JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Class 6

Hindi social science science maths English

Class 7

Hindi social science science maths English

Class 8

Hindi social science science maths English

Class 9

Hindi social science science Maths English

Class 10

Hindi Social science science Maths English

Class 11

Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History

chemistry business studies biology accountancy political science

Class 12

Hindi physics physical education maths english economics

chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology

Home science Geography

English medium Notes

Class 6

Hindi social science science maths English

Class 7

Hindi social science science maths English

Class 8

Hindi social science science maths English

Class 9

Hindi social science science Maths English

Class 10

Hindi Social science science Maths English

Class 11

Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics

chemistry business studies biology accountancy

Class 12

Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics

chemistry business studies biology accountancy

Categories: sociology

समाजशास्त्र के जनक माने जाते हैं | समाजशास्त्र के जनक किसे कहते हैं का नाम कौन है father of sociology in hindi

who is father of sociology in hindi name and why  समाजशास्त्र के जनक माने जाते हैं | समाजशास्त्र के जनक किसे कहते हैं का नाम कौन है ?

उत्तर : समाजशास्त्र का जनक “अगस्टे कॉमटे” को कहा जाता है , अंग्रेजी में इनका नाम “Auguste Comte” है , इनका पूरा नाम Isidore-Auguste-Marie-François-Xavier Comte अर्थात इसिडोर-अगस्टे-मैरी-फ्रांस्वा-ज़ेवियर कॉम्टे है | ये मूल रूप से फ्रान्स के निवासी थे , इनका जन्म 19 जनवरी 1978 को फ्रांस देश के मोंटपेलियर नामक स्थान पर हुआ था और इनकी मृत्यु 5 सितम्बर 1857 को फ्रान्स देश के पेरिस जगह पर हुई थी |

नागरिक धर्म के प्रकार (Varieties of Civil Religion)
आर. एन. बेलाह और पीटर हैमांड (1980) जैसे धर्म के समाजशास्त्र के विद्वानों ने विभिन्न समाजों खासकर जापान, मेक्सिको, इटली में एक खास प्रकार की आस्था का अस्तित्व लक्षित किया है। यह सामान्य आस्था इन समाजों की विभिन्न संरचनाओं में परिलक्षित होती है। बेलाह और हेमांड ने विभिन्न संस्कृतियों की तुलना करते हुए पाया है कि इनमें से किसी समाज में भी अमेरिका की तरह नागरिक धर्म की पूर्ण संरचना उपलब्ध नहीं है। आइए विभिन्न कालों में मौजूद कुछ समाजों में व्याप्त नागरिक धर्म के इन विभिन्न प्रकारों की जाँच की जाए।

 प्राचीन यूनान और रोमन नगरों में नागरिक धर्म (Civil Religion in the Ancient Greek and Roman Cities)
मानव समाजों के इतिहास के दौरान कुछ खास परिस्थितियों और धार्मिक समझ के कारण पुरातन धर्म के ईश्वर का स्पष्ट स्वरूप सामने आया। बेलाह का मानना है कि एक खास तरह के धार्मिक संगठन या स्वरूप के उदय के लिए विभिन्न प्रकार के सामाजिक संगठन का होना जरूरी है।

इसी संदर्भ में स्वानसन नामक एक अन्य विद्वान ने धर्म को केन्द्र में रखकर विभिन्न संस्कृतियों का अध्ययन किया कि सांख्यिकी के लिहाज से पुरातन धर्मों में मौजूद विभिन्न ईश्वरों की मौजूदगी को समाज में निहित विभिन्न विशिष्ट समुदायों की उपस्थिति से जोड़कर देखा जा सकता हैं। (स्वानसन जी.डी. 1960 ‘‘पृष्ठ 82-96)। उसने यह भी पाया कि एक खास क्षेत्र में और समाज के अलग-अलग सामाजिक और व्यावसायिक क्षेत्र में एक सर्वोच्च ईश्वर के विकास की पद्धति पाई जाती है।

स्वानसन और एक और विद्वान मूरे के अनुसार यह पद्धति सर्वोच्च सम्प्रभु समुदाय के परिवार से निकलती है। इसी परिवार में पहली बार किसी धार्मिक प्रथा का जन्म होता है जिसमें पारिवारिक ईश्वर की पूजा होती है जो उस खास परिवार या वंश के हितों का ध्यान रखता है। परिवार का खास हित उस पारिवारिक ईश्वर का भी खास हित होता है। जैसे-जैसे समाज जटिल होता जाता है वैसे-वैसे इस अंतःसंबंध में बदलाव आने लगता है। धर्म की इस विकास प्रक्रिया में एक परिवार का भगवान इसके साथ जुड़े एक खास व्यावसायिक समुदाय का भगवान हो जाता है।

विद्वानों का मानना है कि बृहत् सामाजिक समुदायों के उदय के साथ-साथ कुछ स्थानीय भगवानों का भी उदय होता है और एक खास व्यवसाय और क्षेत्र से जुड़े हुए लोगों का ईश्वर मिलकर एक ईश्वर में परिवर्तित हो जाता हैं। लेकिन मिलन की यह प्रक्रिया एक स्पष्ट विचार पर आधारित होती है और वहाँ तक पहुँचने के बाद मिलन की प्रक्रिया बन्द हो जाती है। जहाँ इस प्रकार की स्पष्ट अवधारणा नहीं पाई जाती थी वहाँ के पुरातन धर्म, धार्मिक विकास के अंतिम-चरण तक नहीं पहुंच पाये।

हालाँकि जिन स्थानों पर स्थानीय ईश्वरों का अंतिम सम्मेलन न हो सका वहाँ समाज में सामाजिक और राजनीतिक अंतर कायम रहा और ईश्वरों के कई प्रकारों या स्वरूपों के रूप में सहज ढंग से धार्मिक अभिव्यक्तियाँ सामने आई। प्राचीन रोम और यूनान के मामले में कुछ ऐसा ही हुआ था। (हारग्रोव, बी 1989, 109-112)।

यूनानी नगर-राज्यों और रोमन नगर-राज्यों में धार्मिक प्रथाएँ सर्वप्रथम परिवार में स्थापित की जाती थी। उसके बाद नगर सरकारों का स्थान आता था। इन नगर राज्यों में रहने वाले प्रत्येक नागरिक के परिवारों के पास अपनी एक पवित्र अग्नि होती थी और ईश्वर को प्रसन्न करने तथा इस पवित्र अग्नि के रखरखाव, उपयोग और पुनः प्रज्वलित करने के अपने-अपने अनुष्ठान होते थे। पर इस प्रकार की अनुष्ठान गतिविधि केवल अभिजात वर्ग के पास मौजूद थी जिन्हें पूर्ण नागरिकता मिली हुई थी। आम जनता और अजनबियों को राजनीतिक निकायों से बाहर रखा जाता था क्योंकि उन्हें उनका अंग नही माना जाता था। अतः नागरिक धर्म में भी उनकी कोई भूमिका नहीं थी।

आम लोग अपने मालिकों के संरक्षण में ही धार्मिक समारोहों में हिस्सा ले सकते थे। बेलाह के अनुसार यूनानी और उत्तर रोमन नगर-राज्यों में मौजूद पुरातन धर्म की प्रमुख विशेषता दो वर्गीय व्यवस्था की मौजूदगी थी। इन दो वर्गों का धर्म भी एक जैसा नहीं था।

उच्च वर्ग का मानना था कि उनके पास श्रेष्ठ धार्मिक अभिव्यक्ति का अधिकार है। यूनानी मिथक में हम ईश्वर की दोहरी व्यवस्था पाते हैं। कुछ ईश्वर ऐसे हैं जिनका विकास आदिम अनुष्ठान देवी देवताओं जैसे धरती माँ, कृषकों की फसल देवी से हुआ था और दूसरी तरफ निम्न जातियों के ईश्वरों पर प्राचीन यूनान के ओलिम्पस निवासी यूनानी देवताओं को लाद दिया गया था। इन ओलिम्पस ईश्वरों की प्रकृति को देखने से ज्ञात होता है कि यह आक्रमणकारियों का देवता था जिन्होंने यूनानी समाज का उच्च वर्ग निर्मित किया। वे आर्य
इस प्रकार प्राचीन यूनान और बाद के रोमन समाज में व्याप्त नागरिक धर्म अपने-अपने मिथकों में प्रतिबिम्बित हुआ। इससे राज्य और राज्य के नागरिकों को दिए गये महत्व की बात सामने आती है।

 फ्रांस में नागरिक धर्म (Civil Religion in France)
18वीं शताब्दी के दौरान फ्रांस में न केवल सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक उथल-पुथल हुई बल्कि धर्मिक संशयवाद (ैबमचजपबपेउ) और धर्म संबंधी संदेह का युग भी सामने आया। मानव इतिहास में यह सर्वाधिक निर्णायक दौर था क्योंकि इसी के बाद यूरोपीय समाज का सामंतवादी ढांचा टूटा और जनतांत्रिक समाज कायम हुआ।

इसी काल में फ्रांसीसी क्रांति हुई और वाल्टेयर जैसे इस काल के विद्वानों और बौद्धिक साहित्यों ने आधिभौतिक धर्म और धार्मिक संस्थाओं पर जमकर प्रहार किया। उन्होंने ईसाई परम्परा के साथ-साथ बाइबिल की भी आलोचना की और खिल्ली उड़ाई।

तर्क प्राकृतिक विज्ञान से प्रभावित ये विद्वान तर्क और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विशेष महत्व देने लगे। इस प्रकार के मानसिक ढांचे में चमत्कारों, अंधविश्वासों सोचने और समझने के परम्परागत तरीकों पर प्रश्न चिन्ह लगने लगा। ईसाई धर्म को अंधविश्वासी और इसके पादरियों को कपटी घोषित किया गया। (फ्रांसीसी इतिहास और समाज का विस्तृत विवरण आप सामाजिक चिंतन: ई.एस.ओ.-13 के खंड 1, (इकाई 1 में देख सकते हैं।)

ईसाई धर्म के इतिहास में पहली बार ईसाई धर्म के कई प्रभावशाली अनुयायियों ने खुले रूप में इसके आधारभूत सिद्धान्तों और इसमें निहित सत्यों की आलोचना की। जैसे कि हेज (1926ः पृष्ठ 93-125) बताता है कि बहुत से बुद्धिजीवियों ने त्रिसिद्धांत (अर्थात ईश्वर, पिता, ईसा मसीह पुत्र और पवित्र प्रेतात्मा का ईसाई उपासना में पवित्र सम्मिलन) को एक प्रकार की धोखा-धड़ी और बनावटीपन माना है। उन्होंने ईसाई रहस्योद्घाटन या किसी अन्य आधिभौतिकता को बेकार माना क्योंकि इसमें मनुष्य अपने विश्वास और श्रद्धा को किसी भी प्रकार न्यायेचित नहीं ठहरा सकता था।

18वीं शताब्दी के दौरान यूरोप खासकर फ्रांस के बुद्धिजीवियों ने तर्क का सहारा लिया। उन्होंने ईसाई धर्म को नहीं अपनाया। लेकिन इसके बावजूद हेज का मानना है कि इन बुद्धिजीवियों में भी एक प्रकार का धार्मिक लक्षण था जो कई रूपों में दृढ़ता से प्रकट हुआ। उन्होंने प्रकृति के ईश्वर में आस्था रखी और उन्होंने कहा कि इस प्रकृति को कोई नहीं रोक सकता और इसके तहत असंख्य संसार निहित थे, इसमें कई ग्रह, उपग्रह शामिल थे और ये सभी आन्तरिक अपरिवर्तनीय विधानों से संचालित थे जिसे इस नन्हीं सी पृथ्वी पर छोटे से मनुष्य के लघु अस्तित्व को देखने या सुनने का समय नहीं है।‘‘ (हेज सी.जी.एच. 1926य 92-125)

बॉक्स 9.01
धर्म पर प्रोफेसर एलबर्ट आइंसटिन के विचारः रहस्यवादिता सबसे खूबसूरत अनुभव है। आधारभूत संवेदना शुद्ध कला और शुद्ध विज्ञान के अवलंब पर खड़ी होती है। जो इसे नहीं जानता और जो इससे आश्चर्यचकित नहीं हो सकता, चमत्कृत नहीं हो सकता, वह मृतपाय है और उसकी आँखों पर धुंधलापन छाया हुआ है। इस रहस्यवादिता के साथ जब भय का सम्मिश्रण होता है तो धर्म का उदय होता है इस प्रकार के ज्ञान को हम जान नहीं सकते, और इसके बारे में हमारे दृष्टिकोण की गंभीरता और कान्तिमय खूबसूरती हमारे दिमाग में आदिम काल से निर्धारित है। इस प्रकार का ज्ञान और यह संवेदना ही मिलकर सही धार्मिकता का निर्धारण करते हैं और केवल इसी अर्थ में मैं गहरे रूप में एक धार्मिक व्यक्ति हूँ (संदर्भः आइडियाज एंड औपशनस) (प्यांट्स टू पांडर, रीडर्स डाइजेस्ट, अक्तूबर 1991ः पृष्ठ 127)

हेज का कहना है कि प्रकृति का यह ईश्वर ईसाई धर्म के ईश्वर की अपेक्षा काफी निकृष्ट था पर वह मनुष्य के बाहर स्थित था और 18वीं शताब्दी के इन बुद्धिजीवियों ने इसके बारे में एक रहस्यवादी अनुभव विकसित करने में सफलता प्राप्त की थी।

ये बुद्धिजीवी केवल प्रकृति के इस ईश्वर की शक्ति के प्रति ही श्रद्धा का भाव नहीं रखते थे। इनमें से कुछ ने अपनी सीमा से बाहर की रहस्यवादी शक्ति की खोज की और उसके प्रति सम्मान प्रकट किया। यह शक्ति विज्ञान के रूप में सामने आई। लेकिन बाद में यह पाया गया कि यह विज्ञान मूर्त रूप पाते ही प्रकृति के ईश्वर के धार्मिक हाथों का दास बन जाती है।

‘‘एक अन्य अनेकांगी विशाल रूप‘‘ अर्थात मानवता की भी इन बुद्धिजीवियों ने आराधना की। ये बुद्धिजीवी खासकर भक्तजन थे। इस भक्ति का कारण यह हो सकता है कि जब सम्पूर्ण मानवता नष्ट हो जायेगी तो एक भयानक रहस्य और भय चारों ओर विराजमान हो जायेगा। भक्ति का मध्यकरण एक ईश्वर/मनुष्य, या यहाँ तक कि त्रिसिद्धान्त की अवधारणा से ज्यादा प्रभावी था।

समाजशास्त्र के जनक ऑगस्ट काम्टे (1798-1857) ने अपने शैक्षणिक जीवन के उत्तरार्द्ध में 18वीं शताब्दी के फ्रांसीसी बुद्धिजीवियों के बीच सर्वोच्च सत्ता के धर्म अर्थात मानवता धर्म की वकालत की।

इस काल में ईसाई धर्म के प्रति आस्था खतरे में थी और प्रकृति, विज्ञान, तर्क, प्रगति, मानवता आदि के प्रति आस्था बढ़ रही थी। इस काल के बुद्धिजीवी अपनी धर्म संबंधी अंतर्मूर्त धारणा को अभिव्यक्त कर रहे थे। इस चरण के दौरान एक और प्रकार की पूजा अर्थात राजनीतिक राज्य की पूजा विकसित हुई।

धर्म के रूप में राष्ट्रीयता के विकास में फ्रांसीसी क्रांति की एक महत्वपूर्ण भूमिका थी। जैसा कि आप पहले जान चुके हैं कि इस काल के बुद्धिजीवियों ने समाज, अर्थव्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था आदि के संबंध में लोगों के विचारों और दृष्टिकोणों को बिल्कुल बदल दिया था।

राष्ट्रीय हित में चर्च को जनतांत्रिक संगठन बनाने के उद्देश्य से आरम्भ में इन बुद्धिजिवियों ने 18वीं शताब्दी के दर्शन को कैथोलिक ईसाई धर्म के साथ मिलाकर एक राज्य चर्च निर्मित करने की कोशिश की। इस युग के एक दार्शनिक अब्बे रायनल का कहना है कि “मेरे हिसाब से राज्य धर्म के लिए नहीं बना है बल्कि धर्म राज्य के लिए बना…सभी मामलों में राज्य सर्वोच्च है…….राज्य के फैसले पर चर्च को और कुछ कहने का अधिकार नहीं है।‘‘ (हेज 1926: 101)।

फ्रांसीसी क्रांति के दौरान इतिहास और राजनीतिक व्यवस्था में होने वाले बदलावों और घटनाओं से नागरिक धर्म के विकास की प्रकृति का पता चलता है। इसके तहत राज्य के अन्य सरकारी अधिकारियों की तरह नागरिक सत्ता के नियंत्रण में रहने वाले राष्ट्रीय पुजारियों की नियुक्ति की कोशिश की गई। इस प्रयत्न का फ्रांस के परम्परागत पुजारियों ने विरोध किया जो अब तक उच्च हैसियत और सत्ता का उपभोग कर रहे थे।

अप्रैल 1791 में रोम में नागरिक संविधान की आलोचना की गई और तब से फ्रांस में कैथोलिक और राष्ट्रवाद के धर्मों के बीच यह मुद्दा विवाद का विषय बना रहा। औपचारिक रूप से ईसाई धर्म को अस्वीकृत नहीं किया गया पर केवल नागरिक संविधान में आस्था रखने वाले पुजारियों को ही ईसाई धर्म की सेवा करने का अधिकार दिया गया।

हेज के अनुसार फ्रांस के अधिकांश हिस्सों में कैथोलिक चर्चों को नागरिक पूजा स्थलों में बदल दिया गया। 1793 से विरोध करने वाले पुजारियों को दंड दिया जाना शुरू होने लगा क्योंकि फ्रांसीसी क्रांतिकारियों का मानना था कि इन कैथोलिक पुजारियों ने समग्र रूप से राष्ट्रीय राज्य के निर्माण में अवरोध उत्पन्न किए हैं।

फ्रांसीसी क्रांतिकारियों के लिए राष्ट्रवाद सही अर्थों में एक धर्म था। इन क्रान्तिकारियों का मानना था कि फ्रांस में ‘‘नयी व्यवस्था कायम होने से एक नया माहौल बनेगा और यह माहौल पूरी नव प्रजाति को अपने में समेट लेगा। मनुष्य और नागरिक के अधिकारों की उद्घोषणा की ‘‘राष्ट्रीय धर्मोपदेश‘‘ के रूप में चर्चा की गई और 1791 में फ्रांस का संविधान बनाते समय इस उद्घोषणा में गम्भीर आस्था प्रकट की गई।

जिन लोगों ने इस संविधान को मानने से इनकार किया और इसके सिद्धान्तों का विरोध किया उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया गया । इस संविधान में उद्घोषणा को प्रमुख स्थान दिया गया और यह पवित्र धार्मिक ग्रंथ बन गया।

हेज लिखता है कि इस काल में फ्रांस और यूरोप के अन्य देशों में राष्ट्रवाद के धर्म का उदय हुआ और यह लोगों की चेतना में रच बस गया । यह प्राचीन दर्शनों और रूपों में प्रकट हुआ और 19वीं और 20वीं शताब्दियों का प्रभावशाली धर्म सिद्ध हुआ।

Sbistudy

Recent Posts

four potential in hindi 4-potential electrodynamics चतुर्विम विभव किसे कहते हैं

चतुर्विम विभव (Four-Potential) हम जानते हैं कि एक निर्देश तंत्र में विद्युत क्षेत्र इसके सापेक्ष…

2 days ago

Relativistic Electrodynamics in hindi आपेक्षिकीय विद्युतगतिकी नोट्स क्या है परिभाषा

आपेक्षिकीय विद्युतगतिकी नोट्स क्या है परिभाषा Relativistic Electrodynamics in hindi ? अध्याय : आपेक्षिकीय विद्युतगतिकी…

4 days ago

pair production in hindi formula definition युग्म उत्पादन किसे कहते हैं परिभाषा सूत्र क्या है लिखिए

युग्म उत्पादन किसे कहते हैं परिभाषा सूत्र क्या है लिखिए pair production in hindi formula…

6 days ago

THRESHOLD REACTION ENERGY in hindi देहली अभिक्रिया ऊर्जा किसे कहते हैं सूत्र क्या है परिभाषा

देहली अभिक्रिया ऊर्जा किसे कहते हैं सूत्र क्या है परिभाषा THRESHOLD REACTION ENERGY in hindi…

6 days ago

elastic collision of two particles in hindi definition formula दो कणों की अप्रत्यास्थ टक्कर क्या है

दो कणों की अप्रत्यास्थ टक्कर क्या है elastic collision of two particles in hindi definition…

6 days ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now