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एक प्रवाह-बेसिन की जलीय आकारमिति (Fulivial Morphometry in hindi) आकारमिति (Morphometry)

आकारमिति (Morphometry) एक प्रवाह-बेसिन की जलीय आकारमिति (Fulivial Morphometry in hindi)
आकारमिति (Morphometry)
इसके अन्तर्गत किसी प्रवाह-बेसिन (drainage basin) का चयन करके उसका गणितीय अध्ययन करते हैं। प्रवाह-बेसिन के विभिन्न आकारमितिक पहलुओं के अध्ययन का प्रचलन आज बड़ी तेजी से चल पडा है। प्रवाह-वेसिन जिसका आकारमितिक विश्लेषण करना है, यह आकार में छोटी-बड़ी दोनों प्रकार की हो सकती हैं। प्रायः देखा जाता है कि – कुछ विद्वान पाँच, छः श्रेणी की प्रवाह-बेसिन का चयन कर, उनका आकारमितिक विश्लेषण करते हैं, परन्तु इस दशा में तृतीय, चतुर्थ अथवा इससे अधिक श्रेणी वाली वाह-बेसिन का अध्ययन नहीं हो पाता है। अतः इस स्थिति में विद्वानों को चाहिए कि – उन प्रवाह-बेसिन के अन्य भू-आकृतिक पहलुओं पर विचार कर, इनका अध्ययन करें। प्रवाह-बेसिन के अध्ययन के लिये एक ऐसी प्रवाह-वेसिन का चयन करना चाहिए, जिसमें स्थलरूपों के आकार सम्बन्धी पर्याप्त आँकड़े उपलब्ध हों, ताकि इनका गणितीय विश्लेषण किया जा सके। इसके अध्ययन के लिये श्रेणी की बाध्यता को त्याग देना चाहिए। प्रवाह बेसिन के अध्ययन के लिए फेनमन (1914) ने भौतिक-प्रदेशों का चयन करके, इसका आकारमितिक विश्लेषण किया है। ऊलरिज (1932) तथा सैविजीयर ने क्षेत्रीय इकाई का आधार ‘भौतिक अणु‘ रखा। डेविस ने प्रवाह-बेसिन को एक क्षेत्रीय इकाई के रूप में स्वीकार किया है। हार्टन (1945) ने भी इसे पूर्ण इकाई की मान्यता प्राप्त प्रदान किया। शोर्ले (1961) तथा स्ट्रालर (1965) ने बेसिन को पूर्ण इकाई के रूप में अध्ययन किया। प्रवाह-बेसिन के अन्तर्गत वर्षा की मात्रा, भूमिगत जल, वाष्पीकरण आदि का अनुमान तथा रेखीय पहलू (सारिताओं की लम्बाई, संख्या, श्रेणी), क्षेत्रीय पहलू (बेसिन-क्षेत्र, परिमिति, वेसिन आकार, प्रवाह बेसिन का क्षेत्रफल, प्रवाह-घनत्व, प्रवाह-गठन), और उच्चावच पहलू (उच्चतादर्शी तथा उच्चतामितिक विश्लेषण, ढाल प्रवणता, घाटी-पार्श्व की ढाल-प्रवणता, सामान्य ढाल, घर्षण सूची, सापेक्ष उच्चावच, उच्चावच अनुपात तथा विभिन्न प्रकार की परिच्छेदिकाओं) का गणितीय विश्लेषण किया जाता है। जब मुख्य नदी तथा उसकी सहायक नदियों के द्वारा किसी क्षेत्र विशेष को जल प्रदान किया जाता है, तब उस क्षेत्र को प्रवाह-बेसिन की संज्ञा दी जाती है। मुख्य नदी तथा उसकी सहायक नदियों के सामूहिक प्रवाह-क्रम को प्रवाह-जाल कहते हैं। अब प्रवाह-बेसिन के विभिन्न पहलुओं का आकारमितिक विश्लेषण करेंगे।
रेखीय पहलू (Linear Aspect)
प्रवाह-वेसिन के अन्तर्गत छोटी-सी-छोटी सरिताओं को सम्मिलित करके इसका अध्ययन किया जाता है। ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि रेखीय पहलू के अन्तर्गत सरिता की संख्या, उसकी लम्बाई तथा उसकी श्रेणियों का अध्ययन किया जाता है। 1945 ई० में हार्टन महोदय ने सरिता की संख्या, लम्बाई तथा श्रेणी का अध्ययन करने के बाद इसके बीच के सम्बन्धों का विश्लेषण किया।
Fenneman.N, M, 1914: Physiographic boundaries within united states, ann. Assoc. Amer. Geogr.k~ 4. pp. 84-134.
Wooldridge. S.W., 1932: The Cycle of erosion and the representation of reliet, Scottish Geographical magazine, 48. pp. 30-36.
Savigcar, R. A. G; 1965: A technique for morphological mapping. Annals of Assoc, Amer. Geogr. 55. pp. 514-38.
Hornon. R. E., 1945: Erosional Development of streams and their drainage basins.
hydrological approach to quantitative morphology, Bull. Geol. Soc. Amer 56, pp. 257.

1. सरिता का श्रेणीकरण (Stream Ordering) – सरिता-श्रेणी के लिये, ऊलमैन, मिलर तथा स्मवचवसक महोदयों के अनुसार-“Stream Order is a measure of the position of a stream in the hierarchy of tributaries-“! अर्थात, प्रवाह-बेसिन की सहायक सरिताओं के पदानुक्रम में किसी सरिता की स्थिति के मान को सरिता-श्रेणी कहा जाता है। प्रवाह-बेसिन का आकारमितिक विश्लेषण करने के पूर्व हम उनका श्रेणीकरण करते हैं। श्रेणीकरण करने की कई विधियाँ हैं, जैसे हार्टन विधि, स्ट्रालर विधि तथा श्रीव विधि। हार्टन महोदय 1945 ई० में प्रवाह-बेसिन का श्रेणीकरण प्रस्तुत किया। इन्होंने बताया – जो सरिता बिना सहायक की होती हैं, परन्तु स्वयं किसी की सहायक होती हैं, ऐसी सरिता प्रथम श्रेणी की सरिता होती हैं। जब दो प्रथम श्रेणी की सरितायें मिलती हैं, तो इनके संगम के नीचे द्वितीय श्रेणी की सरिता होती है। इन्होंने द्वितीय श्रेणी की सरिता के उद्गम को प्रदर्शित करने के लिये बताया कि प्रथम श्रेणी में जो सरिता सबसे लम्बी होगी, वही द्वितीय श्रेणी का उद्गम स्थल प्रदर्शित करेगी। जब द्वितीय श्रेणी की दो सरितायें आपस में मिलती हैं, तो तृतीय श्रेणी होती है। इन दोनों सरिताओं में जो सबसे लम्बी सरिता होगी, वही तृतीय श्रेणी की सरिता होगी। इस प्रकार तब तक श्रेणीकरण करते समय चले जाते हैं, जब तक मुख्य सरिता के मुहाने तक नहीं पहँुच जाते है।
श्रीव के अनुसार सबसे उच्च सरिता की लम्बाई . सबसे उच्च श्रेणी से दो निम्न श्रेणियों में जिसकी लम्बाई उद्गम स्थल से लेकर मुहाने तक होती है। वास्तव में, इनकी श्रेणीकरण की प्रणाली दुरूह है, क्योंकि अगली श्रेणी निर्धारण के लिये सरिता की लम्बाई की नाप करना पड़ता है। साथ-ही-साथ यदि दोनों की लम्बाई बराबर हो जाये, तो किसके अन्तर्गत रखेंगे स्पष्ट नहीं किये हैं। इनकी कमियों को दूर करते हुए स्ट्रालर महोदय ने 1964 ई० में सरिता-खण्डविधि का प्रतिपादन किया है।
स्ट्रालर ने सरिता को कई खण्डों में विभक्त किया। सभी बिना सहायक वाली सरितायें प्रथम श्रेणी की होती हैं तथा इनको इन्होंने 1 नवम्बर प्रदान किया है। जब दो श्रेणी की सरितायें आपस में मिलती हैं, तो इनके संगम
Leopold, L. B., Wolman, M.G., Miller, 1. P. 1969: Fluvial Processes in Geomorphology, Eurasia Publishing house Pt. Ltd. Ram Nagar, New Delhi – 55, P. 135.
के नीचे द्वितीय श्रेणी की सरिता होती है। जब दो श्रेणी की दो सरितायें मिलती हैं, तो तृतीय श्रेणी का निर्माण होता है। इसमें सरिताओं की लम्बाई का ज्ञान नहीं होता है। सरिताओं की लम्बाई जोड़कर इसका ज्ञान किया जाता है। श्रीव महोदय इस कमी को दूर किया है। श्रीव महोदय का विचार है कि – स्ट्रालर महोदय निम्न श्रेणी की उन सरिताओं को छोड़ दिया है, जो उच्च श्रेणी में मिलती है तथा जिनके मिलने से श्रेणी में कोई अन्तर नहीं होता है।
श्रीव महोदय ने श्रेणीकरण के लिये सरिता को कई कड़ियों में विभक्त किया तथा प्रत्येक कड़ी को परिमाण शब्द के द्वारा व्यक्त किया। जहाँ पर प्रथम परिमाण वाली दो कड़ियाँ मिलती हैं, वहाँ पर द्वितीय परिमाण हो जाता है। यदि आगे चलने पर द्वितीय परिमाण में प्रथम परिमाण वाली एक कड़ी मिलती है, तो तीसरा परिमाण हो जाता है। इसी प्रकार यदि दो परिमाण की दो कड़ियाँ या तीन परिमाण की दो कड़ियाँ या 4 परिमाण की दो कड़ियाँ मिलती हैं, तो क्रमशः 4 या, 6 या 8 परिमाण हो जाता है। यदि विभिन्न स्वभाव का परिमाण मिलता है, तो भी योग होता है, जैसे तीन परिमाण की एक कड़ी तथा 2 परिणाम की एक कड़ी मिलती है, तो 5 परिमाण की एक कड़ी बन जाती है। चित्र 4.7 इनकी विधि का स्पष्ट उल्लेख किया गया है।
2. द्विशाखन अनुपात (Bifurcation Ratio) – प्रवाह-बेसिन की धरातलीय बनावट, जलवायु तथा वनस्पति आदि का इस पर प्रभाव पड़ता हो। यदि समान जलवायु, समान चट्टान, समान वनस्पति का आवरण तथा विकास की समान अवस्थायें विद्यमान हों, तो द्विशाखन अनुपात स्थिर रहता है। किसी भी श्रेणी के सरिता खण्डों की संख्या तथा अगली श्रेणी के सरिता खण्डों की संख्या के अनुपात को द्विशाखन अनुपात कहते हैं। द्विशाखन अनुपात निम्न सूत्र से ज्ञात किया जाता है-
द्विशाखन अनुपात = (Rb) = Nu/N(u1)
u = सरिता श्रेणी, तथा
छन = किसी निश्चित श्रेणी के सरिता खण्ड की संख्या।
किसी भी प्रवाह-बेसिन का द्विशाखन अनुपात (bifurcation Ratio = Rb) यदि 3 से 5 के बीच रहता है, तो वह आदर्श सरिता-क्रम को प्रदर्शित करता है। सारणी में मदार नदी (छिन्दवाड़ा पठार) जो जाम नदी की सहायक है, आदर्श सरिता क्रम को प्रदर्शित करती है।
सारणी 4.3 जाम की सहायक मदार नदी के सरिता खण्डों की संख्या एवं द्विशाखन अनुपात

सरिता-श्रेणी सरिता खण्ड की संख्या द्विशाखन अनुपात
(Stream Order) (Nu) (Rb)
1 498 3.98
2 125 3.91
3 32 3.20
4 10 3.33
5 2 3.00
6 1 3.00
हार्टन का सरिता-संख्या का सिद्धान्त (Law of Stream Numbers) – हार्टन महोदय ने सरिता-संख्या
Shreve, R.L., 1966: ‘Statistical law of stream numbers’, Journ. of Geology.74. pp. 17-37. Prasad, Gayatri., 1984: A Geomorphological study of Chhindwara Plateau.

के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, परन्तु इनका सिद्धान्त व्यावहारिक दृष्टि से सही नही है, बल्कि मात्र सैद्धान्तिक है। इनका मत है कि- किसी भी सरिता श्रेणी क्रम से निचली श्रेणी की संख्या में गुणात्मक-क्रम होता है। उच्चतम सरिता-श्रेणी संख्या 1 से प्रारम्भ होकर स्थिर द्विशाखन अनुपात के अनुसार संख्या जाती है। उदाहरणार्थ – यदि कोई सरिता 6 श्रेणी की है तथा द्विशाखन अनुपात 4 है, जो कि दशा में स्थिर है, तो उच्च श्रेणी से निम्न श्रेणी (6, 5, 4, 3, 2, 1) के सरिताओं की संख्या क्रमशः 1,4.16 64, 256, 1024 होगी। इस सरिता-संख्या तथा श्रेणी के बीच गुणात्मक क्रम के आधार पर ऋणात्मक घातांक फलन मॉडल का निर्माण होता है –
Nu = Rb (K-u)
k = प्रवाह बेसिन की उच्चतम श्रेणी
प्रथम श्रेणी की सरिता संख्या N1 = 4(6.1) = 45 = 1024
द्वितीय श्रेणी की सरिता संख्या N2 = 4(5.1) = 44 = 256 आदि ।
सारणी 4.4 सरिता-खण्डों की संख्या तथा द्विशाखन अनुपात (काल्पनिक)
श्रेणी सरिता खण्डों की संख्या द्विशाखन अनुपात
(U) (Nu) (Rb) 1 1024 4.0
2 256 4.0
3 64 4.0
4 16 4.0
5 4 4.0
6 = k 1 4.0
समस्त प्रवाह-बेसिन की सभी श्रेणियों के सरिता खण्डों की संख्या निम्न सूत्र से ज्ञात की जा सकती है –
Σ Nu = (Rb K)-1/(Rb-1)
Σ Nu = 46-1/4-1
= 4096-1/3
= 1365

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