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दिल्ली दरबार कब लगा था , delhi darbar history in hindi

delhi darbar history in hindi दिल्ली दरबार कब लगा था ?

प्रश्न : दिल्ली दरबार
ब्रिटिश क्राउन जार्ज पंचम व उनकी रानी मेरी ने 1911 में भारत की यात्रा की। जार्ज पंचम भारत आने वाला पहला ब्रिटिश क्राउन था। (जयपुर के महाराजा माधोसिंह द्वितीय इनके राज्याभिषेक पर लंदन गये थे)। भारत आगमन पर उनके स्वागत हेतु लार्ड हार्डिंग ने दिल्ली में एक दरबार का आयोजन किया। इस दरबार में सम्राट ने दो महत्वपूर्ण घोषनाएं हुई –
1. बंगाल विभाजन रद्द करने की घोषणा की (12 दिसम्बर, 1911)
2. कलकत्ता की जगह दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित किया गया।
भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित की गई (1 अप्रैल, 1912), बंगाल विभाजन के रद्द होने के बाद उड़ीसा और बिहार को बंगाल से अलग कर दिया गया। असम को पुनः 1874 की स्थिति में लाया गया, अब असम में सिलहट भी शामिल था।

प्रश्न: ब्रिटिश काल में दक्ष निष्क्रिय नीति क्या थी ? इसका त्याग क्यों कर दिया गया?
उत्तर: प्रथम अफगान युद्ध का अनुभव अंग्रेजों के लिए बड़ा कटु रहा था। 1863 में अफगानिस्तान का अमीर दोस्त मुहम्मद मर गया। उसकी मृत्यु के तुरन्त बाद उसके 16 पुत्रों में गृह युद्ध आरंभ हो गया। सभी प्रतिद्वंद्वी अंग्रेजों की सहायता के इच्छुक थे, किन्तु लॉर्ड लॉरेंस ने कुशल
अकर्मण्यता का अनुसरण करते हुए संघर्षशील भाईयों को सहायता देने से इंकार कर दिया। 1868 में शेरअली ने जब अपनी सत्ता सुदृढ
कर ली, तो लॉरेंस ने उसे धन, शस्त्र भेजे। लॉर्ड लॉरेंस इससे अधिक हस्तक्षेप करने को तैयार नहीं था। इसी नीति को श्दक्ष निष्क्रियता
की नीतिश् कहा जाता है।
लॉर्ड मेयो (1868-1872) तथा लॉर्ड नॉर्थब्रुक (1872-1876) ने इस नीति में परिवर्तन नहीं किया, 1876 में लॉर्ड लिटन के वायसराय बनने पर अफगानिस्तान के प्रति नीति में परिवर्तन आया। वह बेंजामिन डिजरेली (1874-80) की रूढ़िवादी सरकार का मनोनीत व्यक्ति था। डिजरैली अफगानिस्तान के समस्त संबंधों को अनिश्चित स्थिति में नहीं रखना चाहता था। लिटन को भारत में आदेश देकर भेजा गया था कि वह अफगानिस्तान के अमीर के साथ एक अधिक कारगर, निश्चित और व्यावहारिक संधि करे। ऐसी ही परिस्थितियों में दक्ष निष्क्रयता की नीति त्याग दी गयी।

प्रश्न: 1857 का विद्रोह एक सैनिक विद्रोह मात्र था ? क्या आप इस मत से सहमत है ? विवेचना कीजिए।
उत्तर: सरजॉन लारेंस और सीले के अनुसार यह केवल श्सैनिक विद्रोहश् था तथा अन्य कुछ नहीं। यह विद्रोह (1857) एक पूर्णतया देशभक्ति रहित
और स्वार्थी सैनिक विद्रोह था जिसमें न कोई स्थानीय नेतृत्व था और न ही इसे सर्वसाधारण का समर्थन प्राप्त था। यह एक संस्थापित सरकार के विरुद्ध भारतीय सिपाहियों का विद्रोह था। ब्रिटिश सरकार ने संस्थापित सरकार होने के कारण इस विद्रोह का दमन किया और कानून व्यवस्था को पुनः स्थापित किया।ह
इसे सिपाही विद्रोह मानने के पीछे विद्रोह के तात्कालिक कारण कारतूस वाली घटना को आधार बनाया गया है।
. लेकिन इसमें सेना के अतिरिक्त अन्य वर्गों की भी भागीदारी थी। इसलिए इस विद्रोह को केवल सैन्य विद्रोह कहना उचित न होगा।
1. निःसन्देह यह विद्रोह एक सैनिक विद्रोह के रूप में आरम्भ हुआ किन्तु सभी स्थानों पर यह सेना तक सीमित नहीं रहा।
2. सभी सैनिक रेजीमेण्टों ने विद्रोह नहीं किया। तथा सेना का अधिकांश भाग विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश शासन की ओर से लड़ रहा था।
3. विद्रोही जनता के लगभग सभी वर्गों से आये।
4. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के कुछ भागों में तथा पश्चिम बिहार में सैनिक विप्लव के पश्चात सर्वसाधारण का विद्रोह हुआ। जिसमें असैनिक वर्ग, शासक, भूमिपति, मुजारे व अन्य तत्व भी सम्मिलित थे।
5. राजस्थान व महाराष्ट्र में अधिकांश जनता ने विद्रोहियों का साथ दिया। और कहीं-कहीं अलवर, दौसा, भरतपुर में गुर्जरों ने खुलकर विद्रोह किया।
6. 1858-59 के अभियोगों में सहस्त्रों असैनिक भी सैनिकों के साथ-साथ विद्रोह के दोषी पाये गये तथा उन्हें दण्ड दिया गया। यदि विद्रोह केवल सैनिकों ने ही किया तो असैनिकों को दण्ड क्यों दिया गया।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि यह विद्रोह श्सिपाही विद्रोहश् मात्र नहीं था। हालांकि विद्रोह की शुरुआत सिपाहियों ने की थी। लेकिन विद्रोह के विस्तार के दौरान अन्य वर्गों की भी सक्रिय भूमिका दिखाई देती हैं।

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