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अस्तित्ववाद का अर्थ और परिभाषा क्या है , अस्तित्ववादी दर्शन के जनक कौन है Existentialist Ethics

Existentialist Ethics in hindi अस्तित्ववाद का अर्थ और परिभाषा क्या है , अस्तित्ववादी दर्शन के जनक कौन है ? 

अस्तित्ववादी नैतिकता – जीन पॉल सात्र्र (Existentialist Ethics – Jean Paul Sartre)
20वीं शताब्दी के महान अस्तित्ववादी दार्शनिक सात्र्र वस्तुतः बौद्ध लोकप्रिय दार्शनिकों में से एक हैं। सात्र्र को अस्तित्ववादी दर्शन का जनक भी कहा जाता है।
अस्तित्ववाद को ज्यादातर एक दार्शनिक और सांस्कृतिक आन्दोलन के रूप में देखा जाता है। व्यक्तिगत दार्शनिक विचार तथा अनुभव से ही अस्तित्ववाद की शुरुआत मानी जाती है। अस्तित्ववादियों का मानना है कि पारम्परिक दर्शन ज्यादातर खोखले हैं और उनका मानव के व्यावहारिक अनुभव से कोई संबंध नहीं रहा है।
अस्तित्ववादी दर्शन की मुख्य उक्ति है- ‘अस्तित्व सार से पहले है।‘ इसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति पहले है बाद में उसका भाव। अर्थात् व्यक्ति एक ऐसी सत्ता है जिसमें स्पष्टतः ‘अस्तित्व‘ ‘भाव‘ से पहले है। मनुष्य पहले है, उसे आत्म-अस्तित्व की चेतना भी पहले होती है। इस चेतना के बाद ही उसमें ‘भाव‘ बनाने की चेतना आती है और तब वह ‘मानव-भाव‘ भी बना लेता है। मनुष्य का जीवन उसकी अस्तित्व की प्राथमिक अनुभूति के साथ शुरू होता है। उसकी आत्म संबंधी अवधारणा क्या होगी, उसमें किस प्रकार के भावों, भूमिकाओं के निर्माण की क्षमता आएगी यह सब उसी पर निर्भर करता है। उसकी सभी योजनाएं अब उसके इसी प्राथमिक अनुभूति के अनुरूप, उसी के द्वारा निर्मित होगी। यही उसकी मानवीय विशिष्टता एवं गरिमा है।

नैतिकता और प्रामाणिक जीवन (The Ethic of Authenticity)
प्रामाणिक जीवन का विचार अस्तित्ववाद के मूल में है। सात्र्र के मुताबिक स्वतंत्रता, स्वनिर्णय तथा दायित्व – ये तीन स्तम्भ हैं जिन पर प्रामाणिक जीवन आधारित होता है। यहां प्रामाणिक होने का अर्थ है मानव अस्तित्व को ‘सत‘ से संबंधित करना। अप्रामाणिक जीवन में यह संबंध टूटा हुआ होता है, किन्तु मनुष्य की यही विशिष्टता है कि केवल मनुष्य ही ‘सित‘ से संबंधित होने के विषय में सोच सकता है। अर्थात् मानव अस्तित्व की अनुभूति का अर्थ है स्वतंत्र होने की अनुभूति। स्वतंत्रता की इस अनुभूति में ही दायित्व का भाव अनिवार्यतः निहित होता है। इसी दायित्व में निर्णय लेने का दायित्व छिपा होता है। हर निर्णय (Choice) उसका अपना निर्णय होता है। अतः प्रामाणिक जीवन का अर्थ है अपनी स्वतंत्रता के अनुसार निर्णय लेकर कार्य करना।

चार्वाक नीतिशास्त्र अथवा लोकायत (Charvaka Ethics)
आस्तिक हो या नास्तिक भारत के सभी दार्शनिक सम्प्रदायों में चार्वाक का एक विशिष्ट स्थान है। चार्वाक दर्शन में अनीश्वरवाद, सुखवाद तथा भौतिकवाद की प्रधानता है। इसलिए चार्वाक दर्शन हमेशा से आलोचनाओं का केन्द्र रहा है। हालांकि चार्वाक की मौलिक रचनाएं अब उपलब्ध नहीं है। परन्तु अन्य दार्शनिक सम्प्रदायों में चार्वाक मत के उल्लेख से चार्वाक के नीतिशास्त्र की जानकारी प्राप्त हो जाती है। चार्वाक मत को लोकायत के नाम से भी जाना जाता है। चार्वाक दर्शन सिर्फ इहलौकिकता में विश्वास करता है।
भारतीय दर्शन में चार आदर्शों की चर्चा की गई है जिन्हें पुरुषार्थ कहा जाता है। ये चार पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। चार्वाक सिर्फ अनुभवजन्य जगत की सत्ता को स्वीकार करते हैं तथा शरीर को आत्मा कहते हैं। चार्वाक दर्शन में चेतन युक्त शरीर ही आत्मा है। इसलिए चार्वाक नीतिशास्त्र में धर्म तथा मोक्ष का निषेध किया गया है। ये कर्म को ही जीवन का परम लक्ष्य मानते हैं। चार्वाक दर्शन में अर्थ ही मुख्य साधन है क्योंकि इससे ऐन्द्रिक सुख की प्राप्ति होती है।
चार्वाक दर्शन के अनुसार मानव का अस्तित्व उसके शरीर तथा वर्तमान जीवन तक ही सीमित है। मृत्यु के साथ ही व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है क्योंकि मृत्यु के साथ ही व्यक्ति का शरीर समाप्त हो जाता है। अतः सुख प्राप्त करना ही जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिए तथा दुख का निषेध किया जाना चाहिए। वस्तुतः चार्वाक दर्शन निकृष्ट सुखवादी परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है। भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों में चार्वाक ही एकमात्र सम्प्रदाय है जो नैतिक सुखवाद में विश्वास करता है।

स्वार्थमूलक नैतिकता (Morality of Self Interest)
स्वहित के लिए नैतिकता को ही स्वार्थमूलक नैतिकता कहा जाता है। इसके दो रूप हैं-
ऽ मनोवैज्ञानिक नैतिकता
ऽ स्वार्थमूलक नैतिकता
मनोवैज्ञानिक नैतिकता के अनुसार मनुष्य स्वभाव से ही स्वार्थी है। अतः सुख की प्राप्ति ही वस्तुतः प्रत्येक मनुष्य के जीवन का ध्येय होता है। अंग्रेज दार्शनिक थॉमस हॉब्स (1588-1679) इस मत के समर्थक हैं।
नैतिक सुखवाद के अनुसार सुख की प्राप्ति ही मनुष्य के जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। हालांकि किसी व्यक्ति का कर्म स्वयं उसके सुख के लिए या फिर दूसरों के सुख के लिए भी हो सकता है। परन्तु व्यक्ति को स्वहित के लिए कर्म करने चाहिए।

थॉमस हॉब्स का मनोवैज्ञानिक स्वार्थवाद
थॉमस हॉब्स का नैतिक दर्शन इस विचार पर आधारित है कि हमारा कर्म हमारी वर्तमान परिस्थिति के अनुसार निर्धारित होना चाहिए। अर्थात् हमारी परिस्थितियों के अनुसार ही हमारे कर्म होने चाहिए। हॉब्स के विचार में जहां राजनीतिक प्राधिकार उपस्थित हो वहां हमारा कर्म यह है कि हम अपने कर्तव्य का पालन करें।
हॉब्स का मानना है कि समाज का निर्माण स्वहित के लिए या फिर असुरक्षा की भावना के कारण ही हुआ है न कि अपने साथ रह रहे किसी व्यक्ति के प्रति कल्याण की भावना से। इस तरह हॉब्स व्यक्ति के स्वहित तथा स्वकल्याण की इच्छा का समर्थक है। हॉब्स के विचार में स्वहित एवं स्वयं के सुख में किया गया प्रयास गलत नहीं है, अनैतिक नहीं है। हॉब्स का विचार है कि व्यक्ति आदिम काल में सिर्फ अपनी सुरक्षा और सुख के लिए सोचता था तथा व्यक्ति का यह प्राकृतिक अधिकार था कि इस लक्ष्य को लेकर ही अपना जीवन संचालित करे।
हॉब्स कानून व प्राधिकार को नैतिकता का आधार मानता है। हॉब्स का यह दावा है कि नैतिकता के लिए समाज या राज्य जैसी कोई प्राधिकारयुक्त सत्ता होनी चाहिए। यह प्राधिकार किसी सार्वभौम इकाई में अंतर्निहित होनी चाहिए। नैतिकता सार्वभौम सत्ता द्वारा बनाए गए नियमों व कानूनों पर आधारित होनी चाहिए। नैतिक आचरण सिर्फ सरकार के द्वारा ही अमल कराया जा सकता है। सरकार ही उचित या अनुचित के लिए पुरस्कार अथवा दंड दे सकती है। बिना किसी नागरिक प्राधिकार के किसी भी नैतिकता का पालन करना मूर्खता ही नहीं हानिकारक भी है।

एन रैंड का नैतिक स्वार्थवाद (Ayn Rend – Ethical Egoism)
एन रैंड (1905 – 1982) 20वीं शताब्दी की अमेरिकी महिला विचारक हैं और नैतिक स्वार्थवाद की प्रबल समर्थक हैं। उन्होंने स्वार्थवाद की पुरजोर वकालत की है तथा बौद्धिक स्वार्थवाद की एक सद्गुण के रूप में स्वीकार किया हैं। रैंड का स्वहितवाद बौद्धिक विकल्प के महत्व पर बल देता है। इनके नीतिशास्त्र में व्यक्तिगत गरिमा, स्वनिर्भरता, व्यक्तिगत विश्वास तथा श्रम की गरिमा को महत्वपूर्ण नैतिक मूल्यों के रूप में स्वीकार किया गया है।
रैंड का यह मानना है कि हमें आवश्यक रूप से अपने लक्ष्य का चुनाव करना चाहिए नहीं तो हमारा अंत हो जाएगा। रैंड के अनुसार व्यक्ति मात्र भोजन की इच्छा नहीं करता बल्कि उसे कुछ उत्पादक कार्य भी करने पड़ते हैं। अतः इसके लिए उसे कुछ कार्यों का चुनाव करना पड़ता है। उसे सोचना पड़ता है तथा ज्ञानार्जन करना पड़ता है। उसे ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है क्योंकि यह उसके जीने के लिए
आवश्यक है। अतः स्वार्थी होना एक गुण है। रैंड का यह भी कहना है कि स्वार्थी होने का अर्थ है बौद्धिक रूप से तय किए अपने स्वार्थ (स्वहित) के लिए प्रयास करना। अतः रैंड के विचार में स्वहित के लिए सोचना कोई बुरी बात नहीं है।
रैंड परार्थमूलक नैतिकता की विरोधी हैं। परोपकार का अर्थ, रैंड के विचार में दूसरों के हित में स्वहित का त्याग है। परोपकार तभी संभव है जब ऐसा करने की इच्छा हो। परन्तु परोपकार का मतलब है जानवरों के स्थान पर मानव की बलि देना। सभी प्रकार के तानाशाह परार्थमूलक नैतिकता की वकालत करते हैं तथा इसी बहाने मानवाधिकार तथा सोचने एवं बोलने की स्वतंत्रता का हनन करते हैं।
दूसरों की मदद करना रैंड की नजर में गलत नहीं है। परन्तु दूसरों की मदद करना व्यक्ति का नैतिक कत्र्तव्य नहीं है। व्यक्ति समाज-सुधार का कार्य कर सकता है परन्तु ऐसा करने के लिए वह नैतिक रूप से बाध्य नहीं है। एक व्यक्ति दूसरे की मदद कर सकता है, समाज सुधार का कार्य कर सकता है परन्तु यह उसका अपना निर्णय होना चाहिए।

नारीवादी नैतिकता – कैरोल गिलीगन (Feminist Ethics : Carol Gilligen)
नारीवादी नैतिकता पारंपरिक नैतिक मान्यताओं में ही सुधार का एक प्रयास है। इस प्रयास के द्वारा नारीवाद में विश्वास करने वाले चिन्तकों ने पारंपरिक नैतिक नियमों पर पुनर्विचार कर उसे एक नया रूप देने की कोशिश की है। नारीवादी नैतिकता के अन्तर्गत ‘न्याय‘ तथा ‘प्रेम‘ जैसी मूल्यों को अच्छाई,
उपयोगिता जैसी अवधारणों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है। कैरोल गिलीगन तथा अन्य नारीवादियों द्वारा महिलाओं के शीलगुण, उनके व्यवहार तथा स्नेह रखने की प्रवृत्तियों पर विशेष बल दिया गया है।

अनुरक्षण और न्याय संबंधी नैतिकता (Ethic of Care – Ethic of Justice)
अनुरक्षण और न्याय संबंधी नैतिकता में अंतर स्पष्ट करने का श्रेय कैरोल गिलीगन को है। कैरोल के अनुसार, न्याय संबंधी नैतिकता के अन्तर्गत व्यक्ति तभी स्वयं को दोषी मानते हैं जब वे कुछ अनुचित करते हैं। परन्तु अनुरक्षण संबंधी नैतिकता में महिला किसी कार्य के मूल्यांकन अथवा उसके औचित्य या अनौचित्य के बारे में विचार करने से भी कतराती हैं। अतः निर्णय लेने के प्रति झिझक ही यह साबित करता है कि महिलाओं में दूसरों के लिए परवाह और अनुरक्षण जैसी नैतिकता होती है। अतः महिलाएं स्वयं को न सिर्फ मानवीय संबंधों के अर्थ में परिभाषित करती हैं बल्कि दूसरों के अनुरक्षण के संदर्भ में भी स्वयं को परिभाषित करती है। इसके परिणामस्वरूप महिलाओं द्वारा नैतिक तर्कणा बिल्कुल अलग प्रकार की होती है।
कैरोल पुनः अनुरक्षण एवं न्याय संबंधी नैतिक मान्यताओं में अंतर स्पष्ट करते हुए कहती हैं कि इन दोनों ही प्रकार की नैतिक मान्यताओं (नैतिकता) में संबंधों की मात्रा व गुणवत्ता का काफी महत्व है। व्यक्तिगत अधिकार, कानून के समक्ष समानता आदि का लक्ष्य बिना किसी व्यक्तिगत संबंध के प्राप्त किया जा सकता है। न्याय का किसी व्यक्ति विशेष से संबंध नहीं होता। परन्तु दूसरों के प्रति संवेदना, जवाबदेही, उत्तरदायित्व, त्याग तथा शांति जैसे नैतिक मूल्यों के लिए अन्तर्वैयक्तिक संबंध का होना अपरिहार्य है। वस्तुतः दूसरों की परवाह अथवा अनुरक्षण के लिए मानवीय संबंध जरूरी है।

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