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चुनाव प्रक्रिया का वर्णन करें | भारत में चुनाव प्रक्रिया क्या है किसे कहते है के बारे में बताइए election procedure in india in hindi
election procedure in india in hindi चुनाव प्रक्रिया का वर्णन करें | भारत में चुनाव प्रक्रिया क्या है किसे कहते है विभिन्न चरण के बारे में बताइए ?
चुनाव प्रक्रिया
संपूर्ण निर्वाचन प्रक्रिया समाप्त होने में कुछ महीनों का समय लेती है । यद्यपि चुनाव कराने के लिए समय-सारिणी निर्वाचन आयोग द्वारा काफी पहले ही घोषित कर दी जाती है, वास्तविक प्रक्रिया भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा किसी निर्वाचन क्षेत्र को अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए कहते हुए घोषित की जाती है। इसी को विज्ञप्ति या अधिसूचना कहा जाता है।
दूसरा चरण चुनाव लड़ने के इच्छुकों द्वारा नामांकन भरे जाने का है। पहले, सभी प्रत्याशियों को अपने नामांकन-पत्र भरने के लिए दस दिन का समय दिया जाता था। लेकिन 40वें संशोधन अधिनियम, 1961 के साथ ही, नामांकन भरे जाने के लिए दिनों की संख्या घटकर सात हो गई है। अब, विज्ञप्ति जारी किए जाने का सातवाँ दिन नामांकन-पत्र भरने का अन्तिम दिन होता है। सातवाँ दिवस अवकाश होने की स्थिति में उसके तुरंत बाद का दिवस ही नामांकन-पत्र भरने का अंतिम दिवस माना जाता है।
तीसरा चरण नामांकनों की जाँच-पड़तालों का है। पहले, नामांकनों की जाँच के लिए नामांकन के बाद दूसरा दिन निर्धारित था, परन्तु 47वें संशोधन अधिनियम, 1966 के साथ ही, नामांकन के तुरंत बाद का दिन नामांकनों की जाँच के लिए तय हो गया है।
अगला चरण है प्रत्याशियों का नाम वापस लेना, जो पहले नामांकनों के जाँच के बाद तीसरे दिन के लिए तय था, परन्तु बाद में 1966 में संशोधित कर दिया गया। वर्तमान में, जाँच के बाद का दूसरा दिन ही प्रत्याशियों के नाम वापस लेने की अन्तिम तिथि होता है। उस दिन अवकाश होने की स्थिति में नियत दिवस के तुरंत बाद का दिन ही नाम वापस देने का अंतिम दिन होता है।
मतदान होने से पूर्व चुनाव का अगला चरण चुनाव-प्रचार अभियान का है। यही वह समय है जब राजनीतिक दल अपने प्रत्याशी और उन तर्कों को सामने रखते हैं जिनके माध्यम से वे अपने प्रत्याशियों व दलों के लिए मतदान हेतु लोगों को राजी करते हैं। पहले प्रचार-अभियान अवधि तीन सप्ताह की होती थी, परन्तु 1996 से, प्रचार-अभियान अवधि घटाकर मात्र दो सप्ताह कर दी गई है। अब औपचारिक प्रचार-अभियान निर्वाचन आयोग द्वारा अन्तिम सूची जारी किए जाने की तिथि से दो सप्ताह तक चलता है और मतदान होने से 48 घण्टे पूर्व औपचारिक रूप से समाप्त हो जाता है। प्रचार-अभियान अवधि में, राजनीतिक दलों और प्रतियोगी प्रत्याशियों से आशा की जाती है कि वे राजनीतिक दलों के बीच एक सहमति के आधार पर भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा विकसित की गई एक आदर्श आचार-संहिता का पालन करें। यह आदर्श संहिता विस्तृत दिशा-निर्देश देता है कि प्रचार-अभियान के दौरान राजनीतिक दलों और प्रतियोगी प्रत्याशियों को स्वयं किस प्रकार आचरण करना चाहिए। यह स्वस्थ परम्परा पर चुनाव-प्रचार अभियान को कायम रखने, राजनीतिक दलों व उनके समर्थकों के बीच झगड़ों व विवादों से बचने और अभियान के दौरान तथा परिणाम घोषित किए जाने तक शान्ति और व्यवस्था सुनिश्चित करने से अभिप्रेत है। यह अभियान निर्वाचन-क्षेत्र में नारे लगाने, पर्चे व इश्तेहार बाँटने, रैलियाँ व सभाएँ करने के रूप में चलाया जाता है। इस अवधि के दौरान, प्रत्याशी अपने पक्ष में मत दिए जाने हेतु अधिक से अधिक मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए अपने निर्वाचन-क्षेत्र का दौरा करने का प्रयास करते हैं।
हाल के दिनों में, निर्वाचन आयोग ने सभी मान्यताप्राप्त राष्ट्रीय व प्रान्तीय दलों को अपने प्रचार-अभियान हेतु राज्य-स्वामित्व वाले इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों, आकाशवाणी (ए.आई.आर.) तथा दूरदर्शन पर मुफ्त प्रसारण समय की अनुमति दे दी है। कुल मुफ्त समय निर्वाचन आयोग द्वारा तय किया जाता है, जो कि सभी राजनीतिक दलों को इस बात को ध्यान में रखते हुए आबंटित किया जाता है कि राज्य में पिछले चुनाव के दौरान उनका प्रदर्शन कैसा था।
यद्यपि निर्वाचन आयोग सभी मान्यताप्राप्त राष्ट्रीय व प्रांतीय दलों को उनके प्रचार-अभियान के लिए एक सीमित समय हेतु मुफ्त सुविधा प्रदान करता है, फिर भी इसका अर्थ यह नहीं है कि राजनीतिक दल अपने चुनाव-प्रचार अभियान पर कुछ भी खर्च नहीं करते। प्रतियोगी राजनीतिक दल व प्रत्याशी अपने चुनाव प्रचार अभियान पर विशाल धनराशि व्यय करते हैं, परन्तु इसकी वैधानिक सीमा निर्धारित है कि अपने चुनाव-प्रचार अभियान पर एक प्रत्याशी कितना खर्च कर सकता है। अधिकांश लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के लिए व्यय-अभियान के लिए वैध सीमा पंद्रह लाख रुपये तय की गई है यद्यपि कुछ राज्यों में यह सीमा छह लाख रुपये की है। विधानसभा चुनाव हेतु व्यय-अभियान के लिए वैध सीमा छह लाख रुपये तय की गई और कुछ राज्यों में यह तीन लाख रुपये निर्धारित की गई है।
निर्वाचन का अन्तिम चरण है मतदान । मतदान के संबंध में, पहले एक ही दिन में मतदान व्यवहार में था, परन्तु नवीन प्रथा चरणबद्ध मतदान हेतु चल रही है जिसमें मतदान वाले दो दिनों के बीच कुछेक दिनों का फासला देकर एक दिन से अधिक दिन मतदान होता है। इससे उन सुरक्षा बलों को एक-स्थान से दूसरे स्थान पर जाने में सुविधा रहती है, जो मतदान के दौरान कानून और व्यवस्था बनाने रखने में लगाये जाते हैं।
प्रत्याशियों की बढ़ती संख्या
यह गौरतलब है कि गत पचास वर्षों के दौरान भारत में लोकसभा चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई है। प्रथम लोकसभा चुनाव के दौरान मात्र 1874 प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा, जो संख्या 1996 के लोकसभा चुनावों में बढ़कर 13,952 हो गई। लेकिन इस दौरान जमानत जमा आदि बढ़ने जैसे चुनाव कानून में कुछ परिवर्तनों के कारण, गत दो लोकसभा चुनावों में प्रत्याशियों की संख्या में एक नियमित ह्रास हुआ है। 1998 में प्रतियोगी प्रत्याशियों की कुल संख्या 4753 भी, जो 1999 के लोकसभा चुनावों में 4648 तक गिर गई।
लोकसभा चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों की औसत संख्या मात्र 3.8 प्रत्याशी प्रति निर्वाचन-क्षेत्र थी, जो वर्ष 1977 तक अधिक नहीं बढ़ी, परन्तु 25.7 प्रत्याशी प्रति निर्वाचन-क्षेत्र तक चली गई। 1999 के लोकसभा चुनावों में घटकर यह 8.5 प्रत्याशी प्रति लोकसभा निर्वाचन-क्षेत्र ही रह गई।
आलेख 1: लोकसभा चुनाव, 1952-1994 में प्रति निर्वाचन-क्षेत्र प्रत्याशियों की औसत संख्या
मतदान कैसे होता है?
हमारे भारत में गुप्त मत-पत्र वाली व्यवस्था लागू है, जिसका अर्थ है सभी मतदाताओं का वोट गुप्त रखा जाता है। मतदान का पारम्परिक प्रतिमान मत-पत्रों व मत-पेटियों का प्रयोग रहा है परन्तु आधुनिक युग में इसका स्थान इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ई.वी.एम.) के प्रयोग ने ले लिया है।
यह निर्वाचन आयोग का कर्तव्य है कि वे सभी आवश्यक प्रबंध करे जिससे मतदाता अपने बोट डाल सकें। निर्वाचन आयोग यह सुनिश्चित करने का प्रयास करता है कि कोई मतदान केन्द्र किसी मतदाता से दो किलोमीटर से अधिक दूरी पर न हो और एक मतदान केन्द्र पर 1200 से अधिक पंजीकृत मतदाता न हों । मतदान के दिन सभी मतदान केन्द्रों से कम से कम आठ घण्टे खुला रहने की अपेक्षा की जाती है। जब मतदाता वोट डालने जाते हैं, मतदाता सूची में उसके नाम की प्रविष्टि की जाँच की जाती है और तब एक मत-पत्र और एक रबड़ को मोहर उसे दे दी जाती है। मतदाताओं को उस प्रत्याशी के चुनाव-चिह्न पर मोहर लगानी होती है। जिसे वह वोट देना चाहता है. फिर मत-पत्र को मोड़ना और तब मत-पत्र को मत-पेटी में डालना होता है। एक बार जब यह प्रक्रिया पूरी हो जाती है, मतदाता का वोट डल जाता है। आधुनिक युग में, ई.एम.वी. के पदार्पण के साथ, मतदाता को उस प्रत्याशी के चुनाव-चिह्न का बटन दबाना होता है जिसे वह वोट देना चाहता है और उसका वोट दर्ज हो जाता है।
भारत में चुनाव प्रणाली
लोकसभा तथा विधानसभा के चुनाव बहुमत अथवा ‘फर्स्ट-पास्ट-दि-पोस्ट‘ निर्वाचन प्रणाली का प्रयोग कर कराए जाते हैं। देश को विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में बाँटा जाता है, जिन्हें निर्वाचन क्षेत्र कहते हैं । विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव लड़ते हैं, तथा चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र प्रत्याशियों पर कोई प्रतिबंध नहीं है। चुनाव के दौरान विभिन्न राजनीतिक दल अपने प्रत्याशी खड़े करते हैं और अपने प्रतिनिधियों को चुनने के लिए, अपनी पसंद के एक प्रत्याशी के लिए प्रत्येक व्यक्ति एक वोट डाल सकता है। प्रत्याशी जो अधिकतम मत संख्या प्राप्त कर लेता है, चुनाव जीत जाता है और निर्वाचित हो जाता है। इसलिए चुनाव ही वह साधन है जिसके द्वारा लोग अपने प्रतिनिधि चुनते हैं।
भारतीय चुनावों में मतदान प्रतिशत
यद्यपि सभी अहर्त मतदाताओं, किसी विशेष निर्दिष्ट निर्वाचन-क्षेत्र में जिनके नाम मतदाता सूचियों में प्रकाशित हैं, से वोट डाले जाने के समय मतदान की अपेक्षा की जाती है, जो कि व्यवहार्यतः होता नहीं है। फलतः पंजीकृत मतदाताओं की बड़ी संख्या ऐसे मतदाताओं की होती है जो भिन्न-भिन्न कारणों से वोट नहीं देते हैं। उनकी प्रतिशतता जो वोट डालते हैं अर्थात् मतदान प्रतिशतता, लोकप्रिय रूप से “मतदाताओं की उपस्थिति‘‘ कहलाती है। यदि हम अपने देश में गत तेरह लोकसभा चुनावों के आँकड़ों को देखें तो पाएंगे कि शुरुआती दिनों के दौरान कराए गए चुनावों के मुकाबले अस्सी व नब्बे के दशकों में मतदान प्रतिशत बहुत बढ़ा है। निम्नतम मतदान प्रतिशत मात्र 45.5 प्रतिशत, वर्ष 1952 में कराए गए लोकसभा चुनावों के दौरान था, तथा अधिकतम मतदान प्रतिशत, 64.1 प्रतिशत, 1984 के उस लोकसभा चुनाव में रहा जो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की हत्या के बाद कराया गया। वर्ष 1998 व 1999 में कराये गए गत दो लोकसभा चुनावों के दौरान मतदान प्रतिशत क्रमशः 62 व 60 प्रतिशत के रूप में खासा अच्छा रहा है। राज्य विधानसभा चुनावों में मतदान प्रतिशत में कोई एकरूप रुझान नहीं है। जबकि कुछ राज्य 90 प्रतिशत तक मतदान प्रतिशत दर्ज करते हैं, हमारे कुछ विधानसभा चुनावों में मतदान प्रतिशत मात्र 45 प्रतिशत के आसपास ही रहती है।
सामान्यतया छोटे राज्यों, और विशेषतौर पर उत्तर-पूर्वी पहाड़ी राज्यों ने अन्य राज्यों की अपेक्षा अधिक मतदान प्रतिशत दर्शाया है।
आलेख 2: लोकसभा अनाव, 1952-1919 में
मतदान समाप्त हो जाने के बाद, प्रत्येक निर्वाचन-क्षेत्र के हिसाब से सभी मतों की गिनती की जाती है। पहले, जब सिर्फ मत-पत्र ही प्रयोग होता था, सभी मतों की गिनती हाथ से ही होती थी और एक लोकसभा निर्वाचन-क्षेत्र हेतु लगभग पाँच लाख मतों की गिनती में दो-चार दिन लग जाते थे, परन्तु इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के प्रवेश के साथ, गणना कार्य अधिक सरल और द्रुत हो गया है।
मतों की गणना में, वह जो अधिकतम संख्या में मत प्राप्त करता है, जीत जाता है यथा बहुमत प्रणाली, जो हमारे देश ने अंगीकार की है। लोकसभा अथवा विधानसभा के लिए चुनाव जीतने के लिए बहुमत वांछित नहीं है। ऐसे भी कुछ प्रत्याशी हैं जो चुनाव मतदान 50 प्रतिशत से भी अधिक वैध मतों से जीतते हैं।
बोध प्रश्न 2
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।.
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
1) उन चरणों पर चर्चा करें जिनसे चुनाव प्रक्रिया गुजरती है।
2) मतदान के पारम्परिक प्रतिमान – मत-पत्र व मत-पेटी का प्रयोग, का क्या विकल्प है?
बोध प्रश्न 2 उत्तर
1) चुनाव प्रकिया क्रमशः इन चरणों से गुजरती है: विज्ञप्ति या अधिसूचना जारी करना, नामांकन का भरा जाना, नामांकनों की जाँच, प्रत्याशियों का नाम वापस लेना, चुनाव-अभियान और मतदान।
2) यह है – इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ई.वी.एम.)।
चुनाव
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
भारत में चुनाव प्रणाली
कौन मतदान कर सकता है?
कौन चुनाव लड़ सकता है?
भारत में चुनावों का इतिहास
कौन चुनाव संचालित करता है?
चुनाव प्रक्रिया
प्रत्याशियों की बढ़ती संख्या
मतदान कैसे होता है?
भारतीय चुनावों में मतदान प्रतिशत
कौन सरकार बनाता है?
चुनाव और सामाजिक परिवर्तन
सारांश
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर
उद्देश्य
इस इकाई को पढ़ने के बाद आप इस योग्य होंगे कि समझ सकें:
ऽ भारत में चुनाव का अभिप्राय और लोकतंत्र के साथ उसका सम्बन्ध,
ऽ भारत में चुनाव प्रक्रिया,
ऽ भारत में चुनाव प्रक्रिया के प्रवाही और बाधक तत्त्व,
ऽ चुनाव में जाति, वर्ग, धर्म आदि की भूमिका,
ऽ चुनावों में विचारार्थ विषय, और
ऽ बदलती सामाजिक रूपरेखाएँ और चुनाव।
प्रस्तावना
किसी लोकतंत्र में चुनाव लोगों की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने का सर्वाधिक सशक्त माध्यम हैं। ये देश के प्रत्येक व्यस्क नागरिक को सरकार बनाने की प्रक्रिया में भाग लेने में समर्थ बनाते हैं। भारत में वे जो 18 वर्ष की आयु के हो चुके हैं, वोट देने और अपने प्रतिनिधियों को चुनने के हकदार हैं। हमारा संविधान लागू होने से पूर्व यह संभव नहीं था। पहले हमारे देश में सरकार बनाने में समाज के केवल सुविधा प्राप्त वर्गों की भूमिका होती थी। सभी सामाजिक समूहों – जातियों, पंथों, जनजातियों, धर्मो और लिंगों, से सम्बद्ध सभी वयस्क नागरिकों को मताधिकार के अनुदान ने उन्हें अपने प्रतिनिधि चुनने, और शासन प्रक्रिया में सीधे भाग लेने में समर्थ बनाया है। समाज के सभी वर्गों ने प्रत्याशियों के रूप अथवा मतदाताओं के रूप में प्रतिद्वंद्विता कर चुनावों में भाग लिया है। अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों हेतु विभिन्न विधायी निकायों और महिलाओं (33ः) हेतु 73वें व 74वें संविधान संशोधनों के अनुच्छेद का पालन तथा स्थानीय शासन की संस्थाओं में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सीटों के आरक्षण ने भारत में लोकतंत्र को और गूढ बनाया है। लोकसभा और राज्यसभा की शक्ति के बारे में आप पहले ही इकाई 10 में पढ़ चुके हैं।
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