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पहली टेक्नीकलर फिल्म कौनसी है , नाम क्या है , किसने बनायीं थी first technicolor film in india in hindi
first technicolor film in india in hindi पहली टेक्नीकलर फिल्म कौनसी है , नाम क्या है , किसने बनायीं थी ?
तरुणाई (नए युग का कारण) – 1950
दक्षिण और उत्तर भारत में जो भारी संख्या में फिल्म निर्माण हो रहा था उसे नियमित करने के लिए 1950 के दशक में एक केंद्रिय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की स्थापना की गयी, जिसके साथ ही भारतीय सिनेमा अपने यौवन पर पहुंचने लगा था। इस युग में ‘फिल्मी सितारों’ का भी उदय हुआ और उन्होंने अप्रत्याशित सफलता प्राप्त कर घर-घर में प्रसिद्ध हो गए। हिंदी सिनेमा की ‘त्रिमूर्ति’ दिलीप कुमार, देवानंद और राजकपूर का प्रादुर्भाव भी इसी युग में हुआ। वर्ष 1953 में पहली टेक्नी-कलर फिल्म झाँसी की रानी का निर्माण सोहराब मोदी द्वारा किया गया।
इसी युग में अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों ने भारत को अपना गंतव्य बनाने के लिए इधर का रुख किया। वर्ष 1952 में भारत का पहला अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का आयोजन बम्बई में किया गया था। इसने भारतीय फिल्मों के लिए विदेशी सम्मान के द्वार भी खोल दिए। बिमल राय की दो बीघा जमीन पहली भारतीय फिल्म थी, जिसे कांस फिल्म समारोह में पुरस्कार मिला। एक अन्य प्रसिद्ध सत्यजित रे की फिल्म पाथेर पंचाली को भी कांस पुरस्कार प्राप्त हुआ।
मदर इंडिया सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा की फिल्म के रूप में 1957 में आॅस्कर के लिए नामांकित हुई।
अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य से संकेत लेते हुए, भारत सरकार ने भी राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की स्थापना की, जो पहली बार श्यामची आई नामक फिल्म को दिया गया था। सर्वश्रेष्ठ लघु फिल्म का पुरस्कार जगत मुरारी द्वारा निर्मित फिल्म महाबलीपुरम को दिया गया। राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाली पहली फिल्म सोहराब मोदी द्वारा वर्ष 1954 में निर्मित फिल्म मिर्जा गालिब थी। अन्य विशिष्ट पिफल्में इस प्रकार थीः
1954 एस.के.ओझा नाज विदेशी लोकेशन पर शूट की गयी पहली फिल्म
1957 के.ऐ.अब्बास परदेसी भारत-सोवियत सहयोग से बनने वाली पहली फिल्म
1958 गुरुदत्त कागज के फूल सिनेमास्कोप में बनने वाली पहली भारतीय फिल्म।
स्वर्ण युग . 1960 का दशक
साठ के दशक में संगीत उद्योग फिल्म जगत का अभिन्न अंग बन गया था। कई फिल्मों ने संगीत को अपना एकमात्र विक्रय बिंदु ;न्ैच्द्ध बनाना आरम्भ करा दिया था। उनमें से कुछ प्रमुख फिल्में थीं – राज कपूर अभिनीत जिस देश में गंगा बहती है, देवानंद की गाईड, यश चोपड़ा की वक्त आदि। 1962-1965 के इस समय ने भारत-पाकिस्तान युद्ध भी देखे थे, जो कई राष्ट्रभक्ति की फिल्मों की विषय-वस्तु बने थे। इस विधा में उल्लेखनीय नाम थे – चेतन आनंद की हकीकत, शक्ति सामंत की राजेश खन्ना अभिनीत आराधना और राजकपूर अभिनीत संगम।
फिल्म उद्योग के सशक्त रूप से स्थापित हो जाने के पश्चात् एक ऐसी संस्था की आवश्यकता अनुभव हुई जो फिल्म निर्माण की जटिल प्रक्रिया में लगे हुए लोगों को प्रशिक्षित कर सके। इस उद्देश्य ने सरकार को भारत के फिल्म और टेलीविजन संस्थान की पुणे में वर्ष 1960 में स्थापना के लिए प्रेरित किया। इस संस्थान में लेखकों, निर्देशकों और अभिनेताओं को उनकी कला में प्रशिक्षण दिया जाता है। वर्ष 1969 में जब भारतीय सिनेमा और रंगमंच के प्रतिष्टित सदस्य दादा साहेब फाल्के का निधन हुआ तो उनके आजीवन योगदान को सम्मानित करने के लिए दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की स्थापना की गयी।
एंग्री यंग मैन का युग . 1970-80
यह युग एक ऐसे नवयुवक को लेकर फिल्में बनाने और निर्देशित करने का काल था, जो औद्योगिक बम्बई में अपने पाँव जमाने का प्रयास कर रहा था। रंक से राजा बनने की कहानियों का यह सफल फाॅर्मूला, परदे पर लोगों को उनके अपने सपने को जीने का अवसर प्रदान करता था। अमिताभ बच्चन इस प्रकार की अधिकांश फिल्मों के प्रतिनिधि बन गये और इस दौर को अमिताभ बच्चन का युग कहा जा सकता है। उनकी सफल फिल्मों में जंजीर, अग्निपथ, अमर अकबर एंथनी इत्यादि हैं।
इसी समय में डरावनी फिल्मों की एक और विधा भी चल रही थी, जिसे रामसे बंधुओं ने अपनी दो गज जमीन के नीचे जैसी फिल्मों से आरम्भ किया था। अन्य फिल्म निर्माताओं ने भी इस दिशा में कार्य आरम्भ किया तो सेंसर बोर्ड ने इस विधा के लिए एक नये परिभाषित शब्द ‘बी-ग्रेड’ फिल्म’ गढ़ लिया, जिनमे डर और कामुकता का मिश्रण था।
फिर एक दौर धार्मिक फिल्मों का भी आया, जो देवी-देवताओं, जैसे . जय संतोषी माँ के जीवन और विशेष घटनाओं इत्यादि पर केंद्रित थीं।
अन्य फिल्में, जिनका विशेष उल्लेख करने की आवश्यकता है, वह है शोले जो 70उउ के पैमाने पर बनाई जाने वाली पहली फिल्म थी। इस फिल्म ने प्रदर्शन के सारे पुराने रिकाॅर्ड ध्वस्त कर दिए थे और नब्बे के दशक तक सिनेमाघरों में सबसे अधिक लम्बे समय तक चलने वाली फिल्म थी। कैफी आजमी और जावेद अख्तर ने इस फिल्म की पटकथा और संवाद लिखे थे। इस जोड़ी ने अन्य सफल फिल्म परियोजनाओं पर भी कार्य किया था। कैफी आजमी को एक पूरी फिल्म तुकांत कविता रूप में लिखने के लिए भी जाना जाता है। यह फिल्म पंजाब की एक प्रेम गाथा पर आधारित थी और इसका नाम हीर राँझा था।
सिनेमा की प्रौढ़ता 1980-2000
1980 के दशक के बाद भारतीय सिनेमा का स्वरूप तेजी से बदलने लगा था। समाजिक विषयों पर बनने वाली फिल्मों की बाढ़-सी आ गयी थी। रोमांटिक और पारिवारिक कहानियों को भारी मात्रा में दर्शक उपलब्ध हो रहे थे। इस युग के तीन प्रमुख अभिनेता थे – अनिल कपूर, जैकी श्रोफ और गोविंदा। उन्होंने अत्यंत सफल फिल्मों में अभिनय किया,जैसे-तेजाब, राम लखन, फूल और कांटे, हम इत्यादि। अस्सी के दशक के अंत में बाजीगर और डर जैसी फिल्मों से ‘नायक विरोधी’ फिल्मों का उदय हुआ और इनसे शाहरुख खान का स्टारडम आरम्भ हो गया था।
1990 के दशक के उदारवाद, वैश्वीकरण और निजीकरण (एल.पी.जी.) से लोगों की फिल्म और टेलिविजन तक पहुंच बढ़ गयी थी। विदेशी कम्पनियों द्वारा फिल्मों में अधिक धन की उपलब्धता हो जाने से इस उद्योग में एक क्रांति-सी आ गयी है। लोग अब धनिक वर्ग के शहरी नौजवानों के जीवन के बारे में फिल्में देखना चाहते थे, इसलिए आदित्य चोपड़ा जैसे फिल्म निर्माताओं ने लोगों की इस अपेक्षा का लाभ उठाते हुए दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे, दिल तो पागल है इत्यादि फिल्मों का निर्माण किया। इस युग ने भारतीय सिनेमा की दूसरी तिकड़ी का उदय भी देखा, जिनका भारतीय सिनेमा पर आज तक प्रभुत्व बना हुआ है। ये हैं शाहरुख खान, सलमान खान और आमिर खान।
1990 में आयी एल.पी.जी. के कारण भारत में उन्नत प्रौद्योगिकी को आने की अनुमति मिल गयी। उदाहरण के लिए माई डियर कुट्टी चेतन, भारत की पहली 3-डी फिल्म थी, जिसे मलयालम में बनाया गया था। इस फिल्म को हिंदी में डब करके छोटा चेतन नाम से प्रदर्शित किया गया। भारतीय दर्शकों को एक और प्रमुख प्रौद्योगिकी डाॅल्बी साऊंड सिस्टम का परिचय विधु विनोद चोपड़ा निर्मित फिल्म 1942 – अ लव स्टोरी से कराया गया।
वर्तमान दशक में, उद्योग का विभिन्न विषयों में प्रसार हो रहा है। गुरिंदर चढ्ढा और शेखर कपूर जैसे निर्माताओं ने अंतरराष्ट्रीय सहभागिता से कई फिल्मों का निर्माण किया है, जैसे – बेंड इट लाईक बेकहम, ब्राइड एंड प्रेजुडिस और एलिजाबेथ। आज इम्तियाज अली, राजू हिरानी, संजय लीला भंसाली और करण जौहर जैसे निर्माताओं का प्रभुत्व है। एक नये प्रकार के अभिनेताओं का समूह भी आगे आया है, जो परम्परागत मापदंडों से दिखने में सुंदर नहीं हैं लेकिन बहुत अच्छा अभिनय कर लेते हैं, जैसे-इरफान खान, नवाजुद्दीन सिद्दकी आदि।
समानांतर सिनेमा (Parallel Cinema)
1940 के दशक से भारतीय सिनेमा में एक समानांतर उद्योग बना रहा है, जिसने गहरा प्रभाव डालने वाली फिल्में बनाई हैं। उसका एकमात्र उद्देश्य अच्छे सिनेमा का निर्माण और कौशल के साथ नये प्रयोग करना है, चाहे वह व्यावसायिक रूप् से साध्य न भी हो। इस आन्दोलन का आरम्भ पहले क्षेत्रीय सिनेमा से मृणाल सेन की वर्ष 1969 में आयी भुवन शोम से हुआ। इसने ‘नये सिनेमा’ की एक ऐसी लहर को जन्म दिया, जो मानवीय दृष्टिकोण के साथ कलात्मक उत्कृष्टता पर केंद्रित थी और यह लोकप्रिय मुख्यधारा के सिनेमा के स्वप्निल संसार के पूर्णतय विपरीत थी।
भारत में समानांतर सिनेमा के प्रेरणात्मक कारक इस प्रकार हैंः पहला, द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् वैश्विक प्रवृत्ति नये यथार्थवाद और मानवीय भूलों के चित्रण की ओर मुड़ गयी थी। इसकी झलक भारतीय सिनेमा की उन असाधारण फिल्मों में मिलती है, जो सामाजिक विषयों पर केंद्रित थीं, जैसे मदर इंडिया, श्री 420 इत्यादि। दूसरा फिल्मों के बारे में अध्ययन करने के लिए लोगों को बहुत-से संस्थान उपलब्ध हो गए, जैसे-भारत का राष्ट्रीय पिफल्म लेखागार, जिसकी स्थापना वर्ष 1964 में की गयी थी और एपफ.टी.आई.आई.। अन्ततः भारत अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों के लिए संवेदनशील स्थान बन गया और भारतीय निर्देशक अब वैश्विक सिनेमा से परिचित होने लगे, जो उनकी अपनी रचनाओं में झलकता है।
समानांतर सिनेमा आंदोलन में एक प्रमुख नाम सत्यजित रे का है, जिन्होंने अप्पू तिकड़ी बनाई – पथेर पांचाली, अपुर संसार और अपराजिता। इन फिल्मों से उन्हें वैश्विक समीक्षकों की प्रशंसा और कई पुरस्कार भी प्राप्त हुए। अन्य विख्यात नामों में ऋत्विक घटक का नाम है, जिन्हांेने अपनी फिल्मों जैसे – नागरिक, अजांत्रिक और मेघा ढाका ताराय के माध्यम से मध्यमवर्गीय समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया।
1980 के दशक में समानान्तर सिनेमा महिलाओं को आगे लाने की दिशा में चल पड़ा। इस समय में कई महिला निर्देशक बहुत प्रसिद्ध हुईं। उनमे कुछ उल्लेखनीय नाम हैं सई परांजपे (चश्मे बद्दूर, स्पर्श ), कल्पना लाजमी (एक पल ) और अपर्णा सेन (36 चैरंगी लेन )। कुछ को तो वैश्विक स्तर पर सम्मान भी मिला है जैसे मीरा नायर जिनकी सलाम बाॅम्बे को वर्ष 1989 में स्वर्ण कासं पुरस्कार से नवाजा गया। इनमे से अधिकांश फिल्मों में समाज में महिलाआंे की बदलती हुई भूमिका पर चर्चा की गई है। नीचे दिए गए बाॅक्स में सिनेमा के अनुभवों के अनुसार महिलाओं की भूमिका पर प्रकाश डाला गया हैः
भारतीय सिनेमा में महिलाओं की भूमिका
ऽ बदलते हुए समय के साथ फिल्मों में महिलाओं के चित्राण में भी परिवर्तन आया है। मूक फिल्मों के दौर में निर्देशकों ने महिलाओं पर लगाये गए बन्धनों पर ध्यान केंद्रित किया था।
ऽ 1920-40 के समय में अधिकांश निर्देशक जैसे वी. शांताराम, धीरेन गांगुली और बाबूराव पेंटर ने ऐसी फिल्में बनाई जिनमे महिलाओं की मुक्ति से संबंधित समस्याओं को जैसे बाल विवाह पर प्रतिबंध, सती प्रथा का अंत इत्यादि को प्रभावी ढंग से उठाया गया था।
ऽ धीरे-धीरे सिनेमाई दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आया और उन्होंने विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा और कार्यक्षेत्र में महिलाओं की समानता को भी समर्थन दिया।
ऽ 1960-80 के समय में महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण बहुत ही घिसा-पिटा था। जब नायिका या ‘आदर्श महिला’ को दिखाना होता था तो वे मातृत्व, महिलाओं में निष्ठा और महिलाओं द्वारा अपने परिवार के लिए असंगत त्याग को महिमामंडित करते थे।
ऽ फिल्म निर्माताओं ने नायिका के विपरीत एक नायिका-विरोधी या वैम्प की रचना कर ली थी। उसे शराब पीते हुए, विवाहित लोगों के साथ सम्बन्ध में, निर्मम या निर्लज्ज रूप में दिखाया जाता था।
ऽ केवल समानांतर सिनेमा में ही फिल्म निर्माताओं ने महिला मुक्ति की आवश्यकता को आगे बढ़ाया। इस विधा के उल्लेखनीय निर्देशक हैं सत्यजित रे, ट्टत्विक घटक, गुरुदत्त, श्याम बेनेगल इत्यादि।
ऽ वर्तमान युग का सिनेमा भी अभी उस ‘आधुनिक’ महिला की छवि के साथ प्रयोग कर रहा है, जो जीवनयापन के लिए कार्य करती है और अपने बच्चे और कैरियर के बीच संतुलन बनाती है।
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