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खाद्य श्रृंखला का सचित्र वर्णन कीजिए किसे कहते हैं उदाहरण सहित समझाइए प्रकार , food chain in hindi food web
food chain in hindi food web खाद्य श्रृंखला का सचित्र वर्णन कीजिए किसे कहते हैं उदाहरण सहित समझाइए प्रकार ?
खाद्य शृंखला :-
● पारिस्थितिकी तंत्र में सभी जीव भोजन के लिए एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं तथा भोजन की निर्भरता के आधार पर छोटी-छोटी शृंखलाओं का निर्माण होता है, जिसे खाद्य शृंखला कहा जाता है। पारिस्थितिकी तंत्र में वे जीव जो उत्पादक एवं उपभोक्ता की श्रेणी में एक क्रमबद्ध या शृंखला के रूप में एक-दूसरे से जुडे़ रहते हैं। जीवों के इस व्यवस्थित शृंखला से खाद्य ऊर्जा एवं पोषक पदार्थों का स्थानांतरण होता है। इस प्रक्रिया को खाद्य शृंखला कहते हैं।
● खाद्य शृंखला में ऊर्जा का प्रवाह सदैव एक दिशीय होता है।
● खाद्य शृंखला के प्रकार :-
1. चारण खाद्य शृंखला
● चारण खाद्य शृंखला का निर्माण वे उपभोक्ता करते हैं जो भोजन के रूप में पौधो के भागों का उपयोग करते हैं।
उदाहण- घास-टिड्डा-पक्षी-बाज
2. अपरद खाद्य शृंखला
● यह सबसे छोटी खाद्य शृंखला होती है।
● इस प्रकार की खाद्य शृंखला मृत जीवों से आरंभ होकर अपघटकों पर समाप्त हो जाती है।
– इस प्रकार की खाद्य शृंखला यह प्रदर्शित करती है कि पारिस्थितिकी तंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए उत्पादक तथा अपघटकों की आवश्यकता होती है।
उदाहरण – कचरा-कीट-छोटी मकड़ियाँ या मांसभक्षी
खाद्य जाल :-
● पारिस्थितिकी तंत्र में एक साथ कई खाद्य शृंखला क्रियाशील रहती है शाकाहारी एवं मांसाहारी जीव भोजन के लिए आपस में खाद्य शृंखला में अन्तर्निहित होकर खाद्य जाल का निर्माण करती है।
● खाद्य जाल जितना मजबूत होगा पारिस्थितिकी तंत्र उतना ही मजबूत होगा।
● छोटी-छोटी खाद्य शृंखलाएँ मिलकर एक जाल का निर्माण करती है, जिसे खाद्य जाल कहा जाता है।
● खाद्य जाल हमेशा वास्तविक होता है।
● खाद्य जाल जितना जटिल होगा, पारिस्थितिकी तंत्र उतना ही स्थायी होगा।
पोषण स्तर-खाद्य शृंखला के प्रत्येक स्तर या कड़ी का पोषण स्तर
पारिस्थितिकी तंत्र में ऊर्जा का प्रवाह :-
● पारिस्थितिकी तंत्र में जैविक और अजैविक घटक, उस तंत्र की पर्यावरणीय पारिस्थितिकी को नियंत्रित करने के लिए निश्चित चक्र में क्रियाशील रहते हैं।
● क्रियाशील रहने के लिए एक ऊर्जा प्रवाह की आवश्यकता होती है।
● ऊर्जा पारिस्थितिकी तंत्र को गतिशील बनाए रखता है।
● ऊर्जा प्रवाह को प्रकृति प्राकृतिक रूप से नियंत्रित रखती है जिससे पारिस्थितिकी तंत्र में ऊर्जा प्रवाह का संतुलन बना रहता है।
● पारिस्थितिक तंत्र का ऊर्जा प्रवाह निरन्तर बनाए रखने के लिए पृथ्वी पर ऊर्जा का प्रमुख स्रोत सूर्य है।
● सौर ऊर्जा का मात्र 0.02 प्रतिशत भारत पौधों द्वारा रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करता है।
● पौधों में पाए जाने वाला हरित लवक (क्लोरोफिल) सौर ऊर्जा को अवशोषित करके उसे कार्बनिक जैव कणों में रूपान्तरित कर देता है इस प्रक्रिया को प्रकाश संश्लेषण कहा जाता है।
● पौधे कार्बन डाई ऑक्साइड एवं जल की सहायता से सौर ऊर्जा का प्रकाश संश्लेषण विधि द्वारा भोज्य पदार्थों में बदलने का कार्य करते हैं।
प्रकाश संश्लेषण विधि की अभिक्रिया-
● प्रकाश संश्लेषण के लिए सौर ऊर्जा, कार्बन डाई ऑक्साइड और पौधों की पत्तियों में उपस्थित क्लोरोफिल द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। जैव तत्त्व ऑक्सीजन ग्लूकोज और कार्बोहाइड्रेट्स में बदल दिए जाते हैं। ग्लूकोज और कार्बोहाइड्रेट्स से पौधों का विकास होता है और ऑक्सीजन तथा जलवाष्प पौधों द्वारा श्वसन क्रिया से वायुमण्डल में छोड़ दी जाती है इस प्रकार एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर में ऊर्जा का प्रवाह निरन्तर बना रहता है।
जैव – संचयन :-
● जैव-संचयन यह दर्शाता है कि किस प्रकार प्रदूषक खाद्य शृंखला के भीतर पहुँचते हैं। प्रदूषक विशेषत: अनिम्नीकृत प्रदूषक पारितंत्र के भीतर विभिन्न पोषण स्तर से गुज़रते हैं। अनिम्नीकृत प्रदूषकों से अभिप्राय ऐसे पदार्थों से है जो जीवधारियों के भीतर उपचयित नहीं हो पाते। उदाहरण के लिए, क्लोरिनेटेड हाइड्रोकार्बन।
जैव – आवर्द्धन :-
● जैव- आवर्द्धन का अर्थ उस प्रवृत्ति से है जिसमें प्रदूषक जैसे-जैसे एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर पर जाते हैं वैसे-वैसे उनका सांद्रण भी बढ़ता जाता है।
● इस प्रकार जैव-आवर्द्धन में आहार शृंखला की एक कड़ी से अगली कड़ी में प्रदूषकों का सांद्रण बढ़ता है।
पारिस्थितिकीय दक्षता :-
● वह दक्षता, जिसमें जीव अपना भोजन प्राप्त करते हैं तथा भोजन को जैवभार में परिवर्तित कर दूसरी उच्चस्तरीय पोषण रीति के लिए उपलब्ध कराते हैं, पारिस्थितिकीय दक्षता कहलाती है।
पारिस्थितिक पिरामिड :-
● पारिस्थितिक पिरामिड की सर्वप्रथम संकल्पना चार्ल्स एटन ने वर्ष 1927 में दी थी।
● खाद्य शृंखला में प्रजातियों की संख्या जीव भार तथा संचित ऊर्जा में अन्तर को प्रदर्शित करने के लिए पिरामिड का प्रयोग किया जाता है।
● पिरामिड का आधार सदैव प्राथमिक उत्पादकों से शीर्ष उपभोक्ताओं की ओर होता है।
● पिरामिड उल्टे एवं सीधे दोनों प्रकार के बनते हैं।
● पारिस्थितिकी तंत्र में विभिन्न पोषण स्तर पर जीवों की संख्या, जीवों का भार तथा ऊर्जा में अंतर पाया जाता है तथा इस अंतर को एक ग्राफ में प्रदर्शित करते हैं, जिसे पिरामिड कहा जाता है।
● पिरामिड बनाते समय उत्पादक को सदैव आधार में रखा जाता है।
● पारिस्थितिकी पिरामिड को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-
1. संख्या पिरामिड
2. ऊर्जा पिरामिड
3. जैव भार पिरामिड
1. संख्या पिरामिड-
● संख्या पिरामिड किसी पारिस्थितिकी तंत्र में प्राथमिक उत्पादकों तथा भिन्न श्रेणी के उपभोक्ताओं का मुख्य सूचक होता है।
● संख्या पिरामिड उल्टे एवं सीधे पिरामिड दोनों प्रकार के होते हैं।
● किसी तालाब, घास स्थल तथा फसल स्तर का संख्या पिरामिड सदैव सीधा बनता है जबकि किसी वृक्ष तथा वन की संख्या का पिरामिड सदैव उल्टा बनता है।
● यह किसी पारिस्थितिकी तंत्र में जीवों की संख्या को निरूपित करता है तथा संख्या के पिरामिड किसी पारिस्थितिकी तन्त्र की जैविक क्षमता को प्रदर्शित करते हैं।
संख्या का उल्टा पिरामिड (वृक्ष)
● जैविक क्षमता – अनुकूल परिस्थितियों में किसी प्रजाति की जीवों की संख्या अधिकतम हो, जैसे- पादप प्लवक, कीट, छोटी मछली, बड़ी मछली इत्यादि ।
उदाहरण – शैवाल → जलीय पिस्सू →छोटी मछली → बड़ी मछली→बत्तख
2. ऊर्जा पिरामिड–
● ऊर्जा पिरामिड पारिस्थितिकी तंत्र में आहार जाल में पोषण स्तर में प्रति इकाई क्षेत्र तथा इकाई समय में उपयोग की गई कुल ऊर्जा को प्रदर्शित करते हैं।
● ऊर्जा पिरामिड सदैव सीधा बनता है, क्योंकि इसमें हमेशा समय का ध्यान रखा जाता है अर्थात् समय निश्चित होता है।
● 10% law/ दक्षांश नियम
– यह नियम लिण्डेमान ने दिया था।
– इसके अनुसार प्रत्येक जीव 100% ऊर्जा में से 90% ऊर्जा अपने दैनिक कार्य को पूर्ण करने में खर्च कर देते हैं तथा 10% ऊर्जा अगले पोषण स्तर में स्थानान्तरित करता है।
3. जैव भार पिरामिड
● बायोमास पिरामिड के अंतर्गत जीवों की सख्या के साथ-साथ उनके भार को भी सम्मिलित किया जाता है।
● जैव भार पिरामिड संख्या पिरामिड की भाँति उल्टे एवं सीधे दोनों प्रकार के होते हैं।
● घास स्थल व वन स्थल का जैव भार पिरामिड सदैव सीधा होता है।
● तालाब का जैव भार पिरामिड सदैव उल्टा/प्रतिलोम विलोम बनता है।
खड़ी फसल :-
● जीवों में कुल कार्बनिक पदार्थ की मात्रा खड़ी फसल कहलाती है-जैसे – पेड़ – चिड़िया – जूँ (सीधा)
पारिस्थितिकीय अनुक्रमण :-
● जैविक समुदायों की प्रकृति गतिक होती है और यह समय के साथ परिवर्तित होती रहती है। वह प्रक्रम जिसके द्वारा किसी क्षेत्र में पाई जाने वाली वनस्पति और जन्तु प्रजातियों के समुदाय समय के साथ दूसरे समुदाय में परिवर्तित हो जाते हैं या दूसरे समुदाय उनका स्थान ले लेते हैं, पारिस्थितिकीय अनुक्रमण कहलाता है।
● यह अनुक्रमण दो प्रकार का होता है –
1. प्राथमिक अनुक्रमण
2. द्वितीयक अनुक्रमण
पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करने वाले कारक :–
● पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित करने वाले कारकों को निम्न प्रकार बाँटा जा सकता हैं-
1. प्राकृतिक कारक
2. मानवीय कारक
1. प्राकृतिक कारक–
ज्वालामुखी विस्फोट
पृथ्वी की कक्षा में परिवर्तन
महाद्वीपों का विस्थापन
पृथ्वी का अपने अक्ष में झुकाव
भूकम्पीय घटनाएँ
समुद्रीय चक्रवात
2. मानवीय कारक-
वनों की कटाई
आधुनिक कृषि के तरीके
खनन क्रियाएँ
बढ़ता औद्योगीकरण
जीवाश्म ईंधन का दहन
भू उपयोग में परिवर्तन
बायो मास का दहन
बायोम :-
● जब पारिस्थितिकी रूप में समस्त पादपों तथा प्राणियों का सम्मिलित रूप में अध्ययन किया जाता है तो उसे बायोम/जीवोम कहते है।
● आवास की प्रकृति के आधार पर विश्व के बायोम को निम्न दो समूहों में वर्गीकृत किया गया है-
1. स्थलीय बायोम
2. जलीय बायोम
जैव मण्डल :-
● जैवमंडल ( जीवमंडल ) मूल रूप से पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्रों का योग है, जैसे कि तालाब पारिस्थितिकी तंत्र, नदी पारिस्थितिकी तंत्र, वन पारिस्थितिकी तंत्र, घास के मैदान पारिस्थितिकी तंत्र, रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र, महासागरीय पारिस्थितिकी तंत्र आदि।
पर्यावरण
मानव सभ्यता के विकास के साथ उसकी आवश्यकताओं का भी विस्तार हुआ। तेजी से बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों का दोहन शुरू किया।
औद्योगिक एवं तकनीकी विकास जैसे हथियारों के सहारे मानव ने अपनी स्वार्थी प्रकृति और जनसंख्या के दबाव में प्रकृति का अनियन्त्रित दोहन किया।
हर बड़े नगर के साथ औद्योगिक क्षेत्र का विकास हुआ और इन उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों के बढ़ने से पर्यावरणीय प्रदूषण नामक समस्या का जन्म हुआ।
प्रदूषण का अर्थ एवं परिभाषा
प्रदूषण अंग्रेजी के शब्द Pollution का अनुवाद है जो मूल रूप से लैटिन भाषा के शब्द Pollutus से बना है जिसका अर्थ है दूषित करना (to make unclean)।
“वायु, जल एवं मृदा के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों में होने वाला ऐसा अवांछित परिवर्तन जो मनुष्य के साथ ही सम्पूर्ण परिवेश के प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक तत्त्वो को हानि पहुँचाता है प्रदूषण कहते हैं।”
प्रदूषक-वे पदार्थ जो प्रदूषण के लिए उत्तरदायी होते हैं, पर्यावरण प्रदूषक कहलाते हैं।
ऐसे अवांछनीय पदार्थ जो पर्यावरण के किसी भी मूल तत्त्व में अपनी उपस्थिति से उसे परिवर्तित कर देते हैं या प्रदूषण फैलाते हैं “प्रदूषक” कहलाते हैं। प्रदूषण सभी प्रकार के जीवों के लिए हानिकारक होने के साथ-साथ अजैविक संसाधनों को भी भारी क्षति पहुँचाता है।
प्रदूषकों का वर्गीकरण –
(i) समाप्ति के आधार पर – प्रदूषण दो प्रकार के होते हैं-
(a) जैव निम्नीकरण प्रदूषक- वह प्रदूषक जो सूक्ष्म जीवों द्वारा अपघटित किए जा सकते हैं। जैसे – घरेलू कचरा, कागज, कपड़ा, मल इत्यादि।
(b) अजैव निम्नीकरण – वह प्रदूषक जो सूक्ष्म जीवों द्वारा अपघटित नहीं किए जा सकते हैं। जैसे- DDT, BHC, तथा हेलाकॉर्बन, प्लास्टिक इत्यादि।
(ii) उत्पादन प्रक्रिया के आधार पर – प्रदूषक दो प्रकार के होते हैं-
(a) प्राथमिक प्रदूषक- ऐसे प्रदूषक जो सीधे स्त्रोत से पर्यावरण में प्रवेश कर जाते हैं, प्राथमिक प्रदूषक कहलाते हैं। जैसे –CO, CH4, SO2 इत्यादि।
(b) द्वितीयक प्रदूषक – प्राथमिक प्रदूषकों की आपस में अभिक्रिया से निर्मित प्रदूषक, द्वितीयक प्रदूषक कहलाते हैं। जैसे – NO, SO3, O3, PAN इत्यादि।
(iii) मात्रा के आधार पर:-प्रदूषक दो प्रकार के होते हैं-
(a) मात्रात्मक प्रदूषक – ऐसे प्रदूषक जिनकी उपस्थिति प्रदूषण नहीं करती है, जबकि इनकी अधिक मात्रा प्रदूषक के लिए उत्तरदायी होती है। जैसे – CO2
(b) गुणात्मक प्रदूषक – ऐसे प्रदूषक जिनकी उपस्थिति मात्र ही प्रदूषण का कार्य करती है। जैसे –SO2, SO3 , CO इत्यादि।
प्रदूषण के प्रकार :-
वायुमण्डल, स्थलमण्डल तथा जलमण्डल के जीवन युक्त भागों के संयुक्त क्षेत्र को जैवमण्डल कहते हैं।
इसी जैव मण्डल में उपलब्ध सभी प्राकृतिक तत्त्वों को प्राकृतिक पर्यावरण का नाम दिया जाता है।
मानव द्वारा की गई समस्त प्रकार की गतिविधियों से बने प्रदूषकों ने जैव मण्डल के इन सभी भागों को प्रभावित किया है।
प्रदूषकों की प्रकृति के आधार पर प्रदूषण को विभिन्न प्रकारों में समझा जा सकता है-
(i) वायु प्रदूषण, (ii) जल प्रदूषण, (iii) ध्वनि प्रदूषण, (iv) मृदा प्रदूषण (भूमि प्रदूषण), (v) वाहन प्रदूषण, (vi) विकिरणीय प्रदूषण, (vii) तापीय प्रदूषण, (viii) औद्योगिक प्रदूषण, (ix) कूड़े-कचरे से प्रदूषण, (x) समुद्रीय प्रदूषण, (xi) घरेलू अपशिष्ट के कारण प्रदूषण, (xii) अन्य कारणों से प्रदूषण।
पर्यावरणीय समस्याओं का वर्गीकरण:-
इन्हें तीन वर्ग़ों में बाँटा जा सकता है-
स्थलीय वातावरण से संबंधित समस्याएँ
वायुमण्डलीय वातावरण से संबंधित समस्याएँ
जैविक वातावरण से संबंधित समस्याएँ
स्थलीय वातावरण से संबंधित समस्याएँ :-
वायु प्रदूषण :-
समस्त जीव जगत के लिए वायु आवश्यक है उसके बिना जीवन सम्भव नहीं है।
● वायुमण्डल में विद्यमान सभी गैस एक निश्चित अनुपात में पाई जाती है जैसे नाइट्रोजन, 78.08 प्रतिशत, ऑक्सीजन 20.94 प्रतिशत, ऑर्गन 0.93 प्रतिशत, कार्बन डाइ ऑक्साइड 0.03 प्रतिशत तथा अन्य 0.02 प्रतिशत। इस अनुपात में थोड़ा भी परिवर्तन वायुमण्डल की सम्पूर्ण व्यवस्था को प्रभावित करता है। जिसका परोक्ष अपरोक्ष प्रभाव जीव जगत पर पड़ता है।
वायु प्रदूषण को स्रोत के आधार पर दो भागों में विभाजित किया जाता है-
(i) प्राकृतिक प्रदूषण
(ii) अप्राकृतिक प्रदूषण
(i) प्राकृतिक प्रदूषण – यह प्रकृति की देन है। ज्वालामुखी उदगार से निकले पदार्थ, धूलभरी आँधियाँ, तूफान, दावानल, पहाड़ों का झड़ना आदि प्राकृतिक क्रियाओं से प्रदूषण होता है।
(ii) अप्राकृतिक कारण – वायु को प्रदूषित करने में सबसे बड़ा योगदान स्वयं मानव का ही है। घरों में जलाने वाला ईंधन, उद्योग, परिवहन साधन, धूम्रपान, रसायनों का उपयोग, रेडियो धर्मिता जैसे उपयोगों से सर्वाधिक प्रदूषण हो रहा है।
वायु प्रदूषण रसायनों सूक्ष्म पदार्थों, जैविक पदार्थों के कारण वातावरण में होता है।
वायु प्रदूषण के कारण श्वास संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं।
वायु प्रदूषण स्थायी स्त्रोतों से उत्पन्न होते हैं।
वायु प्रदूषण के उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्त्रोत मोबाइल एवं ऑटोमोबाइल्स है।
वायु प्रदूषण में कार्बन डाइ ऑक्साइड व ग्लोबल वॉर्मिंग भी सहायक है।
वायु प्रदूषण के कारण ओजोन परत को भी नुकसान पहुँचता है।
वायु प्रदूषण के कारण अम्लीय वर्षा (Acid Rain) होती है। अम्लीय वर्षा संगमरमर की इमारतों को क्षतिग्रस्त करती है।
Caco3 CaO (चूना) + Co2
कैल्सियम कार्बोनेट (संगमरमर)
वायु प्रदूषण के जैव सूचक लाइकेन (शैवाल एवं कवक) पाए जाते हैं।
वायु प्रदूषण में उपस्थित गैसों द्वारा की जाने वाली अभिक्रियाएँ:-
गैसें जल उत्पाद
SO2 +H2O → H2SO4 (सल्फ्यूरिक अम्ल)
NO2 +H2O → HNO3 (नाइट्रिक अम्ल)
CO2 +H2O → HNO3 (कार्बोनिक अम्ल)
वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव –
(i) मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
(ii) वनस्पति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। जीव जन्तु एवं कीटों के अस्तित्व का खतरा बनने लगा है।
(iii) जलवायु एवं वायुमण्डलीय दशाओं पर प्रतिकूल प्रभाव, जलवायु परिवर्तन, ओजोन परत में क्षरण, ग्रीन हाउस प्रभाव, मौसम पर प्रभाव।
(iv) महानगरों एवं नगरों पर कोहरे के गुम्बद बन जाते हैं।
वायु प्रदूषण के नियन्त्रण हेतु उपाय – वायु प्रदूषण नियन्त्रण हेतु द्विआयामी नीति पर चलना होगा। पूर्व में हो चुके पर्यावरण पर नियन्त्रण पाना तथा भावी प्रदूषण को रोकना जिसमें नई तकनीक का विकास कर उपयोग किया जाए।
(i) प्रदूषण रोकने के लिए वृक्षा रोपण करना, क्षेत्रफल के कम से कम 33 प्रतिशत भाग पर वन हो। ग्राम, नगर के समीप हरित पेटी का विकास किया जाए। इस कार्य में विभिन्न सामाजिक संगठन, सरकारें, व्यक्तिगत रूप से लोग आगे आ रहे हैं।
(ii) वाहनों के प्रदूषण पर नियन्त्रण किया जाए। पेट्रोल-डीजल की अपेक्षा सौर ऊर्जा, बैटरी चालित, विद्युत इंजन (रेल्वे) में उपयोग किया जाए।
(iii) निधूम चूल्हों का उपयोग किया जाए। पेड़ नहीं काटे जाए।
(iv) ईंट भट्टों व बर्तन बनाने व पकाने जैसे उद्योगों को शहर से बाहर स्थापित किया जाए।
(v) उद्योग के नवीन तकनीक का उपयोग एवं शहर से बाहर स्थापित किया जाए।
मृदा प्रदूषण :-
जब भूमि में प्रदूषित जल, रसायनयुक्त कीचड़, कूड़ा, कीटनाशक दवा और उर्वरक अत्यधिक मात्रा में प्रवेश कर जाते हैं तो उससे भूमि की गुणवत्ता घट जाती है। इसे मृदा-प्रदूषण कहा जाता है। मृदा-प्रदूषण की घटना भी आधुनिकता की देन है।
मृदा में अत्यधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग मृदा प्रदूषण के लिए उत्तरदायी होता है।
रासायनिक उर्वरकों की प्रयोग से मृदा की अम्लीयता में वृद्धि होती है।
मृदा की अम्लीयता को दूर करने के लिए चूना/ लाइम Cao का प्रयोग किया जाता है।
मृदा-प्रदूषण के कारण –
(1) कीटनाशक व उर्वरक- कीटनाशक व उर्वरक मृदा-प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं। इनके प्रयोग से फसलों की प्राप्ति तो हो जाती है, लेकिन जब वे तत्त्व भूमि में एकत्रित हो जाते हैं तो मिट्टी के सूक्ष्म जीवों का विनाश कर देते हैं। इससे मिट्टी का तापमान प्रभावित होता है और उसके पोषक तत्त्वों के गुण समाप्त हो जाते हैं।
(2) घरेलू अवशिष्ट-कूड़ा-कचरा, गीली जूठन, रद्दी, कागज, पत्तियाँ, गन्ना-अवशिष्ट, लकड़ी, काँच व चीनी मिट्टी के टूटे हुए बर्तन, चूल्हे की राख, कपड़े, टिन के डिब्बे, सड़े-गले फल व सब्जियाँ, अंडों के छिलके आदि अनेक प्रकार के व्यर्थ पदार्थ मिट्टी में मिलकर मृदा-प्रदूषण को बढ़ावा देते हैं।
(3) औद्योगिक अवशिष्ट- उद्योगों से निकल व्यर्थ पदार्थ किसी न किसी रूप में मृदा-प्रदूषण का कारण बनते हैं।
(4) नगरीय अवशिष्ट- इसके अन्तर्गत मुख्यतः कूड़ा-करकट, मानव मल, सब्जी बाजार के सड़े-गले फल व सब्जियों का कचरा, बाग-बगीचों का कचरा, उद्योगों, सड़कों, नालियों व गटरों का कचरा, मांस व मछली बाजार का कचरा, मरे हुए जानवर व चर्मशोधन का कचरा, आदि को सम्मिलित किया जाता है। इन सबसे मृदा-प्रदूषण होता है।
मृदा-प्रदूषण नियंत्रण के उपाय –
व्यर्थ पदार्थों व अवशिष्टों का समुचित निक्षेपण किया जाना चाहिए।
कृषि कार्यों में डी.डी.टी., लिण्डेन, एल्ड्रिन तथा डीलिड्रन आदि प्रयोग पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए।
नागरिकों को चाहिए कि वे कूड़ा-कचरा सड़क पर न फेंके।
अस्वच्छ शौचालयों के स्थान पर स्वच्छ शौचालयों का निर्माण करना चाहिए।
अवशिष्टों के निक्षेपण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
नागरिकों में सफाई के प्रति चेतना जाग्रत करनी चाहिए।
मृदा-क्षरण को रोकने के उपाय करने चाहिए।
जल प्रदूषण :-
जल में किसी ऐसे बाहरी पदार्थ की उपस्थिति, जो जल के स्वाभाविक गुणों को इस प्रकार से परिवर्तित कर दे कि जल स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हो जाए या उसकी उपयोगिता कम हो जाए, जल प्रदूषण कहलाता है।
जल प्रदूषण निवारण तथा नियन्त्रण अधिनियम, 1974 की धारा 2 (डी) के अनुसार जल प्रदूषण का अर्थ है- जल का इस प्रकार संक्रमण या जल के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में इस प्रकार का परिवर्तन होता है कि किसी औद्योगिक बहिःस्राव या किसी तरल वायु (गैसीय) या ठोस वस्तु का जल में विसर्जन हो रहा हो या होने की सम्भावना हो।
वे वस्तुएँ एवं पदार्थ जो जल की शुद्धता एवं गुणों को नष्ट करते हों, प्रदूषक कहलाते हैं।
जल प्रदूषण में जैव सूचक कोलीफोर्म जीवाणु होते हैं, जो बड़ी आँत को नुकसान पहुँचाते हैं।
प्रदूषक → बीमारी
(a) मर्करी (Hg) – मिनीमीटा रोग
(b) कैडियम (Cd) – इटाई-इटाई
(c) नाइट्रेट (No3) – ब्लू बेबी सिंड्रोम
(d) फ्लोरिन (F) – फलोरोशिश (नीनोर्क-सिंड्रोम)
जल प्रदूषण के स्रोत अथवा कारण –
जल प्रदूषण के स्त्रोतों अथवा कारणों को दो वर्ग़ों में बाँटा जा सकता है-
1. प्राकृतिक स्रोत
2. मानवीय स्रोत।
जल प्रदूषण के प्राकृतिक स्रोत –
कभी-कभी भूस्खलन के दौरान खनिज पदार्थ, पेड़-पौधों की पत्तियाँ जल में मिल जाती हैं जिससे जल प्रदूषण होता है।
इसके अतिरिक्त नदियों, झरनों, कुओं, तालाबों का जल जिन स्थानों से बहकर आता है या इकट्ठा रहता है, वहाँ की भूमि में यदि खनिजों की मात्रा है तो वह जल में मिल जाते हैं। वैसे तो इसका कोई गम्भीर प्रभाव नहीं होता है।
परन्तु यदि जल में इसकी मात्रा बढ़ जाती है तो नुकसानदेह साबित होते हैं।
यही कारण है कि किसी क्षेत्र विशेष में एक ही बीमारी से बहुत से लोग पीड़ित होते हैं क्योंकि उस क्षेत्र विशेष के लोग एक जैसे प्राकृतिक रूप से प्रदूषित जल का उपयोग करते हैं।
जल में जिन धातुओं का मिश्रण होता है उन्हें विषैले पदार्थ कहते हैं- जैसे सीसा, पारा, आर्सेनिक तथा कैडमियम।
इसके अतिरिक्त जल में बेरियम, कोबाल्ट, निकल एवं वैनेडियम जैसी विषैली धातुएँ भी अल्पमात्रा में पायी जाती हैं।
जल प्रदूषण के मानवीय स्रोत – जल प्रदूषण के मानवीय स्रोत अथवा कारण हैं-
1. घरेलू बहिःस्राव (Domestic effluent)
2. वाहित मल (Sweage)
3. कृषि बहिःस्राव (Agricultural effluent)
4. औद्योगिक बहिःस्राव (Industrial effluent)
5. तेल प्रदूषण (Oil pollution)
6. तापीय प्रदूषण (Thermal pollution)
7. रेडियोधर्मी अपशिष्ट
8. अन्य कारण
जल प्रदूषण का प्रभाव – जल प्रदूषण का प्रभाव बहुत ही खतरनाक होता है। इससे मानव तो बुरी तरह प्रभावित होता ही है, जलीय जीव-जन्तु, जलीय पादप तथा पशु-पक्षी भी प्रभावित होते हैं।
1. जलीय जीव-जन्तुओं पर प्रभाव
2. जलीय पादपों पर प्रभाव
3. पशु-पक्षियों पर प्रभाव
4. मानव पर प्रभाव
5. जल प्रदूषण के कुछ अन्य प्रभाव –
(i) पेयजल का अरुचिकर तथा दुर्गन्धयुक्त होना
(ii) सागरों की क्षमता में कमी
(iii) उद्योगों की क्षमता में कमी
जल प्रदूषण बचाव के उपाय –
(i) सभी नगरों में जल-मल के निस्तारण हेतु सीवर शोधन संयंत्रों की स्थापना की जाए।
(ii) रासायनिक कृषि के स्थान पर जैविक खाद की खेती को प्रोत्साहित किया जाए।
(iii) औद्योगिक अपशिष्ट युक्त जल को उपचारित कर वहीं पुनः उपयोग लिया जाए।
(iv) मृत पशु शवों को नदी में विसर्जन पर पूर्ण रोक हो विद्युत शव गृहों की स्थापना की जाए।
300 नमामी गंगे प्रोजेक्ट लॉन्च – भारत सरकार ने नमामी गंगे प्रोजेक्ट को सफल बनाने के लिए 1 जुलाई, 2016 को देशभर में एक साथ 300 प्रोजेक्ट शुरू किए जो गंगा नदी के किनारे शुरू हो रहे है जिसके अन्तर्गत घाटों का आधुनिकीकरण करने के साथ-साथ किनारों पर वृक्षारोपण किया जाएगा।
ध्वनि प्रदूषण :-
ध्वनि प्रदूषण या अत्यधिक शोर जो मानव जाति और जीव-जन्तुओं के लिए अनुपयोगी हो, उसे ध्वनि प्रदूषण कहते हैं।
दुनिया भर में सर्वाधिक ध्वनि प्रदूषण परिवहन प्रणाली जैसे मोटर वाहन, वैमानिक शोर-शराबा, रेल परिवहन इत्यादि से होता है।
ध्वनि प्रदूषण से प्रकृति से स्वास्थ्य एवं व्यवहार दोनों प्रभावित होते है।
ध्वनि प्रदूषण से चिड़चिड़ापन, आक्रामता, उच्च रक्तचाप, तनाव, श्रवण शक्ति का ह्रास, नींद में गड़बड़ी अन्य हानिकारक प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर पड़ते हैं।
| » नोट » ध्वनि की तीव्रता को मापने की इकाई डेसीबल (Db) होती है। |
साइलेन्ट जोन:- जहाँ ध्वनि 45 डेसीबल से कम होती है। जैसे – स्कूल, कॉलेज, पार्क, अस्पताल इत्यादि।
शोर ध्वनि जोन:- जहाँ ध्वनि 60 डेसीबल से अधिक होती है तो वह ध्वनि प्रदूषण के अंतर्गत आती है।
ध्वनि प्रदूषण के कारण – परिवहन के साधनों से, स्पीकरों से, उद्योगों से निकलने वाली ध्वनि से, वायुयानों एवं जैट विमानों से।
ध्वनि प्रदूषण से हानियाँ – मानव में मस्तिष्क पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जिससे मनुष्यों में चिड़चिड़ापन, बहरापन, अत्यधिक उच्च ध्वनि से व्यक्ति के स्थायी रूप से श्रवण शक्ति समाप्त हो जाती है जिससे व्यक्ति पागल की तरह व्यवहार करने लगता है।
ग्रीन मफलर ध्वनि प्रदूषण या अधिक आबादी वाले क्षेत्रों, जैसे- सड़कों के किनारे, रिहायशी इलाकों में स्थित राजमार्गों के आस-पास के क्षेत्रों में 4-6 पंक्तियों में अशोक एवं नीम जैसे पौधों का वृक्षारोपण कर ध्वनि प्रदूषण कम करने हेतु एक युक्ति है।
रेडियाधर्मी प्रदूषण :-
रेडियोधर्मी प्रदूषण ठोस, द्रव, गैसीय पदार्थों में अवांछनीय रेडियोधर्मी पदार्थों की उपस्थिति से होता है, उसे रेडियोधर्मी प्रदूषण कहते हैं।
रेडियोधर्मी प्रदूषण के प्रभाव-
परमाणु विस्फोटों एवं दुर्घटनाओं से जल, वायु् एवं भूमि का प्रदूषण होता है।
रेडियोधर्मी प्रदूषण के कारण गर्भाशय में शिशुओं की मृत्यु, कैंसर जैसी घातक बीमारी, पेड़-पौधों, जीव-जन्तु, खाद्य सामग्री आदि को प्रभावित करते हैं।
रेडियोधर्मी प्रदूषण नियंत्रण के उपाय-
नाभिकीय बमों, परमाणु बमों तथा रेडियाधर्मी हथियारों, साधनों, तत्त्वों के परीक्षण पर पूर्णत: रोक लगा देनी चाहिए।
नाभिकीय संयंत्रों के निर्माण, कार्य एवं सुरक्षा उपायों पर पूर्णत: ध्यान रखना चाहिए।
ई-प्रदूषण :-
वे प्रदूषक जिनका निवारण परम्परागत तरीके से किया जाता है, ई-प्रदूषक कहलाता है।
इसे इलेक्ट्रॉनिक प्रदूषण (कचरा) भी कहा जाता है।
ई कचरे में लगभग एक हजार तरह की चीजें शामिल होती हैं। जिसमें 21 प्रतिशत प्लास्टिक और 13 प्रतिशत अलौह धातु एवं अन्य दूसरी चीजें होती है। जैसे – प्लास्टिक, अलौह धातु, काँच, लकड़ी, प्रिन्टेड सक्रीट बोर्ड, रबर, ताँबा एल्युमिनियम, सोना, चाँदी इत्यादि।
ई प्रदूषण में सर्वाधिक खतरनाक पदार्थ सीसा, पारा, कैडमियम, क्रोमियम, हेलोजेनेटेड पदार्थ (cfc) पॉलिक्लोरेनेटेड बाइफिनाइल आदि होते हैं।
भारत में 70 प्रतिशत ई-कचरा पैदा करने वाले 10 राज्य है।
महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश तथा पंजाब है।
प्रमुख शहर मुम्बई, दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, हैदराबाद, पुणे, सूरत व नागपुर शामिल है।
वर्तमान में चेन्नई और बेंगलुरु में ई-कचरा निबटान संयंत्र कार्यरत है।
वनों का विनाश :-
वनों के विनाश से जैविक वातावरण प्रभावित होता है।
मनुष्य ने अपने तात्कालिक लाभ के लिए वनों का विनाश किया।
हर वर्ष जंगलों में खेती के लिए, ईंधन के लिए या इमारती लकड़ी के लिए वनों को काटा।
जिससे प्रकृति का असंतुलन बढ़ता जा रहा है।
क्योंकि ये कार्बनडाई ऑक्साइड गैस को अवशोषित कर ऑक्सीजन छोड़ते हैं और धरती का तापमान बनाए रखने में सहयोग करते हैं।
ये मृदा के अपरदन को भी रोकते हैं।
लेकिन वनों के विनाश से वातावरण में CO2 की मात्रा बढ़ती जा रही है तथा वर्षा की मात्रा कम हो रही है।
जिससे पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो रही है।
बढ़ता मरुस्थलीकरण भी इसी का एक परिणाम है।
वायुमण्डलीय वातावरण से संबंधित समस्याएँ – जीवाश्मी ऊर्जा (कोयला, पेट्रोल, डीजल, गैस आदि) के अत्यधिक प्रयोग, वनों के तीव्र विनाश, परिवहन साधनों के उपयोग में भारी वृद्धि आदि के कारण वैश्विक जलवायु परिवर्तन देखने को मिले हैं।
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