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Edict of Nantes in hindi definition world history , नेंटीस के आदेश नैंटिस के धर्मादेश क्या थे
पढ़िए Edict of Nantes in hindi definition world history , नेंटीस के आदेश नैंटिस के धर्मादेश क्या थे ?
प्रश्न: ‘नेंटीस के आदेश‘ क्या थी? क्या कारण था कि लूथरवाद जर्मनी तक ही सीमित रहा जबकि काल्विनवाद संपूर्ण यूरोप में फैल गयी?
उत्तर: काल्विन व पोप के अनयायियों के बीच लंबे समय तक संघर्ष चला। 1598 ई. में फ्रांसिसी सम्राट हेनरी-प्ट ने एक आदेश जारी कर ह्यूगोेनोटस को स्वतंत्र धर्म के रूप में मान्यता दी। इस आदेश को ‘नेंटीस के आदेश‘ (Edicts of Nantes) जाता है। जर्मनी, नीदरलैण्ड, स्कॉटलैण्ड और स्विट्जरलैण्ड में काल्विनवाद का सर्वाधिक प्रसार हुआ। काल्विन ।
बाईबिल का फ्रेंच भाषा में अनुवाद किया। वेस्टफेलिया की संधि (1648) द्वारा काल्विनवाद को मान्यता प्रदान की गयी। वेस्टफेलिया की संधि (1648 ई.) से तीस वर्षीय युद्ध का अन्त हुआ। सत्रहवीं शताब्दी आते-आते अपने कट्टर अनुशासन के कारण काल्विनवाद सारे यूरोप में फैल गया, जबकि लूथरवाद मुख्यतया जर्मनी का राष्ट्रीय धर्म ही रहा। फ्रांसीसी चर्च को गैलिकन चर्च कहा जाता है। प्रोटेस्टेन्ट धर्म का प्रसार सबसे कम फ्रांस और स्पेन में ही रहा।
कला जगत के शिलास्तम्भ
शारदाचरण उकील उन अग्रणी आचार्य कलाकारों में से हैं जिन्होंने समय के प्रवाह को पहचानकर अपनी रंग एवं तूलिका द्वारा तात्कालिक कला में विविधता का समावेश किया। भाव-व्यंजना की दृष्टि से इनकी कला अंतरंग गहराई और मार्मिक गूढ़ता लिए है, अथवा कहें कि लौकिक अभिव्यक्ति की लघुता के परे वह असीम की उपलब्धि अर्थात् संसृति के सनातन सौंदर्य की दिग्दर्शक है जिसमें कलाकार की तटस्थ एवं निस्संग साधना के उपकरण द्रष्टव्य हैं। ‘संदेश’ चित्र में एक गोपिका कृष्ण की बांसुरी को उत्सुक नेत्रों से निहार रही है और कृष्ण ऊपर लटके हुए इंद्रधनुषी बादलों में छिपे बैठे हैं। एक दूसरे चित्र में विरहिणी सीता की दयनीय मुद्रा का बड़ा ही भव्य चित्रण हुआ है। शारदा उकील की कला की विस्तृत भावभूमि आध्यात्मिक है। इनके विचार में ‘चित्र ऐसा होना चाहिए कि सारी मानवता को अभिभूत कर ले। किसी एक ही व्यक्ति के लिए अथवा एकांगी दृष्टिकोण को लेकर आंका गया चित्र सर्वग्राही नहीं हो सकता। चित्र आदर्श होना चाहिए।’ उकील अवनींद्रनाथ ठाकुर के प्रमुख शिष्यों में से थे। पाश्चात्य कला मर्मज्ञ रोयेन्सटाइन ने इनके सम्बंध में लिखा था, ‘उकील की कृतियों की भावुकता रवींद्रनाथ ठाकुर के गीतिकाव्य जैसी है, उसकी अभिजात और कलागत विचारमग्नता प्रेक्षक को भारतीय आत्मा में झांकने का ऐसा ही सुअवसर देती है जैसे कि भारतीय संगीत।’ उकील ने दिल्ली में ‘शारदा कला केंद्र’ की स्थापना कर एक बहुत बड़ा कार्य सम्पन्न किया। इस संस्था ने कितने ही सुप्रसिद्ध कलाकारों को जन्म दिया।
प्रमोद कुमार चटर्जी की प्रारंभिक कला-चेतना हिमाच्छादित पर्वतों की उज्जवल गरिमा में जाग्रत हुई। एक घरेलू अप्रिय प्रसंग ने इन्हें तरुणावस्था में ही घर छोड़ने को बाध्य किया था और जीवन-संघर्षों से श्रांत-क्लांत वे हिमालय के प्रशांत प्रदेश की ओर चल पड़े थे। कालांतर में कितने ही पवित्र स्थलों का उन्होंने निरीक्षण किया, कैलाश और मानसरोवर की अलभ्य सुषमा के दर्शन किये, तिब्बत और वहां की कला को निरखा-परखा। इस खानाबदोश शिल्पी के तूलिका-स्पर्श ने उस सजीव कला को मूर्तिमान किया, जिसमें निराकार की अनुभूति और गहरा आध्यात्मिक चिंतन निहित था। तिब्बत में भ्रमण करते हुए इन्हें एकांत साधना का सुअवसर मिला था। भ्रमणशील जीवन में जो संस्कार भीतर रम गये थे, वे नये स्वर में फूट पड़े। पुरानी स्मृतियों ने इनमें एक नई प्रेरणा जगा दी। धार्मिक चित्रों के अतिरिक्त प्रमोद कुमार चटर्जी ने योद्धाओं और ऐतिहासिक महापुरुषों के चित्र भी अंकित किये। ‘भगीरथ और गंगा’, ‘नर्तकी आम्रपाली’, ‘श्यामांग शारदा’ और ‘अश्विनीकुमार’ आदि चित्र आध्यात्मिक भाव से प्रेरित हैं।
वीरेश्वर सेन की प्राथमिक कलाकृतियों में जलरंगों का प्रयोग हुआ है। प्रारंभ मंे इन्हें वृक्षों और पर्वतों के चित्रांकन में रुचि थी। ‘शृंगार’ चित्र में एक मुड़े-तुड़े वृक्ष और एक अस्पष्ट-से धुंधले पर्वत की ओट में सुंदर बंगाली महिला चैकी पर बैठी हुई हाथ में दर्पण लेकर एक परिचारिका द्वारा केशों की शृंगार-सज्जा में संलग्न है। ‘दमयंती’ में शाल वृक्ष की मोटी शाखा की छाया तले मिट्टी के टीले पर नल की राजमहिषी दमयंती जीर्ण वस्त्रों में अपना लावण्य समेटे बैठी है। 1932 में इन्होंने हिमालय की कुल्लू घाटी में स्थित विश्वविश्रुत कलाकार निकोलाई रोरिक के स्थान पर जाकर उनसे भेंट की, तत्पश्चात् वे कश्मीर गए और वहां के प्राकृतिक सौंदर्य को निरखा-परखा। स्वप्न और सत्य के सूक्ष्म बिंदु तक पहुंचने के लिए उन्होंने बिम्ब-विधान की प्रक्रिया को प्रायः हल्के और छायादार रंगों में आंका। शुरू में उनकी कला-प्रतिभा बंगाल-स्कूल की छाया तले पनपी थी। उस समय उन्होंने ‘दूधवाली’, ‘उषा’, ‘स्नान के बाद’ आदि चित्रों में नारियों के सुंदर चित्र अंकित किये थे।
अपने वृहदाकार चित्रों में गतिमय स्फूर्ति लाने के लिए उन्होंने पेस्टल में चित्रांकन अधिक पसंद किया। ‘स्वर्ण पर्वत’ में नील वर्ण पहाड़ियों की सुगहरी चोटियां और देवदार के काले वृक्षों के बीच इठलाती, बलखाती जलधारा, ‘जीर्ण आवरण’ में पर्वत से नीचे ढुलकता हुआ बर्फ और ‘सोते सिंह’ में भूरा, गुलाबी और नीला रंग अत्यंत कौशल से प्रयुक्त हुआ है। ‘तीर्थयात्री’ चित्र में जलरंगों में बद्रीनाथ के दर्शनों के इच्छुक यात्रियों को दुग्रम पथ पर चढ़ते हुए दिखाया गया है और ‘नीली पहाड़ियों में सुगहरे, भूरे, हरे और नीले रंगों का अद्भुत समन्वय है।’
वीरेश्वर सेन की कला के सौंदर्य-पक्ष में प्रकृति का मोहक आकर्षण, अनुभूति की गहनता और सृजनात्मक निष्ठा है। बंगाल के स्कूल की प्रचलित कलारूढ़ियों और आज के कतिपय वादों-‘क्यूबिज्म’, ‘सुर्रियलिज्म’ आदि से उन्हें नफरत थी। उनके मत में भारतीय कला विश्व की कला से विशेष भिन्न नहीं रही, हां उसके विकास की परिस्थितियां और वातावरण भिन्न अवश्य रहा। कला सदैव से एक व्यापक संस्कृति की संदेशवाहिका और उसके स्तर एवं स्थितियों की सूचक रही है। उनकी कृतियां समय से ऊपर उठकर अमर कला का प्रतिनिधित्व कर सकी हैं।
देवी प्रसाद रायचैधरी ‘बंगाल स्कूल’ की कला-प्रेरणाओं और प्रभावों को मद्रास तक ले गये थे। रायचैधरी की कलात्मक प्रतिभा की कुंजी उनके उद्दाम व्यक्तित्व में निहित है। उनमें एक ऐसी आत्मव्यंजक कचोट है जो सीधे मर्म पर कशाघात करती है। वे मूर्तिकार भी हैं और चित्रकार भी दोनों में पृथक् ढंग से अपनी विशृंखल भावनाओं को ढाला है। कहते हैं ‘‘रायचैधरी की उंगलियों के समक्ष मिट्टी झुक जाती है। वे उसका निर्माण नहीं करते,झपट्टा मारकर उसे निखारते हैं। मानो उनके मस्तिष्क की उथल-पुथल, संत्रस्त चेतना और अंतर की सारी कठिनता उसमें विश्राम पा जाती है।’’
अपनी तरुणवस्था में उन्होंने बुजुग्र कलाकारों की तकनीक को अपनाया, पर किसी एक ही प्रवृत्ति को स्वीकार करना अथवा कूप-मंडूक बने रहना इन्हें रुचिकर न हुआ। रायचैधरी की मूर्ति-कला पर रौदा और बोरदेले का प्रभाव पड़ा है। किंतु मैलोल और इप्सटाइन की भांति उनकी कला ‘आधुनिक’ नहीं हो सकी। रायचैधरी को प्रकृति से लगाव था, पर उसका कृत्रिम चित्रण कर वह उस विमस्यकारी आनंदोपभोग का साधन नहीं बनाना चाहते थे। इसके विपरीत मानवीय सौंदर्य के संदर्भ में रखकर उसकी समस्त आंतरिक शक्ति को प्रकाशित कर वह सरल किंतु भव्य रूपरेखा में उसे बांधना चाहते थे। ‘लेपचा कुमार’ के अतिरिक्त ‘नेपाली लड़की’, ‘भोटिया औरत’ और ‘तिब्बत की बालिका’ ने भी उन्हें आकर्षित किया है। रायचैधरी आकृति-चित्रों में सर्वाधिक सफल हुए हैं। इनके महत्वपूर्ण पोट्रेट-चित्रों में ‘रवींद्रनाथ ठाकुर’ जो रूपहले-सुनहले रंगों में रूपायित हुआ, ‘अवनीन्द्रनाथ ठाकुर’, ‘ओ.सी. गांगुली’, ‘मिण् पर्सी ब्राउन’, ‘मिसेज ब्लैकवेल’ तथा कुछ अन्य आकृति-चित्रों में रंगों की समृद्ध सुसज्जा है।
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