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कथक के प्रमुख नृत्यकार है संरक्षक का नाम क्या है कथक के प्रमुख संरक्षण कौन थे Famous Kathak dancers in hindi
Famous Kathak dancers in hindi names कथक के प्रमुख नृत्यकार है संरक्षक का नाम क्या है कथक के प्रमुख संरक्षण कौन थे ?
कथक
ब्रजभूमि रासलीला से उत्पन्न, कथक उत्तर प्रदेश की एक परम्परागत नृत्य विधा है। कथक का नाम ‘कथिका‘ अर्थात कथावाचक शब्द से लिया गया है, जो भाव-भंगिमाओं तथा संगीत के साथ महाकाव्यों से ली गयी कविताओं की प्रस्तुति किया करते थे।
मुगल युग के दौरान, नृत्य की यह विधा पतित हो कर कामोत्तेजक शैली में प्रस्तुत की जाने लगी तथा इसकी एक विभक्त शाखा दरबार-नृत्य बन गयी। इस पर फारसी वेश-भूषा तथा नृत्य शैली का भी प्रभाव पड़ा। कथक की शास्त्रीय शैली को बीसवीं शताब्दी में लेडी लीला सोखे के द्वारा पुनर्जीवित किया गया।
प्रसिद्ध समर्थक : बिरजू महाराज, लच्छू महाराज, सितारा देवी, दमयंती जोशी, इत्यादि।
कथक कथक की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
ऽ कथक की एक महत्वपूर्ण विशेषता विभिन्न घरानों का विकास है:
ऽ लखनऊ: यह नवाब वाजिद अली शाह के शासन काल में अपने चरम पर पहुंचा। इसमें अभिव्यक्ति तथा लालित्य पर अधिक बल दिया जाता है।
ऽ जयपुर: भानुजी के द्वारा आरम्भ किये गए इस घराने में प्रवाह, गति, तथा लम्बे लयबद्ध पैटर्न पर बल दिया जाता है।
ऽ रायगढ़: यह राजा चक्रधर सिंह के संरक्षण में विकसित हुआ। यह आघातपूर्ण संगीत पर बल देने के कारण अद्वितीय है।
बनारसः यह जानकी प्रसाद के संरक्षण में विकसित हुआ। इसमें ‘फ्लोरवर्क‘ का अधिक प्रयोग जाता है तथा यह समरूपता पर विशेष बल देता है।
ऽ कथक नृत्य विधा को जटिल पद-चालनों तथा चक्करों के प्रयोग से पहचाना जाता है।
ऽ कथक प्रस्तुति के निम्न घटक होते हैं:
आनंद या परिचयात्मक प्रस्तुति जिसके माध्यम से नर्तक मंच पर प्रवेश करता है।
ठाट जिसमें हल्की किन्तु अलग-अलग प्रकार की हरकतें होती हैं।
‘तोडे‘ तथा ‘टुकडे़‘ तीव्र लय के लघु अंश होते हैं।
जुगलबंदी कथक प्रस्तुति का मुख्य आकर्षण है, जिसमें तबला वादक तथा नर्तक के बीच प्रतिस्पर्धात्मक खेल होता है।
पढंत एक विशिष्ट रूपक होता है, जिसमें नर्तक जटिल बोल का पाठ कर नृत्य के द्वारा उनका प्रदर्शन करता है।
तराना थिल्लन के समान ही होता है, जो समापन से पूर्व विशुद्ध लयात्मक संचालनों से मिल कर बनता है।
क्रमालय समापनकारी अंश होता है, जिसमें जटिल तथा तीव्र पद-चालन का समावेश होता है।
गत भाव बिना किसी संगीत या गायन के किया गया नृत्य है। इसका प्रयोग विभिन्न पौराणिक उपाख्यानों को रेखांकित करने के लिए होता है।
ऽ कथक की जुगलबंदी सामान्य तौर पर ध्रुपद संगीत के साथ होती है। मुगल काल में तराना, ठुमरी तथा गजल भी इसमें सम्मिलित किये गए थे।
ओडिसी
खांडागिरि-उदयगिरि की गुफाएं ओडिसी नृत्य के सबसे प्राचीन दृष्टांत प्रस्तुत करती हैं। नृत्य की इस विधा को यह नाम नाट्य शास्त्र में वर्णित ‘ओड्रा नृत्य‘ से प्राप्त हुआ है। प्रारम्भिक रूप से इसकी प्रस्तुति ‘महारिस‘ के द्वारा की जाती थी तथा इसे जैन राजा खारवेल का संरक्षण प्राप्त था।
इस क्षेत्र मे वैष्णववाद के उत्थान के पश्चात्, महरी प्रणाली प्रयोग में न रही। इसके बदले कम आयु के लड़कों की भर्ती की जाती तथा इस कला विधा को जारी रखने के लिए उन्हें महिला के रूप में विभूषित किया जाता था। उन्हें ‘गोतिपुआ‘ के नाम से जाना गया। इस कला के एक अन्य रूप ‘नर्ताला‘ की प्रस्तुति आज भी राज दरबारों में की जाती है।
बीसवीं ‘शताब्दी के मध्य में, चार्ल्स फैब्री तथा इंद्राणी रहमान के प्रयासों के कारण ओडिसी को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। ओडिसी की कुछ मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
ऽ भावों को अभिव्यक्त करने के लिए मुद्राओं तथा विन्यासों के प्रयोग में यह भरतनाट्यम से मिलती-जुलती है।
ऽ त्रिभंग मुद्रा, अर्थात् शरीर की तीन स्थानों से वक्रित मुद्रा, ओडिसी नृत्य विधा में अंतर्जात है।
ऽ लालित्य, विषयासक्ति तथा सौन्दर्य का निरूपण ओडिसी नृत्य की अनोखी विधा है। नर्तकियां अपनी शरीर से जटिल ज्यामितीय आकृतियों का निर्माण करती हैं। इसलिए, इसे चलायमान शिल्पाकृति के रूप में भी जाना जाता है।
ऽ ओडिसी नृत्य विधा के अवयवों में निम्नलिखित सम्मिलित हैंः
मंगलाचरण या आरम्भ।
बटु नृत्य जिसमें नर्तन सम्मिलित होता है।
पल्लवी जिसमें मुखाभिव्यक्तियां तथा गीत की प्रस्तुति सम्मिलित होती है।
थारिझाम में समापन से पूर्व पुनः विशुद्ध नृत्य का समावेश होता है।
समापन विषयक प्रदर्शन दो प्रकार के होते हैं। मोक्ष में मुक्ति का संकेत देती हुई आनंदपूर्ण गति सम्मिलित होती है। त्रिखंड मंजूर समापन का एक अन्य ढंग है, जिसमें प्रस्तुतिकर्ता देवताओं, दर्शकों तथा मंच से अनुमति प्राप्त करता है।
ऽ ओडिसी नृत्य में हिन्दुस्तानी संगीत की जुगलबंदी होती है।
ऽ यह नृत्य विधा जल तत्व की प्रतीक है।
प्रसिद्ध समर्थकः गुरु पंकज चरण दास, गुरु केलु चरण महापात्र, सोनल मानसिंह, शैरॉन लोवेन (संयुक्त राज्य अमेरिका मिर्ला बार्वी (अर्जेंटीना)।
मणिपुरी
मणिपुरी नृत्य विधा की उत्पत्ति का पौराणिक प्रमाण मणिपुर की घाटियों में स्थानीय गन्धर्वो के साथ शिव पार्वती के नृत्य में बताया जाता है। वैष्णववाद के अभ्युदय के साथ इस नृत्य विधा को ख्याति प्राप्त हुई।
आधुनिक काल में, रवीन्द्रनाथ टैगोर ने मणिपुरी को शान्ति निकेतन में प्रवेश दे कर इसे ख्याति अर्जित कराई।
मणिपुरी नृत्य मणिपुरी नृत्य की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
ऽ मणिपुरी नृत्य विषयाशक्ति नहीं बल्कि भक्ति पर बल देने के कारण अनोखा है।
ऽ यद्यपि, इस नृत्य में तांडव तथा लास्य दोनों हैं, अधिक बल लास्य पर ही दिया जाता है।
ऽ मणिपुरी नृत्य में मुद्राओं का सीमित प्रयोग होता है। इसमें मुख्यतः हाथ तथा घुटने के स्थानों की मंद तथा लालित्यपूर्ण गति पर बल दिया जाता है।
ऽ नागाभन्दा मुद्रा में शरीर को 8 की आकृति में बने वक्रों के माध्यम से संयोजित किया जाता है। यह मणिपुरी नृत्य विधा में एक महत्वपूर्ण मुद्रा है।
ऽ रास लीला मणिपुरी नृत्य प्रस्तुति का एक पुनरावर्ती केन्द्रीय भाव है।
ऽ ढोल – पुंग – ऐसी प्रस्तुति का एक जटिल तत्व है। करताल, ढोल इत्यादि की सहायता से इसके साथ संगीत दिया जाता है। जयदेव तथा चंडीदास की रचनाओं का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है।
प्रसिद्ध समर्थकः झावेरी बहनें – नयना, स्वर्णा, रंजना, तथा दर्शना, गुरु बिपिन सिंह, इत्यादि।
सत्रीय
सत्रीय नृत्य विधा को वैष्णव संत शंकरदेव के द्वारा 15वीं शताब्दी में प्रस्तुत किया गया। इस कला विधा का नाम सत्र के नाम से जाने जाने वाले वैष्णव मठों, जहां मुख्य रूप से यह प्रयोग में था, से लिया गया है।
सत्रीय नृत्य की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैंः
ऽ नृत्य की यह विधा असम में प्रचलित विभिन्न नृत्य रूपों, विशेषतः ओजापाली और देवदासी, का एक मिश्रण थी।
ऽ सत्रीय प्रस्तुतियों का मुख्य ध्यान नृत्य के भक्तिपूर्ण पहलू को उजागर करने तथा विष्णु की पौराणिक कहानियों को वर्णन करने पर केन्द्रित है।
ऽ इस नृत्य को सामान्य रूप से भोकोत्स के नाम से जाने जाने वाले पुरुष संन्यासियों द्वारा अपने रोज-मर्रा के अनुष्ठानिक उपकरण के रूप में समूह में प्रस्तुत किया जाता है।
ऽ खोल तथा बांसुरी इस नृत्य विधा में प्रयोग किये जाने वाले मुख्य वाद्य यंत्र हैं। गीत शंकरदेव द्वारा रचित होते हैं, जिन्हें बोर गीत कहा जाता है।
ऽ इसमें पद-चालन के साथ-साथ लयात्मक शब्दों और नृत्य मुद्राओं पर बहुत बल दिया जाता है। इसमें लास्य तथा तांडव दोनों ही तत्व समाहित होते हैं।
ऽ सत्रीय नृत्य विधा में हस्त मुद्राओं तथा पद-चालन के संबंध में कड़े नियम बनाए गए हैं।
ऽ आज के आधुनिक समय में, सत्रीय नृत्य दो पृथक् धाराओं, गायन-भयनार नाच तथा खरमानर नाच, में विकसित हो चुका है।
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