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असमानता और अंतर किसे कहते है ? असमानता अथवा अन्तर की परिभाषा क्या है difference in hindi meaning
difference in hindi meaning असमानता और अंतर किसे कहते है ? असमानता अथवा अन्तर की परिभाषा क्या है ?
असमानता और अंतर
सामाजिक स्तरीकरण के अध्ययनों में यह मानकर चलने की प्रवृति हावी रही है कि स्तरीकरण का मतलब क्रम परंपरा और असमानता है । दीपंकर गुप्ता ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि सामाजिक स्तरों को शुद्ध किताबी अंदाज में धरती के गर्भ में विद्यमान भू-स्तरों की उपमा देना भ्रामक है। गुप्ता के शब्दों में यह इसलिए भ्रामक है क्योंकिः ‘‘अलंकारिक रूप से यह हमें यह विश्वास करने लिए मना सकता है कि स्तरीकरण का अर्थ हमेशा ऐसे स्तरों से होता है जो लंबवत् या क्रम परंमरा में व्यवस्थित रहते हैं स्तरीकरण को सही ढंग से समझने के लिए हमें इसे. क्रम-परंपरा से अलग करके देखना होगा क्योंकि कम परंपरा स्तरीकरण के अनेक रूपों में उसका सिर्फ एक रूप है।‘‘
गुप्ता का तर्क है कि स्तरीकरण की सभी पद्धतियां क्रम परंपरात्मक नहीं हैं। कुछ पद्धतियाँ क्रम-परंपरात्मक हैं तो कई नहीं हैं। वह कहते हैः कुछ स्तरणकारी पद्धतियों में क्रम परंपरा के बजाए अंतर या भेद अधिक प्रभावी होते हैं। दूसरे शब्दों में इन अंतरों के संघटनात्मक तत्व कुछ इस तरह के हैं कि अगर उन्हें हम क्रम परंपरात्मक रूप से देखने का प्रयास करते हैं तो वह इन तत्वों को तार्किक गुणधर्म को हानि पहुंचाता है। यहां स्तर लंबवत् या क्रम-परंपरात्मक रूप से व्यवस्थित नहीं होते, बल्कि वे समस्तर पर या कभी अलग अलग भी व्यवस्थित होते हैं।‘‘
स्तरीकरण के इस स्वरूप में अंतर सर्वोपरि है, जिसे स्पष्ट करने के लिए गुप्ता लिखते हैंः
इस तरह के विन्यास को भाषा, धर्म या राष्ट्रीयताओं की स्थिति में आसानी से स्पष्ट किया जा सकता है। अगर भाषाओं या धर्मों या राष्ट्रीयताओं का क्रम परंपराकरण करने का प्रयत्न किया जाता है तो वह निरर्थक और निस्संदेह सनकीपन ही होगा। इस किस्म के स्तरीकरण को स्पष्ट करने के लिए भारत एक सही उदाहरण है। भारत में जो अलग-अलग भाषाएं बोली जाती हैं वे सामाजिक स्तरीकरण की समस्तरीय पद्धति का बड़ा गुणगान करती हैं। जिसमें भेद सर्वोपरि हैं। इसके अलावा धर्म निरपेक्ष भारत हमें धार्मिक स्तरीकरण का उदाहरण भी देता है जिसमें धर्मों को क्रम परंपराबद्व नहीं किया गया है या कानून में असमान अधिकार नहीं दिया गया है, बल्कि सभी को अलग-अलग रहने की स्वतंत्रता है। इसमें अपने नैसर्गिक अंतर या भेदों का पूरा बोध रहता है।
यहां यह बात कही जा रही है कि भाषायी, धार्मिक, संजातीया या सामाजिक लिंग के भेदों को क्रम परंपराबद्व करने का कोई तर्कसंगत कारण नहीं है। बल्कि, जैसा कि स्वयं गुप्ता स्वीकार करते हैं, “अधिकांश लोगों की जर में धर्म, भाषा, लिंग, राष्ट्रीयता ये सभी क्रम परंपराबद्व हैं हालांकि उनसे यह स्पष्ट कथन प्राप्त हो पाना बड़ा कठिन होता है कि किन प्रतिमानों के आधार पर इन क्रम परंपराओं की रचना हुई है। असल में एक समाजशास्त्री के लिए यह प्रश्न पूछने योग्य हैः इसका क्या कारण है कि लोगों में समस्तरीय विभेदों को क्रम परंपरा में बांटने की प्रवृत्ति होती है जिनका तार्किक गुणधर्म समानता है?‘‘
क्रम परंपरा और अंतर
तार्किक विशिष्टताओं के महत्व के बावजूद भेद या अंतर क्रम पंरमरात्मक ही होते हैं। संजातीय अल्पसंख्यक और स्त्रियों दोनों को भारी वैमनष्य, पूर्वाग्रह और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। पूर्वाग्रह मुख्यतः रूढ़िवादी दृष्टिकोण के प्रयोग से काम करता है। दरअसल, जिन श्रेणियों के जरिए हम अपने अनुभव को वर्गों में बांटते हैं। वे हमारे चिंतन का ही हिस्सा होती हैं। मगर कभी-कभी ये श्रेणियां गलत सोच और सूचना पर आधारित और कठोर होती हैं। जहां रूढिरूप (स्टीरियोटाइप) भय और आशंका से जुड़ी हों, उसमें स्थिति बड़ी कठिन हो जाती है। एक गोरे आदमी को सभी काले लोग आलसी और मूर्ख लग सकते हैं। इसी तरह एक पुरुष सभी महिलाओं को निपट मूर्ख और उन्मादी मान सकता है। सवर्ण हिन्दु को यह महसूस हो सकता है कि अल्पसंख्यकों को खुश किया जा रहा है। समाजशास्त्रियों ने इस तरह का ‘बली को बकरा‘ बनाने की व्याख्या के लिए विस्थापन की अवधारणा का प्रयोग किया है।
रूढ़िप्ररूपण (स्टीरियोटाइपिंग) अक्सर विस्थापन की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। विस्थापन में वैमनष्य या क्रोध की भावना उन वस्तुओं और व्यक्तियों की ओर मुड़ जाती है जो कि इसका वास्तविक कारण नहीं होते। दूसरे शब्दों में इसका यह मतलब है कि जैसे विकट बेरोजगारी के दौर में संजातीय समूह या महिलाओं पर नौकरियां हथिया लेने का दोष मढ़ दिया जाता है या उन्हें ‘बलि का बकरा‘ बनाया जाता है।
हालांकि चर्चा के विषय पर लौटे तो भेद या अंतर अनिवार्यतः असमान या क्रम परंपरात्मक नहीं होते मगर व्यवहार में सामाजिक लिंग और संजातीयता में क्रम-परंपरा और असमानता दोनों के गुण बताए जाते हैं।
सारांश
अगर आप भारतवासी हैं तो ऐसा संभव नहीं कि आप हमारे समाज में संपदा और सत्ताधिकार, हैसियत और विशेषाधिकारों में विद्यमान भेदों से अपरिचित, अनजान हों। भेद हमें चारों ओर दिखाई पड़ते हैं। इसलिए इसमें कोई अचरज नहीं कि भारत में समाजशास्त्र का मुख्य सरोकार स्तरीकरण के मुद्दे रहे हैं। भारत को सभी ज्ञात समाजों में सबसे अधिक स्तरित माना जाता है। समाजशास्त्रियों के अनुसार इसका मुख्य कारण संभवतः वर्ण व्यवस्था है जिसमें आधिपत्य और अधीनता के कई रूप देखने में आते हैं। नृविज्ञानियों और समाजशास्त्रियों ने विभिन्न जातियों और जनजातियों का गहराई से अध्ययन किया है तो वहीं नीतिकनयामको और समाजशास्त्री सांस्कृतिक विविधता और आर्थिक असमानता के मुद्दों में उलझे रहे हैं, जो सामाजिक स्तरीकरण के मुख्य मुद्दे हैं। जैसा कि समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता कहते हैंः “हमारे संविधान में यह पूरी तरह से प्रतिबिंबित होता है जो जाति, भाषा, धर्म या मत के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को गैरकानूनी ठहराता है। इससे स्पष्ट होता है कि स्वतंत्र भारत के संस्थापकों ने हमारे समाज में विद्यमान सामाजिक स्तरीकरण की मुख्य विशेषताओं पर गइराई से मंथन किया था।”
संविधान में लिंग के आधार पर भेदभाव को भी स्पष्टतया गैरकानूनी ठहराया गया है। मगर सामाजिक स्तरीकरण के अध्ययन में प्रयुक्त होने वाले सिद्धांतों में सामाजिक-लिंग को अनदेखा कर दिया। एक तरह से यह जन-संवाद का हिस्सा कभी नहीं बना। लेकिन पिछले बीस वर्षों में इसमें भारी बदलाव आया है। नारीवादियों ने वर्ग और जाति, घर और परिवार से जुड़े सिद्धांतों की गहराई से जांच-पड़ताल की है और यह प्रमाणित किया है कि ये अवधारणाएं किस तरह से सामाजिक-लिग निरपेक्ष सिद्धांत पर काम करती आ रही हैं। संविधान ने जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव को भी गलत ठहराया है। पिछले दो दशकों से जातीय समूह भी अपने हितों की जोरदार हिमायत करने लगे हैं और इस प्रकार संविधान में जो वादे किए गए हैं वे उनका भरपूर लाभ उठा रहे हैं। समाजशास्त्रियों ने इस वास्तविकता को जान लिया है कि जातीय पहचान के दावों का घनिष्ठ संबंध भौतिक और अभौतिक संसाधनों तक उनकी असमान पहुंच से है इसलिए यह असमानता और स्तरीकरण की उपज है।
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