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Dr. bhimrao ambedkar in hindi | डॉ भीमराव आंबेडकर जयंती अम्बेडकर जयंती पर निबंध जीवनी डॉ. बी. आर. अम्बेडकर

डॉ भीमराव आंबेडकर जयंती अम्बेडकर जयंती पर निबंध जीवनी डॉ. बी. आर. अम्बेडकर Dr. bhimrao ambedkar in hindi ? भाषण इतिहास लिखिए ? इन हिंदी |

डॉ. बी. आर. अम्बेडकर
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
भारत में ब्रिटिश राज के प्रति अम्बेडकर का दृष्टिकोण
प्रजातंत्र पर अम्बेडकर के विचार
अर्थ: सामाजिक और आर्थिक प्रजातंत्र
लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक तत्व
राज्य समाजवाद पर अम्बेडकर के विचार
समाजवाद के प्रति प्रतिबद्धता
राज्य समाजवाद का अर्थ
सरकार की भूमिका
अम्बेडकर और भारतीय संविधान का प्रारूप निर्माण
सामाजिक परिवर्तन पर अम्बेडकर के विचार
सुधारों को प्रमुखता/वरीयता
जाति-व्यवस्था पर प्रहार
जाति और अस्पृश्यता का उद्भव
अस्पृश्यता का उन्मूलन
अस्पृश्यों में आत्म-सम्मान
शिक्षा
आर्थिक प्रगति
राजनीति सदढ़ता
धर्म परिवर्तन
मूल्यांकन
अस्पृश्यों में राजनीतिक चेतना जागृति
स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व
सारांश
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
यह इकाई डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर के विचारों पर प्रकाश डालती है। इसका उद्देश्य है किः
ऽ डॉ. अम्बेडकर के राजनीतिक विचारों से आपको परिचित कराया जाए, और
ऽ जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए उनके द्वारा किये गये संघर्ष के वैचारिक आधार की रूपरेखा प्रस्तुत की जाए।
इस इकाई के अध्ययन के बाद आप डॉ. अम्बेडकर के सामाजिक और राजनीतिक विचारों की सराहना कर सकने में सक्षम होंगे।

प्रस्तावना
भीमराव रावजी अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महार जाति में हुआ था। महार जाति भी अस्पृश्य जातियों में से एक थी। इसलिए इसने अम्बेडकर की उच्च शिक्षा प्राप्ति में अनेक बाधाएं खड़ी कर दी। फिर भी बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड द्वारा दी गई एक छात्रवृत्ति की सहायता से अम्बेडकर ने अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अध्ययन किया और बाद में कठिन परिश्रम से लन्दन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में अध्ययन की व्यवस्था की।

इंग्लैंड में उन्होंने डाक्टरेट की उपाधि पाई और बेरिस्टर (वकील) भी बन गए। भारत लौटने पर उन्होंने स्वयं को अस्पृश्य समुदाय के उत्थान के प्रति समर्पित कर दिया। शीघ्र ही उन्होंने अस्पृश्यों का विश्वास जीत लिया और उनके शीर्ष नेता बन गए। डॉ. अम्बेडकर ने अपने समर्थकों को संगठित करने और उन्हें जागरूक बनाने के लिए कई संस्थाएं भी बनाई, जैसे, बहिष्कृत हितकारी सभा, स्वतंत्र मजदूर दल और बाद में अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ। उन्होंने मंदिर प्रवेश के लिए कई बार सत्याग्रह किया, अस्पृश्यों को संगठित किया, कई शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना की और ‘‘मकनायक’’, ‘‘बहिष्कृत भारत‘‘ व ‘‘जनता’’ जैसे अखबारों के माध्यम से अपने विचारों का प्रचार-प्रसार किया। अस्पृश्यों के हितों के संरक्षण के लिए उन्होंने लन्दन में गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया। वे संविधान निर्माण के लिए बनी प्रारूप समिति के अध्यक्ष बने और भारतीय संविधान के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। 1951 तक वे भारत के विधि मंत्री भी रहे। 1935 से ही अम्बेडकर हिंदूवाद के परित्याग के लिए विचार करते रहे। अंततः 1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया और अपने समर्थकों से भी बौद्ध धर्म स्वीकार करने की अपील की। उन्होंने महसूस किया कि हिंदू रहते हुए अस्पृश्यता का उन्मूलन और अस्पृश्यों का आध्यात्मिक उत्थान संभव नहीं होगा। इसलिए उन्होंने बुद्धवाद को अंगीकार कर लिया।

अम्बेडकर एक राजनेता और समाज सुधारक ही नहीं थे बल्कि वे एक विद्वान और विचारक भी थे। उन्होंने विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर व्यापक पैमाने पर लिखा। जाति ‘विध्वंस/विनाश‘, ‘शूद्र‘ कौन थे, ‘अस्पृश्य‘, ‘बुद्ध और उनका धर्म‘ उनकी अधिक महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं। इनके अलावा भी उन्होंने, अपने मत के प्रतिपादन के लिए अन्य कई पुस्तकें और बुकलेट (लघु पुस्तकें) प्रकाशित की। उनका चिंतन समानता और स्वतंत्रता के लक्ष्य की गढ़ आस्था पर आधारित था। उदारवाद और जोन डिवी के दर्शन ने भी उनके विचारों को प्रभावित किया। ज्योतिराव फुले और बुद्ध ने अम्बेडकर के समाज, धर्म और नैतिकता संबंधी विचारों पर गहरा प्रभाव डाला। उनके राजनीतिक विचार उनके कानूनी दृष्टिकोण से भी प्रभावित थे। इस प्रकार अम्बेडकर के स्वयं के अनुभव, उनकी बुद्धिमता और समाज के पद दलित अस्पृश्य समुदाय के लिए समानता लाने की समस्या आदि उनके चिंतन और लेखनी के आधार थे।

भारत में अंग्रेजी राज के प्रति अम्बेडकर का दष्टिकोण
अम्बेडकर विदेश नीति की दुर्बलताओं के प्रति भी जागरूक थे। ब्रिटिश सरकार ने भारत में कुछ प्रतिनिधि संस्थाएं भी स्थापित की लेकिन पूर्ण स्वराज्य का कोई विकल्प नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त, अंग्रेजी राज के दौरान अम्बेडकर ने सदैव सरकार द्वारा अस्पृश्यों की स्थिति न सुधरने की शिकायतें की। अंग्रेजी शासकों की अस्पृश्यों की स्थिति सुधारने में कोई रुचि नहीं थी। सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में उनकी नीति सदैव सावधानी पूर्ण रही क्योंकि सुधारों से उच्च जाति के लोग नाराज होते और इससे उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ एकजट होने का अवसर मिलता था। इसलिए, अंग्रेजों ने द्रुत सुधारों को प्रोत्साहित नहीं किया। शिक्षा के क्षेत्र में भी अम्बेडकर ने महसूस किया कि सरकार अस्पृश्यों में शिक्षा के प्रसार के प्रति सजग नहीं थी। सभी शैक्षिक सुविधाओं का उपयोग उच्च जाति के लोग करते थे। वैसे भी उच्च जाति के लोगों के हितों और अस्पृश्यों में विरोध था। अम्बेडकर चाहते थे कि ब्रिटिश सरकार अस्पृश्यों की ओर से इस विरोध में मध्यस्थ की भूमिका अदा करे। लेकिन सरकार का रुख यह उत्तरदायित्व उठाने के प्रति उपेक्षित ही रहा। सरकार की इस उपेक्षित नीति के कारण अंग्रेजी राज के दौरान अस्पृश्य समुदाय कोई लाभ नहीं उठा सका। अम्बेडकर ब्रिटिश प्रशासन से भी बहुत अधिक प्रसन्न नहीं थे। प्रशासन की फिजूलखर्ची प्रकृति और जन कल्याण के प्रति प्रशासन की आम उपेक्षा उनकी नाराजगी और आलोचना के प्रमुख कारण थे।

लेकिन वे जानते थे कि अंग्रेजों के जाने के पश्चात् उच्च जातियों का राजनीतिक प्रभुत्व कायम हो जाएगा। इसलिए अस्पृश्य समुदाय के अधिकारों और सुरक्षा उपायों को शामिल करते हुए एक राजनीतिक समझौता अवश्य होना चाहिए। इसके अभाव में अस्पृश्यों के लिए स्वतंत्रता अर्थहीन होगी। संक्षेप में अम्बेडकर ने अस्पृश्यों के उत्थान में ब्रिटिश सरकार की विफलता की आलोचना की। इसी कारण उन्होंने स्वाशासन का समर्थन किया। लेकिन उनका आग्रह था कि स्वतंत्र भारत की सत्ता संरचना में अस्पृश्यों को समुचित हिस्सेदारी अवश्य मिलनी चाहिए। अन्यथा स्वतंत्रता का अर्थ उच्च जातियों के शासन से अधिक कुछ नहीं होगा।

बोधप्रश्न 1
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर के लिए नीचे दिये गये रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
2) इकाई के अंत में दिये उत्तर से अपन उत्तर की जांच करें।
1), भारत में ब्रिटिश राज के प्रति अम्बेडकर के दृष्टिकोण पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।

प्रजातंत्र पर अम्बेडकर के विचार
अन्य राष्ट्रीय नेताओं की भांति अम्बेडकर की भी लोकतंत्र में पूर्ण आस्था थी। तानाशाही में परिणाम तुरन्त प्राप्त हो सकते हैं, अनुशासन बनाए रखने में यह प्रभावी हो सकती है लेकिन फिर भी स्थायी सरकार के रूप में यह किसी को भी पसन्द नहीं हो सकती। लोकतंत्र का स्थान ऊंचा है क्योंकि यह स्वतंत्रता को बढ़ावा देता है। लोकतंत्र के विभिन्न रूपों में से अम्बेडकर की पसन्द संसदीय प्रकार का लोकतंत्र था। इस मामले में वे अन्य कई राष्ट्रीय नेताओं जैसे ही विचार रखते थे।
अर्थ: सामाजिक और आर्थिक प्रजातंत्र
अम्बेडकर लोकतंत्र को ऐसा साधन मानते थे जिसमें परिवर्तन शांतिपूर्वक लाए जा सकते हैं। लोकतंत्र का मतलब केवल बहुमत के शासन या जन प्रतिनिधियों की सरकार से ही नहीं होता है। यह लोकतंत्र की औपचारिक और सीमित अवधारणा है। यदि हमें लोकतंत्र के अर्थ को बेहतर रूप में समझना है तो हमें इसे समाज में सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में तीन परिवर्तन लाने के एक तरीके के रूप में समझना चाहिए। लोकतंत्र के प्रति अम्बेडकर का विचार इसके एक सरकार होने से अधिक था। वे चारों तरफ लोकतंत्र लाने की आवश्यकता पर बल देते थे। सरकार का अस्तित्व निर्वात में नहीं हो सकता, यह भी तो समाज में ही कार्य करती है। इसकी उपयोगिता समाज के अन्य क्षेत्रों में इसके संबंधों पर निर्भर करती है। चुनाव, राजनीतिक दल और संसद आदि आखिरकार तो लोकतंत्र की औपचारिक संस्थाएं ही हैं। ये भी अलोकतांत्रिक परिवेश में सक्रिय नहीं रह सकते। राजनीतिक लोकतंत्र का अर्थ ‘एक व्यक्ति एक मत‘ के सिद्धांत से है जिसका संकेत राजनीतिक समानता की ओर है। लेकिन यदि दमन और अन्याय का अस्तित्व होगा तो राजनीतिक लोकतंत्र की आत्मा को ढूँढ़ पाना कठिन होगा। इसलिए लोकतांत्रिक सरकार को लोकतांत्रिक समाज का ही विस्तार होना चाहिए। उदाहरण के लिए, भारतीय समाज में जातिगत बाधाएं और जाति आधारित विषमताएं-जब तक विद्यमान रहेगी तब तक वास्तविक लोकतंत्र कार्य नहीं कर सकेगा। इस अर्थ में लोकतंत्र का तात्पर्य भातृत्व और समानता की भावना से है, मात्र राजनीतिक बंदोबस्त से नहीं। इसलिए भारत में लोकतंत्र की सफलता के लिए एक सच्चे प्रजातांत्रिक समाज की स्थापना सुनिश्चित की जानी जरूरी है।

लोकतंत्र के सामाजिक आधारों के साथ ही अम्बेडकर ने इसके आर्थिक पहलू पर भी विचार किया। यह सही है कि वे उदारवादी विचारों से काफी प्रभावित रहे। उन्होंने उदारवाद की सीमाओं की सराहना की। जिस संसदीय लोकतंत्र में उनकी गहरी आस्था की, उसका भी उन्होंने आलोचनात्मक मूल्यांकन किया। उनका तर्क था कि संसदीय लोकतंत्र उदारवाद पर आधारित है। इसमें आर्थिक असमानताओं की उपेक्षा की जाती है और इसमें समाज के पद दलितों की समस्याओं पर अपना ध्यान कभी भी केंद्रित नहीं किया। इसके अतिरिक्त पाश्चात्य प्रकार के संसदीय लोकतंत्र में सामाजिक और आर्थिक समानता से संबधित पहुलओं की प्रायः उपेक्षा करने की प्रवृति होती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि संसदीय लोकतंत्र का आग्रह केवल स्वतंत्रता पर रहता है जबकि सच्चे लोकतंत्र में स्वतंत्रता और समानता दोनों निहित है। यह विश्लेषण भारतीय संदर्भ में विशेष प्रासंगिक हो जाता है। भारतीय समाज अंग्रेजों से स्वतंत्रता की मांग कर रहा था। लेकिन अम्बेडकर को भय था कि केवल राष्ट्र की स्वतंत्रता से सभी लोगों की वास्तविक स्वतंत्रता निश्चित नहीं होगी। सामाजिक और आर्थिक असमानताओं ने भारतीय समाज का अमानवीयकरण कर दिया है। ऐसे समाज में लोकतंत्र की स्थापना एक क्रांति से कम नहीं होगी। यह क्रांति सामाजिक संरचना और लोगों के दृष्टिकोण में होगी। वंशानुगत असमानताओं के स्थान पर भ्रातत्व और समानता के सिद्धांतों की स्थापना की जानी चाहिए। इसलिए अम्बेडकर ने बहुआयामी/ सर्वव्यापी लोकतंत्र का अनुसमर्थन किया।

लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक तत्व
यह तो हम पहले ही देख चुके हैं कि अम्बेडकर ने सरकार के संसदीय स्वरूप का पक्ष पोषण किया। सरकार के इस प्रकार के सफलतापूर्वक कार्य करने के लिए जरूरी है कि कुछ अन्य परिस्थितियाँ विद्यमान हों। सबसे पहले तो संसदीय लोकतंत्र के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए राजनीतिक दलों का होना आवश्यक है। इससे विपक्ष का अस्तित्व सुनिश्चित होगा, जो कि बहुत महत्वपूर्ण है। संसदीय सरकार को उत्तरदायी सररकार के रूप में माना जाता है क्योंकि इसमें कार्यपालिका पर विपक्ष की लगातार कड़ी और नियंत्रित दृष्टि रहती है। विपक्ष के औपचारिक स्तर और सम्मान का तात्पर्य है कार्यपालिका की निरपेक्ष शक्तियों का अभाव। तटस्थ और गैर-राजनीतिक सिविल सेवा इसकी दूसरी शर्त है। तटस्थ सिविल सेवा से तात्पर्य यह है कि प्रशासक स्थायी हो और वे राजनीतिक दलों के भाग्य से जड़े नहीं रहे तथा उन्हें राजनीतिक दलों का पक्ष नहीं लेना चाहिए। यह उसी स्थिति में संभव है जबकि सिविल सेवकों की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर न की जाए। लोकतंत्र की सफलता बहुत से नैतिक और इथिकल कारणों पर भी निर्भर करती है लेकिन यह नियमों का एक संग्रह मात्र होता है। इसलिए जब लोग सविधान के साथ-साथ रीति-रिवाज/अभिसमय और परपराएं विकसित कर लेते हैं तभी ये नियम अर्थपूर्ण बनते हैं। जनता और राजनीतिज्ञों को अपने सार्वजनिक जीवन में कतिपय मानकों/मूल्यों के अनुकरण करना चाहिए कि इसी के अनुरूप समाज में नैतिकता और जागरुकता का भाव भी होना चाहिए। कानून और विधिक उपचार स्वैच्छिक, उत्तरदायित्व के भाव का स्थान कभी नहीं ले सकते। कानून की चाहे कितनी भी मात्रा क्यों न हो, वह नैतिकता आरोपित नहीं कर सकता। ईमानदार और उत्तरदायी व्यवहार के मानक’ समाज में ही विकसित होने चाहिए। लोकतंत्र की सफलता उसी स्थिति में हो सकती है जब प्रत्येक नागरिक अन्याय के खिलाफ लड़ना अपना कर्तव्य समझे चाहे वह अन्याय उनका व्यक्तिगत न हो। यह तभी हो सकता है जब समाज में समानता और भ्रातृत्व विद्यमान हो।

भारत में लोकतंत्र की सफलता के लिए अम्बेडकर ने कतिपय अन्य सावधानियों का उल्लेख. किया। लोकतंत्र का तात्पर्य बहुमत का शासन है। लेकिन यह बद्मत के अत्याचार में परिवर्तित नहीं हो जाना चाहिए। बहुमत को अल्पमत के विचारों का सदैव आदर करना चाहिए। भारत में यह संभव है कि अल्पसंख्यक समुदाय राजनीतिक रूप से भी अल्पसंख्यक समुदाय हो। इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि अल्पसंख्यक स्वयं को स्वतंत्र और सुरक्षित समझें, अन्यथा लोकतंत्र को अल्पसंख्यकों के खिलाफ एक स्थायी शासन में बदलना बहुत आसान हो जाएगा। जाति-व्यवस्था लोकतंत्र की सफलतापूर्वकं क्रियान्विति में सबसे कठिन बाधा बन सकती है। जो जातियाँ निम्न स्तर पर होती हैं वे सत्ता में उचित हिस्सेदारी से वंचित हो जाएगी। स्वस्थ्य लोकतांत्रिक परंपराओं के सृजन में जात्ति बाधा खड़ी करेगी। इसका मतलब यह हुआ कि जब तक हम सामाजिक क्षेत्र में लोकतंत्र स्थापना का लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लेंगे तब तक मात्र राजनीतिक लोकतंत्र जीवित नहीं रहता।

बोध प्रश्न 2.
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर के लिए नीचे दिये गये रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
2) इकाई के अंत में दिये उत्तर से अपने उत्तर की जांच करें।
1) लोकतंत्र पर अम्बेडकर के विचारों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

राज्य समाजवाद पर अम्बेडकर के विचार
इस पर विचार करने के बाद आप महसूस करेंगे कि अम्बेडकर अवधारणाओं पर मात्र बौद्धिक समझ पकड़ वाले एक विद्वान ही नहीं ये कि वे लोकतांत्रिक कार्यकलापों के मार्ग में आने वाली व्यवहारिक सामाजिक कठिनाइयों के प्रति भी जागरूक थे। इसीलिए उन्होंने बल देकर कहा कि मात्र स्वतंत्रता एक पर्याप्त/समुचित लक्ष्य नहीं हो सकता। स्वतंत्रता, समानता के साथ ही सार्थक हो सकती है। हमें एक ऐसी लोकतांत्रिक सरकार चाहिए जो समानता के विचार को भी सम्मख रखे। उदारवादी लोकतंत्र और संसदीय प्रकार की सरकार का पश्चिमी विचार समानता सुनिश्चित नहीं करता। इसलिए अम्बेडकर समाजवाद की ओर अभिमुख हुए।

समाजवाद के प्रति प्रतिबद्धता
उन दिनों समाजवाद के दो प्रकारों का प्रभुत्व था। इनमें से एक मार्क्सवादी समाजवाद था। अम्बेडकर ने, मार्क्सवाद के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया और कुछ माक्र्सवादी सिद्धांतों का पक्ष लिया। उन्होंने इतिहास के भौतिक विचारों को आत्मसात किया और समानता की प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता से सहमत हुए। उन्होंने सम्पत्ति के सार्वजनिक स्वामित्व के विचार को भी स्वीकार किया। फिर भी वे मार्क्सवादी नहीं बने। दूसरे प्रकार का महत्वपूर्ण समाजवाद था-लोकतांत्रिक समाजवाद। लोकतंत्र में अम्बेडकर की अटूट आस्था ने उन्हें इस विचारधारा की ओर आकर्षित किया। उन्होंने महसूस किया कि समाजवाद को लोकतांत्रिक संरचना/ढाँचे में कार्य करना चाहिए। लोकतंत्र और समाजवाद को एक-दूसरे का विरोधी नहीं होना चाहिए। इसलिए 1947 में अम्बेडकर ने ‘राज्य समाजवाद‘ के विचार का प्रतिपादन किया। इससे पहले भी जब 1937 में उन्होंने ‘इनडिपेन्डेन्ट लेबर पार्टी की स्थापना की थी तब भी उन्होंने एक व्यापक समाजवादी कार्यक्रम को स्वीकार किया था। इस दल के नाम में ही यह संकेत मिलता है कि यह सभी दलित वर्गों का दल हो सकता था। महत्वपूर्ण उद्योगों का राज्य द्वारा प्रबंध और एक न्यायोचित आर्थिक व्यवस्था की स्थापना इसके कार्यक्रमों में शामिल थे। यह दल कृषिगत और औद्योगिक श्रमिकों के लिए जीने का न्यूनतम स्तर सुनिश्चित करना चाहता था।

राज्य समाजवाद का अर्थ
1947 में अम्बेडकर ने सुझाव दिया था कि भारतीय संविधान में राज्य समाजवाद के सिद्धांतों को समाहित किया जाए। राज्य समाजवाद का तात्पर्य है कि राज्य औद्योगिक और कृषिगत क्षेत्रों को नियंत्रित करते हुए समाजवादी कार्यक्रम लागू करने के दो प्रमुख पहलू हैं-
अ) मूल उद्योग और आधारभूत उद्योग राज्य के स्वामित्व में होने चाहिए। इस प्रकार का कोई उद्योग निजी स्वामित्व में नहीं होना चाहिए। इससे एक तो औद्योगीकरण के लक्ष्य को तीव्रता से प्राप्त करने में सहायता मिलेगी और दूसरे इसके साथ-साथ औद्योगिकीकरण के लाभ राज्यं द्वारा समाज के सभी लोगों और वर्गों में वितरित किये जाएंगे। बीमा भी सम्पूर्ण रूप से राज्य के स्वामित्व में होगा।
ब) कृषि को राज्योद्योग के रूप में होना/समझा जाना चाहिए। इसका मतलब राज्य द्वारा सामूहिक खेती की पहल करने से है। कृषिगत उत्पादों में से कुछ हिस्सा किसानों को इस्तेमाल करने दिया जाएगा और राज्य भी लेवी के रूप में कुछ हिस्सा प्राप्त करेगा। लेवी के रूप में प्राप्त खाद्यानों का वितरण राज्य द्वारा उचित मूल्य पर किया जाएगा। अन्य शब्दों में, राज्य कृषि और उद्योग दोनों क्षेत्रों को सक्रिय रूप से नियंत्रित करेगा।

यह प्रक्रिया ज्यायोचित/साम्य वितरण को सुनिश्चित करेगी और जरूरतमंद और गरीबों की रक्षा करेगी। तीव्र औद्योगिक प्रगति और समाज के सभी वर्गों में कल्याण की जिम्मेवारी राज्य की होगी। फिर भी संसद जैसी लोकतांत्रिक संस्थाएं भी क्रियाशील रहेंगी।

संसदीय लोकतंत्र में एक ही दल स्थायी रूप से सत्ता में नहीं रह सकता। भिन्न-भिन्न दल भिन्न-भिन्न कार्यक्रमों के साथ सत्ता में आ सकते हैं। इसलिए अम्बेडकर का सुझाव था कि राज्य समाजवाद का कार्यक्रम संविधान के एक अपरिवर्तनशील भाग के रूप में बना दिया जाए ताकि जो भी दल सत्ता में आए वह उस पर अमल अवश्य करें। राज्य समाजवाद का वह विचार प्रदर्शित करता है कि अम्बेडकर गरीबी और आर्थिक असमानता की समस्याओं के प्रति सजग थे। उन्होंने औद्योगिकीकरण पर भी विशेष जोर दिया। उनका मानना था कि भारत को तीव्र औद्योगिक संवृद्धि की आवश्यकता है। इसमें कृषि पर से भार कम हो जाएगा। लेकिन मात्र सम्पदा के आधार पर उदारवाद के विचार से बचा जाना चाहिए।

सरकार की भूमिका
यह तभी संभव है जबकि उद्योग के क्षेत्र में राज्य एक प्रमुख भागीदार के रूप में कार्य करे। अम्बेडकर का मानना था कि सरकार तटस्थ निकाय के रूप में समस्य समुदाय के हित में कार्य करें। इसीलिए उन्होंने सरकार की भूमिका को अत्यधिक महत्व दिया। उनके अनुसार सरकार को एक कल्याणकारी अंभिकरण के रूप में कार्य करना होता है। यह तीव्र प्रगति और प्रगति के फलों का वितरण न्यायोचित आधार पर सुनिश्चित करती है। सरकार की भूमिका केवल उद्योग तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए। इससे बैंकिंग और बीमा के क्षेत्र में भी सक्रिय रहने की उम्मीद की जानी है। यहां तक कि सरकार को कृषि पर भी नियंत्रण रखना चाहिए। प्रमुख उद्योगों के स्वामित्व और कृषि के नियंत्रण द्वारा सरकार आर्थिक अन्याय को समाप्त करेगी। दूसरे शब्दों में, क्रांतिकारी परिवर्तन सरकार के प्रयनों द्वारा ही लाए जा सकते हैं।
बोध प्रश्न 3.
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर के लिए नीचे दिये गये खाली स्थान का प्रयोग करें।
2) इकाई के अंत में दिये उत्तरों से अपने उत्तर का मिलान करें।
1) अम्बेडकर की राज्य समाजवाद की अवधारणा पर प्रकाश डालिए।

अम्बेडकर और भारतीय संविधान का प्रारूप निर्माण
1947 में अम्बेडकर भारतीय संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष बन गये। इसमें उनका योगदान अविस्मरणीय बन गया। अम्बेडकर की कानूनी विशेषज्ञता और विभिन्न देशों के संवैधानिक कानूनों के बारे में उनकी जानकारी भारतीय संविधान के निर्माण में बहुत ही सहायक रही। लोकतांत्रिक संविधान के प्रति उनकी गहरी आस्था और संवैधानिक । नैतिकता के प्रति अनेक लगाव ने भी इस प्रक्रिया में सहायता की। इस भाव से उन्हें ‘भारतीय संविधान के निर्माता‘ का सम्मान उचित ही दिया जाता है। भारतीय संविधान में बहत से विस्तृत प्रशासनिक विवरण हैं (लोक सेवा आयोग, महान्यायवादी, निरीक्षक एवं महालेखा परीक्षक से संबंधित प्रावधान) इन्होंने संविधान को एक बहुत बड़ा दस्तावेज बना दिया लेकिन ऐसे विवरणों को शामिल करने का अम्बेडकर ने पक्ष लिया। उनकी दलील थी कि: हमने एकं रूढिवादी समाज में लोकतांत्रिक राजनीतिक संरचना सृजित की है। यदि ये विस्तृत शामिल नहीं किए जाते तो भविष्य में बेईमान शासक द्वारा संविधान का उल्लंघन किये बिना संविधान का दुरुपयोग किया जा सकता है। इसलिए ऐसे में औपचारिक रूप से तो संविधान संचालित रह सकता है लेकिन इसका वास्तविक ध्येय पराजित/पृष्ठभूमिगत हो सकता है।

इससे बचने के लिए जरूरी है कि सभी आवश्यक विस्तृत विवरण संविधान में लिख दिया जाये ताकि भावी शासक भी इनसे बंध जाए। ऐसे समाज में जहां लोकतांत्रिक परंपराएं कमजोर हों तो वहां ऐसे सुरक्षा उपाय आवश्यक बन जाते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अम्बेडकर पक्के निष्ठावादी संविधानविद् थे। वे मानते थे कि सरकार संवैधानिक हो और संविधान आधारभूत तथा पवित्र दस्तावेज के रूप में समझा जाए। संवैधानिक राजनीति में गैर संसदीय गतिविधियों के लिए कोई स्थान नहीं होता। उन्होंने संवैधानिक मानकों और संविधान के साथ सार्वजनिक व्यवहार के विकास को भी पर्याप्त महत्व दिया।
भारतीय संविधान के निर्माण के क्षेत्र में डॉ. अम्बेडकर का सबसे महत्वपूर्ण योगदान मूल अधिकार, शक्तिशाली केन्द्र सरकार और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के क्षेत्र में देखा जा सकता है। एक उदारवादी के अनुरूप डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि मूल अधिकार संविधान के सबसे महत्वपूर्ण भाग का निर्माण करते हैं। लेकिन इन अधिकारों की सूची बनाना ही पर्याप्त नहीं है। मूल अधिकारों की संवैधानिक सुरक्षा की गारन्टी ही इन्हें वास्तव में मौलिक बनाती है। अम्बेडकर को संविधान के 32वें अनुच्छेद पर बड़ा नाज था जिसमें मूल अधिकारों के न्यायिक संरक्षण की गारन्टी दी गई है इन्हें वास्तव में मौलिक बनाती है। ऐसे सुरक्षात्मक उपाय ही अधिकारों को वास्तविक और सार्थक बनाते हैं। संविधान सभा में इस बात पर आम सहमति थी कि भारत को एक सशक्त केन्द्रीय सरकार की आवश्यकता है। अम्बेडकर का भी यही विचार था। लेकिन सशक्त केंद्रीय सरकार के बारे में उनके द्वारा प्रमुख कारण अन्य लोगों से कुछ भिन्न था। वे यह तो भली-भांति जानते थे कि भारत जाति बाध्यता वाला समाज है जिसमें निम्न जातियों को सदैव उच्च जातियों से अन्यायपूर्ण व्यवहार मिला है। उन्हें भय था कि जातिवाद स्थानीय और प्रान्तीय स्तर पर और अधिक शक्तिशाली होगा। इन स्तरों पर सरकार भी आसानी से जातिवाद के दबाव में होगी और यह निम्न जातियों की उच्च जातियों के दमन से रक्षा कर पाने में विफल होगी। राष्ट्रीय सरकार ऐसे दबावों से अपेक्षाकृत कम प्रभावित होगी। इसका रुख स्थानीय सरकार के बजाय अधिक उदार होगा। इसलिए केवल सशक्त केंद्रीय सरकार ही निम्न जातियो की कुछ सुरक्षा सुनिश्चित करेगी। यह एक प्रमुख कारण था जिसकी वजह से अम्बेडकर ने सशक्त केन्द्रीय सरकार की वकालत की। वे जानते थे कि भारत में अल्पसंख्यक समदाय बहत ही दीन-हीन स्थिति में था और भारत में यह एक आम प्रवृत्ति रही है कि धर्मगत या जातिगत बहुसंख्या वाले लोगों का ही राजनीतिक प्रभुत्व होता है। इस प्रकार अल्पसंख्यक जाति के हिसाब से भी और राजनीति के हिसाब से भी अल्पसंख्या में होंगे। यह उन्हें राजनीतिक के साथ-साथ सामाजिक रूप से भी निरुत्साहित कर देगी। ऐसी परिस्थिति में एक मत एक व्यक्ति के सिद्धांत वाला । लोकतांत्रिक शासन पर्याप्त/प्रभावी नहीं होगा। भारत में हम अल्पसंख्यकों को सत्ता में एक हिस्सा देने की कुछ गारन्टी चाहते हैं। अल्पसंख्यक समुदाय को अपने प्रतिनिधियों के निर्वाचन का अवसर मिलना चाहिए और इन प्रतिनिधियों के विचारों को पूर्ण सम्मान दिया जाना चाहिए। अम्बेडकर ने अल्पसंख्यकों के लिए कई सुरक्षा उपायों का प्रयास किया। कार्यपालिका में निश्चित प्रतिनिधित्व भी इसमें शामिल है, अल्पसंख्यकों को व्यवस्थापिका में राजनीतिक आरक्षण देने और अनुच्छेद 338 के तहत अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए एक विशेष अधिकारी (आयुक्त) की नियुक्ति का प्रावधान कराने में तो वे सफल भी हो गये थे। उन्होंने कुछ और प्रावधान किए जाने का भी प्रयास किया था लेकिन संविधान सभा में बहुसंख्यक समुदाय की अनिच्छा के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए। यहां डॉ. अम्बेडकर के विचारों की महत्ता इस बात में है कि उन्होंने बताया कि लोकतंत्र का मतलब केवल बहम के शासन से ही नहीं है और लोकतंत्र को सार्थक बनाने के लिए जातीय या सांप्रदायिक अल्पसंख्यकों की पूर्ण सुरक्षा की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। अन्य शब्दों में वे बहुमतवादी प्रवृत्ति के खिलाफ थे।

बोध प्रश्न 4
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर के लिए नीचे दिये गये खाली स्थान का प्रयोग करें।
2) इकाई के अंत में दिये उत्तर से अपने उत्तर का मिलान करें।
1) देश के संविधान निर्माण में अम्बेडकर ने क्या भूमिका अदा की?

सामाजिक परिवर्तन पर अम्बेडकर के विचार
अम्बेडकर ने अस्पृश्यता के उन्मूलन और अस्पृश्यों की भौतिक प्रगति के लिए अथक प्रयास किये। वे 1924 से जीवन पर्यन्त अस्पृश्यों का आंदोलन चलाते रहे। उनका दृढ़ विश्वास था कि अस्पृश्यता के उन्मूलन के बिना देश की प्रगति नहीं हो सकती। अम्बेडकर का मानना था कि अस्पृश्यता का उन्मूलन जाति-व्यवस्था की समाप्ति के साथ जुड़ा हुआ है और जाति-व्यवस्था धार्मिक अवधारणा से संबद्ध है। इसलिए जाति-व्यवस्था के विश्लेषण के अपने प्रयासों के तहत उन्होंने हिंदू धर्म दर्शन का परीक्षण किया और इसकी आलोचना की। उन्होंने शक्तिशाली हिंदू कट्टरपंथियों के विरोध की परवाह न करते हुए इसे निर्भयता के साथ किया।

सामाजिक सुधारों को प्रमुखता/वरीयता
समाज सुधार सदैव डॉ. अम्बेडकर की प्रथम वरीयता रहे थे। उनका विश्वास था कि आर्थिक और राजनीतिक मामले सामाजिक न्याय के लक्ष्य की प्राप्ति के बाद ही निपटाये जाने चाहिए। यदि राजनीतिक प्रताड़ना/शोषण के मामलों को वरीयता दी गई तो इसका मतलब होगा-सत्ता का विदेशी शासकों से उच्च जाति हिंदुओं को स्थानान्तरण, जो भी निम्न वर्गों से विदेशी शासकों जितनी ही दूरी पर है। इसलिए अस्पृश्यों के प्रति अन्याय अभी भी जारी रहेगा। ठीक इसी प्रकार अम्बेडकर का विचार था कि यह सोचना कि आर्थिक विकास सभी सामाजिक समस्याओं का समाधान कर देगा, आधारविहीन है। जातिवादी हिंदुओं की मानसिक दासता की अभिव्यक्ति है। इस प्रकार जातिवाद के पिशाच/बुराई के निवारण के बिना कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। हमारे समाज में क्रांतिकारी बदलाव के लिए सामाजिक सुधार पूर्वशर्त है।

सामाजिक सुधारों में परिवार व्यवस्था में सुधार और धार्मिक सुधार भी शामिल है। परिवार सुधारों में बाल-विवाह जैसी कुप्रथाओं की समाप्ति शामिल है। यह इसलिए जरूरी है क्योंकि महिलाओं का उत्थान इसमें निहित/सम्मिलित है उदाहरण के लिए विवाह और तलाक कानूनों में सुधारों से महिलाएं लाभान्वित होगी क्योंकि वे भी अस्पृश्यों की तरह प्रताड़ित है। अम्बेडकर ने भारतीय समाज में महिलाओं की गिरती स्थिति की कट/सशक्त आलोचना की। उनका मानना था कि महिलाएं पुरुषों के समकक्ष स्तर की अधिकारिणी हैं और उन्हें भी शिक्षा का अधिकार होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि हिंदू धर्म ने महिलाओं को सम्पत्ति में अधिकार से वंचित रखा है। हिंदू कोड बिल जो उन्होंने ही तैयार करवाया था, में उन्होंने यह ध्यान रखा कि महिलाओं को भी सम्पत्ति में एक हिस्सा मिलना चाहिए। उन्होंने अस्पृश्यों को संगठित करते समय अस्पृश्य समुदाय की महिलाओं का आगे आने के लिए सदैव आह्वान किया कि वे राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों में भाग लें।

जाति-व्यवस्था पर प्रहार
अम्बेडकर का मुख्य संघर्ष जाति-व्यवस्था से था। जाति ने हिंदू समाज को स्थैतिक अपरिवर्तनशील बना दिया है। जाति-व्यवस्था के कारण ही हिंदू समाज बाहर के लोगों को अपने में समायोजित कर सकने में अक्षम है। इस विसंगति के कारण एकीकरण की स्थायी समस्या उत्पन्न हो गई है। आंतरिक रूप से भी हिंदू समाज सजातीय समाज के आनन्द की संतुष्टि में भी विफल रहा है। यह विभिन्न जातियों का एक समूह/ढे़र संपिडन है, जाति राष्ट्रीय भावना के विकास में एक प्रमुख बाधा है। प्रमुख्यतया जाति व्यवस्था का प्रहार निम्न जातियों पर अन्याय के रूप में होता है। इसमें निम्न जातियों की प्रगति की स्वीकृति नहीं होती है। निम्न जातियों को मानहानि के अलावा कुछ नहीं मिलता। इसके परिणामस्वरूप निम्न जातियों का नैतिक अधरूपतन और नैतिक पतन हो गया है। अन्याय की मार विशेष रूप स लगातार अस्पृश्यों पर पड़ती है। उन्हें शिक्षा, अच्छे जीवनयापन और मानवीय गरिमा से वंचित कर दिया जाता है। इस प्रकार जाति-व्यवस्था ने उन्हें सम्पूर्णतया अमानवीकृत कर दिया है। केवल एक मानव द्वारा दूसरे मानव को छूने मात्र से उसके अशुद्ध हो जाने का विचार जाति-व्यवस्था की निम्नतय स्तर पर व्याप्त असमानता और बर्बरता दर्शाता है। इसलिए अस्पृश्यता के उन्मूलन का संघर्ष मानव अधिकारों और न्याय के संघर्ष में तब्दील हो जाता है।

जाति और अस्पृश्यता का उद्भव
जाति सोपान/जातीय ऊँच-नीच और अस्पृश्यता के रीति-रिवाज धार्मिक ग्रंथों से औचित्य प्राप्त करने हैं। हिंदुओं की यह व्यापक धारणा है कि अस्पृश्य समुदाय से संबद्ध लोग मूलतया अनार्यों के वंशज है और चूंकि उनका उद्भव निम्न स्तर से है तो उनमें क्षमताएं इत्यादि भी नहीं हैं। अम्बेडकर इस प्रकार की भ्रांतियों का प्रतिकार करना चाहते थे और अस्पृश्यों में आत्म-सम्मान सृजित करना चाहते थे। इस उद्देश्य से अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म ग्रंथों और प्राचीन हिंदू समाज का गहन अध्ययन किया। अपनी पुस्तकों-‘शूद्र कौन थे?‘ और ‘अस्पृश्य‘ में उन्होंने अस्पृश्यता से संबंधित कई भ्रांतियों का पर्दाफाश किया। शोध और व्याख्याओं द्वारा उन्होंने अस्पृश्यता के उद्भव को साबित करने के विद्वत प्रयास किये। उनकी दलील थी कि मूलरूप में केवल तीन वर्ण थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्या ‘शूद्र लोग तो क्षत्रिय वर्ण के एक शक्तिशाली कबीले थे। कालान्तर से शूद्रों और ब्राह्मणों के बीच संघर्ष के परिणामस्वरूप शूद्रों का क्षत्रिय स्तर से अवनति/अवमूल्यन कर दिया गया। क्योंकि ब्राह्मणों में उनको अपनयन, बलिदान और साम्राज्य के अधिकारों से इंकार कर दिया। इस प्रकार शूद्र अन्य तीन वर्षों से नीचे चतुर्थ वर्ण बन गा। इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर ने दर्शाया कि कैसे ब्राह्मणों की धार्मिक और आध्यात्मिक शक्ति के परिणामस्वरूप शूद्रों का पतन हुआ। यह प्राचीन समाज में ब्राह्मण वर्णको चहमखी सवोच्चता की ओर इंगित करता है। काफी हद तक अस्पृश्यता इस ब्राह्मणवादी सर्वोच्चता की देन है। ब्राह्मणवाद और बौद्धवाद के बीच संघर्ष के परिणामस्वरूप अस्पृश्यता अस्तित्व में आई।

अम्बेडकर ने अस्पृश्यों के मूलरूप में अनार्य होने की बात से इंकार किया। उन्होंने दलील दी कि वास्तव में भारतीय समाज विभिन्न वंशों का सम्मिश्रण है। इस प्रकार अस्पृश्यों के कुछ हीन होने या पराजित वंश होने का विचार अतर्कसंगत था। उन्होंने इसका एक समाज शास्त्रीय उत्तर दिया। मूलरूप में यहां काफी संख्या में विस्थापित/घुमक्कड़ कबीले थे। इनका अन्य घुमन्तु कबीलों से संघर्ष हुआ। ये घुमन्तु कबीले पराजित हो गये और उनके सदस्य तितर-बितर हो गये। ये छिन्न भिन्न लोग अन्यत्र विभिन्न स्थायी रूप से बसे हुए कबीलों से जुड़ गये। हालांकि उनका स्तर बसे हुए कबीलों के अधीनस्थों जैसा हो गया। इस प्रकार घुमक्कड़ स्थायी बाहरी लोगों के रूप में हो गये। और बाहरी लोगों के बीच इनके बाद धर्म और मांस के सेवन के प्रश्न को लेकर संघर्ष का अगला दौर शुरू हुआ। अम्बेडकर का तर्क था कि बौद्धवाद की चुनौती का सामना करने के लिए ब्राह्मणवाद ने पूर्ण अहिंसा, मांस सेवन का सम्पूर्ण परित्याग और गाय के देवत्व आरोपण को अपनाया। बाहरी लोग, जो बौद्धवाद के अनुयायी थे, परंपरागत रूप से गाय सहित मत पशुओं का मांस खाते थे। चूंकि इन लोगों ने मांस सेवन बंद नहीं किया इसलिए ब्राह्मणों के प्रभाव से बसे हुए कबीलों ने इन बाहरी कबीलों से संपर्क तोड़ लिया या इनका बहिष्कार कर दिया। बाद में धार्मिक ग्रंथों में शामिल करके इस बहिष्कार को औचित्यपूर्ण भी ठहरा दिया गया। इस प्रकार अस्पृश्यता धर्म का स्थायी और पवित्र अंग बन गई।

यद्यपि अम्बेडकर की व्याख्या विवाद योग्य है तथापि कोई भी इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि अस्पृश्यता पहले अस्तित्व में आई और बाद में धर्म का अंग बन गई। इससे अधिक जो बात ज्यादा महत्वपूर्ण है वह यह है कि अम्बेडकर के शोध ने निम्न जातियों और अस्पृश्यों में आत्म-सम्मान पैदा किया। उसने यह बात उनके दिमाग में बैठाई कि उनके अतीत में कुछ भी शर्मनाक नहीं है, कोई भी हीनता नहीं है और उनकी विरासत में कुछ भी गरिमा विहीन नहीं है। उसने उन्हें समझाया कि उनका निम्न स्तर उनकी किसी अयोग्यता का कारण नहीं है बल्कि यह तो ब्राहमणवादी प्रभाव में प्रभावी सामाजिक यांत्रिकता की देन है। उनकी उपरोक्त सभी व्याख्याओं ने सभी लोगों को यह समझाया कि हिंदूवाद के धार्मिक आधारों की छानबीन की जानी आवश्यक है।
बोध प्रश्न
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर के लिए नीचे दिये गये खाली स्थान का प्रयोग करें।
2) इकाई के अंत में दिये उत्तर से अपने उत्तर का मिलान करें। द्य 1) जाति-व्यवस्था पर अम्बेडकर के विचारों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

अस्पश्यता का उन्मलंन
अस्पृश्यता को कैसे समाप्त किया जाए?
अस्पृश्यता संपूर्ण हिंदू समाज की दासता का संकेत है। यदि अस्पृश्य स्वयं को हिंदू जाति के बंधनों में पाते हैं तो स्वयं हिंदू जाति भी धर्म ग्रंथों की दासता में रहती है। इसलिए अस्पृश्यों के उद्धार में स्वतः ही समग्र रूप में हिंदू समाज का उद्धार शामिल है। अम्बेडकर ने चेतावनी दी कि जाति के आधार पर कुछ भी सार्थक सृजित नहीं हो सकता। इसलिए एक जाति विहीन समाज का सृजन किया जाना चाहिए। अन्तर्जातिय विवाह जाति को प्रभावी तरीके से नष्ट कर सकते हैं लेकिन समस्या यह है कि जब तक लोगों के विचारों पर जातिवाद का दबदबा रहेगा तब तक लोग अपनी जाति से बाहर विवाह करने को तैयार नहीं होंगे। अम्बेडकर ने ऐसे उपायों को बलात् तरीके बताया। इसलिए तीव्र परिवर्तन के लिए जरूरी यह है कि लोगों को धर्मग्रंथों की पकड़ और परंपराओं से मुक्त कराया जाए। प्रत्येक हिंदू शास्त्रों और वेदों का दास है। उन्होंने कहा कि लोगों को यह बताया जाना जरूरी है कि ये ग्रंथ गलत हैं इसलिए अमान्य होने चाहिए। जाति का उन्मूलन इन धर्मग्रंथों की महिमा के समाप्त किये जाने पर आश्रित/आधारित है। जब तक धर्मग्रंथ हिंदुओं पर प्रभत्वशाली रहेंगे तब तक वे अपनी अंतत्मिा के अनुसार कार्य करने को स्वतंत्र नहीं होंगे। वंशानुगत पदसोपान में अन्यायपूर्ण सिद्धांतों के स्थान पर हमें समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व के सिद्धांतों की स्थापना करनी चाहिए। ये किसी भी धर्म का आधारशिला हो सकते है।

अस्पृश्यों में आत्म-सम्मान
अम्बेडकर जानते थे कि ये सब हिंदूवाद के सम्पूर्ण परिवर्तन के द्वारा संभव है जिसमें लंबा समय लगेगा। इसलिए आधारभूत परिवर्तन के इस सुझाव के साथ ही उनका अन्य तरीकों से अस्पृश्यों के उत्थान पर भी आग्रह बराबर बना रहा। परंपराओं के प्रभाव में अस्पृश्य उच्च जातियों के प्रभुत्व के सम्मुख पूर्ण समर्पण कर चुके थे। उन्होंने लड़ने और प्रयास करने की स्वयं की सम्पूर्ण भावना भी खो दी। अन्तर्निहित अशुद्धि/प्रदूषण के भ्रम ने भी अस्पृश्यों के दिमाग को निर्धारणीय रूप से प्रभावित किया। इसलिए उनके आत्म-सम्मान को जागृत करना आवश्यक था। अस्पृश्यों को चाहिए कि वे स्वयं को हिंदू जाति के समकक्ष समझे। उन्हें अपने बंधनों को फेंक डालना चाहिए।

शिक्षा
अम्बेडकर का विश्वास था कि शिक्षा अस्पृश्यों के सुधार में महत्वपूर्ण योगदान देंगी। उन्होंने अपने अनुयायियों को सदैव ज्ञान के क्षेत्र में उच्चता तक पहुँचाने के लिए प्रेरित किया। ज्ञान स्वतंत्र कराने वाली शक्ति है। शिक्षा व्यक्ति को दैदीम्यमान बनाती है, उसे अपने आत्म-सम्मान के प्रति जागरूक बनाती है और उन्हें बेहतर भौतिक जीवन की ओर पहुँचने में सहायता प्रदान करती है। अस्पृश्यों के अधोपतन का एक कारण यह था कि उन्हें शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया। अम्बेडकर ने ब्रिटिश शिक्षा नीति की यह कहकर आलोचना की कि इसने निम्न जातियों में शिक्षा को समुचित रूप में बढ़ावा नहीं दिया। उन्होंने महसूस किया कि अंग्रेजी राज में भी शिक्षा परं उच्च जातियों का एकाधिकार जारी रहा। इसलिए उन्होंने निम्न जातियों और अस्पृश्यों को गतिशील बनाया और सीखने के कई केंद्रों की नींव रखी। गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद में श्रम सदस्य के रूप में भी उन्होंने अस्पृश्य: छात्रों को विदेशों में अध्ययन के लिए छात्रवृत्तियाँ प्रदान करने के लिए कार्य किया। अम्बेडकर अस्पृश्यों को उदार शिक्षा और तकनीकी शिक्षा प्रदान करना चाहते थे। वे धार्मिक सहयोग से शिक्षा दिए जाने के विरोधी थे। उन्होंने चेतावनी दी कि केवल धर्म निरपेक्ष शिक्षा ही छात्रों में स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों की प्रस्थापना कर सकती है।

आर्थिक प्रगति
एक अन्य महत्वपूर्ण उपचार के बारे में भी अम्बेडकर ने कहा कि अस्पृश्य स्वयं को ग्रामीण समुदाय और इसकी आर्थिक जकड़न से मुक्त कर ले। परंपरागत ढाँचे में अस्पश्य कोई विशेष व्यवसाय करने को बाध्य थे। वे अपने जीवनयापन के लिए हिंदू जातियों पर आश्रित थे। अल्प वापसी तक के लिए उन्हें स्वयं को हिंदू जाति के प्रभुत्व के प्रति समर्पित करना पड़ता था। अम्बेडकर उनकी दासता के आर्थिक पहलू के प्रति भी जागरूक थे। इसलिए उनका हमेशा यही आग्रह रहा कि अस्पृश्यों को अपने परंपरागत व्यवसाय बंद कर देने चाहिए। इसके स्थान पर उन्हें नई तकनीक हासिल करनी चाहिए और नये व्यवसाय शुरू करने चाहिए। उन्हें रोजगार दिलाने में शिक्षा भी सहायक होगी। ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आश्रित रहने का कोई बिंदु ही नहीं रह गया था। बढ़ते हुए औद्योगिकीकरण के परिणामस्वरूप शहरों में रोजगार के बृहत्तर/व्यापक अवसर विद्यमान थे। इसलिए अस्पृश्यों को यदि जरूरी हो तो गांव भी छोड़ देना चाहिए और नये व्यवसाय या कार्य की तलाश करके स्वयं को उसमें लगा देना चाहिए। एक बार यदि हिंदू जाति पर से उनकी आश्रितता समाप्त हो जाएगी तो वे अस्पृश्य होने के मनोवैज्ञानिक भार को आसानी से फेंक सकेंगे। गांवों का वास्तविक विश्लेषण करते हुए अम्बेडकर ने उन्हें स्थानीयता में निमग्न, ‘उपेक्षा को अड्डे‘
और तच्छ मानसिकता व सांप्रदायिकवादी कहा। इसलिए अस्पृश्यों के लिए पहले ग्रामीण बंधनों से मुक्त होना बेहतर होगा। इसके बावज ‘यदि अस्पृश्यों को गांव में रहना पड़े तो उन्हें अपने परंपरागत कार्य बन्द कर देने चाहिए और आजीविका के नये साधन ढूँढ़ने चाहिए। यह काफी सीमा तक उनका आर्थिक उद्धार सुनिश्चित करेगी।

अम्बेडकर के तर्क का प्रमुख आधार यह था कि दलित वर्ग को अपने आप आत्म-सम्मान पैदा करना चाहिए एवं सहायता की नीति उनके उत्थान की सर्वोत्तम नीति है। कठिन परिश्रम और मानसिक दासता के परित्याग द्वारा वे शेष हिंदू समाज के समकक्ष स्तर प्राप्त कर सकते हैं। वे मानवतावाद, सहानुभूति, परोपकार आदि के आधार पर समाज सुधारों में विश्वास नहीं करते थे। समान स्तर और न्यायोचित व्यवहार अधिकार के मामले हैं, दया के नहीं। इनके । लिए दलितों को प्रयास करना चाहिए और संघर्ष के द्वारा अपने अधिकारों को जीतना चाहिए। अधिकारों की प्राप्ति के लिए कोई छोटा, रास्ता नहीं है।

राजनीतिक सुदृढ़ता
इस दिशा में एक कदम के रूप में अम्बेडकर ने दलित वर्गों की राजनीति में सहभागिता देने को काफी महत्व दिया। उन्होंने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि उपनिवेशवाद के संदर्भ में यह पूरक बात है कि अस्पृश्य स्वयं को राजनीतिक रूप से संगठित करके राजनीतिक अधिकार प्राप्त करें। उन्होंने दावा किया कि राजनीतिक शक्ति प्राप्त करके अस्पृश्य अपने सुरक्षा उपायों की रक्षा करने में सक्षम होंगे और शक्ति में से पर्याप्त हिस्सा ले सकेंगे। इससे वे कुछ नीतियों के लिए व्यवस्थापिका पर दबाव डाल सकेंगे। यह इसलिए भी जरूरी था कि क्योंकि ब्रिटिश शासन के अंतिम दौर में सत्ता हस्तांतरण के प्रश्न पर वार्ताएं पहले ही शुरू हो चुकी थी। अम्बेडकर चाहते थे कि अस्पृश्य अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष करें और शक्ति में पर्याप्त हिस्सा प्राप्त करें। इसलिए उन्होंने अस्पृश्यों के राजनीतिक संगठन बनाये।

धर्म परिवर्तन
अम्बेडकर ने जीवन भर हिंदूवाद के दार्शनिक आधार को सुधारने का प्रयास किया। लेकिन वे जानते थे कि हिंदूवाद अस्पृश्यों के प्रति अपनी धारणा में कोई परिवर्तन नहीं लाएगा। इसलिए उन्होंने हिन्दूवाद के विकल्प की खोज की। तदन्तर काफी सावधानीपूर्वक विचार करने के बाद उन्होंने बौद्धवाद को अपनाया और अपने अनुगामियों से भी ऐसा ही करने को कहा। बौद्धवाद में उनके धर्म परिवर्तन का मतलब था-मानवतावाद पर आधारित धर्म में उनकी आस्था। अम्बेडकर की दलील थी कि बौद्धवाद न्यूनतम वाला धर्म है। इसमें समानता और स्वतंत्रता की भावना का आदर किया जाता है। अन्याय और शोषण का उन्मूलन बौद्धवाद का लक्ष्य था। बौद्धवाद अपनाने के बाद अस्पृश्य अपने लिए एक नई पहचान बना पाने के योग्य होंगे। चूंकि हिंदूवाद ने उन्हें उत्पीड़न के अलावा कुछ भी नहीं दिया है इसलिए हिंदूवाद को त्यागकर अस्पृश्य समुदाय अस्पृश्यता की मनोवृत्ति और बंधन से मुक्ति पा सकेंगे। एक नया भौतिक जीवन पाने के लिए उदार भावना के साथ-साथ एक नया आध्यात्मिक आंधार जरूरी है। बौद्धवाद यह आधार प्रदान करेगा। इस प्रकार अम्बेडकर के अस्पृश्यता उन्मूलन कार्यक्रम में सामाजिक स्तर पर शिक्षा भौतिक स्तर पर आजीविका के नये तरीके, राजनीतिक स्तर पर राजनीतिक संगठन और आध्यात्मिक स्तर पर आत्म अभिव्यक्ति और धर्म परिवर्तन आदि सम्मिलित थे।

बोध प्रश्न
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर के लिए नीचे दिये गये खाली स्थान का प्रयोग कर।
2) इकाई के अंत में दिये उत्तर से अपने उत्तर का मिलान करें।
1) अस्पृश्यता उन्मूलन में अम्बेडकर द्वारा किये गये प्रयत्नों पर प्रकाश डालिए।

मूल्यांकन
19वीं शताब्दी में महाराष्ट्र में व्यापक पैमाने पर सुधार गतिविधियाँ हुई। ब्रिटिश उदारवाद के प्रभाव और ईसाई मिशनरियों द्वारा आलोचना के प्रत्युत्तर में बहुत से प्रबुद्ध जन अपने धार्मिक विचारों को आलोचनात्मक अंदाज से देखने लगे। इससे उन्हें हिंदूवाद की प्रकृति की पुनर्परीक्षा का अवसर मिला। इनमें सवाधिक उग्रवाद ज्योतिराव फुले थे। अम्बेडकर के विचार भी हिंदूवाद के विकल्प की इस उग्र तलाश की ही निरंतरता है। ये एक अन्य प्रकार से भी फुले के विचारों की निरंतरता थे। अम्बेडकर का चिंतन आवश्यक रूप से उदारवाद पर आधारित था। ब्रिटिश शिक्षाविद डिवी और संसदीय व्यवस्था के प्रभाव के साथ-साथ उनके कानूनी प्रशिक्षण ने डॉ. अम्बेडकर का झुकाव। आसक्ति उदारवाद की ओर कर दिया। यद्यपि डॉ. अम्बेडकर उदारवाद की सीमाओं के प्रति जागरूक से वाकिफ थे तथापि उन्होंने उदारवादी होना बंद नहीं किया। लोकतंत्र में उनका विश्वास निर्णय लेने के एक तरीके के रूप में वाद-विवाद/विचार-विमर्श पर आग्रह, कानून और संविधान की योग्यता के प्रति आस्था आदि अनेक उदारवादी होने के प्रमाण हैं।

अस्पृश्यों में राजनीतिक चेतना/जागृति
अम्बेडकर के लेखन और गतिविधियों ने अस्पृश्य समदाय के उत्थान में अभतपर्व योगदान दिया। उन्होंने दलितों में राजनीतिक जागरूकता का भाव सृजित किया। इसके परिणामस्वरूप भारतीय राजनीति में ‘दलित शक्ति‘ उभर कर सामने आई। अम्बेडकर का विश्वास था कि अस्पृश्य का समाज का सबसे अधिक दमित और शोषित तबका है। इसलिए उन्होंने भारतीय समाज के विकास की पूर्वक्षत के रूप में इस वर्ग के विकास का विचार प्रस्तुन किया। अस्पृश्यों में आत्म-रक्षा की भावना मजित करने के लिए उन्हें उनकी अपनी पहचान देनी होगी। अस्पृश्यों की मानसिक स्वतंत्रता के इम लक्ष्य को प्राप्त करने का काम अम्बेडकर द्वारा हिंदूवाद की आलोचना से पूरा हुआ। उन्होंने हिंदुवाद के महत्वपूर्ण आधार लक्षणों-वेद और शास्त्रों का प्राधिकार-को छुआ। उनका तर्क था कि हिंदू धर्म अर्थपूर्ण नियमों और विनियमों का एक संग्रह मात्र है। इसका कोई दार्शनिक आधार नहीं है। उन्होंने यह प्रदर्शित किया कि हिंदूवाद को चतुर्वर्ण और बाह्मणवाद के रूप में जाना जाता है। ब्राह्मणवाद में उनका तात्पर्य न्याय की भावना के अभाव में था।

स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व
अम्बेडकर की राजनीतिक विचारधारा का आधार क्या था? वे स्वतंत्रता, समानता और भ्रातत्व के सिद्धांतों से गहरे रूप में प्रभावित थे। उनकी सभी कतियों में मार्गदर्शक सिद्धांत रहे। उन्होंने इन सिद्धांतों पर आधारित एक नये समाज का स्वप्न देखा। स्वतंत्रता और समानता को साथ-साथ विद्यमान रहना चाहिए सभी लोगों के नैतिक और भौतिक जीवन के गुणों में सुधार सनिश्चित करेंगे। आर्थिक विषमता और सामाजिक अन्याय स्वतंत्रता के विपरीत की अस्वीकृति है। इसलिए जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, सामाजिक लोकतंत्र और आर्थिक न्याय के बिना राजनीतिक लोकतंत्र निस्सार है। लेकिन स्वतंत्रता और समानता की प्राप्ति तभी हो सकती है जबकि समाज के लोगों में एकता की सुदृढ़ भावना हो। सबसे पहले तो लोगों को यह स्वीकार करना होगा कि उनका साझा हित और साझा भविष्य है। जाति और धर्म की बाधाओं से विभाजित समाज में एक वर्ग या जाति के लोग दूसरी जाति या वर्ग के लोगों को संदेह की दृष्टि से देखेंगे। एक समाज की साझा लक्ष्य उसी स्थिति में हो सकता है जबकि समाज के लोग अपने साथियों के सुख-दुख में भागीदार हों। समाज में भ्रातृत्व की यह भावना पैदा होनी चाहिए। इस प्रकार भ्रातृत्व स्वतंत्रता और समानता के लिए एक आवश्यक शर्त बन जाती है। अम्बेडकर ने यह स्पष्ट कर दिया था कि उनकी धारणा के अनुरूप एक आदर्श समाज स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व पर आधारित समाज होगा।

सारांश
अंततः अम्बेडकर के विचारों की प्रासंगिकता क्या है? वे जीवनभर समसामयिक विषयों पर लगातार अपने विचार रखते रहे। इसलिए पृथक मतदाता या आरक्षण के प्रतिपादन, भाषाई राज्यों पर उनके विचार आदि का एक विशेष संदर्भ थी। हमें अम्बेडकर के विचारों और कार्यक्रम को उन्हीं परिस्थितियों में देखना चाहिए जिनमें इनका उद्भव हुआ। हमने देखा कि अम्बेडकर अन्याय और शोषण से रहित एक समाज की अविलम्ब स्थापना करने के लिए कटिबद्ध थे। इसलिए उन्होंने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि एक आदर्श समाज स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व पर आधारित होगा। इन तीन सिद्धांतों के खिलाफ कौन सी ताकतें सक्रिय हैं? एक तरफ जातिवाद और संप्रदायवाद और दूसरी तरफ आर्थिक शोषण जैसी चीजें भारतीय समाज में असमानता को निरंतर बनाए रखना चाहते हैं। अम्बेडकर के जातीय प्रभत्व और वर्ग शोषण से स्वतंत्र एक समाज के लिए संघर्ष किया। इसलिए जब तक समाज में शोषण के ये दो यंत्र-जाति और वर्ग-विद्यमान रहेंगे तब तक इनके खिलाफ लड़ने के लिए अम्बेडकर के विचारों की प्रासंगिकता बनी रहेगी।

कुछ उपयोगी पुस्तकें
भारित चंद्रा, ‘सोशल एंड पॉलिटिकल आईडियाज ऑफ बी.आर. अम्बेडकर‘, जयपुर, 1977 वीर धनंजय, ‘अम्बेडकर-लाइफ एंड मिशन‘, बंबई, 1961
लोखंडे, जी.एस, ‘बी.आर. अम्बेडकर: ए स्टडी इन सोशल डैमोक्रेसी’, नयी दिल्ली, 1977
जैलियट, इलैनर, ‘द सोशल एंड पॉलिटिकल थॉट ऑफ डॉ. अम्बेडकर‘ पंथम टी. और दौयश कैवेथ एल. (संपा) ‘पॉलिटिकल थॉट इन मॉडर्न इंडिया‘ में नयी दिल्ली, 1986, पृष्ठ
161-175

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