स्वयं ही विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में योगदान कर सकते थे। इस काल में अरब संसार में ज्यामिति, बीजगणित, भूगोलशास्त्र, खगोल विज्ञान, प्रकाश-विज्ञान (अपटिक्स), चिकित्साशास्त्र, रसायनशास्त्र आदि क्षेत्रों में जो प्रगति हुई उसके फलस्वरूप वह विज्ञान के मामले में दुनिया का आगुआ बन गया। विश्व के कुछेक सबसे समृद्ध पुस्तकालय तथा प्रमुख वैज्ञानिक प्रयोगशालाएँ अरब संसार में इसी काल में स्थापित की गईं। लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि इनमें से बहुत सारी उपलब्धियाँ अरब देश के बाहर के, जैसे खुरासान, मिस्र और स्पेन के लोगों द्वारा किए गए कार्यों का परिणाम थीं। अरब विज्ञान सच्चे अर्थों में अंतर्राष्ट्रीय था। इसे अरब विज्ञान इसलिए कहा गया है कि उस विज्ञान के साहित्य की भाषा अरबी थी जो पूरे अरब संसार में पढ़ाई जाती थी। विभिन्न देशों के लोग इस संसार की सीमाओं के अंदर चाहे जहाँ आ-जा सकते थे और इच्छानुसार कहीं भी बस सकते थे। वैज्ञानिकों तथा विद्वानों को प्राप्त उल्लेखनीय बौद्धिक एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता और उन्हें प्रदान किया गया संरक्षण अरब विज्ञान तथा सभ्यता के अद्भुत विकास के मुख्य कारण थे। उन दिनों यूरोप में वैज्ञानिकों तथा विद्वानों को ऐसी स्वतंत्रता सुलभ नहीं थी। वहाँ ईसाई गिरजा संगठन ने तरह-तरह की पाबंदियाँ लगा रखी थी। शायद भारत में भी स्थिति ऐसी ही थी क्योंकि किसी भी अरब विज्ञान का इस देश में प्रवेश नहीं हो पाया और इस काल में भारत में विज्ञान का विकास धीरे होने लगा।
चैदहवीं सदी के बाद अरब विज्ञान का हास आरंभ हो गया। इसका कुछ कारण तो इस क्षेत्र को प्रभावित करने वाले राजनीतिक तथा आर्थिक घटनाक्रम थे। लेकिन इससे भी ज्यादा बड़ा कारण बढ़ती हुई रूढ़िवादिता थी जिसने स्वतंत्र विचार का प्रवाह रोक दिया।
अफ्रीका
अरबों के कारण अफ्रीका हिंद महासागर और मध्य पूर्व के व्यापार में सक्रिय रूप से भाग लेने लगा। अरबों की व्यापारिक गतिविधियाँ और प्रवसन अफ्रीका के पूर्व तट पर मालिन्दी और जंजीबार तंक व्यापक रूप से फैल गए। सोने और हाथीदँात के साथ-साथ अरब पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका को गुलाम निर्यात करने का व्यापार भी करते थे। अफ्रीका में एक पुराना शक्तिशाली राज्य इथियोपिया था जिसमें अनेक नगर थे। इथियोपियावासी अदन के पार भारत के साथ हिंद महासागर में व्यापार में व्यस्त थे। अनेक इथियोपिया वासी, जिन्हें हब्शी कहा जाता था, ईसाई थे। वे हिंद महासागर में बैजतिया साम्राज्य से नजदीकी से जुड़े हुए थे। इथियोपिया की व्यापारिक आर्थिक स्थिति बैजतिया साम्राज्य के पतन और चैदहवीं शताब्दी में उस्मानियों के उदय के पश्चात कमजोर हो गयी।
पूर्व तथा दक्षिण-पूर्व एशिया
तांग शासन के अधीन आठवीं और नवीं सदियों में चीन का समाज और वहाँ की संस्कृति प्रगति के चरमोत्कर्ष पर थीं । तोंग शासकों ने मध्य एशिया में सिकियांग के बहुत बड़े हिस्सों पर, जिनमें काशगर भी शामिल था, अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। इससे तथाकथित “रेशम मार्ग” से जमीन के रास्ते होने वाले व्यापार में काफी बढ़ोतरी हुई। इस मार्ग से रेशम ही नहीं, बल्कि उत्तम कोटि की चीनी-मिट्टी के बर्तन और संग्यशब (जेड) नामक पत्थर की पच्चीकारी वाली चीजें भी पश्चिम एशिया, यूरोप और भारत को निर्यात की जाती थीं। विदेशी व्यापारियों के लिए चीन के दरवाजे खुले हुए थे। अरब, ईरानी और भारतीय व्यापारी समुद्री मार्ग से चीन पहुंच कर कैंटन में बस जाते थे और अपना कारोबार चलाते थे।
नवीं सदी के मध्य में तांग साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया और दसवीं सदी में उसका स्थान सुंग राजवंश ने ले लिया। लगभग सौ साल तक चीन पर इस राजवंश का शासन रहा। चीनी शासन-तंत्र की बढ़ती हुई कमजोरी से फायदा उठाकर तेरहवीं सदी में मंगोलों ने इस देश को जीत लिया। उन्होंने देश में खूब मार-काट और तबाही मचाई। लेकिन अपनी अत्यधिक गतिशील और अनुशासित अश्वारोही सेना के बल पर मंगोल शासक कुछ काल के लिए चीन को अपने एकछत्र शासन के अधीन एकीकृत करने में कामयाब हो गए। कुछ समय तक टोंकिन (उत्तर विगतनाग) और अन्नाम (दक्षिण वियतनाम) पर भी उनका नियंत्रण रहा। उत्तर में उन्होंने कोरिया को जीत लिया। इस प्रकार उन्होंने पूर्व एशिया में एक विशालतम साम्राज्य स्थापित किया।
चीन के मंगोल शासकों में सबसे अधिक विख्यात नाम कुबलाइखाँ का है। वेनिशियाई यात्री मार्को पोलो ने उसके दरबार में कुछ समय बिताया था। उसने इस दरबार का बहुत सजीव वर्णन किया है। मार्को पोलो समुद्री मार्ग से इटली लौटा। रास्ते में वह भारत में मालाबार क्षेत्र में भी रुका। इस प्रकार, विश्व के विभिन्न भाग आपस में जुड़ रहे थे और उनके व्यापारिक तथा सांस्कृतिक संपर्को में वृद्धि हो रही थी।
दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों को इस काल में चीन के कुछ शासकों की विस्तारवादी प्रवृत्ति का सामना करना पड़ा। अब तक चीन ने एक शक्तिशाली नौसेना तैयार कर ली थी। लेकिन दक्षिण-पूर्व एशियाई राज्य अधिकतर स्वतंत्र ही रहे। इस काल में इस क्षेत्र में जिन दो सर्वाधिक शक्तिशाली राज्यों का बोलबाला रहा उनमें से एक था शैलेंद्र साम्राज्य और दूसरा था कंबुज साम्राज्य ।
शैलेंद्र साम्राज्य का उदय सातवीं सदी में मुख्य रूप से श्री विजय साम्राज्य के भग्नावशेषों पर हुआ था। यह साम्राज्य दसवीं सदी तक कायम रहा। अपने चरमोत्कर्ष काल में सुमात्रा, जावा, मलय प्रायद्वीप, सियाम (आधुनिक थाईलैंड), यहाँ तक कि फिलिपिंस के भी कुछ हिस्से इसमें शामिल थे। नवी सदी के एक अरब लेखक के अनुसार यह साम्राज्य इतना विशाल था कि तेज-से-तेज चलने वाला जहाज दो साल में भी उसका पूरा चक्कर नहीं लगा सकता था। शैलेंद्र शासकों के पास एक शक्तिशाली नौसेना थी और चीन के साथ होने वाले व्यापार के समुद्री मार्ग पर उनका नियंत्रण था। दक्षिण भारत के पल्लवों के पास भी शक्तिशाली नौसेना थी। पहले की ही तरह इस काल में भी इस क्षेत्र के देशों के साथ भारत के घनिष्ठ व्यापारिक तथा सांस्कृतिक संबंध बने रहे।
सुमात्रा में स्थित इस साम्राज्य की राजधानी पालेमबांग में कई चीनी और भारतीय विद्वान पहुंचे। पालेमबांग पहले से ही संस्कृत तथा बौद्ध अध्ययन अनुसंधान का केन्द्र रहा था। शैलेंद्र शासकों ने इस काल में कई भव्य मंदिर बनवाए। इनमें से सबसे विख्यात बुद्ध को समर्पित बोरोबुदूर का मंदिर है। एक पूरे-के-पूरे पहाड़ को काट कर नौ मंजिलें बनाई गई हैं जिनके ऊपर एक स्तूप का निर्माण किया गया है। साहित्यिक कृतियों, लोक-कलाओं, कठपुतली के खेलों आदि में रामायण और महाभारत जैसे भारतीय महाकाव्य की विभिन्न कथा-कहानियों का प्रचलन वहाँ पूर्ववत जारी रहा।
कंबोज साम्राज्य कंबोडिया और अन्नाम में फैला हुआ था। यहाँ पहले हिंदू संस्कृति के रंग में पगा फूनान का राज्य था। कंबोज साम्राज्य पंद्रहवीं सदी तक कायम रहा। इस साम्राज्य ने अपनी अवधि में सांस्कृतिक विकास तथा आर्थिक समृद्धि की बुलंदियों को छुआ। कंबोडिया में अंकोर्थोम के निकट बनवाए गए मंदिरों को इसकी सबसे शानदार उपलब्धि माना जा सकता है। इन मंदिरों के निर्माण का सिलसिला दसवीं सदी से आरंभ हुआ और प्रत्येक शासक अपनी स्मृति को स्थायित्व प्रदान करने के लिए एक-के-बाद-एक मंदिर बनवाता रहा। लगभग 200 वर्षों में 302 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र मंदिरों से भर गया। इनमें से सबसे बड़ा अंकोरवाट का मंदिर है। इसमें तीन किलोमीटर के छतदार गलियारे हैं। ये गलियारे देवी-देवताओं और अप्सराओं की सुंदर मूर्तियों से सजे हुए हैं। अत्यंत सुरुचिपूर्ण ढंग से बनाए गए चैखानों में रामायण और महाभारत के दृश्य अंकित किए गए हैं। यह मंदिर समूह बाहरी दुनिया के लिए विस्मृत हो गया था और यहाँ जंगल उग आए थे। आखिर एक फ्रंासीसी ने इसे खोज निकाला। दिलचस्प बात यह है कि दसवीं से बारहवीं सदी तक मंदिर निर्माण का कार्य तीव्रतम गति से चला। भारत में भी यही समय मंदिर निर्माण का सबसे भव्य काल था। मलय प्रायद्वीप में टक्काला बंदरगाह से चीन सागर तक जमीन के रास्ते चलकर बहुत-से भारतीय व्यापारी दखिण चीन पहुंचे। बहुत-से ब्राह्मण और बाद में बौद्ध भिक्षु भी, वहाँ जाकर बस गए। बौद्ध धर्म का अपने जन्म-स्थान भारत में तो हास हो चला था लेकिन दक्षिण-पूर्व ऐशिया में वह परवान चढ़ता रहा। कालांतर में बौद्ध धर्म में हिंदू देवी-देवता भी रल-मिल गए। हिंदू मंदिर भी बौद्ध पूजा-स्थलों में परिणत हो गए। इस काल में भारत में ठीक इससे उल्टी बात हो रही थी, अर्थात् हिंदू-धर्म बौद्ध धर्म को अपने अंदर पचा-खपा रहा था।
इस प्रकार पश्चिमी दुनिया, दक्षिण-पूर्व एशिया, चीन, मैडागास्कर और अफ्रीका के पूर्वी तट के देशों के साथ भारत का घनिष्ठ व्यापारिक तथा सांस्कृतिक संबंध था। दक्षिण-पूर्व एशिया के विभिन्न देशों ने तथा चीन के बीच व्यापारिक एवं सांस्कृतिक संपर्कों के सेतु का काम किया। यद्यपि इन देशों पर भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का गहरा प्रभाव पड़ा फिर भी इन देशों में अपनी एक विशिष्ट और उच्च कोटि की संस्कृति विकसित हुई। अरब व्यापारी दक्षिण भारत तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ पहले ही व्यापार करते आ रहे थे। अब्बासी साम्राज्य की स्थापना के बाद से वे व्यापारी और भी अधिक सक्रिय हो उठे। लेकिन अरबों ने भारतीय व्यापारियों और धर्मोपदेशकों को उनके स्थान से च्युत करके स्वयं को वहाँ प्रतिष्ठित कर लिया हो, ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्होंने इस क्षेत्र के लोगों को मुसलमान बनाने की भी खास कोशिश नहीं की। कहा जा सकता है कि इन देशों में अद्भुत धार्मिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता का वातावरण था, यहाँ विभिन्न संस्कृतियों का आपस में सम्मिश्रण होता रहा। इन देशों की ये खूबियाँ आज भी कायम हैं। इंडोनेशिया और मलाया को इस्लाम की दीक्षा धीरे-धीरे दी गई और यह सिलसिला तब आरंभ हुआ जब भारत में इस्लाम ने अपनी स्थिति पुख्ता कर ली। अन्यत्र बौद्ध धर्म फूलता-फलता रहा। इन देशों के साथ भारत के सांस्कृतिक तथा व्यापारिक संबंध तभी भंग हुए जब इंडोनेशिया में डचों का, भारत, बर्मा तथा मलाया में अंग्रेजों का और हिंद-चीन (इंडो-चाइना) में फ्रांसिसियों का अपना-अपना वर्चस्व स्थापित हो गया।
अभ्यास
1. निम्नलिखित शब्दों और अवधारणाओं का अर्थ स्पष्ट कीजिए: जागीर, मातहत, वेसल, कृषिदासता, मेनर और खलीफा।
2. किन प्रमुख विशेषताओं की दृष्टि से बैजंतिया साम्राज्य रोम साम्राज्य के समान था?
3. मध्यकालीन अश्वारोही युद्ध में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले महत्वपूर्ण आविष्कारों का उल्लेख कीजिए। इन आविष्कारों के फलस्वरूप युद्ध के तौर-तरीके किस तरह बदलते गए?
4. यूरोप के फ्युडल समाजी विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए । फ्यूडल व्यवस्था में सरकार पर भूस्वामी अभिजात वर्ग का प्रभुत्व क्यों था?
5. जिन खूबियों के बल पर अब्बासियों ने अपने साम्राज को संपन्न और समृद्ध बनाया उनका वर्णन कीजिए।
6. विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अरबों की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए। इस प्रक्रिया में भारत और एशिया के दूसरे देशों ने अरबों को किस प्रकार प्रभावित किया?
7. दक्षिण-पूर्व एशिया की संस्कृतियों पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव दर्शाने वाले साक्ष्यों का वर्णन कीजिए।
8. मार्को पोलो की यात्राओं से किस प्रकार पता चलता है कि पूर्व मध्य काल में विश्व के विभिन्न हिस्से एक-दूसरे के अधिक निकट आ रहे थे?
9. विश्व के मानचित्र की रूपरेखा पर निम्नलिखित क्षेत्र दर्शाइए:
(1) अरब साम्राज्य तथा उसका अधिकतम विस्तार
(2) रेशम मार्ग
10. यूरोप में फ्यूडल व्यवस्था में सत्ता के सोपान को स्पष्ट करते हुए एक चार्ट बनाइए।
11. ”मध्य काल में दक्षिण-पूर्व एशिया पर पड़े भारत के प्रभाव“ पर एक परियोजना (प्रोजेक्ट) तैयार कीजिए। इस परियोजना में निम्नलिखित बातों का समावेश किया जा सकता है: निम्नलिखित पर छोटे-छोटे आलेख तैयार करना:
(क) शैलेंद्र और कंबुज साम्राज्य का विकास ।
(ख) भारत और दक्षिण-पूर्व एशियाई साम्राज्यों में राजनीतिक, व्यापारिक तथा सांस्कृतिक संपर्क।
(ग) दक्षिण-पूर्व एशिया के साहित्य, धर्म, प्रशासन और स्थापत्य पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव ।
(घ) चित्रों और फोटोग्राफों के सहारे दक्षिण-पूर्व एशिया की कला और स्थापत्य पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव दर्शाया जा सकता है।
Recent Posts
मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi
malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…
कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए
राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…
हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained
hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…
तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second
Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…
चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi
chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…
भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi
first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…